ऑंच – 32 : परसंगीता स्वरूप जी की कविता 'चक्रव्यूह'हरीश प्रकाश गुप्त |
जीवन के दो पक्ष हैं। एक उज्जवल पक्ष है जो मन की प्रसन्नता, खुशी, सफलता और रंजित अभिव्क्ति को अभिव्यक्त करता है तो दूसरा स्याह पक्ष दिनानुदिन की कठिनाइयों, समस्याओं, जटिलताओं और असफलताओं का परास है जो दुख, कष्ट, असन्तोष और वेदना जैसे मनोभावों में अभिव्यक्त होता है। व्यक्ति का सम्पूर्ण जीवन इन्हीं विभावों के स्पर्श के साथ आगे बढ़ते रहने की अनुभव कथा बन जाता है। समस्याएं कठिनाइयां और जटिलताएं जीवन की नियति है तो इस नियति पर विजय पाना हमारा धर्म है। इसी जीवन दर्शन पर आधारित है संगीता स्वरूप जी की कविता 'चक्रव्यूह'। (लिंक है) कविता 'चक्रव्यूह' सुन्दर भावभूमि पर रची गई है और यह ऑंच के इस अंक का प्रतिपाद्य है। कविता में चक्रव्यूह जीवन की उक्त नियति अर्थात् जटिलताओं समस्याओं कठिनाइयों और असफलताओं का समुच्चय है जो लहरों का उद्वेग और ज्वार भाटे के रूप में अभिव्यक्त है। ये जटिलताएं कभी-कभी इतनी दुष्कर और क्रूर बन जाती है कि उन पर विजय पाना आसान नहीं होता और कभी-कभी यह विजय पथ अनेकानेक आशाओं और अपेक्षाओं के दमन और मान मर्दन का भी पर्याय बन जाता है। कविता में जीवन का दूसरा पक्ष असीम संतुष्टि का भाव ‘शांत समुद्र की लहरों के उच्छवास’से अभिव्यक्त होता है। उच्छवास द्वारा तन-मन भिगोना जीवन में तृप्ति, आनन्द, प्रसन्नता और प्रफुल्लता का परिचायक है। ’सागर’ जीवन का विस्तार है तो ‘किनारे बैठकर’ जीवन का असंलिप्त व निरपेक्ष भाव से अवलोकन है। कवयित्री ने अपने इस अवलोकन व विश्लेषण को सहज अथवा आसान न मानते हुए गीली रेत कह कठिन परिस्थिति में सन्तोष की आर्द्रता के रूप में व्यंजित किया है। ‘चक्रव्यूह को भेदना’ उसी नियति को भेदने में सफल होने के अर्थ को करती व्यंजित है और इस प्रकार कविता आदर्शोन्मुख समापन की ओर अग्रसर होती है तथा भावपूर्व अर्थ का रसास्वादन करा जाती है। जहाँ तक कविता के कलापक्ष का प्रश्न है कविता कवयित्री की शिल्प के प्रति बरती गई असावधानी का भी परिचय देती है। कविता भावों की संश्लिष्ट अभिव्यक्ति है। यदि इसमें एक शब्द भी अनावश्यक प्रयुक्त हो या कविता में बिखराव हो तो यह कविता में दोष की तरह होता है। देखें - ‘चक्रव्यूह बनाती हैं ये तूफानी लहरें न जाने कितने ख्वाबों की आहुति ले जाती हैं।’ यहाँ इन पंक्तियों का कोई विशेष प्रयोजन नहीं है। क्योंकि ये पूर्व पंक्तियों की पुनर्प्रस्तुति मात्र हैं। ध्यान दें- 'चक्रव्यूह बनाती है ये तूफानी लहरें' पूर्व पंक्तियों की पुनर्प्रस्तुति पर ध्यान देकर बचा जा सकता था और कविता को और संश्लिष्ट बनाया जा सकता था। ‘कभी-कभी उन्माद में तन मन भिगो जाती हैं’ इन पंक्तियों में 'उन्माद में' स्वाभाविक-सा प्रयोग है। तन-मन का भीगना आनन्द और उल्लास का प्रतीक है जो कभी-कभी उन्मत्त होकर भी उल्लास भर जाता है। अत: इन सुन्दर पंक्तियों में यह शब्द नवीन अर्थ भरता हैं। ‘सागर किनारे गीली रेत पर बैठ अक्सर मैंने सोचा है’ कविता की इन प्रारम्भिक पंक्तियों में 'सोचा है' भी कुछ इसी तरह का प्रयोग है। इसके स्थान पर ‘देखा है’ अधिक उपयुक्त अर्थ देता है। क्योंकि सोचने का कार्य हम बुद्धि से करते हैं और देखने का कार्य हम ऑंखों से भी करते हैं और मन से (मन की ऑंखों से) भी करते हैं। दोनों में अंतर भौतिक और पराभौतिक अनुभूति का है और इस कविता में प्रधानता बुद्धि तत्व की कम हृदय तत्व की अधिक है। प्रसंगवश यहाँ यह उल्लेख करना भी समीचीन होगा कि कविता स्वानुभूति की अभिव्यक्ति होती है। इस अभिव्यक्ति के प्रभाव को व्यापक बनाने के लिए आवश्यक है कि स्वानुभूति को लोक समाज की अनुभूति के साथ प्रस्तुत किया जाए। अत: इसे निजी सम्बन्धों और प्रसंगों से मुक्त करना जरूरी है। पंक्तियाँ 'गीली रेत पर बैठ/अक्सर मैंने सोचा है' और 'मेरा तन-मन भिगो जाती हैं' में यदि 'मैंने' और 'मेरा' जैसे व्यक्तिनिष्ठ सर्वनाम निकाल दिए जाएं तो ये पंक्तियां लोक अभिव्यक्ति की प्रतीति कराएंगी। कविता आत्माभिव्यक्ति के बजाय जन-मन की अभिव्यक्ति बने इसके लिए इसे व्यक्तिनिष्ठ परिधि से बाहर निकालना बहुत आवश्यक है। **** |
गुरुवार, 26 अगस्त 2010
ऑंच – 32 : संगीता स्वरूप जी की कविता 'चक्रव्यूह'
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अच्छा लगा पढ़कर.
जवाब देंहटाएंअच्छा विश्लेषण ,सुंदर प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंबढिया विश्लेषण किया है !!
जवाब देंहटाएंकविता अर्थपूर्ण व भाव प्रवण है। विश्लेषण भी सुन्दर किया गया है। हाँ, ऐसा लगता है कि तीसरे पैराग्राफ में कुछ छूटा सा है।
जवाब देंहटाएं@ निशान्त,
जवाब देंहटाएंसही कहा आपने। तीसरे पैराग्राफ में एडिट करते समय कुछ पंक्तियाँ छूट गईं है इसीलिए इस पैरा की अंतिम पंक्ति का तारतम्य नहीं बन पा रहा है। कमी पर ध्यान आकर्षित करने के लिए आपका आभारी हूँ तथा कष्ट के लिए सभी पाठकों से क्षमा चाहता हूँ।
कविता की अच्छी समीक्षा है। निशान्त जी द्वारा इंगित विचारों से सहमत हूँ।
जवाब देंहटाएंबढ़िया विवेचन मनोज जी ! संगीता जी की हर कविता हीविश्लेषण लिए होती है!
जवाब देंहटाएंवाह... ! समीक्षा पढी. फिर कविता... फिर से समीक्षा !! नीर-क्षीर विवेचन !!! धन्यवाद !!!!
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंहरीश जी ,
जवाब देंहटाएंअपनी कविता को आज आंच पर चढा देख धन्य हो गयी ...आपकी पारखी नज़रों से मिली समीक्षा बहुत मायने रखती है ...जब यह लिखी थी तो शायद संकुचित दृष्टिकोण ही रहा होगा ..आज इसे समग्र में देख पा रही हूँ ...
इतनी अच्छी समालोचना से स्वयं ही हतप्रभ भी हूँ ...आंच पर किये गए विश्लेषण से आत्मविश्लेषण भी सहज हो गया है ..
आपका बहुत बहुत धन्यवाद और आभार
संगीता जी की कविताओं की तो मैं हमेशा कायल रही हूँ बहुत बार पढ़ी भी हैं .पर उनकी इतनी सशक्त समीक्षा,विश्लेषण पढ़ कर मन आनंदित हो गया है .
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आपका.
और दी ! को समस्त शुभकामनाये.
संगीता स्वरूप जी एक बढ़िया शायरा हैं और जानी मानी साहित्यकारा हैं!
जवाब देंहटाएं--
आपकी समीक्षा बहुत शानदार रही!
बहुत अच्छा और सुंदर.
जवाब देंहटाएंरामराम.
कविता के विभिन्न पक्षों पर विचार करती हुई एक सुंदर व विश्लेषणात्मक समीक्षा के लिए आप बधाई के पात्र हैं।
जवाब देंहटाएंकविता के विभिन्न पक्षों पर विचार करती हुई एक सुंदर व विश्लेषणात्मक समीक्षा के लिए आप बधाई के पात्र हैं।
जवाब देंहटाएंसमुद्र की बल खाती लहरों को पत्थरों से अटखेलियां करते देखना अद्वितीय अनुभव है। इस टकराकट से पैदा छप-छप की ध्वनि ने न जाने कितने ही लोगों को एक नया जीवन दर्शन दिया है। यह आश्चर्यजनक नहीं है कि दुनिया भर के दार्शनिकों का बहुमूल्य समय समुद्र के आसपास बीता है।
जवाब देंहटाएंSamiksha achi lagi.
जवाब देंहटाएंआपने एकदम सटीक वर्णन किया है संगीता जी की कविताओं को लेकर.
जवाब देंहटाएंसंगीताजी की रचनाओं में एक उष्मा है जिससे कम से कम मैं तो आलोकित होते रहा हूं
आपको और संगीताजी दोनों को बधाई
BAHUT SUNDER SAMEEKSHA KI HAI.
जवाब देंहटाएंआप की रचना 27 अगस्त, शुक्रवार के चर्चा मंच के लिए ली जा रही है, कृप्या नीचे दिए लिंक पर आ कर अपने सुझाव देकर हमें प्रोत्साहित करें.
http://charchamanch.blogspot.com
आभार
अनामिका
बहुत ही सुंदर समीक्षा है सुंदर कविता की ।
जवाब देंहटाएंअपने सभी पाठकों को ब्लाग पर आने के लिए और अपनी भावनाओं से अवगत कराने के लिए धन्यवाद। ब्लाग पर इसी तरह स्नेह बनाए रखने का आग्रह है।
जवाब देंहटाएं@ संगीता जी,
जवाब देंहटाएंआपकी भावनाएं मैं समझ सकता हूँ। मैंने आपकी कविता पर केवल अपने विचार दिए हैं। आपने इन्हें सहज भाव से लिया, यह आपकी सहृदयता है। इसके लिए मैं आपका आभारी हूँ। आपकी प्रतिक्रिया से मुझे बहुत प्रसन्नता हुई। मेरे बारे में आप द्वारा कहे गए शब्दों से मैं सहमत नहीं हूँ। कृपया क्षमा करें। अभी मैं इस क्षेत्र में स्वयं को बहुतों से वहुत पीछे पाता हूँ।
एक बार पुनः आभार।
@ अनामिका जी,
जवाब देंहटाएंचर्चामंच पर सम्मान देने के लिए आपका आभारी हूँ।
ati sundar sameeksha, aanad aaya padhkar, shubhkaamnaayen.
जवाब देंहटाएंकिसी रचना का सूक्ष्म विश्लेषण उसके रचयिता के लिए रचनाकार के लिए सम्मान और पुरस्कार की तरह होता है..कविता आत्मसात कर उसके भावों का निचोड़ आलोचनात्मक विश्लेषण प्रस्तुत करने की कलात्मकता बेहद प्रभावी है आदरणीय सर।
जवाब देंहटाएंसंगीता दीदी की रचना और भी सुस्वादु प्रतीत हो रही है आँच में चढ़कर।
सादर प्रणाम।
ऐसी समीक्षा तो हम पढ़कर परीक्षा देने जाते थे,कभी कभी सोचती हूं, कि मेरी खुद की किसी कविता में ऐसा कुछ है क्या ? कि उसकी समीक्षा की जा सके,परंतु आज समझ आया कि शब्द के कितने गहन अर्थ हो सकते हैं,एक खूबसूरत कविता और उसके मनोभाव को समझकर समीक्षा करना बहुत कठिन है, आपके इस सुंदर कार्य हेतु आपको मेरा नमन, सादर शुभकामनाओं सहित जिज्ञासा सिंह ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर सारगर्भित समीक्षा।
जवाब देंहटाएंबेहतर समीक्षा
जवाब देंहटाएंबेहतरीन समीक्षा...
जवाब देंहटाएंसादर नमन
इस तरह की समीक्षा के लिए हमारी रचनाएँ तो बस तरसकर रह जाती हैं !!!
जवाब देंहटाएं‘चक्रव्यूह बनाती हैं
जवाब देंहटाएंये तूफानी लहरें
न जाने कितने ख्वाबों की
आहुति ले जाती हैं।’
क्या बात है ! र्स्चना की सांगोपांग समीक्षा का अद्भुत कौशल | सादर नमन इस अभिनव प्रयास केलिए| प्रिय दीदी आपकी रचना बहुत भावपूर्ण है ही | इस ब्लॉग के नये अंक क्यों नहीं आ रहे ये स्पष्ट नहीं हुआ !सादर