रविवार, 15 अगस्त 2010

राष्ट्रीयता अस्मिता और आजादी की वर्षगाँठ

राष्ट्रीयता अस्मिता और आजादी की वर्षगाँठ
हरीश प्रकाश गुप्त

हम वर्ष प्रतिवर्ष आजादी की एक और वर्षगाँठ मनाते चले जाते है और फूले नहीं समाते हैं। रजत जयंती, स्वर्ण जयंती हम मना ही चुके हैं। आगे भी इसी तरह ‘हीरक जयंती’ और न जाने क्या क्या मनाते रहेंगे। ऐसा करते वक्त, सिवाय इसके कि अंग्रेजों ने इस दिन शासन सत्ता का त्याग कर दिया था, हम अंग्रेजी शासन से आज भी मुक्त न हो पाए – यह स्मरण न कर भौतिकता से लबरेज मानसिकता नैतिक स्वतंत्रता का उपहास करती दिखाई देती है। राष्ट्रवाद, राष्ट्रीयता व राष्ट्रप्रेम जैसे शब्दों को आजकल अनायास ही नहीं सुन रहे हैं बल्कि स्वाधीनता आन्दोलन के समय से सुनते चले आ रहे हैं। हमारे इतिहास ने इन और इन्हीं प्रकार के शब्दों, जिनसे तृणमात्र भी राष्ट्रीयता का अहसास जागृत हो, इस अवधारणा के साथ स्वीकार किया था कि स्वाधीनता के पश्चात ये शब्द सुखद अनुभूति प्रदान करेंगे और अपने वास्तविक रूप-स्वरूप के साथ रागात्मक सम्बन्ध बना लेंगे। सम्पूर्ण स्वाधीनता आन्दोलन में प्रत्येक क्रांतिकारी और आन्देलनकारी के साथ-साथ हर भारतवासी के मन में इन उद्दत भावनाओ की लालसा प्रखर ज्योति की तरह जगमग करती रही। किसी भी आन्दोलनकारी के मानस में स्वतंत्रता के छह दशकों बाद भारत का यह स्वरूप कदापि नहीं आया रहा होगा कि नैतिक और चारित्रिक पतन, निर्लज्ज हठधर्मिता तिरसठ वर्षों बाद अपने उत्कर्ष पर पहुँच जाएंगे। सामाजिक संचेतना का इस कदर ह्रास होगा कि अच्छे खासे समाजशास्त्री तक धोखा खा जाएंगे। धर्म, जाति, भाषा, संस्कृति आदि के समन्वय के व्यूत्पन्न की थाती लिए हमारे कर्णधार आधी-अधूरी स्वतंत्रता का खोखलापन अपने मानसिक दिवालिएपन से उजागर करेंगे।

वास्तव में, उक्त घटित तथ्य कुछ अनहोनी भी नहीं हैं। किन्तु सतही आधार पर आकलन, अनुमान, समीक्षा व परिणाम की कल्पना करने वाले लोगों के समूह, जिनकी तस्वीरें प्रायः परिणामों के वक्त उभरकर आती हैं, ने स्वतंत्रता के लड्डू ऐसे मदहोश होकर खाए कि देश के प्रति गम्भीर सोच व चिन्तन रखने वालों की आवाजें पार्श्व में चलती चली गईं। स्वतंत्रता मिल गई मानो सब कुछ मिल गया और किसी वस्तु की आवश्यकता ही न रही। किन्तु सत्य यह है कि सफलता चाहे कितनी भी कठिनाई, परिश्रम व संघर्ष से प्राप्त हुई हो, उसे बनाए रखना अपेक्षाकृत अधिक दुष्कर होता है। दुर्भाग्य से उथलेपन की सोच के कारण किसी भी दिशा में गम्भीर प्रयास नहीं किए गए। परिणाम स्वरूप चारित्रिक गुणों, नैतिकता, राष्ट्रीयता, स्वाभिमान, गरिमा व अस्मिता का पतन तो होना ही था।

राष्ट्र के पुनर्जन्म के पश्चात व अब तक के देश के कर्णधारों ने उन तमाम शब्दावलियों को परिभाषित करने में शिथिलता बरती व लचरपन दिखाया जिनकी व्याख्या व अवधारणा सुस्पष्ट रूप से प्रारम्भिक दौर में ही प्रतिपादित कर दी जानी चाहिए थी। वास्तव में इन शब्दावलियों की मौलिक व्याख्या वही होती जिसने स्वाधीनता संग्राम के दौरान जन-मन में मंत्र फूँकने का काम किया, जन-जागरण व स्फूर्ति भरने का कार्य किया था। किन्तु दुर्भाग्य से निजी स्वार्थपरता या अज्ञानता के चलते हमारे कर्णधार रास्ते से भटक गए और देशवाशियों को भी भटका दिय़ा।

देशवासियों के साथ उपहास करने की इससे बड़ी बात क्या होगी कि बात-बात पर राष्ट्र और राष्ट्रीयता चिल्लाने वाले लोग राष्ट्र की अवधारणा को सही मायनो में कभी अर्थ प्रदान नहीं कर सके। कहने का तात्पर्य यह भी नहीं कि उन्हें इसका ज्ञान नहीं था, किन्तु राष्ट्रीय पशु, पक्षी, झण्डा, गीत व अन्य ऱाष्ट्रीय प्रतीकों को निर्धारित कर देने मात्र से राष्ट्र की अवधारणा सम्पूर्ण और स्पष्ट नहीं हो जाती। आज के परिप्रेक्ष्य में देखें तो एक प्रांत मात्र में प्रभाव रखने वाली पार्टी राष्ट्रीय हो जाती है तथा एक जिले स्तर का संगठन, जिसका सही-सही पता नगर के ही लोग नहीं जानते होंगे, ऱाष्ट्रीय संगठन हो जाता है। यह राष्ट्रीयता के साथ खिलवाड़ नहीं तो और क्या है। जब राष्ट्रीयता का ये हाल है तो राष्ट्रीय अस्मिता व संस्कृति पर आज हमला होने की जो चर्चाएं हो रही हैं तो इसमें आखिर अनहोनी क्या है। जो पेड़ लगाया जाएगा शाखाएं तो उसी की ही निकलेंगी।

जब भी राष्ट्रीय भावना की वर्तमान स्थिति की बात होती है तब बात वहीं घूम फिर कर आ जाती है कि हम कहाँ से चले थे। अर्थात् स्वतंत्रता के ठीक बाद से, जब हम स्वयं देश के नियंता बने और कमान संभाली। कारण भी वहीँ मूल में विद्यमान हैं। नई-नई आजादी से प्रफुल्लित कर्णधारों ने भौतिक आजादी, तात्पर्य - अंग्रेजों के शासन से मुक्ति के अतिरिक्त कुछ भी रचनात्मक करने की जहमत उठानी आवश्यक नहीं समझी और अंग्रेजों के ही शासन की ही रीति, नीति, विधि, भाषा और संस्कृति को भारतीय चादर उढ़ाकर भारतीयों के समक्ष प्रस्तुत कर दी व अपने आचरण में भी ले आए। स्वतंत्रता के नायकों वाली छवि जनमानस में अंकित होने के कारण देश की जनता ने उनकी इस करतूत को सहज भाव से ले लिया और नेतृत्व ने उन आदर्शों, सिद्धांतों, जिनका उपयोग एक अस्त्र के रूप में किया गया था, को एक-एक कर ठिकाने लगा दिया। परिणामस्वरूप सातवें दशक से ही नैतिक क्षरण के उदाहरण घोटालों के रूप में सामने आने लगे। कारण स्पष्ट था, राष्ट्रीयता मात्र एक नारे के रूप में इस्तेमाल की जाती रही और इसको भावनात्मक संबंधों के साथ विस्तार लेकर न तो समझा गया और न ही समझाया गया। पाश्चात्य संस्कृति के बीच पले-बढ़े प्रमुख कर्णधारों ने राष्ट्र की अवधारणा को और किसी देश के राष्ट्र बनने के लिए आवश्यक कारकों की जरूरत की अनिवार्यता नहीं समझी। यदि समझी भी तो कम से कम भारतीय संस्कृति के अनुरूप बिलकुल नहीं।

‘यूनियन आफ स्टेट्स’ की व्याख्या ने सामान्य रूप से राज्य और राष्ट्र में अंतर कर पाना मुश्किल कर दिया और दुर्भाग्य से यह व्याख्या हमारे संविधान के अनुसार आज तक जारी है। ’स्टेट’ के समानार्थी ‘राज्य’ के भौतिक स्वरूप की कल्पना तो की जा सकती है लेकिन प्राणवायु वाले ‘राष्ट्र’ की परिकल्पना कतई नहीं की जा सकती। प्रतिष्ठा, मान व अस्मिता राष्ट्र की हो सकती है, राज्य की नहीं। जब राष्ट्र की अवधारणा दोषपूर्ण हो तो राष्ट्रीय अस्मिता के साथ छल तो अवश्यम्भावी था और यह छल एक बार नहीं अनेक बार किया गया। स्वाधीनता के बाद भी ‘अंग्रेजी’ भाषा व संस्कृति के गुलाम होकर रह गए नायकों, जिनके शौर्य की गाथाएं पुस्तकों में तथा विचारधारा ........वाद के रूप में धरोहर बन चुकी है, ने स्वतंत्रता के लगभग दो वर्ष के भीतर ही ‘भारतवर्ष’ को ‘इण्डिया’ बना दिया। ‘इण्डिया दैट इज भारत.......’ कहकर भारतीयों को ही समझाया जाने लगा। वे ‘भारत’ को ‘भारत’ लिख सकते थे। किन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया। आखिर भारतीयों को भारत के बारे में ‘दैट इज‘ या ‘दैट वाज’ कहकर समझाने की आवश्यकता क्यों पड़ गई, जबकि आम भारतीय आज भी ‘भारत’ को भारत ही समझता है, ‘इण्डिया’ नहीं। यह समझ अगर किसी विदेशी को दी जा रही होती तो भी गनीमत थी, किन्तु अफसोस, यह शिक्षा संविधान के माध्यम से भारतीयों को ही दी गई। कहा जा सकता है कि ‘भारत’ व ‘इण्डिया’ में अंतर ही क्या है, दोनो ही प्रचलन में रहे हैं, तो यह समझ का फेर है और यही समझ देश और राष्ट्र की समझ में है। समझ की यही विकृति राष्ट्रीयता के साथ बराबर छल करती रही।

राष्ट्रीयता के संदर्भ में हावेल का यह कथन है कि ‘किसी देश या समाज के चरित्र को समझने के लिए इतना देख लेना ही पर्याप्त है कि लोगों का शब्द व भाषा के प्रति क्या व्यवहार है।’ हावेल के कथनानुसार यदि हम अपने देश को समझने का प्रयास करें तो हमें सिफर के सिवाय कुछ हासिल नहीं होगा। वास्तव में राष्ट्रीय अस्मिता के संदर्भ में जितना अन्याय हमने भाषा के साथ किया है उतना किसी अन्य के साथ नहीं।

‘भाषा की पहली शर्त सच्चाई है।’ रूसी आलोचक फेदिन के इस कथन पर तो हम बिलकुल उलटे साबित हुए हैं। वास्तविकता यह है की भाषा के मामले में हमने सदा सच को छुपाया है, झूठ ही बोला है और आज भी बोल रहे हैं। भाषा के बारे सच स्वीकारने का साहस हमारे कर्णधार आज तक नहीं जुटा पाए। बड़ी जद्दोजहद और तमाम आन्दोलनों को झेलते हुए हम दस्तावेजों में एक राजभाषा निश्चित कर पाए हैं। जब भाषा के साथ व्यवहार और सरोकार की बात आती है तो हम अपने गिरेबान में झाँककर देखें, सच्चाई खुद-ब-खुद सामने आ जाएगी। हिन्दीतर भाषी राज्यों में हम अपनी राजभाषा के साथ कितना सरोकार पैदा कर सके हैं, यह हमारी नैतिक और राजनैतिक प्रतिबद्धता को प्रदर्शित करता है। साथ ही यह प्रश्न भी छोड़ता है कि हम राष्ट्र की जुबान (भाषा) के स्थान पर राजभाषा (आफिसियल लैंगुएज) बनाकर ही क्यों रह गए हैं। राष्ट्रभाषा और राज (काज की) भाषा में अंतर क्यों न कर सके हैं हम। क्या राष्ट्रभाषा और राजभाषा में अंतर न कर पाने की बीमारी राष्ट्र और राज्य में अंतर न कर पाने जैसी नहीं है। चलिए, राजभाषा के प्रश्न को ही लें, तो क्या हिन्दी वास्तव में राजभाषा (आफिसियल लैंगुएज) अर्थात् शासन की भाषा के रूप में प्रतिष्ठित है। जबतक कि शासन स्तर पर प्रतिबद्धता का आभाव है, वर्ष में एक बार ‘हिन्दी दिवस’ मनाकर राजभाषा को राष्ट्रीयता के साथ सम्बद्ध करने पर राष्ट्रीय अस्मिता की जग हँसाई ही होती है।

भाषा के मामले में सबसे बड़ी विसंगति यह है कि हमारे संविधान में सभी क्षेत्रीय भाषाओं को ‘नेशनल लैंगुएजेज’ अर्थात शाब्दिक अर्थ में ‘राष्ट्रभाषाएं’ बताया गया है। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि राष्ट्रभाषा और राष्ट्र की भाषाओं में अंतर आज तक नहीं किया गया। कितना हास्यास्पद है कि हमारी राष्ट्रभाषाएं अनेक हैं। व्यवहारिक रूप में राजभाषा (आफिसियल लैंगुएज- सरकारी काम काज की भाषा) आज भी अंग्रेजी ही है। क्योंकि, आँकड़े कुछ भी कहें, बहुतायत कार्य आज भी अंग्रेजी में ही हो रहा है। निजी क्षेत्र से लेकर सार्वजनिक क्षेत्र व सरकारी क्षेत्र तक में कार्य की भाषा और व्यावसायिक शिक्षाओं के माध्यम के रूप में अंग्रेजी आज भी एक अनिवार्य आवश्यकता बनी हुई है व इन्हें विशिष्ट जनों का क्षेत्र बनाए रखने मे सफल है। राजभाषा हिन्दी तो अनुवाद की भाषा के रूप में द्वितीयक भाषा के रूप में प्रयुक्त हो रही है।

बात जब भ्रष्टाचार की की जाएगी या नैतिकता में हुए ह्रास की, सामाजिक भावना में पड़ी दरार की या आपसी भाईचारे में पनपे द्वेष की, राष्ट्रीय भावना में आई कमी की या राष्ट्रीय अस्मिता के साथ विश्वासघात की, हमें अपने कर्णघारों पर विश्वास करने का कोई कारण नजर नहीं आएगा। राष्ट्रीयता के साथ अपनाए गए दोहरे मापदण्डों ने जिस प्रकार, स्वतंत्रता पूर्व, मुख्यघारा से एकात्म होने के स्थान पर द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत की नींव को मजबूती प्रदान की, परिणति स्वतंत्रता के पश्चात बँटवारे के रूप में हमे भुगतनी पड़ी। इसके बजाय कि हम कुछ सबक लेते और एक राष्ट्रीय धारा तय करते राष्ट्रीय अस्मिता के साथ फिर वही ढुलमुल नीतियाँ अपनाए रखी गईं। एक नहीं तमाम बार विभिन्न स्थानो पर राष्ट्रगीत ‘वन्देमातरम’ को स्वीकार न करने का स्वर मुखर होकर उभरा, धमकियाँ तक दी गईं। निसन्देह इससे राष्ट्र की अस्मिता को ठेस पहुँची लेकिन सहिष्णुता की ओट लेकर निर्लज्जता के साथ, हर बार पृथक संस्कृतियों के पृथक अस्तित्व को पृथक रूप में स्वीकार करने का संदेश सारे देश को दिया गया। बेहतर होता कि देश के संस्कार के रूप में एक दूसरे से एकाकार होने वाली मिली-जुली गंगा-जमुनी संस्कृति को स्वीकृति दी जाती। किन्तु ऐसा नहीं किया जा सका।

स्वाधीनता के बाद से लगातार राष्ट्र के मूलभूत अंगो पर प्रहार होते रहे, राष्ट्रीय अस्मिता एक बार नहीं बार-बार आहत होती रही। राष्ट्र की धारा राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत होने के बजाय स्वर्थपरता की ओर भटक गई और नैतिकता और मूल्यों में विचलन होना ही था। कहने को हम स्वाधीन हो गए किन्तु पाश्चात्य संस्कारों का अंधानुकरण आज भी भाषा व संस्कृति को गुलाम बनाए हुए है। इसके विपरीत जापान का उदाहरण हमारे सामने है। लगभग पैसठ वर्ष पूर्व पूर्ण रूप से तहस-नहस हो जाने के बावजूद आज विकसित देशों की श्रेणी में सुशोभित है। एक हम हैं, यहाँ पिछले तिरसठ वर्षों में जितना क्षरण नैतिक, चारित्रिक गुणों व राष्ट्रीय भावना में हुआ है, उसकी तुलना में भौतिक प्रगति गौण होकर रह गई है।

14 टिप्‍पणियां:

  1. आपका कहना सच है। सब कुछ भगवान भरोसे छोड़ दिया गया और जब भगवान ने कुछ विकास में हाथ बटाना चाहा तो उसे भगा दिया यह कह कर कि हम धर्म निरपेक्ष हैं।

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  2. स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं!!

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  3. मेरी ओर से स्वतन्त्रता-दिवस की
    हार्दिक शुभकामनाएँ स्वीकार करें!
    --
    वन्दे मातरम्!

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  4. अत्यंत सारगर्भित और सार्थक आलेख! हमे सकारात्मक चिंतन के लिए प्रेरित करती

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  5. जब राष्ट्रीयता का ये हाल है तो राष्ट्रीय अस्मिता व संस्कृति पर आज हमला होने की जो चर्चाएं हो रही हैं तो इसमें आखिर अनहोनी क्या है। जो पेड़ लगाया जाएगा शाखाएं तो उसी की ही निकलेंगी। जब भी राष्ट्रीय भावना की वर्तमान स्थिति की बात होती है तब बात वहीं घूम फिर कर आ जाती है कि हम कहाँ से चले थे। अर्थात् स्वतंत्रता के ठीक बाद से, जब हम स्वयं देश के नियंता बने और कमान संभाली। कारण भी वहीँ मूल में विद्यमान हैं। नई-नई आजादी से प्रफुल्लित कर्णधारों ने भौतिक आजादी, तात्पर्य - अंग्रेजों के शासन से मुक्ति के अतिरिक्त कुछ भी रचनात्मक करने की जहमत उठानी आवश्यक नहीं समझी और अंग्रेजों के ही शासन की ही रीति, नीति, विधि, भाषा और संस्कृति को भारतीय चादर उढ़ाकर भारतीयों के समक्ष प्रस्तुत कर दी व अपने आचरण में भी ले आए। ".. हरीश जी बहुत सही कहा आपने ! हम आज समस्या के जड़ को नहीं देख रहे और ऐसी अन्धता में समाधान कहाँ मिलेंगे ! सार्थक और सकारात्मक रचना !

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  6. स्वतंत्रता दिवस के मौके पर आप एवं आपके परिवार का हार्दिक अभिनन्दन एवं शुभकामनाएँ.

    सादर

    समीर लाल

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  7. किन्तु सत्य यह है कि सफलता चाहे कितनी भी कठिनाई, परिश्रम व संघर्ष से प्राप्त हुई हो, उसे बनाए रखना अपेक्षाकृत अधिक दुष्कर होता है। दुर्भाग्य से उथलेपन की सोच के कारण किसी भी दिशा में गम्भीर प्रयास नहीं किए गए। परिणाम स्वरूप चारित्रिक गुणों, नैतिकता, राष्ट्रीयता, स्वाभिमान, गरिमा व अस्मिता का पतन तो होना ही था

    बहुत सही बात कही है ....

    बात-बात पर राष्ट्र और राष्ट्रीयता चिल्लाने वाले लोग राष्ट्र की अवधारणा को सही मायनो में कभी अर्थ प्रदान नहीं कर सके। ..
    आपकी यह बात ध्यान देने योग्य है कि राष्ट्रीय शब्द को इतने हलके से नहीं लेना चाहिए ...

    इण्डिया दैट इज भारत.......’ कहकर भारतीयों को ही समझाया जाने लगा..

    यह भी भारत के लिए विडंबना ही है ..

    ‘किसी देश या समाज के चरित्र को समझने के लिए इतना देख लेना ही पर्याप्त है कि लोगों का शब्द व भाषा के प्रति क्या व्यवहार है।’

    और भाषा में तो हम बिलकुल मात खा गए हैं ...राष्ट्र भाषा और राष्ट्र की भाषा का अंतर ही समझ नहीं आता ..

    पूरा लेख चिंतन करने वाला ...सारगर्भित ...आभार /

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  8. चिंतनीय प्रस्तुति।


    राष्ट्रीय व्यवहार में हिन्दी को काम में लाना देश की शीघ्र उन्नति के लिए आवश्यक है।

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  9. आप सभी की भावनाओं का आदर करता हूँ।

    उत्साहवर्द्धन के लिए आभार।

    सभी सदस्यों को स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई।

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  10. बहुत सुन्दर लेख , वह भी निहित स्वार्थो के चलते ही छोड़ा गया था, क्योंकि हरेक का अपना स्वार्थ उस समय भी निहित था !

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  11. राष्ट्रीयता मात्र एक नारे के रूप में इस्तेमाल की जाती रही और इसको भावनात्मक संबंधों के साथ विस्तार लेकर न तो समझा गया और न ही समझाया गया...

    देश की वर्तमान स्थिति की जिम्मेदार देश प्रेम की सच्ची भावना का विस्तार ना हो पाना ही रहा ..
    सार्थक , विचारणीय लेख ...!

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आपका मूल्यांकन – हमारा पथ-प्रदर्शक होंगा।