आचार्य परशुराम राय |
आचार्य पण्डितराज जगन्नाथ आचार्य अप्यय्यदीक्षित के समकालीन थे और दोनों एक-दूसरे के प्रतिद्वन्दी थे। आचार्य अप्यय्यदीक्षित की भाँति ये भी दक्षिण भारत के निवासी थे। इनके पिता पेरुभट्ट थे और माँ लक्ष्मीदेवी थीं। इनका यौवन काल मुगल सम्राट शाहजहाँ के दरबार में बीता। इस विषय में वे स्वयं लिखते हैं:- 'दिल्लीवल्लभपाणिपल्लवतले नीतं नवीनं वय:'
शाहजहाँ के सबसे बड़े पुत्र दाराशिकोह को ये संस्कृत पढ़ाते थे। संस्कृत और भारतीय विद्याओं के प्रति दाराशिकोह में अप्रितम आसक्ति थी और इससे प्रभावित होकर पण्डितराज ने उसके ऊपर 'जगदभरण' नाम का एक काव्य लिखा। शाही दरबार में आसिफ अली नाम के एक सरदार थे। आचार्य पण्डितराज की इनसे बड़ी घनिष्टता थी। सरदार आसिफ अली की मृत्यु के बाद इन्होंने 'आसिफविलास' नामक काव्य लिखा। आचार्य पण्डितराज जगन्नाथ बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न थे। इनके जीवन की एक घटना ने इन्हें जाति से बहिष्कृत करा दिया। घटना यों हुई कि एक दिन इनकी नजर लवंगी नामक एकयवन कन्या पर पड़ी जो सिर पर पानी से भरा घड़ा लिए जा रही थी। ये उस पर इतना आसक्त हो गए कि बादशाह शाहजहाँ से उसे माँग लिया। वह याचना भरा श्लोक द्रष्टव्य है:- न याचे गजालिं न वा वाजिराजिं न वित्तेषु चित्तं मदीयं कदाचित्। इयं सुस्तनी मस्तकन्यस्तकुम्भा लवङ्गी कुरङ्गीदृगङ्गीकरोतु ॥
इक्कीसवीं शताब्दी में खड़े होकर अनुमान लगाया जा सकता है कि सत्रहवीं शताब्दी में आचार्य पण्डितराज ने कितना साहसिक कदम उठाया था। उस समय उन्हें कितनी सामाजिक भर्त्सनाओं का सामना करना पड़ा होगा। जब युवावस्था निकल गयी तो उनके मन में आया कि वे इसका प्रायश्चित करेंगे और मथुरा चले गए। वहाँ भगवान कृष्ण की आराधना में लीन हो गए। इसके बाद काशी आ गए। यहाँ उन्होंने 'गंगालहरी' की रचना की। काशी में उन्हें ब्राह्मणों के विरोध का सर्वाधिक सामना करना पड़ा और अन्त में यहीं 'गंगालहरी' के श्लोकों का पाठ करते हुए गंगा में छलांग लगाकर उन्होंने आत्महत्या कर ली। काव्यशास्त्र पर अत्यन्त विद्वत्तापूर्ण लिखा हुआ अत्यन्त प्रौढ़ ग्रंथ 'रसगंगाधर' है। बड़े दुर्भाग्य की बात है कि यह ग्रंथ अधूरा रह गया। इसमें दो आनन (अध्याय) हैं। प्रथम आनन में अपने पूर्ववर्ती आचार्यों के काव्यलक्षणों का खण्डन करते हुए अपने काव्य लक्षण - 'रमणीयार्थप्रतिपादक: शब्द: काव्यम्' की प्रतिष्ठा की गई है। इसके अतिरिक्त इसमें काव्य के हेतु व काव्य के भेदापि का निरूपण किया गया है। द्वितीय आनन में ध्वनि-भेद, अभिधा, लक्षणा एवं सत्तर अलंकारों का विवेचन मिलता है। इस ग्रंथ में दिए गए सभी उदाहरण पण्डितराज के स्वयं के रचे श्लोक हैं। इसकी घोषणा करते हुए आचार्य लिखते हैं:- 'निर्माय नूतनमुदाहरणानुरूपं काव्यं मयात्र निहितं न परस्य किञ्चित्। किं सेव्यते सुमनसां मनसापि गन्ध: कस्तूरिकाजननशक्तिभृता मृगेण॥
रसगंगाधर के अतिरिक्त आचार्य पण्डितराज ने अनेक ग्रंथों की रचना की, जिनमें प्रमुख ग्रंथ है - भामिनीविलास, आसफविलास, जगदाभरण, प्राणाभरण, सुधालहरी, लक्ष्मीलहरी, अमृतलहरी, करुणालहरी, यमुनावर्णनचम्पू और गंगालहरी। भट्टोजिदीक्षित विरचित व्याकरण ग्रंथ 'मनोरमा' का खण्डन करते हुए इन्होंने 'मनोरमाकुचमर्दनम्' नामक एक व्याकरण ग्रंथ की भी रचना की। 'रसगंगाधर' पर आचार्य नागेशभट्ट ने 'गुरुमर्मप्रकाशिका' नामक एक टीका लिखी है। |
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रविवार, 8 अगस्त 2010
काव्यशास्त्र-27 :: आचार्य पण्डितराज जगन्नाथ
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बहुत अच्छी प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंराजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंभारतीय काव्यशास्त्र को समझाने का चुनौतीपुर्ण कार्य कर आप एक महान कर्य कर रहे हैं। इससे रचनाकार और पाठक को बेहतर समझ में सहायता मिल सकेगी। सदा की तरह आज का भी अंक बहुत अच्छा लगा।
जवाब देंहटाएंLekh padkar acha laga.
जवाब देंहटाएंKawyashastra ka acha gyan mil raha hai.
जवाब देंहटाएंPathakon ko utsahavardhan ke liye sadhuvad, visheshka Shri Manoj Kumar ji ka, jinhone is it kiya.
जवाब देंहटाएंPathakon ko utsahavardhan ke liye sadhuvad, visheshkar Shri Manoj Kumar ji ka, jinhone is stambh ko likhane ke liye prerit kiya.
जवाब देंहटाएंPathakon ko utsahavardhan ke liye sadhuvad, visheshkar Shri Manoj Kumar ji ka, jinhone is stambh ko likhane ke liye prerit kiya.
जवाब देंहटाएंकाव्यशास्त्र पर अच्छी जानकारी दे रहे हैं ..आभार
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर जानकरी दे रहे है आप. धन्यवाद
जवाब देंहटाएंबहुत बेहतरीन जानकारी मिली
जवाब देंहटाएंरामराम.
अतीव ोोोोोभनम्
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