देसिल बयना – 44नयन गए कैलाश..करण समस्तीपुरी |
हा... हा... हा.... ! राम-राम !! हा... हा....हा... हा.... !!!! अरे बाप रे बाप ... हा... हा... हा... हा... !!! आप भी सोच रहे होंगे कि ई मरदे समस्तीपुरिया आज नर्वसा गया है का.... ? मगर बाते ऐसन है कि हंसी रुकिए नहीं रही है.... !!! आप भी सुन के हिहिया दीजियेगा.... ! हरियर-पियर रंग-बिरंग के मेढक सब टर्र-टायं-टर्र-टायं कर के सो तान छोड़ता है कि आदमी तो आदमी गाछ-बिरिछ के फुतंगी (तरु-शिखा) तक नाचने लगता है। उ में भी कही पुरबा डोल गया तो, लहरिया लूटो हो राजा... ! आज-कल तो ढोराई-मंगरू भी शहरे-बाजार में रहने लगा है। आप लोग तो बाबुए-भरुआ हैं। परमामिंट (परमानेंट) शहरी। सावन-भादों का बुझाएगा। मगर चौमासा आते ही गाँव-घर में अभियो हरियरी आ जाता है। ई झमाझम मेघ में माथा पर बिचरा (धान का छोटा पौधा) और काँधे पर कुदाल लिए धानरोपनी के लिए जाते किसान और पाछे से पनपियायी (भोजन) लेकर चलती उनकी लुगाई.... ! हरियर-पियर रंग-बिरंग के मेढक सब टर्र-टायं-टर्र-टायं कर के सो तान छोड़ता है कि आदमी तो आदमी गाछ-बिरिछ के फुतंगी (तरु-शिखा) तक नाचने लगता है। उ में भी कही पुरबा डोल गया तो, लहरिया लूटो हो राजा... ! चास-धानरोपनी हो गया। घर में लकड़ी-काठी समेटा गया फिर तो मौजा ही मौजा... ! का जानना और का मरदाना.... ! सब मिल-जुल के सो रंग-रहस, हंसी-ठिठोली करते हैं कि मन आनंद से भीग जाता है। ताल-पचीसी , झूला-कजरी, चौमासा के तान मिरदंग के थाप और बांसुरी के तान... ओह रे ओह.... समझिये कि सबहि गाँव वृन्दावन। नहीं कदम तो गाछी-गछुली में आम-कटहल, बरगद-पीपल जौन मजबूत पेड़ मिल गया वही में मोटका रस्सी टांग दिए और हो गए शुरू, "झूला लगे कदम के डारि, झूले कृष्ण-मुरारी ना.... !" उ दिन अधरतिये से आसमान फार के मुसलाधार बरस रहा था। हमरे टोल के सभी लोग बर्कुरबा और खिलहा चौरी में भोरे से हल-बैल छोड़ दिए थे। दोपहर तक धानरोपनी कर के आ गए। फिर घुघनी लाल के लुगाई और चम्पई बुआ पुरबारी गाछी में झूला का पिलान बनाई। झिगुनिया और नौरंगी लाल तुरत रस्सी-गद्दा लेके बढ़ गए। एगो बात तो पते है ना.... मौसम-बयार कैसनो हो जनानी जात को श्रृंगार से मन नहीं भरता है। उ गीत में भी कहते हैं न.... "बरसे सावन के रस-झिसी पिया संग खेलब पचीसी ना... ! मुख में पान, नयन में काजल, दांत में मिसी ना... !!" बरसातो में काजल-मेहँदी के बिना बात नहीं बनता। बिना श्रृंगार के झूला कैसे झूलेगी। ऊपर से उहाँ तो टोल भर के जनानी के फैशन का कम्पेटीशन होगा। किसकी मेहँदी सज रही थी, किसका पौडर चमक रहा था। किसकी चुरी खनक रही थी और किसका लपेस्टिक लहक रहा था.... । बड़का कक्का के दालान पर टपकू भाई हरमुनिया टेर रहे थे। सुखाई ढोलकी पर ताल दे रहा था और हम भी वहीं मजीरा टुनटुना रहे थे। महिला लोग का झुण्ड वहीं बन रहा था। पूरा टोला इकट्ठा हो जाए तो झुलुआ झूले जायेंगे। महिला मंडली के सरदार बड़कीये काकी तो थी। हे तोरी के.... कोई पनिहारिन बन के... कोई मनिहारिन बन के.... कोई गुज़री बन के कोई सिपाहिन बन के.... सज-धज के आने लगी। कौनो के सजावट में एक चुटकी कम्मी नहीं रहना चाहिए। बड़की काकी अपने से सब को परीख रही थी और जौन कमी बुझाता उको अपने श्रृंगारदानी से भर देती थी। काकी के तीनो पतोहिया भी सज-धज में लगी हुई थी। बूझिये कि काकी का दुआरी नहीं हुआ कि उ शहर में का कहते हैं.... हाँ ! बूटी-परलर हो गया। सब सज-धज के तैयार हो गयी तो काकी जोर से सबको पुकार के बोली, "सब तैयार हो गयी न.... अब चलो!" "हे बड़की भौजी ! अरे एतना जल्दी का है हो.... ठहरिये-ठहरिये... ! हम भी आ रहे हैं।", उतरबारी कोन से छबीली मामी बोलती हुई धरफराई चली आ रही थी। "मार हरजाई..... तो मार..... छि..... !" काकी और छबीली मामी का हंसी-मजाक इलाका-फेमस है। दुटप्पी रसभरी ठिठोली वहाँ भी हो गया फिर काकी बोली, "ऐ छैल-छबीली ! अब चलो भी... ! नहीं तो अंधरिया में झूलते रहना.... !" "अरे का हरबरी मचाई हो.... कौनो इन्तिज़ार कर रहा है का....? जरा तैय्यारो तो होने दो !" मामी के बात पर जनानी लोग मुँह में आँचल दबा के हंस पड़ीं थी। फिर मामी के केश में गजरा लगा के काकी बोली, "अब बाग़ में चलें हेमा मालिनजी....?" मामी अपने आँखों से मोटा चश्मा हटा के बोली, "आहि रे भौजी ! हमरे अधबयस रूप में नजर-गुजर नहीं लग जाएगा का.... ?" फिर एक आँख दबा के बोली थी, “जरा काजल तो लगाने दो !" "मार फतुरिया कहीं के... ! 'नयन गए कैलाश और कजरा के तलाश !!' आँख गया जहन्नुम में और ई मोटका चश्मा के भीतर काजल लगाएगी.... !!" हा....हा.... हा.... ! ही....ही....ही....ही..... !! ओ...होह्हो.....हो...हो.... !!! काकी जौन अदा से बायाँ हाथ नाचा के बोली थी कि कनिया-पुतरिया (नयी दुल्हने) भी आँचल के नीचे से ही खिखिया पड़ीं। खें......खें....खें........ !!! हे....हे....हे....हे... !!!!" हम तो मजीरा पटक के हँसते-हँसते लोट-पोट हो गए। हो...हो...हो...हो.... बड़का कक्का भी पेट पकड़ कर हंस रहे थे। अरे बाप रे बाप..... "नयन गए कैलाश ! कजरा के तलाश !!" ही....ही...ही....ही.... ! आज वही दिरिस याद आ गया इहे से हँसते-हँसते बेदम हैं हम तो..... हें....हें...हें....हें.... !! हौ महाराज ! उ के बाद तो ई कहावते बन गया, 'नयन गए कैलाश ! कजरा के तलाश !!' मतलब आधारविहीन उपयोगिता। जब आँख है ही नहीं तो काजल का क्या काम ? काजल लगाने से आँख की शोभा बढती है नाकि चश्मे की। सो जब आधार ही नहीं रहा तो उपयोगी साधन का उपयोग भी हम कहाँ करेंगे ? इसीलिए पहले आधार जरूरी है फिर अन्य संसाधन। समझे...? तो यही था आज का देसिल बयना। खाली हिहिआइये मत। अरथ भी बुझते जाइए। नहीं तो बस, "नयन गए कैलाश ! कजरा के तलाश !!" |
बुधवार, 25 अगस्त 2010
देसिल बयना - 44 : नयन गए कैलाश..
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वाह! दबाते-दबाते हा-हा-हा निकल ही गया। क्या कहने। करण जी, आपका जवाब नहीं। ऐसे ही ब्लाग पर आते रहिए, सबको गुदगुदाते रहिए और कहावत का अर्थ समझाते रहिए।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद।
आपकी प्रस्तुति का जवाब नहीं!
जवाब देंहटाएं*** भारतीय एकता के लक्ष्य का साधन हिंदी भाषा का प्रचार है!
आई हो दादा..हमरी सिरीमती जी त कहती हैं कि मैं तो डर से ना डारूँ कजरवा कि नैनों में सजन बसते हैं..अऊर हियाँ त पहिलहीं से 60 वाट का होल्डर में 40 वाट का ढिबरी टिमटिमा रहा है..अईसन में काजर.. सच्चो हँसी रुकबे नहीं करता है सुनकर काकी का बात कि नयन गए कैलास अऊर कजरा के तलास!! बेजोड़ रहा आज का देसिल बयना!!
जवाब देंहटाएंनयन गए कैलाश!
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति।
आभार।
नयन गए कैलाश!
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति।
आभार।
'नयन गए कैलाश ! कजरा के तलाश !!' मतलब आधारविहीन उपयोगिता।
जवाब देंहटाएंकहानी के माध्यम से एक एक कहावत का अर्थ स्पष्ट होता जा रहा है .. बहुत बढिया लिख रहे हैं आप .. अच्छा लग रहा है ये देसिल बयना .. वाह 44 तक की यात्रा करा दी हमें .. बहुत शुक्रिया !!
इस पोस्ट पर तो वाकई में हँसी आ गयी!
जवाब देंहटाएंमान गए करण जी। कहानी-कहानी में बड़ा मतलब की बात समझा दिए।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति।
:: हंसना स्वास्थ्य के लिए लाभदायक होता है।
का कहें केशव जी, जैसे जैसे देसिल बयना पढ़ते जा रहे थे वैसे वैसे दिमाग में एक एकगो सीन दिख रहा था | एकदम से मजा ला दिए | बिहार के सुखार में भी फुहार का आनंद आ गया | एसेही झमकाते रहिये इलाका को | धीरे धीर आप भी ब्लॉग फेमस हो रहे हैं |
जवाब देंहटाएं@ हरीश प्रकाश गुप्त,
जवाब देंहटाएंदेखे... ! आप बहुत सीरियस बनते हैं. हंसा दिए न आपको भी.....!! हा... हा... हा... हा... !!!
@ राजभाषा हिंदी,
जवाब देंहटाएंसच्चे में... ? वैसे हम का कहें हम तो बस आपही के लिए कलम रगड़ते रहते हैं... !!
@ चला बिहारी....
जवाब देंहटाएंअऊर हियाँ त पहिलहीं से 60 वाट का होल्डर में 40 वाट का ढिबरी टिमटिमा रहा है.....
अरे चचा जी,
का उपमा गढ़े हैं... ? काश पहिनहि बता देते तो हम इको भी घुसिया देते न देसिल बयना में... और जोरगर हो जाता !आप तो धनबादो देने पर मनाही किये हुए हैं.... इसीलिये यही कहेंगे कि देखिये कहीं ऑफिसों में हंसी नहीं निकल जाए... !!!
@ परशुराम राय,
जवाब देंहटाएंआचार्यवर,
नमस्कार और आशीष-याचना !!!
@ संगीता पुरी,
जवाब देंहटाएंदेसिल बयना आपको अच्छा लगा ! हमारा श्रम सार्थक हुआ !! आपका बहुत-बहुत धन्यवाद !!!
@ रूपचंद शास्त्री मायानक,
जवाब देंहटाएंशास्त्री जी,
नमस्कार ! देखे... ! हंसा दिए न.... !! इसीलिए सधन्यवाद कहते हैं कि आप हमरे ब्लॉग पर रोज आईये !!!
@ हास्य फुहार,
जवाब देंहटाएंमानना तो पड़ेगा ही ! हम भी तो आपही का लोहा मान रहे हैं !! हें...हें..हें..हें.... !!!
@ राजीव रंजन लाल,
जवाब देंहटाएंहौ महराज ! का कहिएगा.... ? आप तो चुप्पे-चाप बंगलोरे से हैदराबाद भाग गए.... !! लेकिन देखे हम उहाँ तक आपको गुदगुदा दिए. ऐसेही भोजो खाने के लिए पहुँच जायेंगे !!! छोड़ेंगे नहीं.... हाँ !!!!!
ha...ha...ha....
जवाब देंहटाएंmaja aa gaya. bahute badhiye story hai.
@ आशीष,
जवाब देंहटाएंधन्यवाद !
भाई जी,
जवाब देंहटाएंबड़ नीक लागल अपनेक रचना. "नयन गए कैलाश ! कजरा के तलाश !!" छबीली मामी त' छ गेलथि. आश अछि जे अहिना अपनेक रचनाक लिंक मेल में भेंटाईत रहत. धन्यवाद.
@ मनीष,
जवाब देंहटाएंकि बात छै यौ ? छबीली मामी बड़ मोन छथि ???
ka ho karan babu hasa hasa ka pet me darad karwa he diye...
जवाब देंहटाएंhum to hihiyaye b aur e desil bayna ka arath b bujh gaye...bahute maja aaya humko to....sachon kah rahe hai ap ka likha hun padhkar to aisa he lagta hai ki jaise sabkuch ankhon ke samne he to raha hai :)
Aj bhore se offcwa me bahute kam tha thakan b ho raha tha bt e desil bayna to hasa hasa kar sab thakan dur kar diya...
ek bar fero se apko tahe dil se dhnayawad kahte hai... :)
@ रचना,
जवाब देंहटाएंधनबाद मैडम ! अब समझी न हमरे देसिल बयना में देसी जड़ी-बूटी का भी असर है... खाली लाउफिंगे गैस नहीं है!
अरथ बूझ रहे हैं, करण जी.. हिहियाने पर पाबंदी क्यों लगा रहे हैं..
जवाब देंहटाएं@कुमार आशीष,
जवाब देंहटाएंअरे नहीं भाई जी,
हिहियाने पर पाबंदी काहे लगायेंगे भला.... हम तो बस कहे रहे थे कि अर्थ बूझ के हिहियाइये ! लेकिन आपका सिन्हेल टिपण्णी पढ़ के हिरदय गदगद हो गया !! धनबाद !!!
namastey karan samastipuri ji,bahot khub likha hai apna. Padhkar maja aa gaya.
जवाब देंहटाएं@प्रियांशु,
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत धन्यवाद, सरजी !
कथा सरस, रोचक और ग्रामीण जीवन के यादों को न सिर्फ़ ताज़ा कर देती है बल्कि चित्र के समान दृश्य आखों के सामने साकार हो जाते हैं। यह आपकी लेखनी का चमत्कार है!
जवाब देंहटाएंबहुत शुभकामनाएं।
और देसिल बयना तो सुना हुआ नहीं था, तो एक नई जानकारी मिली और जिस प्रकार से अर्थ स्पष्ट हुआ है आपके लेखन से कि इसका प्रयोग भी करूंगा।
@ मनोज कुमार,
जवाब देंहटाएंधन्यवाद !
Bhute badhiya karan bhaiya...ka likhe hai.. ekdum jhakash likh diye.Hasa b gaye aur kuch sikha b gaye..
जवाब देंहटाएं@ ऋचा,
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत धन्यवाद ऋचा बहिन ! अब का करें, हँसाना हमरा काम है और सिखा आपका.... ! चलिए इसी तरह टिपियाते रहिएगा कभी-कभार !!
नयन गए कैलाश!
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर !
Achi rachna.
जवाब देंहटाएंओह ..... शानदार !!!
जवाब देंहटाएंचश्मा वाले ,हम भी इसी केटगरी में आते हैं...
हा हा हा हा...अब जब भी काजल लगायेंगे,यह याद आएगा...
@ पी.सी.गोदियाल,
जवाब देंहटाएंधन्यवाद श्रीमान !
@ अभया कुमार,
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत धन्यवाद महोदया !
@रंजना,
जवाब देंहटाएंरंजना जी,
लगता है आप कजरे लगाने के चक्कर में इतना देरी से आयी हैं ! खैर कौनो बात नहीं.... चश्मा के नीचो काजर लगाना जारी रखिये... बहुत-बहुत धन्यवाद !
बहुत लाजवाब जी.
जवाब देंहटाएंरामराम.
आपका तो दोनों भाषाओँ पर सामान अधिकार है । लेख मजेदार है , इसीतरह की एक और बात मशहूर है 'लुकिंग लन्दन टाकिंग टोकियो। '
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर प्रस्तुति.बधाई....
जवाब देंहटाएंवाह क्या कहना, बहुत मजा आया भाई...
जवाब देंहटाएंअत्यंत ही रोचक कहानी और मज़ेदार भी। हमें भी हंसते-हंसते पेट में बल पड़ गए।
जवाब देंहटाएंsachmuch khoob chitran kiya hai mausam ka saath hi aapka prakriti ke prati prem bhi umadta nazar aaya .bahut sundar ,aap jaise hi log sanskriti ko jinda rakh sakte hai .
जवाब देंहटाएंबहुत मनोरंजक प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंअद्भुत!
जवाब देंहटाएंप्रस्तुति, चित्र, कहानी, और अर्थ।
बहुत सुंदर, पढने मै थोडी दिक्कत हुयी, भाषा की वजह से
जवाब देंहटाएंकरण जी आपके देसिल बयना का तीसरा अंक देख रहा हू.. अब तो बुधवार का इन्तजार रहने लगा है... ठेट ग्गों में ले जाते हैं आप और ए़क मजेदार वाकया के साथ लोकोक्ति और मुहावरे से परिचय करवा रहे हैं.. खास तौर पर मैथली लोकोक्तियों का .. मैथिलि भाषा आपका बहुत आभारी रहेगी... काफी अनुसन्धान करके आ रहे हैं आप... मेरा निजी विचार है कि.. जितने गंभीर विषय को आप सहजता से शब्दों के माध्यम से कह रहे हैं.. गूगल से साभारित चित्रों की कोई जगह नहीं है.. बाकी पाठको ने इसकी तारीफ भी की है... आपके अगले अंक की प्रतीक्षा में...
जवाब देंहटाएंहर बार की तरह इस बार भी बहुत बढ़िया रहा यह देसिल बयना ...कहावत के साथ जो कथा सुनाते ( पढवाते ) है मज़ा ही आ जाता है ...
जवाब देंहटाएंअति सुन्दर।
जवाब देंहटाएंhunnn....badd nik vyakhya maithil lokoktik .......
जवाब देंहटाएंabhar.
sk jha
chandigarh.