बुधवार, 11 अगस्त 2010

अरब न दरब झूठ का गौरब

देसिल बयना-42

अरब न दरब झूठ का गौरब

करण समस्तीपुरी

एंह... गाँव-घर के रमन-चमन का एगो अलगे मजा है। ई रंग-रहस, उ अलमस्ती, हे उ अपनापन... गालियो दे तो लगे फूले बरसता है। ससुर डांट-डपट में भी छुर-छुरा के हंसी का फुहार फूट पड़ता है। लेकिन धीरे-धीरे अब उहाँ भी नया जमाना का गरम हवा बहने लगा है।

उ कहते हैं न.... गीत-प्रीत सबै बिसरी जब रीती के बोझ पड़ीं सर पे....!" ई दुटकियारी नौकरी के चक्कर में लाखो का गवई मौज गंवाना पड़ता है। बड़ी दिन पर ई बार मौका लगा था। केतना बदल गया है गाँव भी... ! पहिले ढाले पर से हरियर-उज्जर कच्चिया रोड झलकता था, जिस पर पैर रखते ही एगो अद्भुत ममता का एहसास होता था... अब तो दरबाजा तक अलकतरा वाला करिया रोड मुँह खोले रहता है। तब हम समझे कि गाँव-घर के लोग का निरमल हिरदय भी अब काहे करियाया जा रहा है।

गाछी टोल वाला इमिरती काका से हमरे-घर में बड़ा मेल-जोल था। काका-काकी दुन्नु बड़ी लोकमिल्लू (मिलनसार) थे। हम तो दिन भर उन्ही के घर में खेलते-खाते रहते थे। उनके लड़के में बड़े और मझले खखोरन और बटोरन भाई हम से बड़े थे और सबसे छोटका निपोरन तो हमरा एकतुरिये (हमउम्र) था।

खखोरन भैय्या ड्रायवरी सीख कर कमाने चले गए अरब-मुलुक।  साल-दू साल में ऐसे खखोर के ऐसन थैली लाये कि इमरती काका का दिने बहुर गया। चांधर सिंघ के हवेली से बड़का मकान ठोक लिए थे। मगर स्वभाव वही मिलनसार। सेठ-साहूकार भी बेर-बखत में (समय पड़ने पर) दुआर पर माथा टेकने आता था। लेकिन काका जैसा हीरा आदमी ऋणी-वैरी को भी आसन-पानी देकर ही बतियाते थे। पूजी-पाती और बढ़ा तो बटोरन भाई भी बिजनिस में लग गए। उ का भी चल निकला... ! फिर तो काका-काकी का दुन्नु हाथ घी में था।

दुन्नु भाई का साल पीछे घर भी बसा दिए। अब काका-काकी का एक्के गो चिंता था। निपोरन किसी तरह सेट हो जाए तो गंगा पूजा लें। उ दूनू भई तो जबर्दस मेहनती थे मगर ई निपोरना चिकनफट निकल गया। फुलपैंट-हवाईशाट पर कनपुरिया बेल्ट कस के मटरगश्ती करे। बटोरन भाई बड़ी कोसिस किये कि बिजिनेसे में हाथ बंटाए मगर उ का तो रोआबे अलग था, "हैय्यर सिकेंडरी कर के हम वही बनिऔती करे जाते हैं....?"

फिर हमरा भी गाँव से रोटी उठ गया। पाछे पता चला कि निपोरन नेतागिरी करे लगा था। मुखिया के इलेक्शन में चतुरी सिंघ को जिताने में आग-पानी एक कर दिहिस। सुने थे कि चतुरी सिंघ तो मुहर-इस्टाम्प थे, असल मुखियाई तो निपोरने करता था। फिर पता चला कि पाचोपुर के जमींदार घर में उका ब्याह भी हो गया।

ई बार एक दिन बेरिया में काका के घर गए। दालान पर बड़का पलंग पर मोटका गद्दा बिछा के काकाअकेले हथ-पंखा झेल रहे थे। हमें देखते ही 'औ बाबू... आओ... आओ...' करते हुए अन्दर मुँह कर के हांकलगाए, "निपोरना माय ! ए देखो... एक जुग पर आज कौन गोसाईं उगे हैं।" 

काकी दौरी आयी और हमरे हाथ पकड़ के वही गद्दी पर बैठा दी। थोड़ा बात-विचार हुआ। फिर बोली, "चलोभीतरे... निपोरन तो कहीं बाहर निकला हुआ है। कनिया सब है।" काकी के साथे हम भीतरी ओसारा परबैठ गए। बडकी और मझली भौजी से तो जान-पहिचान था ही। निपोरन के कनिया (पत्नी) को नहीं देखेथे। काकी उ को आवाज़ लगा के बोलाई थी। कनिया हम से दू बात बतिया के चली गयी तब काकी पूछी, "पसंद पड़ीं दुल्हिन?" हम कहे, "हाँ काकी ! आप पसंद किये हैं तो सब ठीके है... !" काकी उठ के चली गयीबाहर।

सब कुछ तो ठीक था मगर ई बार हम कुछ नया-नया लच्छन सब गौर कर रहे थे काकी के अंगना में।  जबतक बड़की रही तो मझली नहीं आयी, मझली आयी तो बडकी चली गयी और छोटकी के बाते का है... ?कुछ देर बतियान के बाद मझली भौजी निपोरन की लुगाई को हांक लगाई, "ए दुल्हिन ! ई शहरी बबुआबरख दिन पर आये हैं। अरे इनके लिए ताजा दही में लस्सी घोलो और कुछ खाए-पिए का जोगार करो... !!"

अरे बाप रे बाप.... इधर भौजी के मुँह का बातो नहीं ख़तम हुआ कि उधर से नवकी दुल्हिन चिहुंक पड़ीं, "ऐं.... एतना हुकुम जो बघार रही हैं सो उठ कर करती काहे नहीं हैं... सारे आये-गए का हम ठीक रखे हैंका... जो गर्मी में .... !" धत तेरे कि.... मझली भौजी तो इधर-उधर ताक के टुक-टुक हमरा मुँह देखे लगी।

बड़की भौजी अपने कमरे से बोली, "अरे जरा कर ही दोगी तो का हो जाएगा... उ बाबुआ से बतिया रहीहै.... !" लेकिन बाप रे बाप.... ! देखन में छोटन लगे, घाव करे गंभीर... ! निपोरन की लुगाई तो कमरकास के पहिले से तैयार थी, "आपको इतना ही तरस है तो खुदे काहे नहीं कर लेती हैं, जो घर में बैठे केदूसरे को प्रवचन सुनाती हैं।" 

चख-चुख सुन के काकी अन्दर आ गयी। गुस्सा के मारे शिवजी के तरह काकी का तिरनेत्र लहक रहा, "कोई कुछ न करो.... तुम तिन्न्नो हिड़ोला पर झूलो... ! हम अभी मरे नहीं हैं.... !" काकी न जाने औरक्या-क्या बोली जा रही थी। हम उनको शांत करे के गरज से बोले, "अरे काकी ! जाने दीजिये ना..... ।आप भी खा-म-खा अपना माथा गरम करती हैं। अरे नई कनिया-मनिया कुछ दिन बसेगी अपने ठीक होजायेगी..... !"

लेकिन काकी तो बाढ़ में बाँध तोड़ के बहने वाली कोसी के तरह बौखलाए हुई थी। कहिस, "न बेटा.... तुमतो देखे हो न हम कैसे अपना घर संभार के रक्खे थे.... कौन करती थी पांच बारिस पहिले... ? आज ई तीनतिरहुतिया तेरह पाक पकाती हैं.... ! एगो ईर घाट, एगो वीर घाट और एगो तीर घाट। बडकी कहेगी हमबडकी कहेगी हम काहे... हमरा मरद तो अरब कमाता है... मझली कहेगी हम कौन कम... ? हमरा मरदभी तो दरब कमाता है.... ! (खी... खी.... खी.... हमें तो काकी का तुकबंदी सब सुन के हंसी भी आ रहाथा।)

काकी का ग्रामोफोन फुल स्पीड में बज रहा था। असीरबाद के कड़ी में अब अगली थी छोटकी बहू। बोली, "और ई देखो सबसे छोट उनचास हाथ.... ! 'अरब न दरब... ! झूठ का गौरब.... !!' उ दुन्नु को तो थोड़ाशोभा भी देता है... एक तो बड़ी है... नहीं करती है मगर ऐसे मुँह तो नहीं फारती है। आखिर वही दुन्नु केमरद के कमाई से न घर उठा है... ! आज खखोरन-बटोरन हाथ खीच ले तो परिवार कहाँ जाएगा... ! सो ईबहुरिया को थोड़ा भी फिकर है.... ? घर में सबसे छोट है, मान-परेम सीखेगी सो नहीं... खाली गालबजाएगी। अरब न दरब और झूठे के गौरब झाड़ेगी।"

अब हम से रहा नहीं गया। हम खिखियाइये दिए। फिर कहे, "काकी आप भी कमाल कवित्त गढ़ती हैं।अरब न दरब झूठ का गौरब.... हा... हा... हा... हा...हा.....।" हमरे काठ-हस्सी पर भौजी सब भी हंस दीथी। फिर काकी बोली चलो तुम सब कौनो बात पर हँसे तो.... मगर बात तो हम सहिये कहे न.... "जिसकोकुछ अंतर-बल रहता है उ थोड़ा देखाता है तो उसको सजता भी है, मगर है कुछ नहीं और देखायेगा सबसेज्यादे उसको का कहा जाएगा ? ऐसन-ऐसन को कहते हैं, "अरब न दरब... ! झूठ का गौरब (गौरव) !!"

हम कहे खूब कहती हैं काकी, 'अरब न दरब... ! झूठ का गौरब।' चलिए एगो नया कहावत तो सीखे। तीन बरिस पर हमरा गाँव आना सफल हो गया। इतना कह के अंगना से बाहर आ काका के पास बैठ गए।

20 टिप्‍पणियां:

  1. हमहुं कहते हैं .. एतना सुंदर प्रसंग के बहाने एगो नया कहावत तो सीखे .. 'अरब न दरब... ! झूठ का गौरब।'

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  2. बहुत अच्छी प्रस्तुति।
    राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।

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  3. बहुत बढ़िया प्रसंग के माध्यम से कहावत सिखाई ....अरब न दरब ...:):) मजेदार किस्सा ...और सीख देती कहावत ...

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  4. रोचक कथा के माध्यम से प्रति सप्ताह एक नई कहावत सीखने को मिल रही है।

    आपका आभार।

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  5. देसिल बयना के माध्यम से समाज के संस्कारों की अभिव्यक्ति सराहनीय है।
    शुभकामनाएं।

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  6. करन बाबू... निदा फाजली साहब का एगो कबिता इयाद आ गया..जीबन क्या है चलता फिरता एक खिलौना है, दो आँखों में एक से हँसना एक से रोना है...आपका देसिल बयना पढने के बाद सच्चो एक आँख से आँसू अऊर एक से हँसी (कठहँस्सी) छूट रहा था... गाँव में भी बुजुर्ग लोग का जो दुर्दसा हो रहा है उसको एकदम सिनेमा के जईसा उतर दिए हैं आप... देसिल बयना त जो था सो था बाकी उसके पीछे का दरद देखने के बाद मन उदस हो गया. एक तरफ काका काकी..जिनके ऊपर अरब दरब का कोनो गरब नहीं, जेतने फल ओतने झुक गए...दोसरा तरफ बाकी पुतोह लोग का तो आप कहबे किए...

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  7. सभी पाठकों का मैं हृदय से आभारी हूँ ! ख़ास कर संगीताजी द्वे, हास्य-फुहार, आचार्य परशुराम राय एवं हरीश जी, आपकी प्रतिक्रिया प्रोत्साहन का उद्दाम स्रोत है! लेकिन यह पोस्ट तब तक नहीं पूरा होता जब तक 'चला बिहारी... वाले श्री सलिल जी की दिल से निकली टिपण्णी न आये ! सलील जी, आज आप देर से आये हैं, इसीलिए विलम्ब-दंड में आपको आज धन्यवाद स्वीकार करना होगा..... !!!"

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  8. @ राजभाषा हिंदी,
    योगदान क्या महारानी ? बस समझ लीजिये कि आपकी जो भी सेवा हो जाए, हमारा अहोभाग्य !

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  9. करन बाबू..102 डिगरी बोखारो में टिप्पनी देने आए हैं हम अऊर आप लेट फाईन लगा रहे हैं... बिना दर्खास देले आपको फाईन माफ करना होगा!!

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  10. @ चला बिहारी.....

    ओह्हो.... गलती हो गया. मगर देखिये, ई को कहते हैं न सच्चा सिनेह. बोखारो में आप इतना फरेस टिपण्णी दे गए कि हिरदय खिल गया. चलिए इसी बात पर धनवाद वापिस और गेट बेल सून !

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  11. आपकी टिपण्णी के लिए आपका आभार

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  12. बहुत रोचक और सरस कथ्ह के माध्यम से एक जटिल देसिल बयना की प्रस्तुति मनभावन रही। मां सरस्वती आपके कलम की ओज बढाए रखें।

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  13. देसिल बयना के माध्यम से समाज के संस्कारों की उपयोगी जानकारी मिली!

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  14. बेहतरीन उम्दा पोस्ट-इस ब्लाग पर खु्लते समय एक पॉप अप विंडो दिखा रहा है, देखिए कहां से लिंक आया है उसका।

    आपकी पोस्ट ब्लॉग4वार्ता पर

    चेतावनी-सावधान ब्लागर्स--अवश्य पढ़ें

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