गोस्वामी तुलसीदास जयंती पर …
मनोज कुमार
आज श्रावण शुक्ल सप्तमी है। इसी दिन मूल नक्षत्र में संवत् १५५४ को प्रयाग के पास राजापुर नामक गांव में आत्माराम दूबे और हुलसी दम्पत्ति के घर गोस्वामी तुलसीदास का जन्म हुआ था। कहा जाता है कि जन्म के समय बालक रोया नहीं, बल्कि उसके मुंह से “राम” निकला और उसके मुंह में बत्तीसों दांत मौज़ूद थे। इस अद्भुत बालक को देख कर माता-पिता अनिष्ट की आशंका से भयभीत हो गए और तीन दिन के नवजात बच्चे को दासी के साथ उसकी ससुराल भेज दिया गया। किन्तु उसके अगले ही दिन मां संसार से विदा हो गई।
चुनियां नाम की इस दासी ने बड़े ही लाड़-प्यार से बालक तुलसीदास का लालन-पालन किया। किन्तु साढ़े पांच साल की अवस्था में उस बच्चे को चुनियां के स्नेह से भी वंचित होना पड़ा और बालक तुलसीदास अनाथ की तरह दर-दर भटकने लगा।
एक दिन नरहर्यानन्द जी की नज़र उन पर पड़ी और वे उन्हें अयोध्या ले गये। उन्होंने उनका नाम रामबोला रखा। नरहरि स्वामी की छत्रछाया में बालक तुलसीदास ने शिक्षा-दीक्षा ग्रहण की। उनके मुख से तुलसीदास जी को रामचरित सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
बाद में काशी में शेषसनातन जी के पास रहकर तुलसीदास जी ने वेद-वेदांग का अध्ययन किया। फिर वापस अपनी जन्मभूमि लौटा आये। यहां आकर मालूम हुआ कि पिता जी तो कब के गुज़र चुके हैं। तुलसीदास जी ने पिता का श्राद्ध किया और वहीं रहकर लोगों को राम कथा सुनाने लगे।
संवत् १५८३ में एक अति सुन्दर कन्या, रत्नावाली के साथ उनका विवाह हुआ। एक बार अपने भाई के साथ उनकी पत्नी अपने मायके चली गई। विछोह सहा नहीं गया और पीछे-पीछे तुलसीदास जी भी वहां पहुंच गए। आधी रात को अचानक आ पहुंचे पति को देख पत्नी ने उन्हें धिक्कारते हुए कहा, “मेरे इस हाड़-मांस के शरीर में जितनी तुम्हारी आसक्ति है, उससे आधी भी यदि भगवान में होती तो तुम्हारा बेड़ा पार हो गया होता।”
इस अपमान ने उन्हें काफ़ी चोट पहुंचाया और वे उसी क्षण वहां से चल दिए। प्रयाग आकर उन्होंने साधु वेश धारण किया और तीर्थाटन को निकल पड़े। घूमते-घामते वे पुनः अयोध्या आए और संवत् १६३१ के रामनवमी के दिन उन्होंने श्रीरामचरितमानस की रचना आरंभ की। दो वर्ष, सात महीने, छब्बीस दिन में संवत् १६३३ के रामविवाह के दिन सातों काण्ड पूरे हो गए।
इस ग्रंथ के कारण तुलसीदास जी की प्रसिद्धि चारो तरफ़ फैलने लगी। काशी के पण्डितों को इस प्रसिद्धि से जलन होने लगी और वे उनकी निन्दा तथा ग्रंथ को नष्ट कर देने का प्रयत्न करने लगे। पर भगवान की कॄपा से ऐसा कुछ न हुआ।
तुलसीदास जी काशी के असीघाट पर रहने लगे। उन्होंने यहीं विनयपत्रिका लिखी संवत् १६८० श्रावण कृष्ण तृतीया शनिवार को असीघाट पर गोस्वामी तुलसीदास ने अपने प्राण त्याग दिए।
गोस्वामी तुलसीदास रचित श्रीरामचरितमानस न सिर्फ़ हिन्दी साहित्य में बल्कि विश्व साहित्य में अद्वितीय स्थान रखता है। उत्तम काव्य लक्षणों से युक्त, साहित्य के सभी रूपों से भरपूर, और काव्य कला के दृष्टिकोण से इतनी उच्च कोटि की रचना देखने को कम ही मिलती है। भक्ति, ज्ञान, नीति, सदाचार, आदि तमाम विषयों पर शिक्षा देने वाली इस पुस्तक के समान दूसरा ग्रंथ हिन्दी भाषा तो क्या संसार की किसी अन्य भाषा में नहीं लिखा गया।
आज जब देश-समाज में चारों तरफ़ हाहाकार मचा है, दुःख एवं अशान्ति से मन-प्राण संकट में है, चहुं ओर मार-काट मची है, ईर्ष्या, द्वेष, घृणा का साम्राज्य है, असहिष्णुता और वैमन्स्य की भीषण ज्वाला से सारा संसार जल रहा है, संहार और विनाश का वातावरण है, ऐसे में सुख-शांति और भाई चारा, अमन-शांति और प्रेम के प्रसार के लिए श्रीरामचरितमानस का अनुशीलन परम आवश्यक है।
गोस्वामी तुलसीदास जी को हम शत-शत नमन करते हैं।
अगली प्रस्तुति १०.०० बजेतुलसी और श्रीरामचरितमानसडॉ. रमेश मोहन झा |
तुलसी जी को नमन. बहुत बढिया पोस्ट.आभार.
जवाब देंहटाएंगोस्वामी तुलसीदास जी को हम शत-शत नमन करते हैं।
जवाब देंहटाएंमहाकवि को नमन!
जवाब देंहटाएंhttp://mishraarvind.blogspot.com/2010/08/2.html
तुलसी जी को नमन. बहुत बढिया पोस्ट.आभार.
जवाब देंहटाएंगोस्वामी तुलसीदास जी के बारे में बेहतरीन जानकारी के लिए आभार!
जवाब देंहटाएंतुलसीदास जी को नमन ...बढ़िया लेख ..
जवाब देंहटाएंगोस्वामी तुलसीदास जी को हम शत-शत नमन।
जवाब देंहटाएंतुलसीदार जी के बारे में सुंदर तारएके से लिखा है आपने .... नमन है गोस्वामी जी को ....
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