आचार्य अभिनव गुप्त--- आचार्य परशुराम राय |
आचार्य अभिनव गुप्त दसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में आते हैं। आपने मूल निवास और परिवार आदि के विषय में ’तंत्रलोक’ नामक ग्रंथ में थोड़ा विवरण दिया है। इसके अनुसार इनके पूर्वज गंगा-यमुना के मध्यवर्ती प्रदेश कन्नौज के रहने वाले थे। इनके जन्म के 200 वर्ष पूर्व अविगुप्त नामक एक अत्यन्त प्रसिद्ध विद्वान कन्नौज के तत्कालीन राजा यशोवर्मा के राज्य में थे। कश्मीर नरेश ललितादित्य ने कन्नौज के अधिपति यशोवर्मा को पराजित किया और अविगुप्त को बड़े आदर के साथ अपने राज्य कश्मीर ले गये और धन, जागीर आदि देकर सम्मनित किया। इन्हीं अविगुप्त के वंश में आचार्य अभिनवगुप्त का जन्म हुआ। इनके पितामह वराह्गुप्त और पिता नरसिंह गुप्त थे। वैसे इनके पिता चुलुखक के नाम से प्रसिद्ध थे।
अभिनव गुप्त बचपन में बड़े शरारती थे। ये अपने सहपाठियों को काफ़ी सताते थे। इनकी इस प्रवृत्ति के कारण इनके गुरुओं ने इनका नाम अभिनव गुप्तपाद रख दिया था। गुप्तपाद का अर्थ सर्प होता है । इसके बाद इन्होंने इस गुरु प्रदत्त नाम का व्यवहार किया, इसका उल्लेख भी उन्होंने अपने ग्रंथ तंत्रलोक में किया है।
“अभिनव्गुप्तस्य कृतिः सेयं यस्योदिता गुरुभिराख्या।”
आचार्य अभिनवगुप्त विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। उस समय कश्मीर और कश्मीर के आस-पास के विद्याविशेष के उद्भट विद्वानों के पास जाकर विभिन्न विद्याओं का उन्होंने अध्ययन किया। अपने ग्रंथ में इन गुरुओं का शास्त्र सहित उन्होंने उल्लेख किया है।
नरसिंह गुप्त (पिता) – व्याकरण शास्त्र
वामनाथ – द्वैताद्वैत तंत्र
भूतिराजतनय -- द्वैतवादी शैव सम्प्रदाय के गुरु
लक्ष्मणगुप्त – प्रत्यभिज्ञा, क्रम एवं त्रिकदर्शन
भट्ट इन्दुराज – ध्वनि सिद्धान्त
भूतिराज – ब्रह्म विद्या
भट्टा तोत – नाट्य शास्त्र
इनके अतिरिक्त उन्होंने अपने तेरह अन्य गुरुओं का उल्लेख भी एक स्थान पर किया है।
अभिनवगुप्त का जीवन अधिक सुखमय नहीं रहा। उनकी माता उन्हें बाल्यावस्था में ही छोड़कर परलोक वासी हो गईं। इसकी पीड़ा उन्हें बहुत काल तक रही। इसके बावज़ूद आभिनव गुप्त ने माता के वियोग को कल्याणप्रद रूप में स्वीकार किया। माता के देहान्त के पश्चात उनके पिता भी वैरागी होकर संन्यासी हो गये। माता-पिता दोनों के वियोग ने उनके जीवन की दिशा ही बदल दी। वे साहित्य के सरस विषय से अनासक्त होकर शिवभक्ति और दर्शन शास्त्र के अध्ययन में प्रवृत्त हो गये।
उन्होंने जीवन पर्यंत ब्रह्मचर्य व्रत का पालन किया और उनके जीवन का अंत भी उनकी कठिन साधना के अनुरूप ही सुन्दर रूप में हुआ। अंतिम समय में वे कश्मीर में श्रीनगर व गुलमर्ग के बीच “भैरव” नामक नदी के किनारे “मगम” नामक स्थान पर बस गये। यहां का वातावरण और प्रकृति बहुत ही सुरम्य थे। अपने अंतिम समय में इन्होंने यहां स्थित प्रसिद्ध “भैरव गुफा” में प्रवेश किया और फिर कभी बाहर नहीं आये। अंतिम यात्रा में बारह सौ शिष्य उनके साथ थे।
आभिनव गुप्त प्रणीत ग्रंथों की एक लंबी श्रृंखला है। इनके 41 ग्रंथ माने जाते हैं। इनमें ग्रंथों का उल्लेख सूचीपत्र मात्र में मिलता है। शेष में अधिकांश प्राप्त नहीं हैं। इनमें तीन ग्रंथ साहित्य शास्त्र से संबंधित हैं। “ध्वन्यालोक ” पर “लोचन” नाम की और “अभिनवभारती”, “भरतनाट्यशास्त्र” पर टीकाएं हैं। “घटकर्पर विवरण”, “मेघदूत” के सदृश दूत काव्य पर टीका है। शेष ग्रंथ शैव दर्शन पर हैं। इनमें “तंत्रलोक” विशालकाय ग्रंथ है। “क्रमस्त्रोत” व “भैरव स्त्रोत” जैसे कृतियां अति लघु रूप में हैं और इनकी सीमा 10-12 श्लोकों तक सीमित हैं।
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पिछले अंक
|| 1. भूमिका ||, ||2 नाट्यशास्त्र प्रणेता भरतमुनि||, ||3. काव्यशास्त्र के मेधाविरुद्र या मेधावी||, ||4. आचार्य भामह ||, || 5. आचार्य दण्डी ||, || 6. काल–विभाजन ||, ||7.आचार्य भट्टोद्भट||, || 8. आचार्य वामन ||, || 9. आचार्य रुद्रट और आचार्य रुद्रभट्ट ||, || 10. आचार्य आनन्दवर्धन ||, || 11. आचार्य भट्टनायक ||, || 12. आचार्य मुकुलभट्ट और आचार्य धनञ्जय || |
ooche stur ka sahity gyan .
जवाब देंहटाएंitani jan kariyon se avgat karane ke liye dhanyvaad.
जवाब देंहटाएंpoonam
नदियों ने अनंत लोगों को जीवन-दर्शन दिया है। कोई आश्चर्य नहीं कि अंतिम दिनों में,अभिनवगुप्त को भी वहीं जाकर सुकून महसूस हुआ। ओशो ठीक ही कहते हैं कि बिना नदी के,कोई देश देश है ही नहीं।
जवाब देंहटाएंआप ने बहुत अच्छी अच्छी जानकारियां दी धन्यवाद
जवाब देंहटाएंराय जी एक और बहुत ही ज्ञानवर्द्धक पोस्ट।
जवाब देंहटाएंबहुत ज्ञानवर्धक जानकारीपूर्ण पोस्ट, आभार.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद !!!
जवाब देंहटाएंज्ञानवर्धक जानकारी के लिए बहुत बहुत धन्यवाद
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