-- सत्येन्द्र झा
दो लाश एक साथ जलाए जा रहे थे। उन में से एक खूब ताम-झाम के साथ.... लोगों की भारी भीड़ लगी थी उसके इर्द-गिर्द। दूसरी उदास कर्म की उदास प्रक्रिया के साथ। अमीर की लाश के पास खड़ी भीड़ मृतक का प्रशस्ति गान कर रही थी, "ओह... जब तक जीए शान से जीए। इस इलाके में ऐसा कौन होगा जो इनके दारु से स्नान नहीं किया... ? अरे.... दारु भी हर कोई पी सकता है क्या... ? खानदानी लोग ही मदिरा का प्रसाद ग्रहण करते हैं। और उधर देखो उसे..... ! ससुर.... सारी जीन्दगी घटिया दारु पी कर आंत सड़ा लिया और आज जीभ निकाल के मर गया.... !"
मैं चुपचाप सुन रहा था। यह समझने में दिक्कत नहीं हुई कि घटिया शराब होती है या गरीबी.... ? वर्ना दो शराबियों में क्या विभेद किया जा सकता है ??
मूल-कथा मैथिली में 'अहीं कें कहै छी' में संकलित 'विभेद' से केशव कर्ण द्वारा हिंदी में अनुदित।
आपने सही नब्ज़ पैर हाथ रखा है ...
जवाब देंहटाएंविभेद तो अमीरी और गरीबी का है.... मदिरा तो मदिरा है छाहे देसी ठर्रा हो या विदेशी शराब...दोनों ही ज़हर का काम करती हैं...विचारणीय प्रसंग
जवाब देंहटाएंपर इस बात में यही मजा है, आप कुछ भी पिओ, कैसे भी जिओ...मौत भेद नहीं करती।
जवाब देंहटाएंदोनो ही चीज घटिया होती हैं!
जवाब देंहटाएंएसा मेरा मानना है!
...भावपूर्ण अभिव्यक्ति !!!
जवाब देंहटाएंक्या बात है,
जवाब देंहटाएंwaah ek sachchai ...kadvi sachchai
जवाब देंहटाएंसोचने पर मजबूर करती पोस्ट....
जवाब देंहटाएंकम में बहुत कुछ कह देना देश-भाषाओं का स्वभाव रहा है !
जवाब देंहटाएंमैथिली-समृद्धि मुझे बहुत प्रभावित करती है | आभार !
कम में बहुत कुछ कह देना देश-भाषाओं का स्वभाव रहा है !
जवाब देंहटाएंमैथिली-समृद्धि मुझे बहुत प्रभावित करती है | आभार !
सार्थक प्रश्न!
जवाब देंहटाएंकथ्य के दृष्टिकोण से सशक्त रचना. सन्देश प्रभावशाली है. शिल्पगत प्रयासों से कथा को और अधिक सशक्त बनाया जा सकता था.
जवाब देंहटाएंbilkul sahi kaha aapne manoj ji .... ek ghatna ke maddhaym se logon ke nazariye ko khub pakda hai aapne..lazawaab
जवाब देंहटाएंमृत्यु ने तो कोई भेद नहीं किया ।
जवाब देंहटाएंसच है मौत कुछ नही देखती ... भेद हमारी दृष्टि में ही छुपा है ...
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