सोमवार, 24 मई 2010

विभेद

 

image विभेद

-- सत्येन्द्र झा

 

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दो लाश एक साथ जलाए जा रहे थे। उन में से एक खूब ताम-झाम के साथ.... लोगों की भारी भीड़ लगी थी उसके इर्द-गिर्द। दूसरी उदास कर्म की उदास प्रक्रिया के साथ। अमीर की लाश के पास खड़ी भीड़ मृतक का प्रशस्ति गान कर रही थी, "ओह... जब तक जीए शान से जीए। इस इलाके में ऐसा कौन होगा जो इनके दारु से स्नान नहीं किया... ? अरे.... दारु भी हर कोई पी सकता है क्या... ? खानदानी लोग ही मदिरा का प्रसाद ग्रहण करते हैं। और उधर देखो उसे..... ! ससुर.... सारी जीन्दगी घटिया दारु पी कर आंत सड़ा लिया और आज जीभ निकाल के मर गया.... !"

image मैं चुपचाप सुन रहा था। यह समझने में दिक्कत नहीं हुई कि घटिया शराब होती है या गरीबी.... ? वर्ना दो शराबियों में क्या विभेद किया जा सकता है ??


मूल-कथा मैथिली में 'अहीं कें कहै छी' में संकलित 'विभेद' से केशव कर्ण द्वारा हिंदी  में अनुदित।

15 टिप्‍पणियां:

  1. विभेद तो अमीरी और गरीबी का है.... मदिरा तो मदिरा है छाहे देसी ठर्रा हो या विदेशी शराब...दोनों ही ज़हर का काम करती हैं...विचारणीय प्रसंग

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  2. पर इस बात में यही मजा है, आप कुछ भी पि‍ओ, कैसे भी जि‍ओ...मौत भेद नहीं करती।

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  3. दोनो ही चीज घटिया होती हैं!
    एसा मेरा मानना है!

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  4. ...भावपूर्ण अभिव्यक्ति !!!

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  5. कम में बहुत कुछ कह देना देश-भाषाओं का स्वभाव रहा है !
    मैथिली-समृद्धि मुझे बहुत प्रभावित करती है | आभार !

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  6. कम में बहुत कुछ कह देना देश-भाषाओं का स्वभाव रहा है !
    मैथिली-समृद्धि मुझे बहुत प्रभावित करती है | आभार !

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  7. कथ्य के दृष्टिकोण से सशक्त रचना. सन्देश प्रभावशाली है. शिल्पगत प्रयासों से कथा को और अधिक सशक्त बनाया जा सकता था.

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  8. bilkul sahi kaha aapne manoj ji .... ek ghatna ke maddhaym se logon ke nazariye ko khub pakda hai aapne..lazawaab

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  9. मृत्यु ने तो कोई भेद नहीं किया ।

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  10. सच है मौत कुछ नही देखती ... भेद हमारी दृष्टि में ही छुपा है ...

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