गुरुवार, 6 मई 2010

आंच पर है लक्षणा शक्ति

-- करण समास्तीपुरी

अँगरेज़ विद्वान शीले ने कहा है कि "द आर्टिस्ट मेय बी नॉन रेदर बाय व्हाट ही ओमिट्स।" कवियों को भी अपनी रचना में शब्द-चयन के प्रति इसी प्रकार सचेष्ट रहना पड़ता है। एक ही शब्द के दूसरे पर्याय से काव्य में चमत्कार आ सकता है तो कभी घोर अनर्थ भी। सो काव्य में प्रयुक्त शब्द किस प्रकार भाव की अभिव्यक्ति करते हैं... उन से अर्थ किस प्रकार विहित होता है, इस आधार पर काव्यांग-विवेचकों ने शब्द-शक्तियों को तीन भागों में बांटा है। अर्थात शब्दों की अर्थ-वाहक क्षमता काव्य-शास्त्र में "शब्द-शक्ति या शब्द-वृति" कहलाती है। शब्द शक्तियां तीन प्रकार की होती हैं :- अभिधा, लक्षणा और व्यंजना ।
अभिधा : यह सामान्य शब्द शक्ति होती है। शब्दों के सरल अर्थ जहां काव्य की भावना अभिव्यक्त करने में सक्षम हों, वहाँ अभिधा शक्ति होती है। जैसे :
घन घमंड नभ गर्जत घोरा । प्रियाहीन डरपत मन मोरा ॥ - रामचरित मानस तुलसीदास
या
रहते हुए तुम सा सहायक प्रण हुआ पूरा नहीं,
इससे मुझे है जान पड़ता, भाग्यबल है सब कहीं !
जल कर अनल में दूसरा प्रण पलता हूँ मैं अभी,
अच्युत ! युधिष्ठिर आदि का अब भर है तुम पर सभी !! - मैथिली शरण गुप्त
गोस्वामी जी और गुप्त जी की उपर्युक्त पंक्तियों का अर्थ ठीक वही है जो उनके शब्द वर्णित करते हैं। प्रथम उदाहरण में मर्यादा पुरुषोत्तम राम पावस में प्रियविहीन मन की आकुलता व्यक्त करते हैं तो दूसरे में अर्जुन जयद्रथ-वध में विलम्ब से अपनी हताशा।
लक्षणा : जहां अभिधार्थ बाधित हो वहाँ काव्यांश का अर्थ उसमें प्रयुक्त शब्दों के लक्षण के आधार पर लगाए जाते हैं वहाँ शब्द की लक्षणा शक्ति कार्य करती है। जैसे :
सतयोजन तेहि आनन कीन्हा ! अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा !! - रामचरित मानस
या
बरसत नयन हमारे निशि दिन.... ! - पदावली सूरदास
या
उन्नत कुछ कुम्भों को लेकर फिर भी युग-युग की प्यासी सी !
आमरण चरण लुंठित होने वाली प्रेयसी सी दासी सी !! - जयशंकर प्रसाद
अब यदि उपर्युक्त पद्यांश के शब्दशः अर्थ लगाएं जाएँ तो पाठक/स्रोता भ्रम में पड़ सकते हैं। यदि सुरसा के सौ योजन मुख को हनुमान माप ही सकते थे समुद्र तरने की क्या आवश्यकता थी... ? वो तो इस पार से ही खड़े-खड़े सौ योजन पार लंका की अशोक-वाटिका में सीता को देख सकते थे। तो यहाँ पर 'सतयोजन' से गोसाईं जी का आशय चार सौ कोस नहीं बल्कि आकार में बहुत बड़ा है। 'सतयोजन' शब्द बहुत बड़े आकार का लक्षक है।
इसी प्रकार आँखों से वर्षा कैसे हो सकती है? लेकिन बरसात से सादृश्य के कारण कृष्ण वियोग में निरंतर आंसू रूपी जल झहराती आँखें 'बरसत नयन हमारे' हो गए।
तीसरे उदाहरण में प्रसाद तिष्यरक्षिता (अशोक के पुत्र कुणाल की प्रेयसी) के सौंदर्य वर्णन में उसके उन्नत कुचों को 'कुम्भ' (घड़ा) ही बना देते हैं। अब कुच कितने भी उन्नत हों घड़ा से तो हो नहीं सकते और हों भी जाए तो उनमे क्या सौंदर्य रह जाएगा.... किन्तु यहाँ कुच से कुम्भ का लक्षण किया गया है कि इतने सौन्दर्य के बावजूद उसकी श्रृंगार पिपासा का निस्तार नहीं हो सका, संयोग सुख नहीं मिला... गोया पास में घड़ा होते हुए भी प्यास न बुझ पायी हो।
लक्षणा के अनेक भेदोपभेद हैं। अगर आपको यह पसंद आया हो तो हम अगले अंकों में उन पर और व्यंजना शक्ति पर चर्चा करेंगे। फिलहाल हम बात करते हैं हिंदी भाषा और साहित्य को लक्षणा शक्ति की देन पर।
किसी भी भाषा में मुहावरे और लोकोक्तियों का स्थान महत्वपूर्ण है। ये भाषा को रुचिर और संश्लिष्ट तो बनाते ही हैं उनके प्रभाव को भी तीब्रता देते हैं। हिंदी का विशाल मुहावरा कोश वस्तुतः लक्षणा वृति से ही प्रसूत है। कुछ मुहावरों की व्याख्या व्यंजना शक्ति के आधार पर की जाती है। हमारे वांग्मय का आरम्भ पद्य में हुआ था। हमारे आदि कवियों ने भी इस लक्षणा शक्ति से आसूत मुहावरों का बखूबी इस्तेमाल किया है। तुलसी काव्य में तो ये भरे पड़े हैं। जैसे :
लक्ष्मण-परशुराम संवाद में लक्षमण परशुराम से कहते हैं कि यहाँ कोई ककड़ी (इतना कमजोर) नहीं है, जो आपके इशारों (सिर्फ धमकी या कटु-वचन) से ही मर जाएगा।
यहाँ कुम्हर बतिया कोऊ नाही ! अंगुरि देखावत जे मरि जाही !!
चौरहि चंदनि रात न भावा !
व्यर्थ मरहु जनि गाल बजाई ! मन मोदकन्हि कि भूख बुताई !!
विप्र सोई जोई गाल बजबा ... !
गुरु-शिष अंध-बधिर का लेखा ... !
मूर मुराई होहि सन्यासी.... !!
परवर्ती कवियों में भी यह प्रवृति रही है।
"जो कि हँस-हँस कर चबा लेते हैं लोहे का चना !
वक़्त पड़ने पर करे जो शेर का भी सामना !!
है कठिन कुछ भी नहीं है, जिनके जी में यह ठना !
कोस कितने भी चलें, पर वो कभी थकते नहीं !
कौन सी है गाँठ जिसको खोल वे सकते नहीं ...?" - अयोध्या सिंघ उपाध्याय 'हरिऔध'
"जब हुई हुकूमत आँखों पर, जनमी चुपके मैं आहों में !
कोड़ों की खा कर मार पली, पीड़ित की दबी कराहों में !! - रामधारी सिंघ 'दिनकर'
विद्युत के इस चकाचौंध में देख दीप की लय रोती है !
अरी हृदय को थाम, महल के लिए झोपड़ी बलि होती है !! - रामधारी सिंघ 'दिनकर'
पिछले दिनों मानसिक हलचल ब्लॉग पर प्रकाशित प्रवीण पाण्डेय की कविता 'भीष्म उठ निर्णय सुनाओ' की समीक्षा में आचार्य परशुराम ने "हृदय में लौह पालना" मुहावरे को निर्दिष्ट किया था। संभवतः हृदय कठोर करने के प्रतीकात्मक अर्थ में कवि द्वारा गढ़ा गया यह नया मुहावरा, निहित अर्थ का पाठकों तक साधारणीकरण करने में असमर्थ लग रहा था राय जी की कसौटी पर। इसी करणवश राय साहब को पाठकों से शब्द-शक्तियों या शब्द वृतियों पर चर्चा करने की जरुरत महसूस हुई थी और इस प्रस्तुति की पृष्ठभूमि तैयार हुई।
आरम्भ से काव्य में चले आ रहे यही लक्षक शब्द व्यापक अर्थ ग्रहण कर मुहावरा बन गए और इनके क़ोश में निरंतर वृद्धि होती रही। मुहावरे की अर्थ-ग्रहण प्रतिक्रिया लक्षणा शक्ति पर ही निर्भर है। जैसे :
आँख मारना : किसी के आँख दबाने पर उसमे इशारे का लक्षण समझ यह इशारा करने के लिए रूढ़ हो गया।
आँखें चार होना : मनुष्य की आँखें तो दो ही होती हैं। फिर चार कैसे ? लेकिन जब दो मनुष्य आमने-सामने हों तो दोनों की दो-दो आँखें मिल कर चार हो जायेंगी। आँखें चार होने में मुलाक़ात का लक्षण देख इसे यही अर्थ दे दिया गया।
आस्तीन का सांप : सांप जब खुले में हो तो उसे देख कर सावधान हो सकते हैं किन्तु जब आपके आस्तीन में ही छुपा हो तो आपको उसका पता भी नहीं लगेगा और वह डंस भी लेगा। कपटी मित्र में आस्तीन के सांप का लक्षण पाया गया इसीलिये आस्तीन का सांप कपटी मित्र के लिए रूढ़ हो गया।
कलेजा पत्थर करना : विज्ञान की इतनी प्रगति के बावजूद कलेजे को पत्थर नहीं किया जा सकता। किन्तु कलेजा अर्थात हृदय का काम है भावों का स्पंदन। जब हम उस स्पंदन पर बलात रोक लगा देते हैं तो "कलेजा पत्थर" हो जाता है।
दूम दबा के भागना : पशुओं के झगडे में प्रायः हम देखते हैं कि एक हार और असुरक्षा महसूस कर अपनी पूंछ को दोनों पैरों के बीच में दबा के भाग पड़ता है। लेकिन मनुष्य के दूम तो कब के गिर गए लेकिन वह अब भी जब बहुत भयभीत होता है तो 'दूम दबा' के भाग पड़ता है।
हाथ पीले होना : हाथ पीले तो रक्ताल्पता और पीलिया में भी हो सकते हैं, लेकिन यह विवाह के लिए ही क्यों प्रयुक्त होता है ? क्योंकि विवाह से पूर्व हल्दी-महावर आदि से दूल्हा-दुल्हन को उबटन लगाया जाता है, साज सज्जा की जाती है, जिसका असर विवाह के कुछ दिनों बाद भी रहता है तो हम कहते हैं कि उनके हाथ पीले हो गए।
पाँव भारी होना : अब गर्भ-धारण का पाँव से क्या सम्बन्ध ? लेकिन गर्भिणी स्त्रियों को अहतियात के तौर पर कम या अहिस्ता चलना फिरना पड़ता है। तो यह लक्षण उनका है जिनके पाँव भारी हों.... इतने भारी कि कदम न उठा पायें।
मेरे ख्याल से आज आपका बहुत वक़्त ले लिया। प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी। उसी के अनुरूप हम आगे शब्द-शक्तियों की चर्चा करते रहेंगे। नमस्कार !!

10 टिप्‍पणियां:

  1. इसी प्रकार “हृदय में लौह पालना” नया मुहावरा अर्थ
    -- प्रवीण जी के द्वार प्रयुक्त इस मुहावरे पर ही इस पोस्ट की पृष्ठभूमि तैयार हुई थी और राय जी ने आपको यह टास्क दिया था। इस मुहावरे को शामिल कर देते इस आलेख में तो और मज़ा आ जाता।
    --- बडा़ ही सारगर्भित आंच लगाई है आपने। कविता लिख लेना और कविता के तत्वों को समझ कर लिखना अलग बाते हैं।
    --- एक संग्रहणीय प्रस्तुति है।

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  2. @ प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी। उसी के अनुरूप हम आगे शब्द-शक्तियों की चर्चा करते रहेंगे।
    --- ज़्यादा प्रतिक्रियाओं की अपेक्षा न रखते हुए आप इसे आगे बढाएं।
    ---- इसे जितनी बार पढता हूं, एक अलग अर्थ सामने आता है।

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  3. एक बार फिर से अभिधा , लक्शना आदि के बारे मे जानकारी मिली धन्यवाद.

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  4. बहुत सार्थक लेखन...

    आरम्भ से काव्य में चले आ रहे यही लक्षक शब्द व्यापक अर्थ ग्रहण कर मुहावरा बन गए और इनके क़ोश में निरंतर वृद्धि होती रही। मुहावरे की अर्थ-ग्रहण प्रतिक्रिया लक्षणा शक्ति पर ही निर्भर है।

    ये जानकारी इतनी विस्तृत रूप से नहीं थी....यहाँ प्रस्तुत करने के लिए आभार

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  5. manojji, bahut gambhir lekhan kar rahe hain aap. is tarh bloglekhan ko ek nayee disha dene ka prayas bhi.

    www.bat-bebat.blogspot.com

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  6. सभी पाठकों का धन्यवाद !

    @ मनोज कुमार,
    1. परवीन पाण्डेय जी की कविता को उद्धृत नहीं करना भूल थी. स्मरण दिलाने के लिए आभार ! मैं ने उक्त उद्धरण को शामिल कर लिया है.
    2. अधिक प्रतिक्रियाओं की अपेक्षा नहीं जो पाठक आते हैं उनकी क्या प्रतिक्रिया है इसकी उत्सुकता है.

    धन्यवाद !!!

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  7. @ अरुणेश मिश्र,
    आदरणीय सर,
    आपके दो शब्द मेरे लिए महान आशीर्वचन हैं. लगता है लेख का मूल्यांकन हो गया. मेरा श्रम सार्थक हुआ. उम्मीद है भविष्य में भी आपका स्नेह बना रहेगा. सीतापुर विश्वविद्यालय से सेवानिवृत प्रो. डॉ. रणजीत शायद आपके सहकर्मी रहे होंगे.... सम्प्रति बेंगलूर में मैं उनके सम्पर्क में हूँ. सिर्फ आपके आने भर से मेरा उत्साह इतना बढ़ गया कि मैं कुछ कह नहीं सकता... ! सर...... बहुत-बहुत धन्यवाद !!!!

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