शनिवार, 1 मई 2010

श्रमकर पत्थर की शय्या पर

आज एक मई है। यानी कि मजदूर दिवस! इन श्रमकरों के श्रम के बिना हम जीवन में कुछ नहीं हासिल कर सकते। उनका श्रम वंदनीय है। श्रमजीवी हमारे लिए तरह-तरह की रंगबिरंगी दुनियां तैयार करते हैं पर उनका स्वयं का जीवन विभिन्न प्रकार के संकटों से घिरा रहता है। हम इन मेहनतकशों को सलाम करते हैं! उन्हें बेहतर सुविधाएँ मिलनी चाहिए… पर इसकी चिंता कौन करता है? मालिको के शोषण का शिकार न हों इसके लिये क़ानून तो हैं पर कितने सक्षम, सक्रिय और सफल, यह किसी से छुपा नहीं है। आज भी श्रमजीवियों की हालत बहुत अच्छी नहीं है. कुछ संस्थानों मे अच्छे वेतनमान मिल रहे हैं लेकिन अधिकांश श्रमजीवियों को अभी भी सम्मानजनक वेतन नहीं मिल पाता। यह दुःख की बात और चिंता का विषय है।

जब किसी श्रमकर को दिनभर मेहनत-मशक्कत कर शाम और रात में ज़मीन पर सोये देखता हूँ तो मन भावुक हो जाता है और कविता की कुछ पंक्तियां बन जाती हैं। इन्हें ही प्रस्तुत कर रहा हूँ, दुनिया के तमाम मेहनतकश सच्चे मजदूरों के लिए-

श्रमकर पत्थर की शय्या पर

---मनोज कुमार

दिन जीते जैसे सम्राट, चैन चाहिए कंगालों की।
रहते मगन रंग महलों में, ख़बर नहीं भूचालों की।


तरु के नीचे श्रमकर सोये, पत्थर की शय्या पर।
दिन भर स्वेद बहाया, अब घर लौटे हैं थककर।
शीतलता कुछ नहीं हवा में, मच्छर काट रहे हैं।
दिन भर की झेली पीड़ाएं, कह-सुन बांट रहे हैं।
अम्बर ही बन गया वितान, चिंता नहीं दुशालों की।

जब से अर्ज़ा महल, तभी से तुमने नींद गंवाई।
सुख सुविधा के जीवन में, सब आया नींद न आई।
कोमल सेज सुमन सी, करवट लेते रात ढ़लेगी।
समिधा करो कलेवर की, तब यह जीवन अग्नि जलेगी।
दुख शामिल रहता हर सुख में, उक्ति सही मतवालों की।

किसी काम का नहीं, अनर्जित जीवन में जो आया।
सुख व शांति उसी ने पाई, जिसने स्वेद बहाया।
सार्थक सृजन हेतु करना है, त्याग हमें आराम का।
पर अब तक जो जिया अलस, वह जीवन है विश्राम का।
सुख सुविधाओं के जंगल में, गुंजलिका जंजालों की।
पुनश्च :
आज के दिन मुझे मेरी रचना ओ कैटरपिलर याद आ रही है। श्रमकर के ऊपर लिखी थी। इस लिंक पर देखें।

16 टिप्‍पणियां:

  1. जब से अर्ज़ा महल, तभी से तुमने नींद गंवाई।

    सुख सुविधा के जीवन में, सब आया नींद न आई।

    कोमल सेज सुमन सी, करवट लेते रात ढ़लेगी।

    समिधा करो कलेवर की, तब यह जीवन अग्नि जलेगी।
    बहुत सटीक लिखा !!

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  2. सुख व शांति उसी ने पाई, जिसने स्वेद बहाया।

    सार्थक सृजन हेतु करना है, त्याग हमें आराम का।

    पर अब तक जो जिया अलस, वह जीवन है विश्राम का

    मनोज जी,

    बेहतरीन रचना आज श्रम दिवस पर....सुन्दर पंक्तियाँ

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  3. मजदूरों की दयनीय स्थिति को पेश करती और मानवता के पतन की कहानी कहती हुई रचना के लिए धन्यवाद /

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  4. सुख व शांति उसी ने पाई, जिसने स्वेद बहाया।
    सार्थक सृजन हेतु करना है, त्याग हमें आराम का।
    और फिर आराम का त्याग किये बिना आराम कहाँ है?
    सुन्दर

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  5. bahut sunder rachana ........

    aaj ke din ko samarpit sarthak rachana.......

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  6. जब से अर्ज़ा महल, तभी से तुमने नींद गंवाई।
    सुख सुविधा के जीवन में, सब आया नींद न आई।
    बिल्कुल सही कहा। जो सुख चैन की नींद मेहनत करने वालों को आती है वह धन अर्जन करने वालों को कहां से आ सकती है?!

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  7. तस्वीरें और कविता प्रति व्यक्ति आय तथा विकास दर के दावों की हक़ीक़त बयां कर रही हैं।

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  8. श्रम और पून्जी की दूरी कब तक रहेगी यहाँ पर व्याप्त पर खासियत है इनमे श्रम ज्वाला से तपते हुए भी नही रहते शोक सन्तप्त्…॥………॥ सटीक प्रस्तुति…।

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  9. सुन्दर पोस्ट।
    श्रम की महत्ता जो समाज नहीं स्वीकारता वह शॉर्टटर्म में सम्पन्न हो सकता है पर स्थाई नहीं बन सकता।

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  10. वाह शानदार प्रयास...बहुत सुंदर प्रस्तुति

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  11. वे ही विजयी हो सकते हैं जिनमें विश्वास है कि वे विजयी होंगे । ये सारे श्रमजीवी विश्‍वास से भरे हैं।

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  12. सब से अधिक आनंद इस भावना में है कि हमने मानवता की प्रगति में कुछ योगदान दिया है। भले ही वह कितना कम, यहां तक कि बिल्कुल ही तुच्छ क्यों न हो? मेहनतकशों के मनवता की प्रगति में योगदान को कौन नकार सकता है!

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  13. जब से अर्ज़ा महल, तभी से तुमने नींद गंवाई।
    सुख सुविधा के जीवन में, सब आया नींद न आई। कोमल सेज सुमन सी, करवट लेते रात ढ़लेगी। समिधा करो कलेवर की, तब यह जीवन अग्नि जलेगी।
    दुख शामिल रहता हर सुख में, उक्ति सही मतवालों की।
    बहुत अच्छी कविता। बहुत अच्छी भावना। दरिद्र व्यक्ति कुछ वस्तुएं चाहता है, विलासी बहुत सी और लालची सभी वस्तुएं चाहता है।

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  14. किसी काम का नहीं, अनर्जित जीवन में जो आया।
    सुख व शांति उसी ने पाई, जिसने स्वेद बहाया।
    सार्थक सृजन हेतु करना है, त्याग हमें आराम का।
    पर अब तक जो जिया अलस, वह जीवन है विश्राम का।
    सुख सुविधाओं के जंगल में, गुंजलिका जंजालों की।
    सटीक प्रस्तुति।
    दु:खों से भरी इस दुनिया में वास्‍तविक सम्‍पत्ति धन नहीं, संतुष्‍टता है।

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  15. behad shandar rachna hai manoj ji ... mazdooron ke halat ki padtal karti hui achhi rachna hai yah.. :)

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