-- करण समस्तीपुरी
चलिए बहुत दिन हो गया, आज आपको मिथिला धाम घुमा देते हैं। यही मिथिलांचल में एगो गाँव है भरवारा। हे... ई देख रहे हैं न पोखर के भीर.... हे... ऊ.... उंचा डीह... वही है न गोनू झा का घर। गोनू झा तो अब रहे नहीं मगर उनका किस्सा सब एक पर एक है। आज देसिल बयना में आपको एगो गोनुए झा के किस्सा सुना देते हैं।
गोनू झा दो भाई थे। गोनू झा और भाना झा। कहावत है भाई में तो भिन्न होन ही है। सो माय-बाप के मरे के बाद, इन दोनों भाइयों में भी सब कुछ का बटवारा हुआ। सब कुछ में आधा-आधी कर लिए मगर दू गो चीज बच गया। एक गाय और एगो कम्बल। अब इको कैसे आधा आधी करें ? भाना झा पंच सब से कनफुसकी कर के जुगार लगा दिए। फैसला हुआ कि गाय का आधा भाग अआगे से गोनू झा के हिस्सा में और पीछे से आधा भाग भाना झा के हिस्सा में। इसी तरह कंबलो का फैसला हुआ। दिन में कम्बल गोनू झा के हिस्सा में और रात में भाना झा के हिस्सा में।
अब बेचारे गोनू झा दिन भर गाय को चराएं, घास खिलाएं, सानी-पानी करें और शाम होते ही भाना झा दूहने बैठ जाए। कटिया भर के दूध ले जाए और गोनू झा देखते रह जाएँ। एकाध बार मुँह खोल के मांगियो दिए, तो भाना झा गया बिगर। कहिस कि बंटवारा कर लिए तैय्यो संतोष नहीं है ? तुम्हारा हिस्सा में जो है सो लो... खा-म-खा हमरे भाग पर काहे आँख गराए रहता है ? यही हाल कंबलो का था। बेचारे गोनू झा दिन भर कम्बल को सुखाएं, झार मोर कर रखें और रात मे भाना झा ओढ़ कर सो जाए।
इधर दिन भर गोनू झा गाय मे लगे रहें और एक घूंट दूध के लिए भी तरसते रहें। पहले तो आज़ादी से इधर-उधर घूमते रहते थे और भोज-भाव, यजमानी में ही चहक के हाथ फेरते रहें। इधर गाय के चक्कर में बेचारे का देह दशा सो गलने लगा। इसी पर लोग कहना शुरू किये कि 'गोनू झा की गाय नहीं बलाय हुई...!'
गोनू झा भी खेलल खेसारी थे। कहे ठीक है। गाय सही में बलाय हो गयी। अब जब हमरे लिए बलाय है तो देखो इसकी बला... ! दिन भर गाय को खाना पीना कुछ नहीं दिए। गाय बेचारी अहुरिया काटती रही। सांझ को भाना झा कटिया ले के बैठ गए दूहने। मगर खाली पेट में दूध कहाँ से उतरे.... !
लगे बेचारे जबरदस्ती खीचने। तभी गोनू झा एगो सोंटा उठाए और दिए गाय के मुंहे पर खीच के। दिन भर की भूखी गाय सोंटा लगते ही ऐसे तिलमिलाई कि मरा लाथार.... ! ये... लगा कटिया में। कटिया हाथ से छूट के फूटा, जो भी दूध था वो भी गया मिट्टी में। दूसरा लाथार लगा भाना झा के जबरे पर।
भाना झा बिफर कर बोले, "अरे करमजला... ! ये क्या किया ? देख रहा है मैं दूध दूह रहा हूँ... डंडा क्यूँ मार दिया... !" गोनू झा बोले, 'हम अपने हिस्से मे कुछ करें... आपको उस से मतलब ?' बेचारे भाना झा करते क्या ? कराहते हुए उठ कर चल दिए। गोनू झा कुटिल मुस्की मार कर बोले, 'देखा गोनू झा की गाय कैसन बलाय होती है....?'
मतलब "योग्य स्वामित्व और उपयुक्त सूझ-बूझ के अभाव में उपयोगी संसाधन भी अभिशाप बन जाता है।" तो यही था आज का देसिल बयना, "गोनू झा की गाय नहीं हुई बलाय हुई।
मज़ा आ गया। खेलल खेसारी का प्रयोग बहुत दिन बाद सुना।
जवाब देंहटाएंगोनू झा मैथिल संस्कृति का एक अनिवार्य हिस्सा रहे हैं। जैसे दक्षिण में तेनालीराम और मुगल काल में बीरबल,वैसे ही मिथिला में गोनू झा।
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योग्य स्वामित्व और उपयुक्त सूझ-बूझ के अभाव में उपयोगी संसाधन भी अभिशाप बन जाता है।
जवाब देंहटाएंअरे करण जी का सुंदर बात कहे। दी...ले खुश हो गया।
हमरे घर में भी एगो गोनू झा है, नाना ने अपने नाती को यही नाम दिया था।
योग्य स्वामित्व और उपयुक्त सूझ-बूझ के अभाव में उपयोगी संसाधन भी अभिशाप बन जाता है।
जवाब देंहटाएंबिलकुल यही हाल देश का भी है
धन्यवाद आप सब का !
जवाब देंहटाएं@ राधारमण जी,
फोन्ट में सुधार कर दिया है ! आभार !!!
बहुत बढ़िया देसिल बयाना ...कथा की कथा और सीख की सीख....
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया और मजेदार .
जवाब देंहटाएंदेसिल बयना मुझे शुरु से ही अच्छा लगता है. गाय वाला यह अन्क भी अच्छा लगा.
जवाब देंहटाएंगोदियाल जी सही कह रहे हैं कि यही हाल देश का भी है,
जवाब देंहटाएंगोनू झा की गाय के बहाने इतनी अच्छी पोस्ट भी पढने को मिली, शुक्रिया।
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