बुधवार, 1 सितंबर 2010

देसिल बयना - 45 : गीत प्रीत सबै बिसरी...!

देसिल बयना - 45

 

गीत प्रीत सबै बिसरी...!


करण समस्तीपुरी

हरे राम हो ! गाँव में तो बड़ी दुर्गिंजन है। ससुर रौदी (सुखार) होता है तो धरतीयो के कलेजा फट जाता है और कहीं बरस गया तो ले गंगिया कि देगंगिया... ! ई बार भी इन्दर महराज का अइसने किरपा हुआ। गए रहे सावन का झूला देखे.... मगर बरखा रानी पखवारा का ऐसन झपसी लगाई कि भदवारी में खुदे झूलते रह गए। रात में मुसलाधार और दिन में टपर-टपर। गाँव का कचिया रास्ता तो बूझिये कि धनखेते हो गया था। आदमी तो आदमी माल-मवेशी का भी आफत। चौर-चांचर सगरे जलमगन कहाँ चराए और कहाँ बांधे।

लेकिन गाँव-घर में तो ई सनातने काल से होता आ रहा है। ई में नया का है ? हम को भी ई सब देख के कौनो अचरज नहीं हुआ। असल बेथा (व्यथा) तो हुआ जिलेबी पाठक को देख कर।  बेचारा आधा में माल-जाल को बांधे और आधा में बाल-बच्चा का बिछावन। सुबह जाए दही बेचे तो आंटा दाल लाये। शाम में जाए दूध बेचे तो तरकारी ले के आये। जांघ भर पानी तैर के जाए गाय के लिए ज्वार काटे। घर आ के दूचारी का बांसखीच के फारे तब चिकनौटा वाली का चूल्हा जले। कबहु बड़का को खांसी तो कबहु बुधनी को खुजली। ई सूख के हड्डी होय गया था बेचारा और बोली... मार बढनी... ! ससुरा खिखिर (लोमरी) की तरह खिसियाते रहता था।

आपको विश्वासे नहीं होगा कि उ वही जिलेबिया है। कहाँ उ बदरी घिरते ही भिरिया पर जाकर मुरली टेरने लगता था, "गोरकी-पतरकी.... रे..... ! मारे गुलेलबा जियरा उड़ी-उड़ी जाय.... !!" वैसे ई गीत तो था फ़िल्मी मगर ई को इलाका-टॉप जिलेबिये बनाया था। हे... ! आपको मश्खरी बुझाएगा मगर गंडक पार के मेहरारू सब में भी ई का जादू चलता था। जुबती-जनानी हटिया-बजरिया के बहाने बरसातो में चप्पू हांक देती थी। फिर ई भिरिया पर से शुरू होता था जिलेबी पाठक का कजरी,

"भीगे रे चोली-भीगे रे चुनरी....  भीगे बदनमा ना.... ! राजा तानी हमकाओढाई डा छतरिया.... बरसे ला सवानमा ना... !!"

लोग कहते थे कि जिलेबिया के कंठ में सरोसती बिराजती है। जैसने नाम जिलेबी वैसने मीठा आवाजो था और रसगर मिजाज भी।  टपकू भाई के बियाह में चिकनौटा गाँव का इस्टेज भी हिला दिया था। हरमुनिया पकड़ के जौन तान मरा,

"नयन लड़ जैहें तो मनवा मा कसक होइबेकरी..... !"

रमलील्ला पाटी का कनहू मिरदंगिया भी ओस्ताद मान लिया था।  सोल्हन्नी उतार दिया था गीत को। चिकनौटा गाँव के निपोरन ठाकुर इस्टेज पर चढ़ के इकावन रुपैय्या जेबी में ठूस दिए थे।

चिकनौटा में दूल्हा से बेसी जिलेबिये का चर्चा होने लगा। कलाकारी का इनाम तो जिलेबिया को उ गाँव में ऐसे मिले कि बेचारे उधर से दोबर होइए के आया। वही गाँव के रूपसी से गठजोड़ होय गया था। वापिस गाँव आया तो सबको लगा कि जिला जीत के आया है। सबके जबान पर एक्कहि बात, "कलाकार हो तो जिलेबी पाठक जैसा। गीत में भी, प्रीत में भी.... ! ससुर सच्छात लछमी सरोसती दुन्नु को जीत लिया।"

कुछ दिन बाद तो हम भी पेट का आग बुझाने भागे शहर बंगलूर। गाँव-घर का हाल-चाल चिट्ठी-चपाती से पता चलते रहता था। फिर गाँव में भी तार-फोन आ गया। हम अपनी महतारी से कभी-कभी जलेबिया के बारे में भी पूछ लेते थे। ख़ास कर सावन-भादों में। सुनते रहे कि अब बांसुरी का बजाएगा, गला का ढोल डिगडिगा रहा है। पांच साल में आधा दर्जन हो गया था।

ई बार गए रहे गाँव तो देखिये  लिए। एक दिन चौपाल पर ढोल-मजीरा ले के बैठे भी। जिलेबिया भी आया था। मने-मन मुस्कियाये कि चलो मण्डली देख के कहीं इका गीत भी लौट आये। मगर जिलेबिया का अँगुरी तो जैसे हरमुनिया के पटरी का रस्ते भूल गयी थी। बेचारा हरमुनिया भगलू दास को सरका कर लगा गर्दभ राग अलापे, "हे गे बुधनी माय ! एगो बीड़ी दिहे गे..... !!"

हे.... हे... हे.... ही....ही... ही.... ही..... ! मार तोरी के..... ! लोग गीत का सुनेगा.... ? सब हिहियाते-हिहियाते बेदम हो गया। "हें...हें...हें.... अरेबाप रे.... ! गीतों में 'बुधनिये माय'.... ! हें...हें...हें.... !"

भगलू दास भी हरमुनिया पटक के बोला, "धत तोरी के.... ! अब ई का गायेगा... ! रियाजे नहीं करता है... ? सारा सुर भूल गया है।"

उधर से टोकन झा पंडीजी बोले, "अब भूलेगा नहीं तो का करेगा.... गीत-प्रीत सबै बिसरी ! जब रीत के बोझ परै सर पर !! अब ई शौख पालेगा कि परिवार... ?"

अब बेचारा को पारिवारिक जिम्मेदारी से फुर्सत कहाँ है जो बेचारा गायेगा और कला दिखाएगा। सच्चे ! जैसे ही रीत (परम्परा) का बोझ सर पर पड़ा, बेचारा जिलेबिया सब गीत-प्रीत भुला गया।

बेचारा जिलेबियो मन मार के बोला, "हाँ पंडीजी ! सच्चे कहे। खेती-बारी, गाय-गोरु, दूध-बथान से फुर्सत मिलता है तो एगो जनानी और छः गो बच्चा का फरमाइशे सुनते-सुनते गोसाईं पुरुब से पच्छिम हो जाते हैं। अब का गायें...?" फिर हमरे तरफ इशारा कर के बोला था, "अभी ई बाबू साहेब सब छुट्टा-खजाना हैं तो खूब रंग-रहस चलता है। एक बेर गर्दन में ढोल पड़ जाए ना तो सब निकल जाएगा।" तब ई लोग भी कहेंगे,"गीत-प्रीत सबै बिसरी ! जब रीत के बोझ परै सर पर !!" 

हम तभी तो हँ...हँ... कर के हिहिया दिए।  मगर बाद में सोचे कि सहिये तो। पहिले बेचारा जिलेबिया फ्री-माइंड था तो कला फूटता था। अब बेचारा को पारिवारिक जिम्मेदारी से फुर्सत कहाँ है जो बेचारा गायेगा और कला दिखाएगा। सच्चे ! जैसे ही रीत (परम्परा) का बोझ सर पर पड़ा, बेचारा जिलेबिया सब गीत-प्रीत भुला गया।" लेकिन पंडी जी का कहावत तो ई पर एक-एक अच्छर बैठ गया, "गीत-प्रीत सबै बिसरी ! जब रीत के बोझ परै सर पर !!" अर्थात "दायित्व के सामने व्यक्तिगत शौक का त्याग करना पड़ता है।"

43 टिप्‍पणियां:

  1. देसिल बयना की प्रस्तुति का अंदाज अलग ही है।

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  2. @ राजभाषा हिंदी
    जय हो देवी जी,
    आज सबसे पहले आपकी ही कृपा हो गयी. धन्यवाद !!

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  3. @ हरीशप्रकाश गुप्त,
    गुप्तजी महराज,
    धनवाद तो है आपको मगर इतना शोर्ट-कट में कैसे काम चलेगा... ? साहेब थोडा सुझाव-उझाव भी दीजीये !

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  4. देसिल बयना को बताने के लिए हमेशा एक अच्छी कथा बुन कर लाते हैं ...अच्छी अभिव्यक्ति ...

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  5. ka ho karan ji e desil bayna padkar to humko jalebi khane ka man kar gaya...aj to lagta hai jalebi khana he parega..
    Baki aj desil bayna padhkar kahawat ka arth samjh me aa gaya...Humko lagta hai ki apko desil bayna ka sirsak "गीत-प्रीत सबै बिसरी ! जब रीत के बोझ परै सर पर !!"
    e rakhna chaiye tha..baki ap to inne ache lekhak hai he hum kitno tarif kar de kame hoga...dhnayawad...

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  6. बहुत-बहुत धनवाद रचना जी ! आपका सुझाव भी बहुत महत्वपूर्ण है. इसी तऱ्ह मार्गदर्शन करते राहणे का अनुरोध है !

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  7. बहुत अच्छी प्रस्तुति,
    आप भी इस बहस का हिस्सा बनें और
    कृपया अपने बहुमूल्य सुझावों और टिप्पणियों से हमारा मार्गदर्शन करें:-
    अकेला या अकेली

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  8. करण जी, आपके लेखन में जो सच्चाई और गाँव के जीवन की बारीकी है वो आजकल के लेखन में जल्दी देखने को नहीं मिलती| आपके जिलेबिया के कहानी और बहुतों ग्रामीणों के जीवन से बहुत मिलती जुलती है| ऐसा ही एक सख्स मेरे गाँव में हुआ करता था जिसका नाम था "रामधनी"| बहुत सारी कलाओं का माहिर...गाँव में सभी उससे कहते थे..."रामधनी को कोन कमी"| आपकी कलम को मेरा नमन जो मुझे यदा कदा मेरे व्यतीत की याद दिलाता है| इसी तरह देसिल बयना प्रस्तुत कीजिये और कहने की जरूरत नहीं की "देसिल बयना, सब जग मीठा"|

    कोटिश: धन्यवाद

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  9. जन्माष्टमी की बहुत बहुत शुभकामनायें।
    भाईया भाषा ओर रचना दोनो ही बहुत सुंदर लगे, धन्यवाद

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  10. कर्ण जी अब बुधवार माने देसिल बयना. आज का अंक पहले के अंकों से अधिक सुगठित .. अधिक प्रासंगिक .. ग्रामीण परिवेश में जिस तरह आप खींच कर ले जाते हैं मुझे तो फणीश्वर रेनू की याद आ जाती है.. आंचलिक लेखन में आप ए़क ससक्त हस्ताक्षर बनेंगे.. हमारा विश्वास है.. हमारी कामना है...

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  11. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  12. @ राजीव-रंजन लाल,
    बहुत-बहुत धन्यवाद राजीव जी,
    दरअसल पुछिये तो ई देसिल बयना का प्रेरणा हमें आपही से मिला. उ का है कि आप भी तो पहिले खूब ब्लोगीयाते थे. भरास, नुक्कड और कतेक रा'स बात.... और का..का....! मगर देखिये रीत के बोझ माथा पर पडते..... कुंभ के मेला के तरह बारह बरिस पर एक बार आते हैं. मगर हम आपको ऐसे ही याद दिलाते रहेंगे. वैसे आपके कटहर का कोआ भी हमको बहुत याद राहता हैं.

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  13. @ राज भाटिया,
    धन्यवाद भाटिया जी ! आपको भी जन्माष्टमी की बहुत-बहुत बधाई !

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  14. @ अरुण सी रॉय,
    अरुणजी,
    हमको तो अब आपके सन्मुख होते भी डर लगेगा.... कही आपके उम्मीद पर खरा नही उतरे तो... ? खैर अभी प्रोत्साहन के लिये धन्यवाद !!

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  15. जलेबिया के माध्यम से लोककला के लुप्त होने पर आपके द्वारा उकेरी गई चिंता जायज़ है। इसका कारण भी आपने कह दिया है कि "दायित्व के सामने व्यक्तिगत शौक का त्याग करना पड़ता है।"
    पर बात वहीं आकर रुक जाती है कि समाधान क्या है?

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  16. जिलेबी पाठक की बेथा(व्‍यथा) जानकर दुख कम और हंसी ज्‍यादा आ रही है । आंचलिक भाषा से ओत प्रोत देसिल बयना पढ़कर पेट में बल पड़ गए । दुर्गिंजन, मार बढ़नी, ले गंगिया दे गंगिया, हे गे बुधनी माय, एगो बीड़ी दिहे गे और मार तोरी के जैसे चमत्‍कारिक शब्‍दों ने तो इसमें चार चांद लगा दिए हैं ।

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  17. आपकी यह कहानी हमें अपने गांव की याद दिलाती है और जी भर कर हंसाती भी है । बहुत ही अच्‍छी रचना ।

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  18. देशज शब्‍दों का प्रयोग मन भावन एवं रूचिकर लगा

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  19. अब ई शौख पालेगा कि परिवार... ?"

    त्रासदी का कैसा शूक्ष्म विवेचन किया है आपने...

    आपकी पोस्टें जिस दुनिया की सैर करा जो सुख दे जाती हैं, शब्दों में वह नहीं बता सकती...

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  20. करण जी, जितनी बार पढ़ रही हूँ एक नया अनुभव हो रहा है और बार-बार पढ़ने को जी चाह रहा है । सच ही तो है बेचारा करेगा क्या जब पांच साल में आधा दर्जन हो गया तो जिम्मेदारी तो बढ़नी थी । " फ्री माइंड कहां से रहेगा ?"

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  21. @ मनोज कुमार,
    हमको तो जो बुझाया वो कः दिये... समाधान तो समाजशास्त्री लोग जाने !

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  22. @ रीता,
    हम तो बस लिख दिए.... अब आपको अपनापन मिल गया तो मेरा प्रयास धन्य-धन्य और आपको धन्यवाद !!!

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  23. @ रीता,
    मगर रीता जी हमको ई नहीं बुझाया कि आपको 'मार बढनी' कैसे पसंद आया.... ?

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  24. @ चन्दन,
    ई हुई ना बात... ! गांवे को याद कर के ई सब लिखा भी जाता है कि... वरना हम कोन सा बिस्मिल्ला खान हैं.... ?

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  25. @प्रेम-सरोवर,
    सरोवर जी,
    आपके टिपण्णी में डुबकी लगा के तो हम दोबर आनंद से भीज गए. धन्यवाद के साथे अगले बुध के लिए न्योत भी दे देते हैं !!!

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  26. यह टिपण्णी बेंगलूर के प्रसिद्द कवि ज्ञानचंद मर्मज्ञ ने लाग इन नहीं कर पाने के कारण ई-मेल से भेजी है,

    Gyan Chand to me
    show details 5:02 PM (22 minutes ago)

    wah, ekdam desi.
    bhasha aur shaili ke prawah ka kya kahana.
    shubhkamnayen:GyanChand Marmagya

    मर्मज्ञ जी को बहुत-बहुत धन्यवाद !

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  27. Apko जन्माष्टमी की बहुत बहुत शुभकामनायें।


    Ye post bahut achhi lagi. Padhkar Mazaa aa gayaa.

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  28. @वीरेन्द्र सिंघ चौहान,
    धनवाद वीरेंदर बाबू !

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  29. अब ई देसिल बयना पर त हमसे कुच्छो कहले नहीं जा रहा है... जब सरसती बिराजती थी जिलेबी पाठक के कण्ठ में तब ऊ लछमी लेकर आ गए... लेकिन पिरीतिया का आधा दर्जन परिनाम के आगे सरसती भी रूस गई अऊर लछ्मी भी भाग गई... बहुत कस्ट होता है ऐसा आदमी का दुर्दसा देखकर...सहिए है, न गीते रहा न प्रीते रहा..बस रीत के बोझ तले दबकर रह गए बेचारा जिलेबी पाठक. एही रीत के फेरा में गौतम भी सुतला में पत्नी और बच्चा को छोड़कर निकल गए ज्ञान के खोज में... अब सब घर छोड़ने वाला बुद्ध नहींबनता है, कुछ लोग ओझरा के जिलेबिया बन जाता है...

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  30. "कर्मण्ये वाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन्!"
    --
    योगीराज श्री कृष्ण जी के जन्म दिवस की बहुत-बहुत बधाई!

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  31. जन्माष्टमी के पावन अवसर पर आपको और आपके परिवार के सभी सदस्यों को हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई!

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  32. अर्थाभाव ने कितने ही जिलेबियों की मिठास कम कर दी है। यह जन्मजात प्रतिभाओं के असामयिक निधन की कथा-व्यथा है।

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  33. ग्रामीण परिवेश को किसी प्रशिक्षण की जरूरत नहीं। गीत उनके कंठ में बसा ही होता है। मगर लक्ष्मी और सरस्वती का साथ कभी नहीं रहता।

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  34. सभी पाठकों का हृदय से आभारी हूँ ! धन्यवाद !!

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  35. atyant shubhashysh shubham sab kuchh hirday chhuvanhar....... Ati utkrisht.

    Sandeep

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  36. आप अच्छा कार्य कर रहे हैं! शुभकामनायें !

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आपका मूल्यांकन – हमारा पथ-प्रदर्शक होंगा।