गुरुवार, 9 सितंबर 2010

संबंध विस्‍तर हो गए हैं

संबंध विस्‍तर हो गए हैं

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डॉ. रमेश मोहन झा

डॉ० रमेश मोहन झा जे.एन.यू नई दिल्ली से एम.ए, एम.फिल प्राप्त प्रसिद्द आलोचक प्रो० नामवर सिंह के निर्देशन में पीएच.डी कर संप्रति हिंदी शिक्षण योजना, राजभाषा विभाग, गृह मंत्रालय, कोलकाता से संबद्ध हैं !! वागर्थ, दस्तावेज, प्रतिविम्ब, कथादेश, कथाक्रम, साक्षात्कार प्रभृति हिंदी पत्र-पत्रिकाओं में आलेख समीक्षा आदि का नियमित प्रकाशन! संपर्क संख्या 09433204657

जब संवेदना की सरिता सूखने लगे तो संबंधों की हरी भरी लता भी मरूआने लगती है। ऐसे समय में, संबंध विस्‍तर की तरह हो गए हैं। सुविधानुसार बिछाया। फिर समेटकर ताक पर रख दिया। लेकिन मां और बच्‍चे का संबंध नाभि-नाल का है। इसलिए जननी और जन्‍मभूमि को स्‍वर्ग से भी बढ़कर माना गया है। इस संबंध की जड़े इतनी गहरी होने पर भी विच्छिन्न हो जाए तो समझिए मानवता संकट में है।

इसी संकटापन्‍न स्थिति को केंद्र मे रखकर अरुण राय ने बेहद मार्मिक कविता गीली चीनी  (लिंक) लिखी है। एसी कविता तभी लिखी जा सकती है जब दिल भरा हो मगर रोया न जा रहा हो। इस कविता का शीर्षक गीली चीनी की जगह मां होना चाहिए। क्‍योंकि गीली चीनी प्रतीक के रूप में मां की स्थिति का ही बयान करती है। मां पर यूं तो बहुत सारी कविताएं लिखी गई है, लेकिन यह कविता उनसे थोड़ी भिन्‍न है। “मार खाई पर रोई नहीं” वाली स्थिति में मां को रूपायित किया गया है। छोटे छोटे संकेतों से बहुत सारी बातें कवि ने कही है। आर्थिक संघर्ष से जूझता परिवार।  कैसे मां अभाव में भी गृहस्‍थी को सभांलती है। गहने बेचकर अपने बच्‍चों का भविष्‍य बनाती है। कहीं पीड़ा या अफसोस नहीं, बल्कि मां के चेहरे पर एक उजास आ जाता है। मां एक सुरक्षा कवच की तरह परिवार को संरक्षित करती है। अभाव में भी एक भरा पूरा जीवन जिया जा सकता है। लेकिन उसके लिए मनुष्‍य को आत्‍मकेंद्रिता से बचना होगा।

“लैंग्‍वेज इन सिचुएशन” सार्त्र का यह कथन यहां पूरी तरह फिट बैठता है। कविता शुरूआत में काफी तरल है, मध्‍य में थोड़ी ठस्‍स हो जाती है, लेकिन अंत में मां की आंखों की नमी से पुनः तरल हो जाती है। यहां एक खरी और उष्‍म संवेदना का स्‍पर्श होता है, जो केवल प्रामाणिक ही नहीं लगती, बल्कि वह पाठकों को झकझोर कर रख देती है।

भाव विह्वल कर देने वाला चित्र कविता का चरमोत्‍कर्ष है – जहां कवि कहता है

वर्षो बाद अब

चीनी गीली नहीं रहती

लेकिन

गीली रहती है,

मां की आंखें,

गीला रहता है,

मां के मन का आसमान।

इसी भाव को मुनव्‍वर राणा ने अपने शेरों में बांधा है, बानगी देखें-

भूलकर भी कभी मां के आगे मत रोना

बुनियाद पर नमी कभी अच्‍छी नहीं होती।

कुल मिलाकर कविता काफी मर्मस्‍पर्शी बन पड़ी है। मां के अंतर्मन को पकड़ने के लिए कविता की बुनावट और सघन होनी चाहिए थी। बावजूद इसके, कविता में अपनी बातें कहने में कवि सफल हुए हैं, इसके लिए उन्‍हें साधुवाद।

45 टिप्‍पणियां:

  1. अच्छी कविता से रूबरू कराने का आभार ।

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  2. इस समीक्षा से कविता को अच्छा विस्तार मिला है।
    रमेश जी की समीक्षा से आँच को नए आयाम मिलेंगे, ऐसी आशा है। शुभकामनाएं तथा उत्कृष्ट समीक्षा के लिए आभार।

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  3. ककविता बहुत अच्छी लगी और राणा जी का शेर लाजवाब है। कविता की व्याख्या करके उसके रूप को और भी निखार मिला। धन्यवाद।

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  4. पहले भी कविता पढ़ी है..आज फिर पड़ने को मिली ..अच्छा लगा

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  5. यही तो कविता और कवि की खूबी है………………।प्रतीकों के माध्यम से सारा जीवन दर्शन करा देते हैं……………………बेहतरीन समीक्षा की है……………कवि और समीक्षक को बधाई।

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  6. वाह गीली चीनी और माँ की आँखें ..बहुत भावपूर्ण कविता और समीक्षा भी बेहतरीन .

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  7. आदरणीय मनोज जी एवं रमेश जी ! आंच पर अपनी कविता "गीली चीनी" की समीक्षा देख कर अच्छा लग रहा है.. कविता को समीक्षा से नया आयाम मिला है और मुझे दिशा. लेकिन जैसा मुझे लग रहा है.. कविता के कंटेंट पर आपने काफी अच्छी चर्चा की है परन्तु कविता की संरचना पर थोड़ी काम चर्चा हुई . थोडा प्रकाश और डालते तो मेरी अगली कवितायें और सुगठित हो जाती.. मैंने भी महसूस किया है कि मध्य में जाकर कविता ठस्स हो गई है.. ए़क बात और गीली चीनी को जिस निम्न और मध्य वर्गीय संवेदना के रूप में लिया है मैंने उसपर चर्चा होती तो कविता की आत्मा और भी तृप्त हो जाती. फिर भी अपनी ही कविता की समीक्षा पढ़ मैं फिर से कई बार कविता का पाठ कर लिया है... मनोज जी को मंच देने और रमेश जी को बहुमूल्य समय देने के लिया बहुत बहुत आभार.

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  8. आप दुवारा की समीक्षा बहुत अच्छी ओर सुंदर लगी,मै जब भी किसी को अपनी मां से बतमीजी करते देखता हुं तो मुझे पता नही क्यो बहुत बुरा लगता है, जब की वो दोनो ही मेरे कुछ नही लगते,
    धन्यवाद इस अति सुंदर लेख के लिये

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  9. Kavita aur samiksha dono padhi. Samiksha bahut hi santulit hai. Han main Samikshak is bat se asahamat hun ki kavita shirshak "Ma" hona chahiye. "Gili Chini" se ma sahit pure samay ka daur, samaj,jiya huva vah sab kuchh, jinki yaden kavi ko gili chini akele samet kar de deti hai. Sadhuvad.

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  10. बहुत अच्छी समीक्षा , साथ ही कविता भी बहुत मर्मस्पर्शी है ।

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  11. झा जी, आपकी समीक्षा बहुत पसंद आई ।

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  12. एक अच्छी समीक्षा । आभार...........

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  13. इस पोस्‍ट में गीली चीनी का लिंक सूख गया है मतलब वो उस पोस्‍ट पर नहीं पहुंचा रहा है। उस लिंक को अगर दोबारा से जोड़ देंगे तो उस कविता तक पहुंचना संभव हो सकेगा। उसमें कुछ त्रुटि आ रही है। आप उसे पहले क्लिक करके देख लें और लिंक बदलने पर भी दोबारा से खोल कर देख लें, अगर खुल रहा है तो बल्‍ले बल्‍ले।
    एक बात तो कहूंगा सार्थक ब्‍लॉगिंग की दिशा में यह कदम उल्‍लेखनीय है। इस प्रकार की समीक्षाएं ही हिन्‍दी ब्‍लॉगिंग की दिशा निर्धारित करेंगी।

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  14. ब्लाग पर एक सुंदर कविता की समीक्षा की पहल सराहनीय है।

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  15. समीक्षा के साथ कविता...
    बेहतर प्रयास...

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  16. @ अविनास जी, राधारमण जी
    लिंक खोल कर देखा खुल रहा है।
    लिंक पीले वाले भाग में नहीं, पोस्ट के पहले पाराग्राफ में है।
    आपका धन्यवाद।

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  17. माँ के बहाने निम्न और मध्यवर्गीय समाज के सच को उजागर करती कविता "गीली चीनी' आँखें नाम कर देती हैं और इसकी समीक्षा नई दृष्टी देती है...

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  18. निर्मल गुप्त जी ने ईमेल द्वारा कुछ इस तरह कहा: "अरुण गीली चीनी पर समीक्षा बहुत सारगर्भित है .मैं अपनी राय जरा विस्तार के साथ कल दर्ज करूँगा .पहले कागज पर लिखूंगा फिर टाइप करूँगा .हम तकनीक के ऐसे सक्रमण काल में
    जन्मे कि कई मामलों में आधे अधूरे रह गए .मन की बात लिखने के लिए कागज कलम चाहिए ,कम्पूयटर से काम नहीं चलता ."

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  19. आप की रचना 10 सितम्बर, शुक्रवार के चर्चा मंच के लिए ली जा रही है, कृप्या नीचे दिए लिंक पर आ कर अपनी टिप्पणियाँ और सुझाव देकर हमें अनुगृहीत करें.
    http://charchamanch.blogspot.com


    आभार

    अनामिका

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  20. हमेशा की तरह देरी की माफी माँगते हुए कहना चाहता हूँ कि जितनी अच्छी कविता है और जितने बेहतर ढंग से इसके भाव उकेरे गए हैं वह समीक्षा की आँच में और भी उभर कर सामने आए हैं...डॉ. झा इसके लिए बधाई के पात्र हैं... मुनवार राना सहब का यह शेर मुझे भी बहुत पसंद हैः
    ‘मुनव्वर’! माँ के आगे यूँ कभी खुल कर नहीं रोना
    जहाँ बुनियाद हो इतनी नमी अच्छी नहीं होती
    धन्यवाद!!

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  21. बहुत ही अच्छी समीक्षा है ....कवि और समीक्षक दोनों को बधाई !!

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  22. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  24. बहुत अच्छी प्रस्तुति।

    हिन्दी, भाषा के रूप में एक सामाजिक संस्था है, संस्कृति के रूप में सामाजिक प्रतीक और साहित्य के रूप में एक जातीय परंपरा है।

    हिन्दी का विस्तार-मशीनी अनुवाद प्रक्रिया, राजभाषा हिन्दी पर रेखा श्रीवास्तव की प्रस्तुति, पधारें

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  25. समीक्षक महोदय की समीक्षा प्रशंसनीय है। आप जैसे समीक्षक का ब्लाग के माध्यम से सामीप्य पाकर अनिर्वचनीय खुशी हुई। आशा है भविष्य में भी आप इस तरह की समीक्षा प्रस्तुत करते रहेंगे।

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  26. समीक्षक महोदय की समीक्षा प्रशंसनीय है। आप जैसे समीक्षक का ब्लाग के माध्यम से सामीप्य पाकर अनिर्वचनीय खुशी हुई। आशा है भविष्य में भी आप इस तरह की समीक्षा प्रस्तुत करते रहेंगे।

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  27. कविता का लिंक खुल नहीं रहा। समीक्षा का आकलन मुश्किल है।

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  28. अच्छी कविता, बहुत अच्छी समीक्षा, कवि और समीक्षक को बधाई।

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  29. bahut sundar prastooti......halanki kavitaa kaa vo link nahi khul raha par jo baat saane aayi hai.vo bahut sundar aur sahi..... aabhaar

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  30. क्या कहूँ कविता की और क्या कहूँ समीक्षा की...
    बस बेजोड़ !!!!

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