पोस्टरसत्येन्द्र झा |
हॉल में सिनेमा बदल गया था। सिनेमा हॉल के कर्मचारी शहर की दीवारों पर नए पोस्टर चिपकाने आये थे। वे पुराने पोस्टरों को फार-फार कर गिराने लगे और उनकी जगह नए पोस्टर चस्पा करने लगे। वह बूढा यह सब देख रहा था। सहसा बढ़ा और और उन फटे-पुराने पोस्टरों को संजोने लगा। एक कर्मचारी, "बाबा ! इस पोस्टर का क्या करेंगे ? यह तो पुराना हो गया है।" बूढा, "कोई बात नहीं। अपने घर में लगाऊंगा।" दूसरा कर्मचारी, "मगर यह तो पुराना है। अब तो नया सिनेमा आ गया है।" बूढा, "तो क्या हुआ ? पुराने के लिए बाजार मे कोई जगह नहीं है। घर में अभी भी 'पुरानी चीजों' का कुछ महत्व है।" बूढा पोस्टर को लेकर आगे बढ़ गया। कर्मचारी अबाक थे। |
(मूल कृति मैथिली में "अहीं के कहै छी" में संकलित 'पोस्टर' से हिंदी में केशव कर्ण द्वारा अनुदित।) |
मंगलवार, 21 सितंबर 2010
पोस्टर
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यथार्थ लेखन।
जवाब देंहटाएंदिल को छू लेने वाली रचना, बधाई
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
जवाब देंहटाएंमराठी कविता के सशक्त हस्ताक्षर कुसुमाग्रज से एक परिचय, राजभाषा हिन्दी पर अरुण राय की प्रस्तुति, पधारें
इस प्रभावशाली लघुकथा के लिए
जवाब देंहटाएंआपको बहुत-बहुत बधाई!
गहरी बात
जवाब देंहटाएंसत्येंद्र झा जी की यह लघु कथा एक सचाई का दर्पण है... पुरानी चीज़ों के लिए अभी भी कहीं जगह है…अफसोस हम उस जगह का महत्व नहीं समझ पाते!!
जवाब देंहटाएंबहुत गम्भीर लघुकथा... अच्छा अनुवाद...
जवाब देंहटाएंKaphi sunder rachna,sach main dil ko chu gayi
जवाब देंहटाएंHardik Badhai
सुन्दर सन्देश देती लघु कथा।
जवाब देंहटाएंapane ek sandesh liye ye katha bahut kuchh kah jati hai, puirane ke upar nayi parat jaroor chadh jati hain lekin naye ud jate hain aur purane surakshit rahate hain.
जवाब देंहटाएंअच्छा सन्देश देती लघु कथा ..काश सबके घर घर हों मकाँ नहीं ..
जवाब देंहटाएंभावुकता से ओतप्रोत....
जवाब देंहटाएंसाधुवाद
मन बड़ा भारी हो गया...
जवाब देंहटाएंक्या विडंबना है , हम सभी रोज पुराने पड़ते जा रहे हैं,पर वर्तमान में इसे याद नहीं रख पाते....
सच है. बहुत बढ़िया पोस्ट!!
जवाब देंहटाएंहमारी जिम्मेदारी है कि घर को बाज़ार न होएं दें.
गहरी बात ... पुरानी चीज़ों की शायद आज घर में ही जगह है ....
जवाब देंहटाएंयथार्थ को प्रस्तुत करती हुई आपकी यह कथा बहुत पसंद आई । जिसप्रकार पुरानी चीजों को बेकार समझ कर फेंक दिया जाता है ठीक वैसा ही शलूक कुछ लोग अपने परिवार के वृद्ध सदस्य के साथ भी करते हैं । उनका उस घर में आज भी उतना ही महत्व है जितना कि कभी हुआ करता था । इसी सच्चाई को इस लघु कथा में बड़े ही मार्मिक ढंग से पेश किया गया ङै ।
जवाब देंहटाएंशाश्वत मूल्यों में हो रहे छरण पर बहुत ही मार्मिक व्यंग्य किया है लेखक ने. बाजारवाद की चपेट से घर को बचाना होगा. बुजुर्गों का एहतराम करना ही होगा वरना घर-घर नहीं रहेगा !! धन्यवाद !!!
जवाब देंहटाएंअच्छी लघु कथा.
जवाब देंहटाएंकहीं न कहीं तो महत्व रहना चाहिये पुरानी चीजों का।
जवाब देंहटाएंबाबा की बात बिल्कुल सही थी. अच्छी कथा...
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया लघुकथा प्रस्तुति..... बधाई
जवाब देंहटाएंसच को दर्शाती है यह लघु कथा, अच्छी प्रस्तुति.
जवाब देंहटाएंदिल के फफोले जल उठे सीने के दाग से,
जवाब देंहटाएंइस घर को आग लग गई, घर के चिराग से ।
पुरानी चीज़ों को संजोने के नाम पर हमारा घर वास्तव में कूड़ाघर ही बना रहता है। उनसे मुक्त हो जाना अच्छा। बस,इतना ध्यान रहे कि वस्तु और संवेदनाएं अलग-अलग होती हैं।
जवाब देंहटाएंनिहित संदेश उम्दा है...
जवाब देंहटाएंBahut bhadiya katha...aabhar
जवाब देंहटाएंbahut gahraee se otprot thee ye laghukatha........
जवाब देंहटाएंaccha sandesh sanjoe.
बहुत सुन्दर और प्रभावशाली लघुकथा
जवाब देंहटाएंachcha sandesh deti hai yeh laghukatha. nirjiv vastu ke madhyam se samvedana jagati hui.
जवाब देंहटाएंsundar.
बाद मे होता है अहसास गुजर जाने के सफर
जवाब देंहटाएंहम चले थे अकेले, था भी कोई हमसफर