लघुकथा |
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हाँ, अब कल्पना ही एकमात्र सहेली तो है जो हमेशा सुखद अनुभूति देने चली आती है। वर्ना, माँ तो बस हरदम शून्य में ही आँखें गड़ाए रहती है। उसकी हँसी को देखे हुए एक अर्सा होने को आ गया। बोलती है, पर शब्द उसके होठों से ही निकलते हैं। माँ को अपनी कोई चिन्ता नहीं है। चिन्ता खाए जा रही है तो बस स्मृति की। पिता की स्थिति थोड़ी भिन्न है। हर स्थिति-परिस्थिति का असंपृक्त भाव से संज्ञा शून्य समन्वय। निलय की रौनक भाभी और बच्चे तक ही सीमित है। वह स्मृति से कभी बड़ा नहीं बन पाया। उम्र में डेढ़-एक साल उससे बड़ा जरूर है किन्तु स्मृति से अच्छा सेटिल न हो पाने की कुण्ठा उसे हमेशा स्मृति के पीछे ही खड़ा करती आई है। ऊपर से भाभी की सोच– “तुम ही क्यों? अभी तो माँ-बाप जिन्दा हैं।“
“मिठाई भी खाएगी या......” कल्पना ने उसे अतीत से झकझोरकर वर्तमान में ला खड़ा किया। “........हमेशा बातें करते-करते यूँ ही जाने कहाँ खो जाती है ?”
“हाँ-हाँ क्यों नहीं।“ फिर उसने प्रश्न के अधूरे उत्तर को पूरा किया। “बस, यों ही कल्पना। बहुत हो गया। अब मैं अतीत की उलझी हुई रेखाओं के जाल से निकलना चाहती हूँ। अब मेरे आसपास बिखरे प्रतिबिम्ब ही मेरे अवलम्ब हैं और मैं अपने अन्दर पसरे खाली स्थान को उनसे भरना चाहती हूँ। इन प्रतिबिम्बों में ही मेरे सपने पूरे होते दिखाई देते हैं.........”
**** चित्र गूगल सर्च |
मंगलवार, 14 सितंबर 2010
लघुकथा - प्रतिबिम्ब
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हरीश प्रकाश गुप्त
सहसा उसके कपोलों पर रंगत उभर आई। सन्तोष की सिहरन तन-बदन में भीतर तक उतरती चली गई। कल्पनाओं में खोई स्मृति की आँखें शब्द-सी व्यक्त करती चमक उठीं।
कल्पना के सामने कभी अपना, कभी अविरल का तो कभी स्मृति का, सबके चेहरे तेजी से घूम रहे थे।
बहुत अच्छी लघु कथा। आभार।
जवाब देंहटाएंमैं दुनिया की सब भाषाओं की इज़्ज़त करता हूँ, परन्तु मेरे देश में हिन्दी की इज़्ज़त न हो, यह मैं नहीं सह सकता। - विनोबा भावे
भारतेंदु और द्विवेदी ने हिन्दी की जड़ें पताल तक पहुँचा दी हैं। उन्हें उखाड़ने का दुस्साहस निश्चय ही भूकंप समान होगा। - शिवपूजन सहाय
हिंदी और अर्थव्यवस्था-2, राजभाषा हिन्दी पर अरुण राय की प्रस्तुति, पधारें
राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
जवाब देंहटाएंमैं दुनिया की सब भाषाओं की इज़्ज़त करता हूँ, परन्तु मेरे देश में हिन्दी की इज़्ज़त न हो, यह मैं नहीं सह सकता। - विनोबा भावे
भारतेंदु और द्विवेदी ने हिन्दी की जड़ें पताल तक पहुँचा दी हैं। उन्हें उखाड़ने का दुस्साहस निश्चय ही भूकंप समान होगा। - शिवपूजन सहाय
हिंदी और अर्थव्यवस्था-2, राजभाषा हिन्दी पर अरुण राय की प्रस्तुति, पधारें
बहुत ही अच्छी प्रस्तुति हरीश जी।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
मैं दुनिया की सब भाषाओं की इज़्ज़त करता हूँ, परन्तु मेरे देश में हिन्दी की इज़्ज़त न हो, यह मैं नहीं सह सकता। - विनोबा भावे
हरीश प्रकाश गुप्त की लघुकथा प्रतिबिम्ब, “मनोज” पर, पढिए!
बहुत अच्छी लगी लघु कथा। हरीश जी को बधाई।
जवाब देंहटाएंअच्छी लघुकथा ...स्मृति की स्थिति थोड़ी और स्पष्ट की गयी होती ...माता पिता के रहते भाई बहनों की ज़िम्मेदारी उस पर क्यों ?
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी रचना...बधाई.
जवाब देंहटाएं___________________
'पाखी की दुनिया' में आपका स्वागत है...
हरीश जी अच्छी लघु कथा है.. उत्तरदायित्व और स्वयं के जीवन के द्वन्द को बखूबी प्रस्तुस्त किया है आपने.. सुंदर !
जवाब देंहटाएंअब कल्पना ही एकमात्र सहेली तो है जो हमेशा सुखद अनुभूति देने चली आती है।... भाव बहुत गहरे और सच्चे हैं। बधाई
जवाब देंहटाएंबेहद सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंपरिवर्तनशील असार संसार की एकाकी पीड़ा का बड़ा ही मनोवैज्ञानिक चित्रण किया है आपने ! धन्यवाद !!
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी लगी लघु कथा, बधाई।
जवाब देंहटाएं@ राजभाषा हिन्दी
जवाब देंहटाएंप्रोतसाहन के लिए आभारी हूँ।
@ मनोज जी,
जवाब देंहटाएंआपको कथा अच्छी लगी धन्यवाद।
प्रोत्साहन के लिए आपका आभारी हूँ।
@ निर्मला जी,
जवाब देंहटाएंआपको कथा अच्छी लगी धन्यवाद।
प्रोत्साहन के लिए आपका आभारी हूँ।
@ संगीता जी,
जवाब देंहटाएंआपका प्रश्न अच्छा लगा। दरअसल लघुकथा के कलेवर में विस्तार की संभावना अधिक न होने के कारण ऐसी रिक्ति आ गई है। विषय बड़ा है और उसे लघुकथा के सीमा में रखा गया है तथापि संकेत किए गए हैं। जैसे स्मृति का निलय से अच्छा सेटिल होना, उसकी कुण्ठा, माता-पिता की फिर भी आपका प्रश्न के रूप में आगे मदद करेगा। धन्यवाद।
प्रोत्साहन के लिए आपका आभारी हूँ।
@ पाखी जी,
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद।
@ अरुण जी,
जवाब देंहटाएंसच अरुण जी, उत्तरदायित्व के द्वन्द्व कभी कभी ऐसे भी होते हैं।
प्रोत्साहन के लिए आपका आभारी हूँ।
@ सुनीता जी,
जवाब देंहटाएंआपको कथा अच्छी लगी धन्यवाद।
प्रोत्साहन के लिए आपका आभारी हूँ।
@ वन्दना जी,
जवाब देंहटाएंआपको कथा अच्छी लगी धन्यवाद।
प्रोत्साहन के लिए आपका आभारी हूँ।
@ करण जी,
जवाब देंहटाएंसही कहा आपने। यह एकाकीपन की पीड़ा की मानसिक अवस्था है और उसमें भी सुख ढूँढ लेने का मानवीय स्वभाव भी।
आपको कथा अच्छी लगी धन्यवाद।
प्रोत्साहन के लिए आपका आभारी हूँ।
@ रवीन्द्र जी,
जवाब देंहटाएंआपको कथा अच्छी लगी धन्यवाद।
प्रोत्साहन के लिए आपका आभारी हूँ।
@ गजेन्द्र जी,
जवाब देंहटाएंअच्छा याद दिलाया।
हिन्दी दिवस पर आप सभी पाठकगण को बहुत बहुत शुभकामनाएं।
आपको कथा अच्छी लगी धन्यवाद।
प्रोत्साहन के लिए आपका आभारी हूँ।
बहुत अच्छी लगी आपकी कथा हरीश जी ....
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लगा कथा पढ़ना ..काश थोडा और विस्तार दिया गया होता .तो मजा चौगुना हो जाता.
जवाब देंहटाएंमैं यह कहते हुए क्षमाप्रार्थी हूं कि कथा सुस्पष्ट नहीं है। एक से अधिक बार पढ़ने पर की ज़रूरत के कारण भाव ग्रहण में बाधा आती है।
जवाब देंहटाएं... bahut sundar !!!
जवाब देंहटाएंLaghu Katha bahut rochak aur kasi huyi hai.Shabd sanyam ke prati kathakar kaphi sajag hai. Sadhuvad.
जवाब देंहटाएंHINDI DIVAS PAR PATHAKON KO HARDIK
BADHAI.
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति. त्याग, समर्पण और खालीपन. दूसरों के सुख में अपना सुख तलाशती त्याग की मूर्ति
जवाब देंहटाएंharish ji..shbadon ka sundar tana-bana buna hai aapne!
जवाब देंहटाएंबड़ी समग्र लघु कथा।
जवाब देंहटाएंबढ़िया है.
जवाब देंहटाएंहिन्दी के प्रचार, प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है. हिन्दी दिवस पर आपका हार्दिक अभिनन्दन एवं साधुवाद!!
सादर
समीर लाल
बहुत बढ़िया कहानी...
जवाब देंहटाएं@ दिगम्बर नासवा जी,
जवाब देंहटाएंआपको कथा पसन्द आई, धन्यवाद।
प्रोत्साहन के लिए आपका आभारी हूँ।
@ राज भाटिया जी,
जवाब देंहटाएंप्रोत्साहन के लिए आपका आभारी हूँ।
@ शिखा जी,
जवाब देंहटाएंआपका सुझाव अच्छा है, धन्यवाद। लेकिन तब इसे बड़ी कथा के कलेवर में ढलना होता। लघुकथा में नहीं।
आपको कथा अच्छी लगी धन्यवाद।
प्रोत्साहन के लिए आपका आभारी हूँ।
@ उदय जी,
जवाब देंहटाएंआपको कथा अच्छी लगी धन्यवाद।
@ शिक्षा मित्र जी,
जवाब देंहटाएंजरूर मुझसे कहीं कोई कमी रह गई है जो हमारे सभी पाठकों को रसास्वादन नहीं करा सकी। पुनरावलोकन करूँगा।
सलाह के लिए आपका आभारी हूँ।
@ राय जी,
जवाब देंहटाएंप्रोत्साहन के लिए आपका आभारी हूँ।
@ रचना जी,
जवाब देंहटाएंआपको कथा अच्छी लगी धन्यवाद।
प्रोत्साहन के लिए आपका आभारी हूँ।
@ पारुल जी,
जवाब देंहटाएंआपको कथा अच्छी लगी, बहुत बहुत धन्यवाद।
@ पारुल जी,
जवाब देंहटाएंआपको कथा अच्छी लगी, बहुत बहुत धन्यवाद।
@ प्रवीण जी,
जवाब देंहटाएंप्रोत्साहन के लिए आपका आभारी हूँ।
@ समीर जी,
जवाब देंहटाएंआपको कथा अच्छी लगी धन्यवाद।
प्रोत्साहन के लिए आपका आभारी हूँ।
अच्छी लघु कथा ...शंका का समाधान टिप्पणियों ने कर दिया ...!
जवाब देंहटाएं“बस, यों ही कल्पना। बहुत हो गया। अब मैं अतीत की उलझी हुई रेखाओं के जाल से निकलना चाहती हूँ। अब मेरे आसपास बिखरे प्रतिबिम्ब ही मेरे अवलम्ब हैं और मैं अपने अन्दर पसरे खाली स्थान को उनसे भरना चाहती हूँ। इन प्रतिबिम्बों में ही मेरे सपने पूरे होते दिखाई देते हैं.........”
जवाब देंहटाएंजी कहानी तो बस इतनी है ,पर उसे गूथना या पिरोना था ,जो शायद और बेहतर हो सकता था ,.........
हमारा खुद का मानना है कि सुझाव हमेशा और अच्छा लिखने का हौसला देते है आप भी सहमत होंगे इस बात से .
हिंदी दिवस की शुभ कामनाओं के साथ
@ वाणी गीत जी,
जवाब देंहटाएंभले ही समाधान हो गया हो लेकिन आपके मन में शंका उपजी यही मेरे लिए विचार का विषय है। हम सुबुद्ध जनों के विचारों से और अपने प्रयासों द्वारा ही नित सीखते हैं। आपकी शंका सलाह बन भविष्य में मेरे प्रयासों का परिष्कार करेगी।
आभार।
@ नीलम जी,
जवाब देंहटाएंबेशक इससे बेहतर हो सकता था। लेकिन लघुकथा के कलेवर में विस्तार की संभावना अधिक न होने के कारण इसे संश्लिष्ठ रूप में पिरोना पड़ा। विषय निसन्देह बड़ा है इसलिए कुछ रिक्ति लगती है। इसका संकेत कुछ पाठकों ने किया भी है और मैं इससे सहमत भी हूँ। आपके निरपेक्ष विचारों ने मुझे खुशी दी।
आपका आभार।
क्षमाप्रार्थी हूँ...
जवाब देंहटाएंकुछ उलझी उलझी लगी कथा...तीन बार पढ़ा पर कथा उद्देश्य बहुत सुअस्पष्ट न हो पाया...