आचार्य परशुराम राय | |
पिछले अंक में काव्यशास्त्र के सम्प्रदायों के अन्तर्गत रस सम्प्रदाय, अलंकार, भारतीय सम्प्रदाय और रीति सम्प्रदाय की चर्चा की गयी थी। शेष सम्प्रदायों को इस अंक में विचार हेतु लिया जा रहा है- ४. ध्वनि सम्प्रदाय- रीति सम्प्रदाय के बाद संस्कृत काव्यशास्त्र में ध्वनि सम्प्रदाय का जन्म हुआ। इसके प्रवर्तक आचार्य आनन्दवर्धन हैं और ‘ध्वन्यालोक’ वह ग्रंथ है जिसमें ध्वनिमत की स्थापना की गयी है। ध्वनिसम्प्रदाय ने सुधीजन को जितना आकर्षित किया, उतने ही इसके विरोधी भी हुए। वैय्याकरण, वेदान्ती साहित्यिक, नैय्यायिक, मीमांसक सभी ने ध्वनि सम्प्रदाय के विरोध में अपने मत रखे। समर्थकों में आचार्य अभिनवगुप्त का नाम सर्वोपरि है। इन्होंने इस ग्रंथ पर ‘लोचन’ टीका लिखकर ध्वनि सम्प्रदाय को प्रतिष्ठित करने का महत्वपूर्ण कार्य किया। तदुपरान्त आचार्य मम्मट ने अपने ग्रंथ ‘काव्यप्रकाश’ में विरोधियों के विभिन्न मतों का खण्डन करके ध्वनि-सम्प्रदाय की नींव को और सुदृढ़ किया। इसीलिए इन्हें ‘ध्वनिप्रतिष्ठापक परमाचार्य’ के नाम से जाना जाता है। आचार्य आनन्दवर्धन का ‘काव्यस्यात्माध्वनिः’ मत और जिस ढंग से उन्होंने अन्य परम्पराओं से अलग इसके भेदोपभेद को परिगणित करते हुए व्यावहारिक और सैद्धान्तिक स्वरूप का निरुपण किया है, प्रशंसनीय है। ‘ध्वन्यालोक’ ध्वनि सम्प्रदाय का आदि ग्रंथ के अलावा भारतीय काव्यशास्त्र की एक अनूठी कृति है। ध्वनि सम्प्रदाय के अनुयायी आचार्यों में आचार्य अभिनवगुप्त और आचार्य मम्मट के अतिरिक्त आचार्य भट्ट इन्दुराज का नाम उल्लेखनीय है, जो आचार्य अभिनवगुप्त के ध्वनि सिद्धान्त के गुरु हैं। आचार्य विश्वनाथ ने भी अपने ग्रंथ ‘साहित्यदर्पण’ में ध्वनि-सिद्धान्त की और इसके भेदोपभेद की चर्चा की है। मुकुलभट्ट, धनञ्जय, भट्टनायक, कुन्तक, महिमभट्ट आदि आचार्य ध्वनि सिद्धान्त के प्रबल विरोधी माने जाते हैं। ५. वक्रोक्ति सम्प्रदाय- इस सम्प्रदाय के प्रवर्तक आचार्य कुन्तक हैं। इन्होंने अपने ग्रंथ ‘वक्रोक्तिजीवित’ में इन्होंने काव्य में वक्रोक्ति की प्रधानता को स्वीकार किया है और अपने मत की स्थापना बड़ी ही बुद्धिमत्ता से की है। इन्होंने ‘वक्रोक्ति’ को एक अलंकार से अलग हटकर देखा है। ‘वक्रोक्तिजीवित’ काव्यशास्त्र का एक उत्कृष्ट ग्रंथ है। आचार्य महिमभट्ट और आचार्य गोपालभट्ट ने अपने ग्रंथों में आचार्य कुन्तक का नाम बड़े आदर के साथ लिया है। ध्वनि सम्प्रदाय के समर्थक आचार्यों ने वक्रोक्ति सिद्धान्त का यह कहकर विरोध किया है कि वक्रोक्ति एक अलंकार के अतिरिक्त कुछ नहीं है, अतएव यह काव्य का केन्द्र (आत्मा) नहीं हो सकती। आचार्य कुन्तक ने ध्वनि सिद्धान्त का विरोध नहीं किया है। वक्रोक्ति के स्वरुप के विवेचन को देखने से कहीं-कहीं तो लगता है कि ध्वनि को ही उन्होंने वक्रोक्ति के नाम से निरूपित किया है। ६.औचित्य सम्प्रदायः औचित्यवाद के प्रवर्तक आचार्य क्षेमेन्द्र हैं। अपने ग्रंथ ‘औचित्यविचारचर्चा’ में इन्होंने काव्य में औचित्य को प्रधानता दी है। इनका मानना है कि काव्य में औचित्य ही रस के उत्कर्ष का कारक है और अनौचित्य रस-भंग का- अनौचित्यादृते नान्दद् रसभङ्गस्य कारणम्। प्रसिद्धोचित्यबन्धस्तु रसस्योपनिषत्परा।। इस प्रकार उन्होंने औचित्य को रस का परम रहस्य बताया है और रस का प्राण अर्थात् जीवन कहा है- औचित्यस्य चमत्कारिणश्चारूचर्वणे। रसजीवितभूतस्य विचारं कुरुतेऽधुना।। हम पूर्वोक्त सभी सम्प्रदायों/सिद्धान्तों की महत्ता को काव्य में यथा स्थान स्वीकार करते हैं, उसी प्रकार औचित्यवाद की भी महत्ता है। यदि इन सम्प्रदायों के मतों के खण्डन भाग को छोड़कर काव्य में उनकी स्थिति के अनुसार काव्य को समझने का प्रयास करें तो उसके रूप को समग्रता में समझ सकते हैं। | |
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रविवार, 5 सितंबर 2010
भारतीय काव्यशास्त्र में सम्प्रदायों का विकास (भाग-2)
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सुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंमूल ध्यान गुरु रूप है, मूल पूजा गुरु पाँव ।
मूल नाम गुरु वचन है, मूल सत्य सतभाव ॥
हिन्दी, भाषा के रूप में एक सामाजिक संस्था है, संस्कृति के रूप में सामाजिक प्रतीक और साहित्य के रूप में एक जातीय परंपरा है।
आज शिक्षक दिवस है। धीर गंभीर साहित्य का मौलिक ज्ञान प्रदान करने के लिए आचार्य जी को श्रद्धा के साथ नमन।
जवाब देंहटाएंआज शिक्षक दिवस है। धीर गंभीर साहित्य का मौलिक ज्ञान प्रदान करने के लिए आचार्य जी को श्रद्धा के साथ नमन।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंभाई आलेख पढ़ा, ऐसे आलेख हिन्दी ब्लॉग जगत के लिए अत्यंत आवश्यक है क्योंकि यहां कविता ब्लागों की अधिकता है।
जवाब देंहटाएंयदि ऐसे आलेखों से कविता ब्लॉगों के ब्लॉगरों को नई दिशा मिलती है तो हिन्दी जगत धन्य होगा.
शिक्षक दिवस की हार्दिक शुभकामनांए.
जानकारी से पूर्ण बहुत ही अच्छी पोस्ट.
जवाब देंहटाएंज्ञानवर्द्धक लेख ....आभार
जवाब देंहटाएंPathakon ko Shikshak Divas ki hardik badhai. Sadhuvad.
जवाब देंहटाएंबहुत ही ज्ञानवर्धक आलेख।
जवाब देंहटाएंध्वनि संप्रदाय की मूल मान्यता का जिक्र नहीं किया गया है। पाठकों के लिए यह रहस्य ही बना रहा कि उसके विरोध का कारण क्या था।
जवाब देंहटाएंसुन्दर सार्थक ग्यानवर्द्धक पोस्ट। धन्यवाद और बधाई।
जवाब देंहटाएंबहुत ही बढ़िया रहा यह आलेख!
जवाब देंहटाएं--
भारत के पूर्व राष्ट्रपति
डॉ.सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्म-दिन
शिक्षकदिवस की बहुत-बहुत शुभकामनाएँ!
उत्कृष्ट लेख ।
जवाब देंहटाएंभारतीय काव्यशास्त्र को समझाने का चुनौतीपुर्ण कार्य कर आप एक महान कोर्य कर रहे हैं। इससे रचनाकार और पाठक को बेहतर समझ में सहायता मिल सकेगी। सदा की तरह आज का भी अंक बहुत अच्छा लगा।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर ! कॉलेज के दिन याद आ गए.... ! तभी तो क्लासेस बंक भी करने में मजा आता था... लेकिन यहाँ बंक नहीं करूँगा !! सुन्दर विवेचन !!! शिक्षक दिवस पर आचार्य को नमन !!!!
जवाब देंहटाएंPriy Radharaman ji,
जवाब देंहटाएंDhvani kya hai, isaka vivechan kavy-shastra ke antargat yatha sthan karane ke uddeshya se yahan chhod diya gaya. Vaise apaki jigyasa svabhavik hai. Vishay ke abhav ki or sanket karane ke liye abhar.
bahut badiya aacharya ji
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