बुधवार, 29 सितंबर 2010

देसिल बयना - 49 : नदी में नदी एक सुरसरी और सब डबरे...

देसिल बयना - 49 :

नदी में नदी एक सुरसरी और सब डबरे...

कवि कोकिल विद्यापति के लेखिनी की बानगी, "देसिल बयना सब जन मिट्ठा !"
दोस्तों हर जगह की अपनी कुछ मान्यताएं, कुछ रीति-रिवाज, कुछ संस्कार और कुछ धरोहर होते हैं। ऐसी ही हैं, हमारी लोकोक्तियाँ और लोक-कथाएं। इन में माटी की सोंधी महक तो है ही, अप्रतीम साहित्यिक व्यंजना भी है। जिस भाव की अभिव्यक्ति आप सघन प्रयास से भी नही कर पाते हैं उन्हें स्थान-विशेष की लोकभाषा की कहावतें सहज ही प्रकट कर देती है। लेकिन पीढी-दर-पीढी अपने संस्कारों से दुराव की महामारी शनैः शनैः इस अमूल्य विरासत को लील रही है। गंगा-यमुनी धारा में विलीन हो रहे इस महान सांस्कृतिक धरोहर के कुछ अंश चुन कर आपकी नजर कर रहे हैं                           

---करण समस्तीपुरी

चंपापुर वाली मिसराइन को ससुराल बसते पांच साल हो गया था मगर छम्मक छल्लो में कौनो कमी नहीं। सुरुज के किरिन फूटे चाहे नहीं मगरमिसराइन का टहकार जरूर फूट जाता था, "पनिया के जहाज से पलटनिया बनि आइहो... पिया.... ! लेने आइहो हो....  पिया झुमका पंजाब से।

पिया पंजाब नहीं गए तो का... ? हर महीना पनिया के जहाज से पहलेजा घाट जरूर उतरते थे.... अब झुमका लाये कि नथिया उ तो मिसराइनेजाने। लोटू मिसिर पटना में रहते थे। सुने रहे कि कौनो छपरिया वकीलनी साथे हाई कोट में अलाली-दलाली करते हैं।

मिसिर जी के गाँव आते ही घर में रौनक लौट जाता था। मगर इहो मत बूझिये कि उनके नहीं रहने पर सून-सपाटा रहता था। उधर बुढोऊ झटकनमिसिर पतरा लेके गए यजमानी में और इधर छैल-छबीले जतरा कर के रजधानी में। समझिये कि मिसराइन के रसगर व्यवहार और पियरगर बात से पूरा टोला जुडाता था। मगर लोटू मिसिर के आते दिरिस बदल जाता था।

महीना दिन तक पनिया के जहाज से पिया के आने का इंतिजार करे वाली मिसराइन को ई थोड़ा भी नहीं सोहता था कि इहाँ आकर भी उ जमींदार-साहूकार का मामला-मुकदमा का गप सुने। लेकिन मिसिर जी कहते कि ई में बुराई का है ? अरे गाँव-घर में धाख है तब न लोगसलाह-मशविरा करने आते हैं। ऊपर से घर बैठे कुछ दच्छिना भी आ जाता है। अब हम ठहरे, ब्राह्मन कैसे छोड़ दें ? और मिसराइन कहे कि महीना भर तो उहाँ कोट का चूल्हा फूंकते ही है, घरो आकर वही.... ? इहाँ और कौनो आदमी और उ आदमी का कौनो शौख है कि नहीं.... ?

सच्चे, मिसिर जी जब तक गाँव में रहते थे बूझ लीजिये कि घर में तिरकाल संध्या निश्चिते था।  भोर में ऐसन परेम कि दुन्नु एक्कहि चुक्का में चाह पीते थे। दुपहर में एक तरफ से 'मुँहझौंसा.... दाढ़जरबा... तोहे बज्जर पड़े....!' और दूसरे तरफ से 'लुच्ची... फतुरिया.... तेरे बाप के घर में डाका पड़े... !' लेकिन एक बात था दिन में मामला केतनो संगीन हो दीया जलते समझौता। रात में दुन्नु सुर में सुर मिला के राग यमन गायेंगे। तो हुआ न तिरकाल संध्या.... ! हा...हा... हा.... !

हाँ ! कभी-कभी मिसराइन के मंतर पर मिसिर जी दू-चार सोंटा हवन भी कर देते थे। फिर तो मिसराइन के अंचरा दिनकर-दीनानाथ, काली माई, बजरंगवली से लेके पीर बाबा तक सब के सामने पसर जाता था। मिसिर जी हफ्ता भर से गाँव में थे मगर पछिला दू दिन से तिरकाल संध्या का रूटीन भी गड़बड़ा गया था। अब ब्रह्मण के घर में तिरकाल संध्या नहीं हो तो समझ लीजिये कि मामला गड़बड़ है।

भगजोगनी पीरपैती वाली भौजी को मिसिर जी के घर का रूद्र-पुराण सुना रही थी। अब आप से का छुपायें... समझ लीजिये कि जैसे किशन भगवान के बांसुरी सुन के गोपियन सब का पैर अपने आप वृन्दावन के तरफ बढ़ने लगता था वैसे ही ऐसन 'रमण-चमन' का बात सुन कर हमरा पैर भी....... ! इधर-उधर देखे और बाबूजी से नजर बचा के सरपट मिसिरजी के दूरे पर जा कर दम लिए।

अब पता नहीं आग कब लगी थी मगर धाह तभी तक था। एकाध दर्शक और थे। भाकोलिया माय मिसराइन को बहला रही थी। रसगुल्ला झा मिसिरजी को सुलह की सीख दे रहे थे। हम कहे... ले ! इतना जतन उठा के आये... इहा तो ई लोग डरामे बंद कराने पर लगा है। मगर कहते हैं न सच्चा मन का बात भगवान जरूर पुराते हैं।

मिसिर जी जैसे ही कहे चोर-दरिद्रा के खानदान.... कि मिसराइन सातो पुरुखा के उद्धार कर दी। अकेले होते तो पचाइयो लेते मगर ई तो सकल सभा के सामने...... ना... ! आखिर उ भी मरद हैं कि खेल.... ? जब तक रसगुल्ला झा, धोराई महतो, तपेसरा हजाम पकड़े....  मिसिर जी हथिया नछत्तर जैसे गरगरा के बरस गए।

सब पकर-धकर के मिसिर जी को दरबाजा पर बैठाया... मगर मिसराइन तो सीधा सड़के पर जाकर कबड्डी खेले लगी। एंह... जो हाथ चमका-चमका कर मुँह से अमृत बरसा रही थी कि मन तिरपित हो गया। गला के सुर से हाथ के चुरी का ताल मिलता था तो बूझिये कि रानीबिहुला के नाच से भी जादा मजा आये।

मगर तभीये पता नहीं कौन देवी परकोप से सुमित्रा बुआ स्पोट पर पहुँच गयी। बुआ का रोआब ऐसा था कि मरद हो कि औरत..... बूढा कि जुआन... उ का बात गाँव मे कौनो टाल नहीं सकता था। साच्छात ब्रह्म लकीर। पहिले तो मिसराइन तनिक इरिंग-भिरिंग बतियाई। मगर मनियारी हौले से बुआ का महात्तम सुनाई तो उ उन्ही को पकड़ के लगी पीठ का डंडा-छाप दिखाए। आह.... च..च...च.... ! सच में ई मिसरबा कैसा निर्दयी है....... रेशम जैसन चमरी पर लोहा जैसन ददोरा उखार दिया था।

औरत का दरद आखिर औरते बुझती है। सुमित्रा बुआ के आँख से भी लोर बहरा गया। फिर बिजली के जैसे कड़क कर बोली, "ऐ मिसराइन! तुम जाओ आँगन.... ई मिसरबा को हम क़ानून सिखाते हैं। ई मरदुआ... औरत पर डंडा बरसा के वीर कहाता है न... ! रुको जरा दफेदार भैय्या और नारियल सिंघ सरपंच को बुलाने दो।

अगले घंटा में मिसिर जी के द्वार पर भीर जमा हो गयी। पिरतम काकी कह रही थी, "रे दैय्या.... ! कैसन जमाना आ गया.... ? अब मियां-बीवी का फैसला भी पंच करेंगे.... ! दूर छी.... !" "हाँ ए काकी", लहरनी भौजी हाथ में अंचरा पकर के आधा मुँह ढक कर बोली थी।

सच में पंच में परमेसर का बास होता है। लगे ऐसन-ऐसन गिरह तोड़ के सवाल करे कि उ कहचरिया लोटू मिसिर को भी दिने में तरेगन सूझे लगा। इधर मिसराइन हर सवाल पर एगो देवता को अराध कर दोबर हो रही थी। पूरा छान-बीन के बाद पंच सब सामने चौबटिया पर जा कर अपना में विचार करने लगे कि आखिर सजा का दिया जाए। तब तक इधर मिसराइन जनानी महाल में पीठ का ददोरा ऐसे परोस रही थी जैसे  हकार पुरने के लिए आई गीत-गाइन को तेल-सिंदूर परोसते हैं।

आधा घंटा के गहन विचार-विमर्श के बाद नारियल बाबू का फैसला आया, "लोटू मिसिर का ई अपराध अच्छम है। एक तो नारी पर हाथ उठाए...उ भी ब्राह्मणी.... राम-राम !" मिसराइन का सीना गर्व से चौरा हो गया था। सरपंच बाबू आगे बोल रहे थे, "ऐसन दुहात्थी चलाया है... ऐसे तो धोबी भी गदहा को नहीं पीटता है.... ! ई अपराध नहीं... घोर अत्याचार है।   ई को तो जो सजा मिले उ कम्मे है। मगर झटकन मिसिरजी के परतिष्ठा को देख कर पंच लोग बहुत मामूली सजा दे रहे हैं।" अब तक मिसराइन भीड़ को चीर कर आगे आ सुमित्रा बुआ के बांह पकड़ कर खड़ी हो गयी थी।

सरपंच बाबू अब फैसला का अंतिम लाइन बोले, "ई को महावीर थान के कमिटी में एगारह सौ रुपैय्या जमा करना पड़ेगा और चुकी ई ब्राह्मणी पर हाथ उठाया है तो प्रायश्चित में एक दिन बारहों-बरन का भोज करना पड़ेगा। जब तक लोटू मिसिर ई दोनों सजा पूरा नहीं कर लेते, उ आँगन में कदम नहीं रखेंगे।  मिसराइन से एक लफ्ज भी नहीं बतियाएंगे।" इधर भीड़ पंच-परमेसर के नीर-क्षीर न्यार पर ताली बजाती कि ले बलैय्या के........ ई तो बादिये पाटी बदल लिया।

मिसराइन धामिन सांप जैसे फुंफकार पड़ीं, "बंद करिए ई लबराई ! आँगन हमारा...... मरदा हमारा..... और पाबंदी लगाने वाला पंच कौन ? जौन दिन झोटियल सिंघ मुसमात जिवछी को दिन-दहारे पकड़ लिए थे उ दिन पंचायती कहाँ गया था ? आज आये हैं हमरे मरद पर जुरमाना कसने...? महावीर थान में एगारह सौ जमा करें और ई को खिलाएं भोज... मुँह जो बड़ा चिक्कन है पंच का... !"

बाप रे बाप... मिसराइन के आँख, मुँह, हाथ सब से बिजली निकल रहा था। दू कदम और आगे बड़ी और दहार के बोली, "देखते हैं हम भी कौन हमरे मरद से जुरमाना तहसीलता है और कौन उ को आँगन जाने से रोकता है... ! ए मिसिरजी.... ! चलिए तो भीतरी.... !" कहते हुए मिसराइन लोटू मिसिर का दाहिना बांह पकरी और बीच बैठके से खींच ले गयी।

मिसिर जी का हाथ पकड़े मिसराइन अंगने दिश घूम गयी मगर बेकग्रौंड में डायलोग अभियो चल रहा था, "पंचैती करने आये हैं लबरे पंच....अपना घर मे का नहीं होता है... देखे हैं कभी... ? हमरे मरद का का परतर करते हैं.... जो पैर धो के फ़ेंक देगा..... उ बराबरी नहीं करेंगे। क्रोध में हाथ उठ गया... मगर उ में भी सिनेह है कि नहीं... दूसरे पर थोड़े उठता... ? ईके क्रोध भी तो गंगाजी के बाढ़ जैसा निर्मल है... और.... !"

और न जाने का सब.... ! मिसराइन का रील चलिए रहा था कि सुमित्रा बुआ का सीन आ गया, "चुप हरजाई ! अभी चोंच मिलाई करती है। घंटा भर पहिले सांप-नेवला बनी हुई थी..... ! भाषण करती है, गंगा जी जैसा निर्मल.... ! इका पति गंगा जैसा निर्मल है और बांकी सब डबरा जैसा गंधियाला.... !" सुमित्रा बुआ का डायलोग ख़त्म होता कि झट से पिरतम काकी लाइन पकड़ ली, "हाँ ए दीदी !  देखे... कैसी रंग बदल ली.... ! तुरत में कलमुंहा-बेलज्जा और तुरत "नदी में नदी एक सुरसरी और सब डबरे.... ! सैय्याँ में सैय्याँ एक हमरे और सब लबरे.... !"

ROFL_C~16 हा... हा... हा.... ! खी...खी......खी....... ! हे....हे....हे..... ! हो....हो........हो.... ! ही....ही....ही....ही..... ! बाप रे बाप पिरतम काकी का बात सुनके केतना रंग के हंसी गूंज गया था वातावरण में ! सच्चे में, का लहरदार कहावत बोलती है, "नदी में नदी एक सुरसरी और सब डबरे.... ! सैय्याँ में सैय्याँ एक हमरे और सब लबरे.... !" हें...हें...हें.... हें....! इधर लोग सब को हंसी के मारे दम नहीं धरा जा रहा था मगर हम ढूढे लगे ई का अरथ।

हमरा तो माथापच्ची हो गया था।

उ तो लहरनी भौजी समझाई,

"अरे देखा नहीं... कैसे सब को लबरा बना के चली गयी। माने अपना सामान,आदमी या सम्बन्ध.... उ भला-बुरा कैसा भी हो उ सबसे अच्छा... और दूसरा कैसा भी हो वो बुरा ही लगेगा।"

तब हमरी खोपरिया में पिरतम काकी की कहावत का अरथ समाया। हूँ.... "नदी में नदी एक सुरसरी और सब डबरे.... ! सैय्याँ में सैय्याँ एक हमरे और सब लबरे.... !"

26 टिप्‍पणियां:

  1. "नदी में नदी एक सुरसरी और सब डबरे.... ! सैय्याँ में सैय्याँ एक हमरे और सब लबरे.... !

    -हा हा! बढ़िया प्रस्तुति!

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  2. karan shaandaar prastuti.........
    gaono me hee ab ye bholapan simat kar rah gaya hai...... charecterization bemisaal hai.
    aabhar

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  3. करण जी। बहुत बढिया दर्शन कराए। और अंत में जो है सो तो है ही, कि नदी में नदी एक सुरसरी और सब डबरे.... ! सैय्याँ में सैय्याँ एक हमरे और सब लबरे.... !

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  4. वाह....
    लाजवाब !!!!

    अभी तक तो न सुना था यह फकरा ...पर अब कभी भूल नहीं पाएंगे..

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  5. अरे भाई का टकाटक पोस्ट मारे हो. बहुते बढिया. का हैं आपके पोस्ट पढ़ते-२ हमऊ भोजपुरी हो जायेंगे. पकी बात है.


    और हाँ पोस्ट के अंत में भोजी नैना बहुते मटका रही है.

    राम राम

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  6. "पनिया के जहाज से पलटनिया बनि आइहो... पिया.... ! लेने आइहो हो.... पिया झुमका पंजाब से।
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    पोस्ट पढ़कर आनन्द आ गया!

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  7. करन जी आज फिर आपकी पोस्ट पूरे रौ मे है... मैथिली भाषा से कहावत लेकर आप हिन्दी के साथ साथ मैथिलि को भी प्रतिष्टित कर रहे है... हास्य विनोद के साथ साथ समाज के सन्स्कार भी परिलक्षित हो रहे है.. आन्चलिक लेख्नन मे आपका सानी नही है...

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  8. अऊरत मरद का परेम का अऊर झोंटा झोंटव्वल का.. सब परेम में चला आता है.. मगर ई सब खिस्सा देखकर पुरनका कहावत त याद आएबे करता है, एगो नया कहानियो सुने को मिल जाता है... बुझएबे नहीं करता है कि पढ रहे हैं, एकदम लगता है कि आप मिसिर बबा के एहाँ से आकर घरे सब को कमेंट्री सुना रहे हैं.. मन तिर्पित हो गया!!

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  9. देसिल बयना पढने में थोड़ा ज्यादा समय लग जाता है ...कभी कभी दुबारा पढ़ना पड़ता है न ...समझ नहीं आता ...लेकिन भाषा इतनी मधुर लगती है कि छोड़ा भी नहीं जाता ...

    बहुत अच्छी प्रस्तुति से समझाया है आज तो .. बहुत बढ़िया ..आनंद आया ...और सच तो है कि अपनी चीज़ सबसे अच्छी लगती है ...

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  10. आज का देसिल बयना आपके अब तक के प्रस्तुत बयना में शिल्प, शैली और कथ्य के लिहज से सर्वश्रेष्ठ है। आंचलिकता का ऐसा पुट रेणु जी की बरबस याद दिलाता है। आपके द्वारा गढे गए शब्द चित्र सारे दृश्य साकार कर देते हैं।
    आभार आपका।

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  11. ऐसी मिसराइन सबको मिले। मिसरजी किसी को नहीं।

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  12. बिहार का लोक-जीवन साकार ,जैसे सामने कोई रील चल रही हो - बधाई .

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  13. आजका बयना बहुत ही मधुर था !!

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  14. "नदी में नदी एक सुरसरी और सब डबरे.... ! सैय्याँ में सैय्याँ एक हमरे और सब लबरे....
    Wah kya jordar likhaee hai maja aagaya bas.
    Aur chittar bhee badhiya sateek.

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  15. Vaise to padhne men kitana achchha laga use likhne ke lie shabd nahi hai,

    @ चला बिहारी ब्लॉगर बनने ने कहा…
    अऊरत मरद का परेम का अऊर झोंटा झोंटव्वल का.. सब परेम में चला आता है.. मगर ई सब खिस्सा देखकर पुरनका कहावत त याद आएबे करता है, एगो नया कहानियो सुने को मिल जाता है... बुझएबे नहीं करता है कि पढ रहे हैं, एकदम लगता है कि आप मिसिर बबा के एहाँ से आकर घरे सब को कमेंट्री सुना रहे हैं.. मन तिर्पित हो गया!!

    @ Tan - man se samrthan karta hun.

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  16. kachchi mitti se tarashi gai anubhutiyan jo dil ko chuti hain.
    Sundar prstuti ke liye badhai.
    -GyanChand Marmagya

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  17. Ram Ram Karan Ji...
    Thoda der kar diye tipiyane me..
    Ka kare samay ni mila..
    fero se apne desil bayna majedar likhiye diye....
    is bar to kahawat me to bahute dum hai..

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  18. हम चाहे अपने आदमी को कुच्छू कहें और कोई ससुरा बोल के तो देखे :-)

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  19. बहुत बढ़िया लगा... अब तक जितना आपको पढ़ा था... उसमे अव्वल ..
    अब त सोचता हूँ की आपसे मिलने का शौभाग्य मिल जाता तो समझ लूँगा की रेणु जी का दर्शन हो गया...
    उनके बाद ऐसन कोई कहाँ लिखता है....

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  20. चित्रों का प्रयोग बहुत अच्छा लगा पढते पढते चित्रो को
    देख हंसी आ गयी.... very nice story with good pictures keep it up.

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