काव्यशास्त्र (भाग-1) – काव्य का प्रयोजनआचार्य परशुराम राय |
काव्यशास्त्र पर चर्चा के पूर्व काव्यशास्त्र के इतिहास के पन्नों में उपलब्ध प्रसिद्ध और नेतृत्व प्रदान करने वाले प्रमुख आचार्यों के विषय में प्राप्त तथ्यों के आधार पर उनका अत्यन्त थोड़ा परिचय मात्र दिया गया है। साथ ही इसमें आए विभिन्न सम्प्रदायों की भी चर्चा की गयी। अब काव्य के विभिन्न अवयवों और आयामों को काव्यशास्त्र की दृष्टि से प्रतिपादित किया जाएगा। इसके लिए आचार्य मम्मटकृत काव्यप्रकाश को आधार ग्रंथ लेकर चर्चा करने का विचार है। यहाँ कारण पर चर्चा करना नहीं चाहता। किसी शास्त्र के प्रणयन में मंगलाचरण के बाद अनुबन्धचतुष्टय का निरूपण किया जाता है। ग्रंथ का अधिकारी, उसका (ग्रंथ का) विषय, सम्बन्ध और प्रयोजन इन चारों को अनुवन्ध य़ा अनुबन्धचतुष्टय कहते हैं। इनमें से विषय और प्रयोजन दो मुख्य अनुबन्ध हैं तथा अन्य दो इनकी अपेक्षा गौण हैं। काव्यशास्त्र का विषय काव्यतत्व का विवेचन है। काव्यशास्त्र के आचार्यों के अनुसार काव्य के प्रयोजनों की एक झाँकी यहाँ दी जा रही है। आचार्य भरत ने काव्य (दृश्यकाव्य अर्थात् नाटक) से उत्तम, अधम, मध्यम पात्रों के चरित्र से धैर्य, मनोरंजन, आनन्द की प्राप्ति होती है। दुःखी, थके हुए, शोककार तथा तपस्वी लोगों को थकान मिटाकर विश्राम (शान्ति) प्रदान करता है। इससे धर्म होता है, दीर्द्यकालिक यश मिलता है और बुद्धि का विकास होता है। उत्तमाधममध्यानां नराणां कर्मसंश्रयम। हितोपदेशजननं धृति – क्रीडा - सुखादिकृत्र।। दुःखार्तानां श्रमार्तानां शोकार्तानां तपस्विनाम्। विश्रान्तिजननं काले नाट्यमेतद् भविष्यति।। धर्म्यं यशस्यमायुष्यं हितं बुद्धिविवर्द्धनम्। लोकोपदेशजननं नाट्यमेतद् भविष्यति।। (आचार्य भरतमुनिकृत नाट्यशास्त्र) आचार्य भामह के अनुसार उत्तम काव्य की रचना पुरुषार्थचतुष्टय (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष), कलाओं में निपुणता, कीर्ति और प्रीति अर्थात् आनन्द प्रदान करती है। धर्मार्थकामकोक्षेषु वैचक्षण्यं कलासु च। करोति कीर्तिं प्रीतिं च साधुकाव्यनिबन्धनम्।। (आचार्य भामहकृत काव्यालङ्कार) आचार्य वामन अच्छे काव्य के केवल दो प्रयोजन कीर्ति और प्रीति अर्थात् आनन्द मानते हैं। उन्होंने कीर्ति की अदृष्ट और आनन्द की अनुभूति (प्रीति) को दृष्ट या प्रत्यक्ष प्रयोजन कहा है- काव्यं सद् दृष्टा दृष्टार्थं प्रीति कीर्तिहेतुत्वात्। वे कीर्ति पर विशेष बल देते हुए आगे लिखते हैं- प्रतिष्ठां काव्यबन्धस्य यशसः सरणिं विदुः। अकीर्तिवर्तिनीं त्वेवं कुकवित्वविडम्बनाम्। कीर्तिं स्वर्गफलामाहुरासंसार विपश्चितः। अकीर्तिन्तु निरालोकनरकोद्देश दूतिकाम। तस्मात् कीर्तिमुपादातुमकीर्तिञ्च व्ययोहितुम्। काव्यालंकारसूचार्थः प्रसाद्यः कविपुङ्गवैः। (आचार्यवामनकृत काव्यालङ्कारसूत्र) आचार्य कुन्तक ने भी काव्य रचना के लगभग उपर्युक्त प्रयोजनों को ही निरुपित किया है- धर्मादिसाधनोपायः सुकुमारक्रमोदितः। काव्यबन्धोऽभिजातानां हृदयाह्लादकारकः।। व्यवहारपरिस्पन्दसौन्दर्यं व्यवहारिभिः। सत्काव्याधिगमादेव नूतनौचित्यमाप्यते।। चतुर्वर्गफलास्वादमष्यतिक्रम्य तद्विदाम्। काव्यामृत रसेनान्तश्चमत्कारो वितन्यते।। (आचार्य कुंतक कृत वक्रोक्तिजीवित) आचार्य मम्मट इनसे अलग नहीं हैं। वे काव्य रचना को यश और धन का प्रदाता, व्यवहार का ज्ञान कराने वाला, अनिष्ट का नाश करने वाला, तुरन्त परमानन्द देने वाला और स्त्री के समान उपदेश प्रदान करने वाला मानते हैं- काव्यं यशसेऽर्थकृते व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये। सद्यःपरनिर्वृतये कान्तासम्मिततयोपदेशयुजे।। विस्तारभय से इस कारिका की विशद व्याख्या नहीं की जा रही है। कभी अवसर मिला तो अलग से इस पर चर्चा करने का विचार है क्योंकि अधिक गूढ़ शास्त्रीय विवेचन अधिकांश व्यक्तियों के लिए उबाऊ और अरुचिकर हो जाता है। पाठकों की रुचि को ध्यान में रखते हुए इस चर्चा का उद्देश्य केवल काव्यशास्त्र का परिचय कराना है। यहाँ प्रसंगवश उपदेश की तीन शैलियों पर विचार करने की इच्छा अवश्य है। आचार्य मम्मट ने काव्य के प्रयोजन की व्याख्या करते हुए तीन उपदेश-शैलियों की चर्चा की है- शब्दप्रधान, अर्थप्रधान तथा रसप्रधान। जिन्हें क्रमशः प्रभुसम्मित, सुहृतसम्मित और कान्तासम्मित शैली कहा है। शब्दप्रधान शैली अर्थात् प्रभुसम्मित उपदेश के अन्तर्गत वेदों एवं शास्त्रों के उपदेश को लिया है। राजकीय आदेश, विधि(कानून) नियमावलियाँ आदि इसी शैली के अन्तर्गत स्वीकार की गयी है। पुराणों और इतिहास आदि साहित्य को सुहृत्सम्मित या मित्रसम्मित उपदेश के अन्तर्गत एवं लोकोत्तर वर्णन शैली में निपुण कविकृत काव्य को कान्तासम्मित या रसप्रधान शैली के अन्तर्गत लिया गया है। पाश्चात्य विचारकों ने इसी तरह सम्प्रेषण (communeication) की तीन विधियाँ बताई है- parent approach (पितृसदश), Adult approach (प्रौढ़सदृश) और Child approach (शिशुसदृश) जो क्रमशः प्रभुसम्मित, सुहृद्सम्मित एवं कान्ता-सम्मित उपदेशों के तुल्य या समानार्थी हैं। यहाँ ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि उपदेश शैली और सम्प्रेषण विधियों में पहली और तीसरी अर्थात् प्रभुसम्मित और कान्तासम्मित पितृसदृश और शिशुसदृश में तर्क का कोई स्थान नहीं है। दूसरे शब्दों में जिस प्रकार वेद-शास्त्रादि शब्द प्रधान आर्दशों या विधान को हम बिना तर्क किए मानते हैं, क्योंकि वे प्रमाण हैं, उसी प्रकार अधीनस्थ कर्मचारी को बिना अगर-मगर किए अधिकारी के आदेश का पालन करना पड़ता है। यही स्थिति कान्तासम्मित उपदेश और शिशुसदृश सम्प्रेषण की है। रामायण आदि काव्यों को पढ़कर हमें बिना तर्क किए अपने-आप प्रेरणा मिलती है कि हमें राम की तरह आचरण करना चाहिए, रावण की तरह नहीं। अनियंत्रित भीड़ की माँग को पूरा करने का आश्वासन देने के अलावा सरकार या अधिकारी के सामने कोई दूसरा विकल्प नहीं होता। मित्रसम्मित उपदेश या प्रौढ़सदृश सम्प्रेषण में सलाह देने या तर्क-वितर्क करने की पूरी गुंजाइश है। आचार्य मम्मट द्वारा वर्णित तीन उपदेश शैलियों और आधुनिक कारपोरेट जगत में चर्चित सम्प्रेषण की विधियों में समानता के कारण यहाँ चर्चा में ले लिया गया अन्यथा यह चर्चा काव्यशास्त्र की दृष्टि से आवश्यक नहीं थी। |
रविवार, 12 सितंबर 2010
काव्यशास्त्र (भाग-1) – काव्य का प्रयोजन
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ज्ञानवर्धक लेख वेद से आधुनिक युग को जोड़ता हुआ बहुत सुंदर बधाई
जवाब देंहटाएंउपयोगी ज्ञानवर्धक आलेख।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति।
हिन्दी, भाषा के रूप में एक सामाजिक संस्था है, संस्कृति के रूप में सामाजिक प्रतीक और साहित्य के रूप में एक जातीय परंपरा है।
देसिल बयना – 3"जिसका काम उसी को साजे ! कोई और करे तो डंडा बाजे !!", राजभाषा हिन्दी पर करण समस्तीपुरी की प्रस्तुति, पधारें
सुन्दर आलेख!
जवाब देंहटाएं--
विद्वानों का समय काव्य शास्त्र के विनोद में ही ब्यतीत होता है!
आचार्य जी, निश्चित तौर पर आपका यह आलेख एक साहित्यिक दस्तावेज़ है..समय के पन्नोंपर लिखा एल मील का पत्थर!!
जवाब देंहटाएंभारतीय काव्यशास्त्र को समझाने का चुनौतीपूर्ण कार्य कर आप एक महान कार्य कर रहे हैं। इससे रचनाकार और पाठक को बेहतर समझ में सहायता मिल सकेगी। सदा की तरह आज का भी अंक बहुत अच्छा लगा। हार्दिक शुभकामनाएं!
जवाब देंहटाएंकाव्यशास्त्र (भाग-1) – काव्य का प्रयोजन, “मनोज” पर, आचार्य परशुराम राय की प्रस्तुति पढिए!
ज्ञानवर्धक आलेख्।
जवाब देंहटाएंआपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
प्रस्तुति के प्रति मेरे भावों का समन्वय
कल (13/9/2010) के चर्चा मंच पर देखियेगा
और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com
kavyashastra ke sandarbh mein prachin aacharyon ke vyakhyaona sanskrit aur hindi rupantar kar prastut karne upyogi jaankari pradat karne hetu aabhar...
जवाब देंहटाएंVandana ji,
जवाब देंहटाएंCharach-manch par samman dene ke liye dhanyavad.
बहुत ही अच्छी प्रस्तुति। आप का धन्यवाद
जवाब देंहटाएंसुन्दर ज्ञानवर्धक लेख, अच्छी प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंज्ञानवर्धक लेख!
जवाब देंहटाएंkavya shastra ke vishay men bahut uttam vivechana hai. padhkar prasnnta huee. badhaee.
जवाब देंहटाएं... gyaanvardhak abhivyakti !!!
जवाब देंहटाएंआपका यह आलेख एक साहित्यिक दस्तावेज़ है!
जवाब देंहटाएंसुन्दर आलेख!
जवाब देंहटाएं--
ज्ञानवर्धक लेख वेद से आधुनिक युग को जोड़ता हुआ बहुत सुंदर बधाई!
जवाब देंहटाएंज्ञानवर्धक रचना
जवाब देंहटाएंअच्छी प्रस्तुति है!
निश्चित तौर पर यह आलेख एक साहित्यिक दस्तावेज़ है!
जवाब देंहटाएंहूँ.... वाह ! हर एपिसोड के साथ विषय अब रुचिकर होता जा रहा है. धन्यवाद !!
जवाब देंहटाएंsundar .... saargarbhit aalekh ke liye koti koti badhai!!!!
जवाब देंहटाएंsubhkamnayen:)
bahut achha sar garbhit likha hai badhayi.
जवाब देंहटाएंमनोज जी नमस्कार! आपका लेख साहित्यक यात्रा कराता हुआ एक बहुत ही महत्वपूर्ण लेख है। आपको बहुत-बहुत बधाई! -: VISIT MY BLOG :- Mind and body researches...... ब्लोग को पढ़कर अपने अमूल्य विचार व्यक्त करने के लिए आप सादर आमंत्रित हैँ।
जवाब देंहटाएंबढ़िया आलेख मनोज जी ! एक निवेदन था आपसे, जैसा कि संगीता जी की टिपण्णी से लगा चर्चा मंच पर मेरी की गई टिपण्णी से पाठको का दिल दुखा, मैंने वह टिपण्णी हटा ली है आपने भी अपनी एक टिपण्णी में मेरी टिपण्णी को उद्धघृत किया है, आपसे निवेदन करूंगा कि अगर आप भे उसे संसोधित कर दे तो आपका आभार !
जवाब देंहटाएंKavyashastar per likha aalekh kaphi rochak hai per KAVYA PRAYOJAN kuch vindu chut gaye hain.....?
जवाब देंहटाएंBahut hi upyogi jankari.
जवाब देंहटाएंAabhar.
Shayad ye bhi aapko pasand aayen- Sustainable agriculture in India , Land degradation in India
Achhi hai
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