फ़ुरसत में … हिन्दी दिवसकुछ तू-तू मैं-मैं, कुछ मन की बातेंऔर दो क्षणिकाएंमनोज कुमार |
फ़ुरसत में … हिन्दी दिवस के अवसर पर लिखा हुआ बहुत कुछ पढने, देखने और सुनने को मिला। कुछ अखबारों के शीर्षक देखिए“हिंदी अपने घर में प्रवासिनी”, “हाशिए पर हिंदी”, “हिदी को राष्ट्रभाषा बनाने में राजभाषा विभाग का टालू रवैया”, “हिंदी के प्रति कब खत्म होगी लापरवाही”, आदि, आदि। इस दिन जब ये सब पढता हूं तो एक शे’र बरबस आ जाता है ज़ुबान पर कोई हद ही नहीं शायद मुहब्बत के फसाने की सुनाता जा रहा है जिसको जितना याद आता है। इन दिनों मैंने अखबार पढना ही बंद कर दिया है, क्योंकि है पता हमको वहां पर कुछ नया होगा नहीं हाथ में हर चीज़ होगी आइना होगा नहीं। अखबारों और अन्य कई जगह इन सूर्ख़ियों को देख लगता है जब हम घर से बाहर निकलते हैं तो हमारे हाथ में भाला बरछी, लाठी सोंटा सब होता है, पर आइना नहीं होता। प्रसंगवश यह भी बताता चलूं कि मुझे यह गाना बहुत अच्छा लगता है, ये न पूछे मिला क्या है हमको हम ये पूछें किया क्या है अर्पण हर कोई दुनिया को बदलना चाहता है, लेकिन खुद को बदलने के बारे में कोई नहीं सोचता। सरकारी कार्यालयों में जो प्रयोग होता है वह राजभाषा है। और १४ सितंबर को जो मनाया जाता है वह राजभाषा हिंदी दिवस है भाषा हिंदी दिवस नहीं। राजभाषा नीति, प्रेरणा, प्रोत्साहन और सद्भावना पर आधारित है। यह माना जाता है कि जब तक एक भी हिंदीतर भाषी राज्य असहमत होगा तब तक हिंदी राष्ट्रभाषा नहीं बन सकती। अशोक चक्रधर के शब्दों में कहें तो हिंदी तो जगन्नाथी रथ है, इसे हम सब मिलकर खीचें। इक्कीसवीं सदी की व्यावसायिकता जब हिन्दी को केवल शास्त्रीय भाषा कह कर इसकी उपयोगिता पर प्रश्नचिह्न लगाने लगी तब इस समर्थ भाषा ने न केवल अपने अस्तित्व की रक्षा की, वरण इस घोर व्यावसायिक युग में संचार की तमाम प्रतिस्पर्धाओं को लाँघ अपनी गरिमामयी उपस्थिति भी दर्ज कराई। जनसंचार के सबसे सशक्त माध्यम सिनेमा और टेलीविजन ने हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार में वैश्विक क्रांति दी है। आज हर कोई हिंदी बोल समझ लेता है, लिख पढ़ भले न पाए। विज्ञापन की दुनियां में हिंदी का बोलबाला है। विज्ञापन की दुनियां का हिंदी के बगैर काम नहीं चलता। विज्ञापन गुरु यह जान और मान चुके हैं कि माल अगर बेचना है तो उन्हें हिंदी में ही बाज़ार में उतरना पड़ेगा। हां ये जो हिंदी परोसी जा रही है उसे कुछ लोग “हिंगलिश” की संज्ञा देते हैं। परन्तु यह सर्वग्राह्य हिंदी है। आज बाज़ारबाद शबाब पर है। उत्पादक तरह-तरह से उपभोक्ताओं को लुभाने का प्रयास करते हैं। ऐसे में विज्ञापन की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। दिवा-रात्री समाचार चैनल, एफ.एम. रेडियो और विज्ञापन एजेंसियों की बाढ़ में बिना लाग लपेट बेवाक और संक्षिप्त शब्दों में पूरी रचनात्मकता वाली हिन्दी का ही बाज़ार है। इंटरनेट पर भी हिंदी का अभूतपूर्व विकास हो रहा है। इंटरनेट पर हिंदी की कई वेबसाइटें हैं। हिंदी के कई अख़बार नेट पर उपलब्ध हैं। कई साहित्यिक पत्रिकाएं नेट पर पढ़ी जा सकती हैं। हिंदी में ब्लॉग लेखक आज अच्छी रचनाएं दे रहें हैं। भारत में इलेक्ट्रॉनिक जनसंचार माध्यमों का प्रयोग दिनोंदिन बढ़ रहा है। यह देश की संपर्क भाषा के रूप में हिंदी के विकास का स्पष्ट संकेत देता है। यह भी कहा जाता है कि बाज़ारवाद के असर में हिंदी भाषा के बदलते रूप से लोग आतंकित हैं। कुछ यह कहते मिल जाएंगे कि “हमें बाज़ार की हिंदी से नहीं बाज़ारू हिंदी से परहेज़ है।” जिस बाज़ारू भाषा को बाज़ारवाद से ज़्यादा परहेज़ की चीज़ कहा जा रहा है वह वास्तव में कोई भाषा रूप ही नहीं है। कम से कम आज के मास कल्चर और मास मीडिया के जमाने में। आज अभिजात्य वर्ग की भाषा और आम आदमी और बाज़ारू भाषा का अंतर मिटा है। क्योंकि आम आदमी की गाली-गलौज वाली भाषा भी उसके अंतरतम की अभिव्यक्ति करने वाली यथार्थ भाषा मानी जाती है। उसके लिए साहित्य और मीडिया दोनों में जगह है, ब्लॉग पर भी। आज सुसंस्कृत होने की पहचान जनजीवन में आम इंसान के रूप में होने से मिलती है। दबे-कुचलों की जुबान बनने से मिलती है, गंवारू और बाज़ारू होने से मिलती है। यह हिन्दी उनकी ही भाषा में पान-ठेले वालों की भी बात करती है, और यह पान-ठेले वालों से भी बात करती है, और उनके दुख-दर्द को समझती और समझाती भी है। साथ ही उनमें नवचेतना जागृत करने का सतत प्रयास करती है। अत: यह आम आदमी की हिंदी है, बाज़ारू है तो क्या हुआ। बाज़ार में जो चलता है वही बिकता है और जो बिकता है वही चलता भी है। प्रचलित और सबकी समझ में आने वाली व्यवहार-कुशल हिंदी ही संपर्कभाषा का रूप ले सकती है। साहित्यिक और व्याकरण सम्मत हिंदी का आग्रह रख हम इसका विकास नहीं कर सकेंगे। सामान्य बोलचाल में प्रचलित अंग्रेज़ी, पुर्तगाली, अरबी, फ़ारसी, उर्दू से लेकर देश की तमाम बोलियों और प्रादेशिक भाषाओं के शब्दों के हिंदी में प्रयोग से सही अर्थों में यह जनभाषा बन सकेगी और तभी हिंदी और हिंदीतर भाषाईयों के बीच की दूरी पट सकेगी। हिन्दी की विकास यात्रा में इसे और अधिक प्रयोजनमूलक यानी फंक्शनल बनाया जाए। प्रयोजनमूलक हिन्दी जीवन और समाज की ज़रूरतों से जुड़ी एक जीवन्त, सशक्त और विकासशील हिन्दी भाषा है। आज ऐसी ही प्रयोजनमूलक हिंदी के ज़रिए हमारा प्रयास भारत के सभी प्रांतों, अंचलों और जनपदों को सौहार्द्र, सौमनस्य व परस्पर स्नेह से एक सूत्र में बांधने का होना चाहिए। हिंदी लाहे लाहे पूरे देश में पसर रही है । कह कर न मैं हिंदी को कमजोर कर रहा हूँ न उसका दायरा सीमित । अगर ट्रेन लेट है कहकर बात बनती है तो उसे विलम्ब क्यों कर दूँ । अगर ट्रेन स्टेशन में ढुक रही है से बात ज्यादा समझ में आए तो आगमन के इंतजार में क्यों बैठूँ । और अब क्षणिकाएं |
(1) दुर्वासा न बनो मुझे नहीं मरना किसी बहेलिए के हाथों तुम्हारी जुदाई ही काफी है मुझे हरपल मारने के लिए। |
(2) पीपल ! |
शनिवार, 18 सितंबर 2010
फ़ुरसत में … हिन्दी दिवस- कुछ तू-तू मैं-मैं, कुछ मन की बातें और दो क्षणिकाएं
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आदर्णीय महोदय आपकी बातें सच है और मुझे अच्छी लगी. आपकी २ छोटी कवितायें ( chanikai) भी अच्छी लगी खासकर पीपल.
जवाब देंहटाएंयह पोस्ट प्रस्तुत करने के लिये आपको हार्दिक धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
जवाब देंहटाएंसाहित्यकार-महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, राजभाषा हिन्दी पर मनोज कुमार की प्रस्तुति, पधारें
लोग हिंदी दिवस पर अंगरेजी को गाली देकर अपना धर्म निर्वाह कर लेते हैं, पर मैं हमेशा यही कहता हूँ कि अंगरेज़ी का एहसान है हिंदी भाषा पर कि इसने कृष्णदेव प्रसाद गौड़ (बेढब बनारसी), रघुपति सहाय (फ़िराक़ गोरखपुरी) और डॉ. हरिवंशराय बच्चन जैसे हिंदी साहित्यकार दिए जो स्वयम् अंगरेज़ी के प्रोफेसर थे. मगर बकौल राही मासूम, हमने हिंदी के नाम पर बस सड़कों के नाम का हिंदीकरण किया है,अगर बस चलता तो लॉर्ड क्लाइव की मज़ार का नाम बदल कर सुभाष बोस की समाधि रख देते.
जवाब देंहटाएंअच्छे विचार प्रस्तुत किए आपने. और क्षणिकाएँ तो बस मन मोह लेती हैं!!
लेख अच्छा लगा! खासकर यह पसंद वाली बात:
जवाब देंहटाएंये न पूछे मिला क्या है हमको
हम ये पूछें किया क्या है अर्पण
कवितायें बड़ी डरावनी है। आगत वियोग को महिमामंडित करके अभी के साथ को चौपट बनाने की साजिश जैसी। :)
आदरणीय मनोज जी पूरा सितम्बर माह इसी बहस में निकल जाता है कि हिंदी हाशिये पर जा रही और अंग्रेजी स्थापित हो रही है... हिंदी पर सभी बात करना चाहते हैं, दिमाग उनका पहले हिंदी ही सोचता है लेकिन स्वीकारोक्ति में असहज हैं.. यह देश अंधभक्ति वाला देश है इसमें शायद किसी को दो राय नहीं होगी.. लोग अपनी जिम्मेदारी भी भूल जाते हैं .. उत्तरदाइत्व का बोध समाप्त प्राय है जीवन के सभी आयामों में.. तो भाषा कैसे अछूती रहेगी.. जो चिंता हिंदी के साथ है वही चिंता सभी भारतीय भाषाओँ के साथ है.. लेकिन हम इस पर विचार नहीं करते.. ए़क साथ नहीं आते.. ए़क मंच पर भारतीय भाषाओँ की बात नहीं करते...
जवाब देंहटाएंअच्छा आलेख है आपका.. क्षणिकाएं तो महाकाव्य की तरह हैं.. पूरा ए़क चिंतन दे दिया है... दिन भर उद्वेलित होने के लिए.. अब फुर्सत कहाँ !
आपका लेख व दोनों क्षनिकाए अच्छी लगी ..
जवाब देंहटाएंउग आना तुम
मेरी कब्र पर
हवा से कांपते
तुम्हारे पत्ते
दिलाते रहेंगे
एहसास मुझे
कि उसकी सांसे
तिर रही है
यहीं कहीं..
इतना ही काफी है
मेरे जीने के लिए ..
-----------
इसे भी पढ़े :- मजदूर
http://coralsapphire.blogspot.com/2010/09/blog-post_17.html
@ बूझो तो जाने, शमीम जी
जवाब देंहटाएंधन्यवाद!
प्रोत्साहन के लिए आभारी हूँ...
@ अरुण जी
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी टिप्पणी
कम-से-कम राजभाषा से जुड़े लोगों से तो ऐसी ही उम्मीद थी
मैं तो इसे बार-बार पढ रहा हूं
मेरा आलेख संपूर्ण हो गया अपने मक़सद में
आभार।
@ संवेदना के स्वर
जवाब देंहटाएंआपकी बातों से सहमत हूं। धन्यवाद!
प्रोत्साहन के लिए आभारी हूँ...
Aadrniye Manoj ji
जवाब देंहटाएंHindi Diwas per har kahin yeh baat ki jaati hai ki hindi diwas hai, jis tatparta se aapne aakhbaron ke shirshkon ki charcha ki hai, or jo vichar aapne rakhe hai yeh Hindi ki wastwikta ke liye kaphi hai
Kaphi aachia post
Hardik Badhai
@ अनूप जी
जवाब देंहटाएंकाफ़ी दिनों बाद आपके दर्शन हुए। स्नेह बनाए रखिएगा। इतनी डरावनी भी नहीं हैं कविताएं! आप भी ना....! धन्यवाद!
प्रोत्साहन के लिए आभारी हूँ...
हिंदी भाषा पर सार्थक विवेचन .... सच तो यही है कि हम स्वयं ही हिंदी को हीन कह कह कर अंग्रेज़ी को महिमा मंडित करते हैं .... हिंदी प्रेमियों के लिए यह स्थिति बहुत कष्ट प्रद होती है ....बहुत सारगर्भित लेख
जवाब देंहटाएंऔर क्षणिकाएं ....
बहुत अच्छी संवेदनापूर्ण ...अनूप जी की बात पर गौर करें :):).
आपकी बातें सच है और अच्छी लगी......
जवाब देंहटाएंयह पोस्ट प्रस्तुत करने के लिये आपको हार्दिक धन्यवाद....
राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
है पता हमको वहां पर कुछ नया होगा नहीं
जवाब देंहटाएंहाथ में हर चीज़ होगी आइना होगा नहीं।
वाह सही बात है।हमने भी अखबार पढना छोड रखा है।
ये न पूछे मिला क्या है हमको
हम ये पूछें किया क्या है अर्पण
सार्थक पँक्तियाँ। ये भजन मुझे वैसे भी बहुत अच्छा लगता है। क्षणिकाओं के लिये निशब्द हूँ।अति उत्तम। धन्यवाद।
मुझे यह कहते अफ़सोस है कि सर्वग्राह्यता के नाम पर आपने जिस हिंग्लिश का समर्थन किया है,उससे न तो हम दुनिया को कोई भाषिक योगदान कर पाएंगे और न ही हिंदी को अक्षुण्ण रख पाना संभव होगा। जब एक ओर हम यह जानकर गौरवान्वित होते हैं कि विदेशों में भी हंदी पढी-पढाई जा रही है,तो इस पर भी विचार होना चाहिए कि हिंग्लिश का रूप जानकर उनके मन में हिंदी का कितना सम्मान बचा रह जाएगा।
जवाब देंहटाएंअच्छी प्रस्तुति !
जवाब देंहटाएं@ अरुण जी
जवाब देंहटाएंआपका सुझाव और विचार अच्छा है। करते हैं कुछ ऐसा प्रयास। धन्यवाद!
प्रोत्साहन के लिए आभारी हूँ...
@ कोरल जी
जवाब देंहटाएंधन्यवाद!
प्रोत्साहन के लिए आभारी हूँ...
@ केवल जी,
जवाब देंहटाएंइस पोस्ट को पसंद करने के लिए धन्यवाद!
प्रोत्साहन के लिए आभारी हूँ...
@ संगीता जी,
जवाब देंहटाएंआपने सही कहा है कि हिंदी को हीन कह कह कर अंग्रेज़ी को महिमा मंडित करते हैं .... हिंदी प्रेमियों के लिए यह स्थिति बहुत कष्ट प्रद होती है
और अनूप जी की बातों पर ग़ौर किया पर वे आज के संदर्भ में शायद इसे नहीं देख रहे हैं।
आभार।
मनोज जी,
जवाब देंहटाएंहिंदी के प्रति आपके उदगार उभर कर आये हैं।
उग आना तुम
मेरी कब्र पर
हवा से कांपते
तुम्हारे पत्ते
दिलाते रहेंगे
एहसास मुझे
कि उसकी सांसे
तिर रही है
यहीं कहीं..
इतना ही काफी है
मेरे जीने के लिए ..
सच जीने के लिये इक लम्हा भी काफ़ी होता है ………………बेहद खूबसूरत क्षणिकायें……………दिल को छू गयीं।
@ रेक्टर जी,
जवाब देंहटाएंआप पहली बार हमारे ब्लॉग पर आए। स्नेह बनाए रखिएगा। धन्यवाद!
प्रोत्साहन के लिए आभारी हूँ...
@ निर्मला दीदी,
जवाब देंहटाएंआपका आशीर्वाद बना रहे। धन्यवाद!
प्रोत्साहन के लिए आभारी हूँ...
@ शिक्षामित्र जी,
जवाब देंहटाएंमैंने बात राजभाषा हिन्दी और जनभाषा, और संपर्क
भाषा हिन्दी के संदर्भ में कही थी।
और हिन्दी दिवस के भी।
विदेशों में ,और विश्वविद्यालयों में जो साहित्य पढाया जाता है उसके संदर्भ में आपसे एकमत हूं।
धन्यवाद!सार्थक विचार और प्रोत्साहन के लिए आभारी हूँ...
तुम्हारी जुदाई ही काफी है
जवाब देंहटाएंमुझे हरपल मारने के लिए।
Behad sundar!
सही कहा आपने...हिन्दी अपने ही घर में मेहमान बनकर दिन गुजार रही है...लेकिन हम सभी की मिलकर की गई कोशिशें अवश्य रंग लाएगी...इस कार्य में ज्यदा से ज्यादा हाथ जुडतें जाए यही अपेक्षा!...सार्थक रचना, धन्यवाद!
जवाब देंहटाएं@ वंदना जी
जवाब देंहटाएंहां, बस एक लमहा काफ़ी है।
आने के लिए आभार।
@ क्षमा जी, अरुणा जी,
जवाब देंहटाएंधन्यवाद!
प्रोत्साहन के लिए आभारी हूँ...
Chanikaon ke saath hindi divas sambandhi rachana aakershak ban gayi hai.
जवाब देंहटाएंमनोज जी बहुत अच्छी बातें आपने लिखी हैं . मैं आपसे सहमत हूँ .
जवाब देंहटाएंक्षणिकाएँ भी उम्दा हैं . " संवेदना के स्वर में " वाली टिप्पड़ी में लिखा गया है
' कि अंग्रेजी का अहसान है हिन्दी पर ' मैं इस बात से कतई सहमत नहीं हूँ.
बल्कि इसके उलट आज हिन्दी और दूसरी भारतीय भाषाओं पर जो खतरा
मंडरा रहा है वो इसी अंग्रेजी के कारण है .
इस ब्लॉग पर भी जाएँ . ये ब्लॉग भी राजभाषा हिन्दी को समर्पित है
http://rajbhashasamachar.blogspot.com
हिंदी अब नहीं रही हिंदी...
जवाब देंहटाएंथी जो कभी बिंदी
अब न रही हिंदी...
हिंदी हिंदी
बिंदी बिंदी
चिंदी चिंदी...
यह पोस्ट प्रस्तुत करने के लिये आपको हार्दिक धन्यवाद....
जवाब देंहटाएंमुझे भी आपकी आवाज़ मे आवाज़ मिलानी है,
जवाब देंहटाएंजिसकी आँखों में लाचार सपने,
जिसकी वाणी में अमृत-कलश है !
उसको देखा तो फिर याद आया,
देश में आज हिंदी दिवस है !!
धन्यवाद !!
बढ़िया आलेख और हृदयस्पर्शी क्षणिकाएं:)
जवाब देंहटाएंशुभकामनायें !
अति सुंदर. शुभकामनाएं.
जवाब देंहटाएंरामराम.
पीपल विशिष्ट है। सूरज की रोशनी में जितना चमकदार इसका पत्ता होता है,किसी और का नहीं। इसका फूल प्रकट रूप में नहीं दिखता। इस वृक्ष के कब्र पर उगने की कामना ने गुप्त प्रेम को दीर्घजीवी बना दिया है।
जवाब देंहटाएंहिन्दी के विस्तार की व्यग्रता साहित्यिक न हो राजनैतिक हो गयी है। हो भी क्यों न, राजनीति ने भाषाओं को प्रभावित जो किया है। बहुत ही व्यवहारिक विश्लेषण।
जवाब देंहटाएंसुन्दर क्षणिकायें।
...behatreen ... laajawaab !!!
जवाब देंहटाएंहिंदी दिवस पर रचना और साथ में क्षणिकाएं बहुत सुन्दर लगा! बहुत ही शानदार और उम्दा प्रस्तुती!
जवाब देंहटाएं@ राय जी,
जवाब देंहटाएंआपका मार्गदर्शन और स्नेह मिलता रहे।
@ चौहान जी
जवाब देंहटाएंआपने विस्तार से बात रखी। और आपसे सहमत हूं।
आभार।
आपकी दोनों क्षणिकाएँ बेजोड़ हैं!
जवाब देंहटाएं--
हिन्दी दिवस को लेकर आपकी पैनी दृष्टि का कायल हूँ!
@ महफ़ूज़ भाई
जवाब देंहटाएंआपसे सहमत और असहमत हूं
धन्यवाद आपका जो आपने अपनी बात रखी!
अख़बार वाले हर साल हिंदी दिवस के दिन हिंदी के समर्थन में एक लेख छापकर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं और फिर साल भर उसकी उपेक्षा करते हैं। ऐसे हालात में आप जैसे सुधीजन ही हिंदी की सच्ची सेवा कर रहे हैं। सार्थक और चिंतनपूर्ण आलेख के लिए बधाई।
जवाब देंहटाएं@ करण जी, अनुपमा जी, ताऊ जी
जवाब देंहटाएंधन्यवाद!
प्रोत्साहन के लिए आभारी हूँ...
@ राधारमण जी
जवाब देंहटाएंआपकी बाते सर्वथा सटीक और नवीन होती है।
आभार इन प्रेरक पंक्तियों के लिए।
@ प्रवीण जी
जवाब देंहटाएंआपने सही कहा है। हम सरकारी लोग इसपर इससे ज़्यादा कह नहीं सकते।
आभार आपका।
@ उदय जी, बबली जी, शास्त्री जी,
जवाब देंहटाएंधन्यवाद!
प्रोत्साहन के लिए आभारी हूँ...
@ महेन्द्र वर्मा जी
जवाब देंहटाएंआपने बिल्कुल सही कहा है कि सिर्फ़ एक दिन आते हैं और डिक्शनरी से चुन-चुन के शब्द निकाल निकाल कर सरकार और उनके विभागों को कोस जाते हैं।
आभार आपका।
मजा आ गया ... हिंदी को मेरा भी सलाम....
जवाब देंहटाएंदुर्वासा न बनो
जवाब देंहटाएंमुझे नहीं मरना किसी बहेलिए के हाथों
तुम्हारी जुदाई ही काफी है
मुझे हरपल मारने के लिए।
बहुत अच्छा लगा :)
बहुत अच्छी प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंबहुत सार्थक लेख लगा आपका, व्यवहारिक भी।
जवाब देंहटाएंलघुकवितायें भी अच्छी लगीं।
आभार।
बात लाख टके सही है। एक बात कहना चाहूंगा कि अगर हम चाहते हैं कि हिंदी अपना मुकाम सर चढ़ा कर बोले तो जाहिर है कि हमें जिन को अंग्रेजी नहीं आती है उन लोगो को बेधड़क हिंदी में बात कहनी चाहिए। अपनी भाषा में पारंगत हमेशा ज्यादा अच्छा होता है बशर्ते दूसरी भाषा की टांग तोड़ने से।
जवाब देंहटाएंइसके अलावा हम हिंदी भाषियों को देश कि किसी दूसरी भाषा की जानकारी भी होनी चाहिए। आखिर दूसरी भाषा वाले हिंदी सीख कर अपनी व्यापकता बढ़ाते हैं। हमें दक्षिण भारतीय भाषा या उत्तर पूर्व की भाषा अवश्य सीखनी चाहिए।
हिंदी का बाजार भी काफी व्यापक होते हुए भी कमजोर पड़ता जा रहा है। मैं एक हिंदी अखबार निकालने की सोच रहा हूं पाक्षिक या साप्ताहिक। पर उसके लिए पर्यॉप्त लोग ही नहीं जुट पा रहे जिस वजह से वो एक साल आगे चला गया है। महज 75,000 रुपये की एड भी हिंदी के पाक्षिक या साप्तताहिक को नहीं मिल पाती। हां अंग्रेजी का अखबार निकालने का कहने पर मुझे एडवांस चेक और नगद मिल रहा था। खैर क्या करें ये भी एक सच्चाई है हम लोगो के खोखलेपन की। खैर अंग्रेजी के अखबार का इरादा नहीं है। हिंदी का साप्तताहिक या पाक्षिक की तैयारी में लगे हैं।
@ श्रोत्रिय जी, मनीश जी, शा नवाज़ जी,
जवाब देंहटाएंआपका बहुत-बहुत धन्यवाद।
आपकी उपस्थिति हमारी मनोबल बढाती है।
@ मो सम कौन
जवाब देंहटाएंआप को धन्यवाद!
प्रोत्साहन के लिए आभारी हूँ...
@ बोले तो बिन्दास जी
जवाब देंहटाएंबहुत सही कहा आपने कि हमें भी हिन्दीतर भाषाएं सीखनी चाहिए। मैंने बांग्ला, तेलुगु और पंजाबी सीखी जब इन प्रांतो में मेरी पोस्टिंग रही।
धन्यवाद!
प्रोत्साहन के लिए आभारी हूँ...
आपका लेख पसंद आया । कहते सब हैं करता कोई कुछ नही । हम सब ब्लॉगर अपनी तरफ से कोशिश कर रहे हैं इसी को बढाना है अंग्रेजी के आगे हिंदी की इतनी बडी और मोटी लकीर खींचनी है कि वह बिना कुछ किये ही बडी हो जाये ।
जवाब देंहटाएंदूसरी क्षणिका की आखरी लाइन समझ में नही आई जब कब्र हैं में हैं तो.................
@ आशा जी
जवाब देंहटाएंबहुत प्रेरक बातें कहीं है आपने कि हमें एक ऐसी लकीर खींचनी चाहिर जो दूसरी लकीर से बड़ी हो।
गर्भ के कारण नौकरी से हटाई गई एयर होस्टेस को बहाल करने का आदेश
दूसरी बात तो बस मन की बात है कि जब जीना मौत बन जाए तो मर कर जीने का मन करता है।
धन्यवाद!
प्रोत्साहन के लिए आभारी हूँ...
जवाब देंहटाएंकिसी ज़माने में सँस्कृत आम जन से दूर रखी गयी थी..
मैं कई बार अलग अलग तरीके यह बात रख चुका हूँ, हिन्दी को इतने क्लिष्ट शब्दों से न लाद दो कि वह जन जन से दूर होती जाये ।
परन्तु तथाकथित विद्वान इसको मँच से नीचे सामान्य आदमी के स्तर तक उतरने ही नहीं देना चाहते, जिससे कि वह इसे सहलता से स्वीकार कर सकें ।
ये न पूछे मिला क्या है हमको
जवाब देंहटाएंहम ये पूछें किया क्या है अर्पण
-कवितायें बहुत उम्दा लगीं.
काश हम सब सिर्फ अपने को बदलने की सोच भी पाते.. बढ़िया क्षणिकाएं लगीं सर.. आभार.
जवाब देंहटाएंमनोज जी आज आपकी इस तूतू मैंमैं में कुछ कहने का मन हो आया।
जवाब देंहटाएंआपकी भावनाओं को आहत करने का कतई इरादा नहीं है। फिर भी आपकी दूसरी क्षणिका के बारे में कहूं तो पहली बात यह कि पीपल का पेड़ अगर कब्र पर उगा तो वह जल्द ही कब्र में रहने वाले को बेदखल कर देगा,क्योंकि उसकी अपनी जड़ें इतनी मजबूत और गहरी होती हैं कि किसी और को साथ रहने ही नहीं देता। पर यह भी सही है कि पीपल ही कब्र की दरार तक पहुंच सकता है।
बोले तो बिंदास जी की बात पढ़कर अच्छा लगा। संयोग से मुझे केवल इतनी अंग्रेजी आती है कि मैं पढ़कर समझ लेता हूं। कोई बोल रहा हो तो टूटा फूटा समझ लेता हूं। लेकिन मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं होता कि मुझे अंग्रेजी नहीं आती है। पर हिन्दी में मैं उतना ही पारंगत हूं। इसलिए अपना सब काम हिन्दी में ही करता हूं।
हम हैं न !
जवाब देंहटाएंहिन्दी अख़बारों की छोड़िए, हम हैं न, हिन्दी प्रेमी। आपके आलेख के अंतिम पैरा की बात तो समझ में आती है लेकिन शहर का एक अख़बार हमेशा लिखता है, ट्रक की ठोकर से...... या फिर अधेड़ ने मेट्रो में खुद कुशी की। ख़बर पढ़ने पर पता चलता है कि अघेड़ की उम्र थी मात्र 40-42.
सबको पढ़कर संभवत: हंसी आए कि ग्रेजुएट हो जाने तक मुझे यह नहीं पता था कि मातृभाषा क्या होती है। मेरा ख़याल था कि जिस भाषा में आप खुद को सहजता से अभिव्यक्त कर सकें वही आपकी मातृभाषा है। मैं नौकरी के आवेदन पत्रों पर बिना किसी से कुछ पूछे मातृभाषा के कॉलम में हिन्दी लिखा करती थी लेकिन एक बार आवेदन पत्र पोस्ट करने से पहले बड़े भाई साहूब को दिखाया कि ज़रा चेक कर लें। देख कर उन्होंने कहा कि तुम्हारी मातृभाषा हिन्दी कैसे हो गई? क्या माँ से हिन्दी में बात करती हो? घर में वार्तालाप किस भाषा में करती हो? तब से मैंने उस कॉलम में सही भाषा दर्ज करनी शुरू की।
राजभाषा में कार्यसाधक और प्रवीणता वाली terminology के आधार पर यही कहूंगी कि मुझे गर्व है कि मुझे मातृभाषा में कार्यसाधक ज्ञान है लेकिन हिन्दी में प्रवीणता।
पिछले हफ्ते किसी आगंतुक ने ऑफिस की लिफ्ट में पूछा, कि इस फ्लोर पर कौन सा ऑफिस है। मैंने कहा, हिन्दी सेक्शन। बाद में उन्होंने कहा, हिन्दी सेक्शन में हैं इसलिए आपकी हिन्दी अच्छी है। मैंने कहा, जी नहीं सर, माफ कीजिएगा, हिन्दी अच्छी है इसलिए हिन्दी सेक्शन में हूं।(मज़े की बात यह है कि अनायास ही ट्रैक बदल कर अंग्रेजी के क्षेत्र से राजभाषा के क्षेत्र मे पदार्पण हो गया।)
ख़ैर, साल भर में एक महीना हिन्दी को याद कर लेने वालों के नाम पर बहस करके कोई फायदा नहीं।
क्षणिकाओं ने सचमुच मोह लिया। अच्छी पेशकश।
हम हैं न !
जवाब देंहटाएंहिन्दी अख़बारों की छोड़िए, हम हैं न, हिन्दी प्रेमी। आपके आलेख के अंतिम पैरा की बात तो समझ में आती है लेकिन शहर का एक अख़बार हमेशा लिखता है, ट्रक की ठोकर से...... या फिर अधेड़ ने मेट्रो में खुद कुशी की। ख़बर पढ़ने पर पता चलता है कि अघेड़ की उम्र थी मात्र 40-42.
सबको पढ़कर संभवत: हंसी आए कि ग्रेजुएट हो जाने तक मुझे यह नहीं पता था कि मातृभाषा क्या होती है। मेरा ख़याल था कि जिस भाषा में आप खुद को सहजता से अभिव्यक्त कर सकें वही आपकी मातृभाषा है। मैं नौकरी के आवेदन पत्रों पर बिना किसी से कुछ पूछे मातृभाषा के कॉलम में हिन्दी लिखा करती थी लेकिन एक बार आवेदन पत्र पोस्ट करने से पहले बड़े भाई साहूब को दिखाया कि ज़रा चेक कर लें। देख कर उन्होंने कहा कि तुम्हारी मातृभाषा हिन्दी कैसे हो गई? क्या माँ से हिन्दी में बात करती हो? घर में वार्तालाप किस भाषा में करती हो? तब से मैंने उस कॉलम में सही भाषा दर्ज करनी शुरू की।
राजभाषा में कार्यसाधक और प्रवीणता वाली terminology के आधार पर यही कहूंगी कि मुझे गर्व है कि मुझे मातृभाषा में कार्यसाधक ज्ञान है लेकिन हिन्दी में प्रवीणता।
पिछले हफ्ते किसी आगंतुक ने ऑफिस की लिफ्ट में पूछा, कि इस फ्लोर पर कौन सा ऑफिस है। मैंने कहा, हिन्दी सेक्शन। बाद में उन्होंने कहा, हिन्दी सेक्शन में हैं इसलिए आपकी हिन्दी अच्छी है। मैंने कहा, जी नहीं सर, माफ कीजिएगा, हिन्दी अच्छी है इसलिए हिन्दी सेक्शन में हूं।(मज़े की बात यह है कि अनायास ही ट्रैक बदल कर अंग्रेजी के क्षेत्र से राजभाषा के क्षेत्र मे पदार्पण हो गया।)
ख़ैर, साल भर में एक महीना हिन्दी को याद कर लेने वालों के नाम पर बहस करके कोई फायदा नहीं।
क्षणिकाओं ने सचमुच मोह लिया। अच्छी पेशकश।
हम हैं न !
जवाब देंहटाएंहिन्दी अख़बारों की छोड़िए, हम हैं न, हिन्दी प्रेमी। आपके आलेख के अंतिम पैरा की बात तो समझ में आती है लेकिन शहर का एक अख़बार हमेशा लिखता है, ट्रक की ठोकर से...... या फिर अधेड़ ने मेट्रो में खुद कुशी की। ख़बर पढ़ने पर पता चलता है कि अघेड़ की उम्र थी मात्र 40-42.
सबको पढ़कर संभवत: हंसी आए कि ग्रेजुएट हो जाने तक मुझे यह नहीं पता था कि मातृभाषा क्या होती है। मेरा ख़याल था कि जिस भाषा में आप खुद को सहजता से अभिव्यक्त कर सकें वही आपकी मातृभाषा है। मैं नौकरी के आवेदन पत्रों पर बिना किसी से कुछ पूछे मातृभाषा के कॉलम में हिन्दी लिखा करती थी लेकिन एक बार आवेदन पत्र पोस्ट करने से पहले बड़े भाई साहूब को दिखाया कि ज़रा चेक कर लें। देख कर उन्होंने कहा कि तुम्हारी मातृभाषा हिन्दी कैसे हो गई? क्या माँ से हिन्दी में बात करती हो? घर में वार्तालाप किस भाषा में करती हो? तब से मैंने उस कॉलम में सही भाषा दर्ज करनी शुरू की।
राजभाषा में कार्यसाधक और प्रवीणता वाली terminology के आधार पर यही कहूंगी कि मुझे गर्व है कि मुझे मातृभाषा में कार्यसाधक ज्ञान है लेकिन हिन्दी में प्रवीणता।
ख़ैर, साल भर में एक महीना हिन्दी को याद कर लेने वालों के नाम पर बहस करके कोई फायदा नहीं।
क्षणिकाओं ने सचमुच मोह लिया। अच्छी पेशकश।
हम हैं न !
जवाब देंहटाएंहिन्दी अख़बारों की छोड़िए, हम हैं न, हिन्दी प्रेमी। आपके आलेख के अंतिम पैरा की बात तो समझ में आती है लेकिन शहर का एक अख़बार हमेशा लिखता है, ट्रक की ठोकर से...... या फिर अधेड़ ने मेट्रो में खुद कुशी की। ख़बर पढ़ने पर पता चलता है कि अघेड़ की उम्र थी मात्र 40-42.
सबको पढ़कर संभवत: हंसी आए कि ग्रेजुएट हो जाने तक मुझे यह नहीं पता था कि मातृभाषा क्या होती है। मेरा ख़याल था कि जिस भाषा में आप खुद को सहजता से अभिव्यक्त कर सकें वही आपकी मातृभाषा है। मैं नौकरी के आवेदन पत्रों पर बिना किसी से कुछ पूछे मातृभाषा के कॉलम में हिन्दी लिखा करती थी लेकिन एक बार आवेदन पत्र पोस्ट करने से पहले बड़े भाई साहूब को दिखाया कि ज़रा चेक कर लें। देख कर उन्होंने कहा कि तुम्हारी मातृभाषा हिन्दी कैसे हो गई? क्या माँ से हिन्दी में बात करती हो? घर में वार्तालाप किस भाषा में करती हो? तब से मैंने उस कॉलम में सही भाषा दर्ज करनी शुरू की।
राजभाषा में कार्यसाधक और प्रवीणता वाली terminology के आधार पर यही कहूंगी कि मुझे गर्व है कि मुझे मातृभाषा में कार्यसाधक ज्ञान है लेकिन हिन्दी में प्रवीणता।
ख़ैर, साल भर में एक महीना हिन्दी को याद कर लेने वालों के नाम पर बहस करके कोई फायदा नहीं।
क्षणिकाओं ने सचमुच मोह लिया। अच्छी पेशकश।
"कोई हद ही नहीं शायद मुहब्बत के फसाने की
जवाब देंहटाएंसुनाता जा रहा है जिसको जितना याद आता है।
इन दिनों मैंने अखबार पढना ही बंद कर दिया है, क्योंकि
है पता हमको वहां पर कुछ नया होगा नहीं
हाथ में हर चीज़ होगी आइना होगा नहीं।"
मनोज भाई साहब गजब की पंक्तियों से की है आपने शुरुआत, क्षणिकाओं ने तो बोल्ड ही कर दिया है मुझे .बेहद सुंदर एवं प्रभावी प्रस्तुति.
लेख व दोनों क्षनिकाए अच्छी लगी ..
जवाब देंहटाएं"माफ़ी"--बहुत दिनों से आपकी पोस्ट न पढ पाने के लिए ...
जवाब देंहटाएंपीपल !
जवाब देंहटाएंउग आना तुम
मेरी कब्र पर
हवा से कांपते
तुम्हारे पत्ते
दिलाते रहेंगे
एहसास मुझे
कि उसकी सांसे
तिर रही है
यहीं कहीं..
इतना ही काफी है
मेरे जीने के लिए ..
प्रेम का अनूठा एहसास लिए ..... कोमल भावनाओं का संगम है यह रचना ....
लेख तो सारगर्भित है ही ..क्षणिकाएं कमाल की लगीं.
जवाब देंहटाएंहिंदी दिवस पर आपका उदगार सत्य है। लेकिन अब लोगों में इसके प्रति जागरूकता पैदा हो रही है।आशा है परिवर्तित परिस्थित में लोगों की मानसिकता में भी समय के प्रवाह के साथ आमूल परिवर्तन अवश्य होगा।
जवाब देंहटाएंदोनों क्षणिकाएं हृदयस्पर्शी होने के साथ-साथ आपकी साहित्यिक भाव-भूमि के साथ सहजता से सामीप्य स्थापित करने मे सक्षम सिद्ध हुई हैं।
आपके विचार बिल्कुल सही है कि .........
जवाब देंहटाएंये न पूछे मिला क्या है हमको
हम ये पूछें किया क्या है अर्पण
उपरोक्त दो पंक्तियां शत प्रतिशत सही है । हम आलोचना तो बहुत अच्छी कर लेते हैं पर जब उस पर अमल करने की बात आती है तो ज्यादातर लोग पीछे हट जाते है अथवा परिस्थितियां उनके प्रतिकूल हो जाती है ।
क्षणिकाएं बहुत अच्छी लगी । इसमें दर्द है, तड़प है, चुभन है ।
जवाब देंहटाएंतुम्हारी जुदाई ही काफी है
मुझे हरपल मारने के लिए ........... दर्द का एहसास कराती है ।
Manoj jee kafee anupasthitee rahee meree.......iseke liye kshamaprarthee bhee hoo.......
जवाब देंहटाएंaapkee kshanikae ek se bad kar ek hai........
Hindi ke bare me kya kahoo isase aseem pyar hee mujhase blogs ke chakkar lagvata hai.........
ab to aisa lagta hai ki rachanao ke madhyam se aur likhee tippaniyo se bahuto ko samjhane bhee lagee hoo .
post ke liye Aabhar
आपका लेख बहुत अच्छा है । हिंदी के बारे में आपकी राय से मैं बिल्कुल सहमत हूँ । आलोचना तो हर कोई कर लेता है पर उस पर अमल बहुत कम लोग ही कर पाते है ।
जवाब देंहटाएंआपकी दोनों क्षणिकाएं बहुत अच्छी लगी ।
जवाब देंहटाएंगागर में सागर भर दिया है ।
सर्वकालिक विमर्शन ।
जवाब देंहटाएंबारह साल पुरानी पोस्ट आज भी उतनी ही प्रासंगिक है , अन्तर इतना है कि आज हिन्दी कोई दीन हीन भाषा नहीं है ,बल्कि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी अपना सर्वत्र अधिकार करती जा रही है . मैं अभी सिडनी में आयोजित हिन्दी दिवस के उपलक्ष्य में आयोजित गोष्ठी में गई वहाँ हिन्दी की प्रस्तुति से मन पुलकित होगया . हिन्दी पढ़ाने वालों की देश में इज्ज़त हो कि न हो पर बाहर हिन्दी को काफी प्रोत्साहन मिल रहा है . असल में हिन्दी को उपेक्षित स्वयं अंगरेजी को जीवन उद्धारक मानने वाले हिन्दी भाषियों ने ही किया है . या तो वे संस्कृत निष्ठ हिन्दी का उदाहरण देकर हिन्दी का मज़ाक बनाते हैं या व्याकरण , मात्राओं की अशुद्धियों को नज़रअन्दाज करके हिन्दी का स्वरूप बिगाड़ रहे हैं . सड़ी गली पुरातन चीजें बेकार होती हैं तो हर नई चीज़ भी अनुकरणीय नहीं होती . फिर अंगरेजी माध्यम से शिक्षा के प्रसार और मोह ने भी हिन्दी को पीछे किया है लेकिन हिन्दी पीछे नहीं होगी ,जब तक हिन्दी से प्रेम करने वाले , गर्व करने वाले रहेंगे . जब देश की एक राष्ट्रभाषा की बात आती है , तो वह निर्विवाद सत्य है कि हिन्दी ही एकमात्र भाषा है जिसे देश में सबसे अधिक बोला समझा जाता है . अब यह कहना तो बेमानी है , गलत है कि राष्ट्रभाषा की क्या ज़रूरत या राष्ट्रभाषा का विचार अधिनायकवाद का प्रतीक है . पूरे देश में प्रान्तीय भाषाओं के अलावा एक भाषा ऐसी होनी चाहिये जिसे सब बोल समझ सकें .
जवाब देंहटाएंक्षणिकाएं बहुत अच्छी लगीं . खासतौर पर पहली
बहुत ही सार्थक एवं चिंतनपरक लेख...
जवाब देंहटाएंलाजवाब क्षणिकाएं ।