गुरुवार, 30 सितंबर 2010

आँच-37चक्रव्यूह से आगे

अविरल अश्रुलड़ियों को शब्द श्रृंखला सा रचा है ! मेरे भीतर छंदों का सुन्दर संसार बसा है ! इस एहसास के साथ हर शब्द बुनती हूँ - मिटा न पाए क्रूरता भले निर्मम जगत हर रचना पर हँसा है ! नया लिख लेंगे क्या हम बड़ी विचित्र सी दशा है ! जीवन कमल कीचड़ के बीच खिला और सदा से वहीँ फँसा है ! इस वयुह्चक्र से आगे ही सुन्दरता परिभाषित होती है धरती पर हैं जीनेवाले ,पर आसमानी ख्वाब ही क्यूँ नैनों को जँचा है ! अपनी मिट्टी की खुशबू से भाव भाषा का अन्तस रचा है ! ऊपर की ओर बढती लता पर जड़ों में ही तो.... प्राण बसा है ! इस भावसुधा को अपनाकर चलते रहिये राहों पर , मिल जाएगी मंजिल भी - आखिर जीवन स्वयं में प्रेरक एक नशा है !

आँच-37


चक्रव्यूह से आगे


आचार्य परशुराम राय
मेरा फोटोआँच के अंक लगता है अब पाठकों को भाने लगे हैं। इसकी यात्रा अब रुकने वाली नहीं है। इस यात्रा का यह पड़ाव नवगीत परम्परा में अनुपमा पाठक जी का लिखा “जड़ों में ही तो ............ प्राण बसा है” गीत है।
गीत की भावभूमि विषम परिस्थितियों में सृजन की आस्था है। वैसे भी सृजन पीड़ा के गर्भ से ही सम्भव होता है। पीड़ा सृजन की आवश्यकता है। आवश्यकता होती है - पीड़ा में अपने उत्साह और धैर्य के प्रति सजग रहने, दृढ़ होने की। धैर्य और उत्साह दोनों के संयोग से सृजन की समझ या विवेक उत्पन्न होता और यही सृजन में गुणात्मकता ले आता है। जहाँ हम सौन्दर्य का, आनन्द का साक्षात करते हैं। इस जीवन दर्शन को बड़ी ही सुन्दर शब्द-योजना के साथ दो पंक्तियों में कहा गया है:-
सृजन पीड़ा के गर्भ से ही सम्भव होता है। पीड़ा सृजन की आवश्यकता है। आवश्यकता होती है - पीड़ा में अपने उत्साह और धैर्य के प्रति सजग रहने, दृढ़ होने की। धैर्य और उत्साह दोनों के संयोग से सृजन की समझ या विवेक उत्पन्न होता और यही सृजन में गुणात्मकता ले आता है। जहाँ हम सौन्दर्य का, आनन्द का साक्षात करते हैं।
'इस व्यूहचक्र से आगे ही
सुन्दरता परिभाषित होती है'
वियोग की वेदना हमारे अन्दर की अभिव्यक्ति के नए-नए आयामों की अर्गलाएं खोलती जाती है। यहाँ वियोग शृंगार के एक भेद तक सीमित नहीं है। यह जीवन के विभिन्न क्षेत्रों और परिवेशों में अभावजन्य व्यक्तिगत और समष्टिगत अनुभूति है। निम्नांकित काव्यांश का प्रयोग निबंध लेखन में हमें वियोग को एक सीमित अर्थ में ही बताया गया था-
वियोगी होगा पहला कवि
आह से उपजा होगा गान।
निकलकर आँखों से चुपचाप
बही होगी कविता अनजान।
कवि की पीड़ा अपने विशुद्ध रूप में व्याप्त समष्टि की पीड़ा है। यही कारण है कि व्याध द्वारा क्रौञ्च जोड़े में एक के मारे जाने पर आदि कवि महर्षि बाल्मीकि के मुँह से उनका शोक श्लोक के रूप में प्रस्फुटित हुआ था -
या निषाद प्रतिष्ठां त्वमगम: शाश्वती:समा:।
यत् क्रौंञ्चमिथुनादेकामवधी: काममोहितम्॥
Tulips प्रस्तुत कविता में पीड़ाजनित अश्रुलड़ियाँ शब्द-शृंखला सी रची हैं। ये अन्तस्थ छन्द शब्द-शृंखला के सहारे भाव-प्रवण होकर काव्य का रूप लेते हैं। यहाँ 'छंद' शब्द बहुत ही अभिव्यंजक रूप में आया है। छन्द शब्द का सामान्य अर्थ कामना, इच्छा, अभिलाषा षडयंत्र आदि है। वैसे शास्त्रों में छंद को आवरण की संज्ञा भी दी गई है। इसके अतिरिक्त छंद में दो चीजें प्रमुख लगती हैं - एक तो गति दूसरा यति। 'गति' प्रवाह है, तो 'यति' अल्पकालिक विराम है। दो इच्छाओं, कामनाओं, अभिलाषाओं आदि में भी प्रवणता के बाद अल्पकालिक ठहराव अनिवार्य है। अन्तस् में कामनाओं, अभिलाषाओं आदि के बसे सुन्दर संसार का एहसास इसे शब्दायमान करता है, रचनाधर्मी बनाता है - यह आकांक्षा लिए कि निर्मम समय उसे काल-कवलित न कर सके। भले ही उसकी उपेक्षा हो जाये, अमरत्व में काल का विलय होना एक अद्भुत कल्पना है। लेकिन यह सत्य है कि सृजन की सत्ता अनन्त है केवल परिवर्तन इसकी नियति है। वैज्ञानिक और दार्शनिक दोनों ही इस तथ्य की पुष्टि करते हैं। शिव स्वरोदय में इसे बड़े ही सुन्दर और सरल शब्दों में व्यक्त किया गया है।
'तेभ्यो ब्रह्माण्डमुत्पन्नं तैरेव परिवर्तते।
विलीयते च तत्रैव तत्रैव रमते पुन:॥
अर्थात् पंच महाभूतों से यह ब्रह्माण्ड उत्पन्न होता है। उन्हीं के द्वारा यह परिवर्तनशील रहता है। उन्हीं में लय होता है और यह प्रक्रिया सतत चलती रहती है।
तो इस प्रकार अमरत्व कोरी कल्पना नहीं, बल्कि समग्रता में यथार्थ की ठोस भूमि हैं।
मैंने अविरल अश्रुलड़ियों को
शब्द शृंखला सा रचा है।
.............................................
............................................
मिटा न पाए उसकी क्रूरता
भले निर्मम समय हर रचना पर हँसा है।
अगले अर्थात् दूसरे बन्द में पुरातन की कठोर सोच पर नवीनता की खोज के कोमल भाव की सुगबुगाती कुण्ठा को मुक्त करने के लिए बहुत ही स्वाभाविक और सुन्दर आयाम दिया गया है-
क्या लिख लेंगे नया हम
जीवन कमल कीचड़ के बीच
खिला और सदा से वहीं फंसा है
इस व्यूहचक्र से आगे ही
सुन्दरता परिभाषित होती है।
Desert नवीनता हमारे जीवन की माँग, आवश्यकता और अभिलाषा जरूर है, पर पुरातन के अभाव में उसका बोधगम्य होना असम्भव है। जीवन रूपी कमल द्वैत के कीचड़ में ही जन्म लेता है। यही इसकी नियति है। कमल को कीचड़ से निकाल दिया जाये, तो वह अस्तित्वहीन हो जाता है। जीवन भी जन्म और मृत्यु के बीच की रेखा है। जन्म के अभाव में मृत्यु और मृत्यु के अभाव में जन्म अकल्पनीय है। और इन दोनों के अभाव में जीवन की सत्ता असम्भव है। 'जीवन कमल कीचड़ के बीच/खिला और सदा से वहीं फँसा है' पंक्तियों में 'सदा से वहीं फँसा है' पदबन्ध चमत्कृत कर देता है। यही चमत्कार कुण्ठा को द्वैत के व्यूहचक्र से बाहर लाकर उसे सौन्दर्य बोध के लिए प्रेरित करता है।
इस बन्द की अंतिम दो पंक्तियाँ एक आश्चर्य को जन्म देती हैं कि भुगतते तो हम यथार्थ हैं, लेकिन जीते हैं कल्पनालोक में। यही आश्चर्य हमारे कल्पनालोक की परिकल्पना को यथार्थ में परिवर्तित करता है। बिजली, रेडियो, टी.वी. या अन्य सामान्य से लगने वाले साधन इसी के परिणाम हैं।
यथार्थजनित कल्पना अन्तस के भाव को भाषा प्रदान करती है। जिस प्रकार वृक्ष के प्राण का मूल जड़ में ही है और जड़ के लिए मिट्टी आवश्यक है। इसी प्रकार भाव के लिए यथार्थ की भूमि का होना आवश्यक है। रहीम कवि भी यही कहते हैं:-
एकै साधे सब सधे, सब साधे सब जाय।
रहिमन सींचे मूल को, फूलहिं फलहिं अघाय।
यही भाव-सुधा मानव को द्वैत से परे अपनी मंजिल अमरत्व की ओर ले जाती है, क्योंकि जीवन अपने आप में एक प्रेरक नशा है, सनक है जो हमारी अन्तर्निहित समस्त सम्भावनाओं को यथोचित विकास प्रदान करता है।
प्रस्तुत कविता के उपर्युक्त आयामों की यात्रा में जो कठिनाइयाँ दिखीं, उनकी ओर संकेत करना आवश्यक है। इन्हें निम्नलिखित ढंग से समझा जा सकता है:-
शब्द संयम:- पहले बन्द की पहली पंक्ति में 'मैंने', तीसरी में 'कई', पाँचवी में 'मैं', छठवीं में 'कि' सातवीं में 'उसकी' शब्दों को हटा देने से कविता इन शब्दों के बोझ से हल्की हो सकती है। छठवीं पंक्ति से 'कि' के स्थान पर केवल एक हाइफन (-) 'कि' का अर्थबोध करा सकता है। दूसरे बन्द की अन्तिम पंक्ति में 'यूँ' शब्द अपनी शब्द योजना पर बोझ है। इसी प्रकार अन्तिम बन्द की तीसरी पंक्ति में 'है' और सातवीं में 'सुनहरी' शब्द अनावश्यक रूप से बन्द को बोझिल बनाए हुए हैं। क्योंकि 'मंजिल' हमेशा आदर्श, सुन्दर और आकर्षक होती हैं उसके लिए किसी विशेषण की आवश्यकता मुझे नहीं लगती। प्रथम बंद की अंतिम पंक्ति में ‘निर्मम समय’ के स्थान पर ‘निर्मम जगत’ अधिक उपय़ुक्त होता।
प्राञ्जलता:- कई पंक्तियों में प्रांजलता का अभाव है। ऊपर सुझाए गए शब्दों को हटा देने पर प्रांजलता में सुधार हो सकता है और कहीं-कहीं शब्दों को आगे-पीछे कर देने से भी। उदाहरण के तौर पर दूसरे बन्द की पहली पंक्ति में यदि 'क्या' को 'नया' शब्द के पहले रखा जाता हो प्रांजलता थोड़ी बढ़ जाती। इसी प्रकार तीसरे बन्द में 'अंतस्तChrysanthemum ल' के स्थान पर 'अन्तस' कर देने से भी प्रवाह अच्छा हो जाता। पुन: कविता की अन्तिम पंक्ति में 'अपने आप' के स्थान पर 'स्वयं' अधिक प्रांजल होता।
ऊपर दी गई विटामिन की गोलियाँ सुझाव मात्र हैं, वह भी मेरे विचार से। कवयित्री और पाठकों का उससे सहमत होना आवश्यक नहीं है।

29 टिप्‍पणियां:

  1. बेहतरीन समीक्षा। भारतीय एकता के लक्ष्य का साधन हिंदी भाषा का प्रचार है! - टी माधवराव
    मध्यकालीन भारत धार्मिक सहनशीलता का काल, मनोज कुमार,द्वारा राजभाषा पर पधारें

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत सुन्दरता से आपने प्रस्तुत किया है! उम्दा समीक्षा!

    जवाब देंहटाएं
  3. वाह..... ! आज की समीक्षा पूर्णतः शास्त्रीय और तात्विक है. आंच का यह विलक्षण शिक्षाप्रद अंक संग्रहनीय है. वेवेचन में आचार्य का आचार्यत्व प्रतीयमान है. साधुवाद !

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत सुन्दर विश्लेषणीय प्रस्तुति।

    जवाब देंहटाएं
  5. वियोगी होगा पहला कवि

    आह से उपजा होगा गान।

    निकलकर आँखों से चुपचाप

    बही होगी कविता अनजान।
    गज़ब की समीक्षा। बधाई।

    जवाब देंहटाएं
  6. आपकी समीक्षा ने रचना को धन्य कर दिया ...., सुझाय गए परिवर्तनों के बाद सचमुच समृद्ध हुई है कविता !
    मेरी कविता पर इस स्नेह वर्षा हेतु आभार! मार्गदर्शन मिलता रहे ....

    posting the poem here after imposing the vitamins suggested:)

    अविरल अश्रुलड़ियों को
    शब्द श्रृंखला सा रचा है !
    मेरे भीतर छंदों का
    सुन्दर संसार बसा है !
    इस एहसास के साथ
    हर शब्द बुनती हूँ -
    मिटा न पाए क्रूरता
    भले निर्मम जगत हर रचना पर हँसा है !

    नया लिख लेंगे क्या हम
    बड़ी विचित्र सी दशा है !
    जीवन कमल कीचड़ के बीच
    खिला और सदा से वहीँ फँसा है !
    इस वयुह्चक्र से आगे ही
    सुन्दरता परिभाषित होती है
    धरती पर हैं जीनेवाले ,पर
    आसमानी ख्वाब ही क्यूँ नैनों को जँचा है !

    अपनी मिट्टी की खुशबू से
    भाव भाषा का अन्तस रचा है !
    ऊपर की ओर बढती लता
    पर जड़ों में ही तो.... प्राण बसा है !
    इस भावसुधा को अपनाकर
    चलते रहिये राहों पर ,
    मिल जाएगी मंजिल भी -
    आखिर जीवन स्वयं में प्रेरक एक नशा है !

    जवाब देंहटाएं
  7. आज की समीक्षा बहुत अच्छी लगी ..ऐसे ही मार्गदर्शन देते रहें ...

    कवयित्री ने भी इसे बहुत सकारातमक रूप से लिया ..यह हर्ष का विषय है ...

    आपका यह प्रयास नि:संदेह प्रशंसनीय है ..

    जवाब देंहटाएं
  8. @ बबली जी,

    प्रोत्साहन के लिए आभारी हूँ।

    जवाब देंहटाएं
  9. @ करण जी,

    समीक्षा का आधार और उसकी सीमा अनुपमा जी की कविता है और यह कविता भी आकर्षक है।

    प्रोत्साहन के लिए आभारी हूँ।

    जवाब देंहटाएं
  10. बहत ही गहन समीक्षा है। इससे कविता के दर्शन पक्ष को व्यापक अर्थ और विस्तार मिला है। इसे बेहतरीन कहना अधिक उपयुक्त होगा।
    इस सुन्दर प्रस्तुति के लिए राय जी को आभार।

    जवाब देंहटाएं
  11. @ अनुपमा जी,

    आपकी कविता का आधार न होता तो इस रचना का भी कोई अस्तित्व न होता। आपने सुझाए गए परिवर्तनों को स्वीकार किया यह मेरे लिए हर्ष की बात है। इसके लिए में आपका आभारी हूँ।

    जवाब देंहटाएं
  12. @ निर्मला जी,

    आपको समीक्षा पसन्द आई, धन्यवाद। आपके शब्द प्रोत्साहन स्वरूप हैं।

    जवाब देंहटाएं
  13. @ संगीता जी,

    अनुपमा जी के सकारात्मक दृष्टिकोण से मैं भी हर्षित हूँ। प्रोत्साहन के लिए आपका आभारी हूँ।

    जवाब देंहटाएं
  14. पिछले कई सप्ताह से आंच का नियमित पाठक हूं लेकिन इस बार की आन्च समिक्षा के नये मानड्ण्ड गढ रही है.. क्लासिकल समीक्षा कह सकते हैं इसे. शब्दों पर जिस प्रकार चर्चा की गई है.. उसके शब्दार्थ और भावार्थ .. उसकी उपयोगिता पर जिस प्रकार चर्चा की गई है.. समीक्षा कविता और कवियत्री का मार्ग निर्देशन कर रही है... बहुत उम्दा...

    जवाब देंहटाएं
  15. राय जी, इस ब्लॉग पर आपने समीक्षा का जो मानदंड गढा है वह अतुलनीय है। कवयित्री की रचनाओं को मैं पढते रहता हूं, उनमें अपार संभावना है, और आप जैसा यदि मार्गदर्शक मिल जाए तो निखार तो आना तय है।
    आंच की जब हम परिकल्पना कर रहे थे तब जो उद्देश्य हमारे समक्ष था वह फलिभूत होते दीख रही है।
    अनुपमा जी ने जिस स्पिरिट से सुझाव को लिया है वह स्तुत्य है, वरना हमें कड़वे अनुभव भी हुए हैं।
    आपको नमन। स्नेह बनाएं रखेंगे।

    बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
    स्वरोदय विज्ञान – 10 आचार्य परशुराम राय, द्वारा “मनोज” पर, पढिए!

    जवाब देंहटाएं
  16. Sunder Samiksha
    sahitye ke prati samarpan ke bhav aaapme kut kut kar bhare hai

    Dhanyavaad

    जवाब देंहटाएं
  17. aadarniya sir
    aapkka har blog hamesha se hi ek nai post ke saath naveenta pradan karta hai ,voaapka apna koi bhi blog ho .voitni gyan -vardhak hoti hai ki bs lagata hai ki sari jaankariyan hame yahi uplabdh ho jayengi aur kahi jaane ki jarurat hi nahi hai.aap ki kisee bhi vishhay -vastu par pakad bahut hi gahari hai.dhanyvaad sahit---
    poonam

    जवाब देंहटाएं
  18. बहुत ही अच्छी समीक्षा की है आपने ।

    जवाब देंहटाएं
  19. बस पढ़कर सीख रही हूँ....
    टिपण्णी क्या करूँ इसपर ???

    जवाब देंहटाएं
  20. संभव हो,तो जिस रचना की समीक्षा की जा रही हो,लिंक बनाने की बजाए,उसे रचना के प्रारम्भ में हू-ब-हू रखा जाए क्योंकि अन्यथा समीक्षा पर विचार करते समय मूल रचना पर एकाधिक बार जाना पड़ता है।

    जवाब देंहटाएं
  21. काल क्रूर है। फिर भी,मनुष्य सुनहरे सपने संजोता है। मनुष्य और प्रकृति का यह संघर्ष ही नवोन्मेष का आधार है। सत्य और सुन्दर से इतर,शिवरूप का साक्षात्कार स्वयं में अमरत्व है।

    जवाब देंहटाएं
  22. आचार्य राय,
    कविता देखी, समीक्षा देखी और उसका फल भी देखा..निःसंदेह, फल बड़ा मधुर था..कविता अनुपमा जी की और अनुपम समीक्षा है आपकी!!

    जवाब देंहटाएं

आपका मूल्यांकन – हमारा पथ-प्रदर्शक होंगा।