आँच-35 :: अभिलाषा की तीव्रता आचार्य परशुराम राय |
पिछले सप्ताह इस ब्लाग पर श्री मनोज कुमार की कविता ‘गीली मिट्टी पर पैरों के निशान’ (यहां पढें) प्रकाशित हुई थी। ऑच के इस अंक का विवेच्य विषय यही कविता है। जब इस कविता को पढ़ा था, उस समय महाकवि जयशंकर ‘प्रसाद’ की निम्नलिखित पंक्तियाँ अनायास ही मानस पटल पर उभर आयीं थीं- जो घनीभूत पीड़ा थी मस्तक में स्मृति सी छायी दुर्दिन में आँसू बनकर वह आज बरसने आयी। ऐसे दुर्दिन (वर्षा) में कच्चे रास्ते की गीली मिट्टी पर अभिलषित प्रेमिका के पदचिह्नों से उठाकर लायी गई मिट्टी पूजाघर में चन्दन की डिब्बी में भरकर रख देना और पूजन के समय चन्दन के स्थान पर उस मिट्टी का प्रयोग प्रेमी मानस के विश्वास और श्रद्धा की पराकाष्ठा है। बारिश से गीले कच्चे रास्ते में नायक की स्मृति को भी गीला कर दिया है। जिस पर प्रेमिका के प्रति तीव्र अभिलाषा के पद्चिह्न उभर गए हैं। इसको कवि ने बड़ी ही सजगता और सहजता से कच्चे रास्ते के बिम्ब के माध्यम से व्यक्त किया है- गुजरा है कोई इस राह से कल शाम घिरे थे बादल बारिश भी हुई ******* पर कच्चा रास्ता गीला मेरे मन की तरह। एकपक्षीय प्रेम में अभिलाषा बड़ी ही तीव्र होती हैं। संयोग न होने की आशंका ही उसे सम्भवतः तीव्रता प्रदान करती है। यह तीव्रता बहुत पीड़ादायक होती हैं। इसका वर्णन ‘प्रसाद’ की निम्न पंक्तियों में देखते ही बनता है- छिल-छिलकर छाले फोड़े मल-मलकर मृदुल चरण से धुल-धुलकर वे रह जाते आँसू करूणा के जल से।
स्मृति और अभिलाषा के मृदुल चरण कुरेद कर घाव पैदा कर देते हैं। विवेच्य कविता में भी कवि के नायक का मन गीला हो गया है। आँसू इसलिए नहीं बह रहे क्योंकि स्मृति में संयोग की अनुभूति का अभाव है। कविता का नायक अपने मानस हृदय के अत्यधिक निकट और उसके प्रति उतना ही जागरूक है। पदचिह्नों को देखते ही उसे लगता है जैसे नायिका उसके लिए प्रेम का पैगाम लेकर आयी हो। पेड़ों की सरसराहट में भी नायिका के आने का भ्रम होता है। यह अभिलाषा की तीव्रता और उसके प्रति जागरूकता का ही परिणाम है। काव्यशास्त्र में विप्रलम्भ (वियोग) शृंगार के पाँच भेद बताए गए हैं- अभिलाष, ईर्ष्या, विरह, प्रवास और शाप। वैसे मेरी दृष्टि में वियोग की ये पाँच अवस्थाएँ हैं- ‘अपरस्तु (विप्रलम्भः) अभिलाषविरहेर्ष्याप्रवासशापहेतुक इति पञ्चविधः ’ (काव्यप्रकाश- चतुर्थ उल्लास)
यहाँ कविता के नायक की स्थिति वियोग शृंगार की पहली अवस्था में अर्थात् ‘अभिलाष’ श्रेणी में हैं। यहाँ स्पष्ट करना आवश्यक है कि उपर्युक्त ‘विरह’ की अवस्था संयोग के बाद वियोग की स्थिति में आती है, जबकि ‘अभिलाष’ संयोग के पहले की अवस्था है। संयोग की अभिलाषा की तीव्रता इतनी वेगवती हो जाती है कि वह सामान्य जागतिक व्यवहार भी भूल जाता है। प्रेमिका को स्पर्शकर आने वाली हवा का स्पर्श होने पर वह प्रेमिका के स्पर्श का अनुभव करता है। उसके पास से नायिका की ओर जाती हुई हवा उसकी संदेशवाहिका लगती है। उसकी मौन भाषा को नायिका समझे, वह ऐसी आकांक्षा करने लगता है। कवि ऐसे प्रेमी की मानसिकता के प्रति सजग है- काश! मेरी खामोशी का गीत सुन लेती एक बार........
महा कवि कालिदास का नायक यक्ष भी ऐसा ही करता है। वह मेघ को ही दूत बनाकर संदेश देना चाहता है। महाकवि कालिदास लिखते हैं कि धुआँ, ज्योति, जल, (जड़ पदार्थों) और हवा का संयोग कहाँ। कहाँ यह मेघ और कहाँ सुबुद्ध व्यक्तियों द्वारा किया जाने वाला दूत का कार्य। लेकिन कामार्त लोग चेतन और अचेतन का भेद नहीं कर पाते- धूमज्योतिःसलिलमरूतां सन्निपातः क्व मेघः सन्देशाथाः क्व पटुकरणैः प्राणिभिः प्रापणीयाः। परिगणयन्गुह्यकस्तं ययाचे कामार्ता हि प्रकृतिकृपणश्चेतनाचेतनेषु।।
प्रस्तुत कविता के नायक की भी यही अवस्था है। इसके लिए वह औचित्य भी ढूँढ़ लेता है- .............शब्द बनकर नज्म बहे यह जरूरी तो नहीं।
पूरी कविता लगभग आद्योपान्त संतुलित है। किन्तु प्रथम बंद में ‘आज निकली है धूप’ यह पंक्ति अर्थ प्रवाह में कोई योगदान नहीं कर रही है। इसके अभाव में भी कोई खास अन्तर नहीं पड़ता। प्राञ्जलता लगभग पूरी कविता में वर्तमान है। शब्द-संयम बहुत अच्छा है। फिर भी ‘जहाँ कदमों के निशान थे’ के स्थान पर यदि ‘कदमों के निशान से’ होता तो प्राञ्जलता बढ़ जाती और अनावश्यक शब्दों से कविता के बन्द का बोझिलपन समाप्त हो जाता। इसके अलावा मुझे लगता है कि कविता का शीर्षक ‘गीली मिट्टी पर पैरों के निशान’ के स्थान कुछ ऐसा होता जिससे कविता सी अभिव्यञ्जना होती, तो अच्छा रहता। समीक्षा करते समय मेरे मन में इसके लिए एक शीर्षक ‘इजहार’ कौंधा है। वैसे शीर्षक मात्र एक खूँटी की तरह होते हैं जिस पर हम अपने विचारों को टाँगते जाते हैं। लेकिन खूँटी रूपी शीर्षक यदि कविता की तरह चमत्कृत कर दे, तो कविता और रसात्मक हो जाती है। कविता की शब्द योजना, प्राञ्जलता, रसाभिव्यक्त आदि कवि द्वारा इतनी कोमलता के साथ प्रस्तुत की गयी हैं कि उपर्युक्त कतिपय कमियाँ पाठक के ध्यान में नहीं आ पातीं। इस कविता की कोमलता और मनोवैज्ञानिक चित्रण ने इसे आँच पर लेने के लिए मुझे प्रेरित किया। उपर्युक्त अनुच्छेदों में दिखायी गयी कमियाँ मेरी अपनी दृष्टि है। इनसे पाठकों और कवि का सहमत होना आवश्यक नहीं। |
गुरुवार, 16 सितंबर 2010
आँच-35 :: अभिलाषा की तीव्रता
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
बहुत उम्दा आलेख!
जवाब देंहटाएं... sundar va prabhaavashaalee sameekshaa, badhaai !!!
जवाब देंहटाएंएक उत्कृष्ट रचना की लिए सर्वोत्तम समीक्षा!!
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर समीक्षा।
जवाब देंहटाएंसमीक्षा बहुत अच्छी लगी। मगर 'इजहार' शीर्शक का सुझाव मुझे नही जचा। धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंKaphi Sunder samiksha, ek alag aandaj iske kiye badhai
जवाब देंहटाएं्बेहतरीन विश्लेषण और समीक्षा की है।
जवाब देंहटाएंसुन्दर समीक्षा,
जवाब देंहटाएंयहाँ भी पधारें :-
अकेला कलम...
उम्दा लिखा आपने....बधाई.
जवाब देंहटाएं_____________________________
'पाखी की दुनिया' - बच्चों के ब्लॉगस की चर्चा 'हिंदुस्तान' अख़बार में भी.
कोमल कविता का निर्मल विवेचन. साधु समीक्षा. मेघदूतम् के सन्दर्भ से आलोच्य कविता की गरिमा और समीक्षा के सौंदर्य और गाम्भीर्य में वृद्धि हुई है.
जवाब देंहटाएंकविता का वर्तमान शीर्षक शास्त्रीय नहीं है किन्तु समीक्षक द्वारा अनुमोदित 'शीर्षक - इजहार' भी मुझे समीचीन नहीं जान पड़ रहा. क्यूंकि कवि तो इजहार कर ही नहीं पता...... कविता में उसके सारे भाव मनोगत ही प्रतीत होते हैं. आचार्य राय ने समीक्षा के अंत में डिस्क्लेमर भी लगा दिया है,
"उपर्युक्त अनुच्छेदों में दिखायी गयी कमियाँ मेरी अपनी दृष्टि है। इनसे पाठकों और कवि का सहमत होना आवश्यक नहीं।"
चलिए इसी बहाने मुझे भी आचार्य से असहमत होने का अधिकार मिल गया.
अंत में कवि और समीक्षक दोनों को कोटिशः धन्यवाद !!
समीक्षा बहुत ही कमाल की है!
जवाब देंहटाएं--
बधाई!
--
दो दिनों तक नेट खराब रहा! आज कुछ ठीक है।
शाम तक सबके यहाँ हाजिरी लगाने का विचार है!
एक उमदा आलेख जी, धन्यवाद
जवाब देंहटाएं"गीली मिटटी पर पैरों के निशान " कविता पढ़ कर जितना भाव विश्वाल हुआ था, कविता की उतनी ही बढ़िया समझ आज की समीक्षा को पढ़ कर हुआ है.. इस समीक्षा से कवि के मन की बातें जो वह कविता में नहीं कह पाए हैं, उन्हें भी जानने का अवसर मिला.. कविता के शिल्प पर तुलनात्मक अध्यन और कालिदास के सिद्धांतो से उसकी तुलना कर कविता को समझने की नई दृष्टि मिली है.... उत्क्रिस्थ कोटि की समीक्षा ... आंच को ए़क प्रतिष्टि मंच बना रहा है..
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी समीक्षा ....बस समीक्षक के सुझाए शीर्षक से सहमत नहीं हूँ ...
जवाब देंहटाएंएक उत्तम रचना की सर्वोत्तम समीक्षा.
जवाब देंहटाएंये समीक्षा अच्छी लगी .
जवाब देंहटाएंआपका ब्लॉग मुझे बहुत अच्छा लगता है .
हर बार कुछ न कुछ ज्ञानबर्धक
पढ़ने को मिलता है .
इसके लिए आपको धन्यवाद ..
सारगर्भित विश्लेषण। आवश्यक विस्तार।
जवाब देंहटाएंसम्यक समीक्षा। दोषों की ओर मध्यम स्वर में ध्यानाकर्षण से समीक्षा की गरिमा बढ़ी है और मूल भाव पर पाठकों को केंद्रित रखने में भी सहायता मिली है।
जवाब देंहटाएंअचार्यवर आपकी आंच पर तपकर मेरी गीली मिट्टी और रसदार हो गई है। आखें नम हैं, और आपको धन्यवाद कहने के लिए शब्द नहीं है, लेकिन भावनाएं आपके आभार से सरोबार है।
जवाब देंहटाएंएक सम्पूर्ण समीक्षा जो कवि मन की उन बातों को भी स्पष्ट करती है जिन्हें गीला मन अभिव्यक्त नहीं कर पाया था।
जो सुधार सुझाया गया है निश्चय ही प्रेरक हैं और मेरी रचना प्रक्रिया को और सुदृढ करेंगे।
आपका कोटिशः आभार।
बहुत अच्छा विश्लेशण. आभार....
जवाब देंहटाएंशान्दार पोस्ट. राय जी को साधुवाद.
जवाब देंहटाएंआप सभी पधरने वालों का धन्यवाद।
जवाब देंहटाएं@ अनामिका जी
जवाब देंहटाएंआपका धन्यवाद जो आपने चर्चा मंच पर इसे शामिल कर हमें सम्मान दिया।
@ निर्मला जी, करण जी,संगीता जी
जवाब देंहटाएंअसहमति और अभिव्यक्ति का माध्यम भाषा है। और भारतीय दर्शन में भाषा की चार अवस्थाएं बताई गई है। परा, पश्यंति, मध्यमा और वैखरी। जिसमें परा की अवस्था शुद्ध भाव है,जबकि पश्यंति में आदमी उस भाव को महसूस करने लगता है। मध्यमा में वह भाव को मानस में भाषिक रूप ले लेता है। और वैखरी मे बोलकर अभिव्यक्ति की जाती है उसकी।
इस कविता में कवि ने जिस मनसिकता की अभिव्यक्ति की है वह वैखरी स्तर पर न पहुंच कर भी अभिव्यक्ति का ही रूप है। इसलिए इज़हार पूरी कविता के भाव का इज़हार करता है। इसीलिए इसके लिए इज़हार शब्द का सुझाव दिया गया है। वैसे इसके और भी शीर्षक चुने जा सकते हैं जो इस तरह की अभिव्यंजकता प्रदान करे।
सार्थक और सराहनीय प्रस्तुती...
जवाब देंहटाएंआज विलम्ब से आ रहा हूँ। कभी-कभी तकनीकी समस्याएं अवरोध बन जाती हैं।
जवाब देंहटाएंभावप्रवण कविता की बहुत सुन्दर समीक्षा की है आपने। कवि और समीक्षक दोनों को साधुवाद।
well executed critical appreciation!!!
जवाब देंहटाएंsubhkamnayen...