बुधवार, 22 जून 2011

देसिल बयना – 86 : जो रोगी को भाया, वही वैद्य फ़रमाया...

-- करण समस्तीपुरी

गाय के गोबर से लिपे-पुते आंगन में उत्सवीय सौरभ विद्यमान था। उतरवारी दुआरी से लेकर दखिनवारी दलान तक… एंह भारी गहमा-गहमी। मैय्या तो भोज-भात के इंतिजाम में व्यस्त थी। विध-व्यवहार का जिम्मा बड़की आजी पर था। सोन काकी गीत-गायिन सब के आगत-भागत में तैनात थी और लाल काकी का डियुटी लगा था चौका-घर में। जुगेसर की लुगाई वही भीर-भाड़ में से जर-जनानी को बुला-पकड़ कर नह-रंगाई कर रही है।

जैसन हाल अंगना का वैसने बाहर। जुगेसर दुन्नु बाप-पूत लगा हुआ है। एगो का दाढ़ी बना
या तब तक दूसरा कानी छँटाने के लिये तैय्यार। ओह… बेचारे को नाक का पसीना पोछने का भी फ़ुर्सत नहीं है। नेंगर धोबी और लुल्हाई की जोरू बारी-बारी से सब का आयरन-क्लाप किया हुआ कपड़ा ढो रही है। सामने रायजी वाला परती में माधो राम का मशक-बैंड पार्टी भी अपना टीम-टाम शुरु कर दिया है। बूढ़वा कारनेटिया बजा रहा है, “मेरी भी शादी हो जाए, दुआ करो सब मिलके….!”


अंदर से गीत की टहकार उठती है, “साजू बाबा आजन-बाजन…… साजू बरियात…!” बाहर उका परैक्टिकल हो रहा है। बाबूजी आगत-अभ्यागत सब को खैर-समाचार पूछ-पूछ कर गाड़ी-घोड़ा का पता-ठिकाना समझा रहे हैं। बड़का कक्का की पैनी नजर टोले के हर परिवार पर है, “अरे…. फ़िरंगी लाल और मुसुकचन के घर से कोई नहीं आया है। ई भगतुआ, लटोरना, सुरो और बोतला नजर नहीं आ रहा है। और ई लोटकन मिसिर वैद कहाँ रह गये…. नहीं गये तो अरियात-बरियात का तबियत-सेहत कौन संभालेगा…!” बेलचन महतो बड़का मालिक को भरोस दिलाता है, “नहीं मालिक… ! सब आयेगा। अभी दोबारा सबको हड़कार आये हैं।” धीरे-धीरे बरातियों का जत्था दरवाजे पर जमा होने लगता है। हर आधे घंटे पर आंगन में एक संवेत गीत गूंजता है, 'अइले… शुभ के लगनमा…. शुभे…हो… शुभे।’
सुबह से आठ बार हल्दी-दही का उबटन लगा-लगाकर सब हमरे गेहुआँ रंग को भी उज्जर कर दिया था। आजी बोली थी, “ए जुगेसर की कनिया…. ई अब नवम बार है। बढ़िया से बबुआ को उबटन लगैहो….।” सोन-काकी लहरदार गीत उठाई थी, “रामजी के करिऔन पसाहिन उदगार से…. अपना विचार से ना….!” आह… ई बार तो आधा घंटा तक आपादमस्तक मसाज होता रहा। फिर गुलाब-जल से हाथ-मुँह धो-धाकर एसनो-पावडर, काजर-टीका लगाके फिट।
बाहर से सहरसा वाला पिउसा (फूफा) फ़रमान लाये हैं। “हे हो बबुआ… ! जल्दी करो। इहाँ से जोजन भर दूर पटना शहर जाना है। टेमली चलो। गाँधी बिरिज एकलिखिया हो गया है। ई भारी जाम लगता है। कहीं फ़ँसे ना तो वहीं “मंगलं भगवान विष्णुः मंगलं गरुड़ध्वजः” करते रहना। पकौरी लाल से चापाकल चलवा-चलवा कर खूब नहाये थे। लस को घस-घसकर आधा कर दिये। नहाने में जो टेम लगा सो लगा… बांकी दुइए मिनिट में सिरवानी पर इतर-गुलाब उझल के तैय्यार। ना… गाँधीपूल पर तो नहीं फ़ंसेंगे। लेकिन अभी फ़ुर्सत कहाँ। अभी तो फ़ाइनल राउंड का गीत-नाद चुमावन और पालकी-चढ़ाई की रस्म तो बांकिये है।
बुलंती बुआ के नेतृत्व में महिला-मंडली आला-माला, मौरी-पगड़ी लेकर तैय्यार है। विधे-विधे गीत-नाद का सामूहिक स्वर समां बांध रहा है। पहले मैय्या दूभ-धान से चुमावन करके दही का टीका लगाती है। उसके पीछे फ़ुआ-चाची और अन्य सुहागन महिलाएं। पिउसा फिर हड़काने आ जाते हैं, “हई लो… पांच बज गया…. अबो निकलो… नहीं तो पूले पर जय-जय सियाराम करते रहना।” खुरचन झा पंडीजी स्वस्ति-वाचन करते हैं। बड़े-बुजुर्ग दुर्वाच्छ्त से आशीष देते हैं। भौजी हमरे माथा पर अंचरा रखकर मोटरकार में चढ़ाने आती है। आजके आखिरी गाने की लहर तेज हो जाती है, “तुम जाओ रे बंदे… ससुरार रे बंदे… तुम दुल्हिन लाना होशियार रे बंदे…!” मैय्या-बुआ-काकी-मामी मोटर के उपर रुपैय्या-पैसा लुटाती है। गाड़ी तीन बार आगे-पीछे करके फ़र्र से बढ़ जाती है।


डरेवर बड़ी ओस्ताद था। बिजली जैसे डेढ घंटा में तीसन कोस पार। हाजीपुर आ गया। हाँ हाजीपुर ही है। अब गाड़ी-घोड़ा सब चीटी जैसे ससर रहा है। ओह ठीके कहे थे पिउसा…। बस-ट्रक, जीप-कार, टेम्पू-रिक्शा… सब एकदम पलटन जैसे लाइन लगाकर परेड कर रहा है। एक घंटा में खिसक-खिसक कर पूल तक आये। फिर तो डरेवर भी चाभी निकालकर खैनी रगड़ने लगा। ओह जाम में उम्मस भी बड़ा हो रहा है। कार का सीसा नीचे कर लिये। कान में ’मंगलं भगवान विष्णुः….’ के बदले “ए मुंगफ़ली चिनिया बदाम…. रामदान लाड्डू…. हाजीपुर के फ़ेमस चिनिया केला… हरा-बतिया लो…. फ़्रूटी-ठंडा… कोल्ड्रिंक" सुनते रहे।
पहर रात गये जाम खुला। फिर भी घंटा लग गया पूल पार करने में। उपर से मोस्किल ई कि उ जाम में ऐसे छिटाए कि वर अलग, बराती अलग और बाबूजी की गाड़ी का कौनो अते-पता नहीं था। घंटा से उपर तो सबको एक ठौर करने में लगा। फिर पटनिया रस्ता… बिजली से नहा के सब एक्कहि जैसा लगता है। उपर से बराती को रस्ता दिखाये वाला भी बेजोरे आदमी था। सार… तीन परिक्रमा तो चितकोहरे गोलंबर का करवा दिया। हम बोले चार और करवा ही दो…!”

खैर किसी तरह हेराते-भुलाते बारह बजे रात में जलवासा पहुँचे। नश्ता-पानी होते-होते एक। अब दरवाजा लगाई, “टें…टें…. टें… टें… टें…. टें… टें…टें…. टें… टें… टें…. टें…. आज मेरे यार की शादी है…..टें…टें…. टें… टें… टें…. !” उ तो भला कि बैंड पार्टी का दूसरा भी साटा था सो एक्कहि गीत में दरवाजा लगा दिया वरना पता चलता कि अब अगला लगन का इंतिजार कीजिये।



फिर अरिकावन-परिकावन, कनियाँ-निरीच्छन…. मंडप पर पंडीजी के ’ओम इरिंग-भिरिंग-तिरिंग-टांग!’ पंडीजी का ध्यान मंतर पर, बरियाती का भोज पर, जर-जनानी का गीत पर, सुहसिन का विध पर, कन्यागत का कन्यादान पर और हमरा ध्यान तो परिकावनि में मिला पियरका घड़िये पर था। कुर्ता के बांही समेटे के बहाने हर पाँच मिनिट पर टाइमे देख रहे थे।

चार बज गये लेकिन पार्टी अभी बांकी है। अब हमरा धैर्य और हिम्मत जवाब दे दिया। अनुनय-विनय से काम नहीं चलेगा। जुगत लगाये। चलो फिर रेवाखंडी नौटंकी शुरु करते हैं। लघुशंका का बहाना कर के उठे। लटपटा कर धम्म से बैठ गये। आँख बंद करके दाँत निपोर दिये। आ… हा…. हे.. हे…. पानी लाओ… पंखा घुमाओ…. वैदजी को बुलाओ…. ! हंगामा मच गया। बराती-सराती सब एक्क्ट्ठे सकदम।
बड़का कक्का पगड़ी संभालते हुए गरजे, “अरे कहाँ गया लोटकनमा वैद…. उ ससुर को एहि सब एमर्जेंसी के लिये न लाये… देखो कोना में रसगुल्ला चाभ (चूस) रहा होगा।” वैदजी का नाम सुनकर तो हमें लगा कि लेयो अब हो गया सब नौटंकी का पटाक्षेप। इस से पहिले कि भेद खुल जाये हम खुदे आँख मिचमिचा के उठने लगे। ’आ… ह… ह… पाहुन बैठिये… बबुआ बैठो…. एक साथ कई हिदायतें मिल गयी थी।” दुल्हिनियाँ भी घुंघट सरका के हमरे ओर देख रही थी।
लोटकन मिसिर गमछी से अपना मुँह पोछते हुए धरफ़रा के आये और हमरी नाड़ी पकड़ कर पूछ-ताछ करने लगे। हम सोचे कछु बोलने से धरा न जायें इसीलिये मिसिरजी जौन लच्छन बतायें सब में हाँ-हूँ। मने-मन डरो लग रहा था कि पता नहीं वैदजी कौन गोली-पुड़िया खिला दें… कि सुखले में काढा पिला दें…! अब हम बिमार होने का कोई लच्छन नहीं प्रकट होने देना चाह रहे थे।
मिसिरजी भी पहुँचे हुए वैद हैं। वैसहिं नहीं जिला-फ़ेमस हैं। पाँच मिनिट तक गहन जाँच-परताल के बाद कहिन, “बबुआ अब एकदम ठीक है। दिने का खाया-पीया था। इहां जादा देर एक्कहि आसन में बैठा और अचानके उठा न सो घुरमी लग गया और कौनो बात नहीं है।” फ़िर पंडीजी से मुखातिब बोले, “हौ पंडीजी ! जमाना चाँद पर गया और आप अभियो बैलेगाड़ी पर घूम रहे हैं। मरदे, फ़टाक से मंगलं भगवान विष्णुः… मंगलम गरुड़ध्वजः करवा के फेरा-फ़ेरी करवाकर खीर-खिलावन करवा दीजिये। पेट में दू कौर खीर भी जायेगा तो आफ़ियत होगा।”




हाँ…! वैदजी की सलाह रामवाण की तरह काम किया। बांकी का विध-वाध एकदम फ़ोर एक्स फ़ास्ट फ़ारवर्ड हो गया। उधर नारी-वृंद का गीत-नाद, हास-परिहास भी द्रुत गति से बढ़ रहा था। हमरे मुँह पर भी मुस्की तैर गयी थी। उसकी बिजली भौजी शायद बात भांप ली थी। मजेदार टोन मारी थी, “हाँ-हाँ…! जो रोगी को भाया, वही वैद फ़रमाया। तो फिर दूल्हा बाबू मुस्की क्यों नहीं मारेंगे….! अबहि तो अरमान फूट रहे हैं।” खूब हें..हें… हीं…हीं… भी हुआ था भौजी के टोन पर।


झट-पट में भाँवरी, फेरे, सिंदूरदान के बाद सुहागकक्ष जाते हुए बिजली भौजी की बात याद कर फिर मन गुदगुदा गया, “जो रोगी को भाया, वही वैद फ़रमाया। मतलब कि दूसरे छोड़ से भी मनोनुकूल बात होना। आखिर जो भी हो अपनी नाट्य-कला पर एक बार गर्व जरूर हुआ। निशाना सही जगह लगा था।”


इस तरह "जो रोगी को भाया, वही वैद फ़रमाया।" साढ़े तीन फेरा में ही सातो बचन निपटाया। हो गयी बात मनमाफ़िक। बोल “सियावर रामचन्द्र की जय!”

15 टिप्‍पणियां:

  1. ह ह ह ह
    देर आए दुरूस्‍त आए .. क्‍या खूब वर्णन किया है .. अपनी शादी में हमें शामिल ही कर लिया !!
    डेढ घंटा में तीसन कोस पार .. और फिर कान में ’मंगलं भगवान विष्णुः….’ के बदले “ए मुंगफ़ली चिनिया बदाम…. रामदान लाड्डू…. हाजीपुर के फ़ेमस चिनिया केला… हरा-बतिया लो…. फ़्रूटी-ठंडा… कोल्ड्रिंक" सुनते रहे।
    पुल का आजकल यही हाल चल रहा है .. हमलोग भी फंस चुके हैं ..
    अब हमरा धैर्य और हिम्मत जवाब दे दिया। अनुनय-विनय से काम नहीं चलेगा। जुगत लगाये। चलो फिर रेवाखंडी नौटंकी शुरु करते हैं। लघुशंका का बहाना कर के उठे। लटपटा कर धम्म से बैठ गये। आँख बंद करके दाँत निपोर दिये। आ… हा…. हे.. हे…. पानी लाओ… पंखा घुमाओ…. वैदजी को बुलाओ…. !
    सब डर गए होंगे .. आपको तो मजा आ रहा होगा .. गजब की प्रस्‍तुति .. सबसे मजेदार देसिल बयना !!

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  2. अच्छा रहा आपका नाटक ! शादी के मंडप में भी देसिल बयना के लिए सामग्री ढूंढ़ लिए ,कमाल की बात है !

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  3. @ सार… तीन परिक्रमा तो चितकोहरे गोलंबर का करवा दिया। हम बोले चार और करवा ही दो…!”

    *** हा-हा-हा .....

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  4. इसे मैं आपका आज तक का बेस्ट देसिल बयना रेट करता हूं। हास्य का पुट जो है वह लाजवाब है, पूरे प्रसंग को पढ़्ते वक़्त मुंह पर हंसी तैरती रही, कई बार तो ठहाके लगा कर हंसा। और हमारे यहां के विध-व्यवहार का जो चिरे आपने खींचा है उसका तो जवाब नहीं।
    दुलहिन और आपको आशीष।

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  5. अब हमको अफसोस नहीं है कि हम बिआह मिस कर गए थे.. ई त साच्छात कैसेट्वे देख लिये हम.. रहा सहा "अनकट सीन" मनोज बाबू देखा दिये कि कइसे चित्कोह्रा गोलम्बर पर फेरा लगा दिये थे..
    पूरा पोस्ट का महौल एकदम बियाह वाला बन गया है.. जे बिहार का बिआह देखा होगा उस्को भरपूर मजा आया होगा.. तब्बे न मनोज जी बेस्ट रेटिंग दे दिये.. मगर हम्को कुछ कमी बुझा रहा है.. सोचिये आप करन बाबू!! का कमी है.. मगर मजा जबरजस्स आया!!

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  6. करन भाई,
    तोहार देशिल बयना के गमक कभी-कभी मन के एतना मनजबूर कर देला कि पूरा के पूरा पोस्ट एक सुरीकिए पढ़े के पड़ जाला। हम त कलकत्ता में ऱाउर पोस्ट पढीला लेकिन मन बिहार में अपने गांव पर चल जाला। आपके एक-एक शब्द में हम बहुत सारा फोटो देख लीहिला। बहुत ही नीमन लागल ऱाउर पोस्ट। धन्यवाद।

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  7. रोगी के अनुसार वैद्य का फरमाना तो वास्तव में शादी के बाद शुरू होता है। मैं परेशान हूं। आपके लिए शुभकामनाएं हैं।

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  8. मनोज जी ज़वाब नहीं आपका इतना सजीव वर्रणआपकी कलम का ही जादू है एक रस्म को शब्दों में जस का तस बुनना किसी अच्छे बुनकर के ही बूते की बात है .इस लोक कला को जीवित रखिये आंचलिक कथा वृतांतों को भी .आशीष और आभार दोनों .

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  9. करन बाबू, न आप बियाह का बरनन करने अघा रहे हैं और न हम पढ़ने से। जौने रोगिया भावे, तौने बैदा बतावे। बिलकुल सही है। यह बयना हम लोगों के यहाँ कुछ इस प्रकार कहा जाता है। सब होवे शुभे शुभे।

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  10. करण ...

    सियावर रामचंद्र की जय ... विस्तृत वर्णन ..पूरे विवाह में शामिल रहे :):)

    बदिया रहा यह देसिल बयना .. जो रोगी को भाया ..अब रोगी ही तो थे न तुम ..

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  11. अपने विवाह का वर्णन शायद ही किसीने इस तरह से किया होगा आजतक....

    बहुत बहुत लाजवाब !!!!

    कुछ और पोस्टें ऐसे ही आयीं तो फोटो देखने की साध बहुत हद तक पूरी हो जायेगी.

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  12. जो रोगी को भाया .....
    । करण जी कथानक को अपने अनुकूल ढालने में आपका कोई जवाब नहीं। मजेदार वृत्तांत

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