ऊटी भ्रमण की बात करते हुए बताया था कि हम एक चाय बनाने वाली फ़ैक्ट्री में भी गए। वहां दिखाए जाने वाले स्लाइड शो और कुछ लोगों के साथ हुई बात-चीत के आधार पर चाय उत्पादन से जुड़ी कुछ जानकारी भी हम साथ ले आए। आज फ़ुरसत में हूं, तो उसे ही शेयर कर लूं!
चीनी दंत-कथाओं के अनुसार काफ़ी दिनों पहले वहां एक राजा हुआ करता था। उसका नाम था शेन नुंग। वैज्ञानिक प्रवृत्ति का वह राजा एक कुशल शासक था। कला के संरक्षक के रूप में भी उसकी काफ़ी ख्याति थी। उसका मनना था कि स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से पीने वाले पानी को उबाला जाना चाहिए।
गर्मियों के दिन थे। एक लम्बी यात्रा के बाद राजा के दल बल ने विश्राम करने के लिए किसी जगह पर पड़ाव डाला। जैसा कि राजा का आदेश था सेवकों ने पीने के पानी को उबालना शुरु किया। आस-पास की झाड़ियों से कुछ सूखे पत्ते उबलते पानी में गिर गए। थोड़ी ही देर बाद लोगों ने देखा कि पानी का रंग भूरा होने लगा है। राजा तक बात पहुंची। वैज्ञानिक प्रवृत्ति का होने के कारण राजा को इस नए पदार्थ में रुचि जगी। उसने पी कर देखा तो पाया कि यह काफ़ी ताज़गी देने वाला पेय है।
उसी क्षण एक नए पेय “चाय” का इजाद हुआ।
बौद्ध संन्यासी एयीसी अपनी जापान यात्रा के समय अपने साथ चाय का बीज भी लेता गया। तब से चाय जापान में भी काफ़ी मशहूर हुआ और एयीसी को जापान में “फादर ऑफ टी” के नाम से भी जाना जाने लगा। डच नौसैनिक चाय के बीज को अपने यहां ले आए। यह बात सतरहवीं शताब्दी के आरंभिक दशक की है।
चीनी और पूर्वी भारतीय व्यापार मार्ग पर क़ब्ज़ा जमाने के प्रयास में एक बार जब ग्रेट ब्रिटेन के हाथों यह पौधा लगा तो उन्होंने चाय का व्यापक प्रसार किया। उनके तो, अनूप जी के शब्दों का प्रयोग करें तो, ‘जलवे’ ही अलग थे। जब वे पर्याप्त खाद्य-पदार्थ के साथ चाय पीते, तो इसे ‘हाई टी’ कहते और जब हलके-फुलके नाश्ते के साथ लेते तो इसे ‘लो टी’ कहते।
भारत में चाय के आने का किस्सा कोई दो सौ साल पहले के आस-पास का है। ईस्ट इंडिया कम्पनी में दो भाई रोबर्ट ब्रुस और चार्ल्स ब्रुस काम करते थे। 1823 से 1831 के बीच की बात है, उन्होंने इस बात की जानकारी अपने मालिकों तक पहुंचाई की असम में चाय के पौधे उपलब्ध हैं। तब तक कलकत्ते में बोटेनिकल गार्डेन की स्थापना हो चुकी थी। जब ईस्ट इंडिया कम्पनी का चीन के व्यापार पर से कब्जा हटना शुरु हुआ, तो लॉर्ड बैंटिक ने 1834 में भारत में टी कमिटी की स्थापना की ताकि पेय पदार्थों की संभावित क्षमता का पता लगाया जा सके। चार्ल्स ब्रुस को यह उत्तरदायित्व दिया गया कि वह नर्सरी लगाए।
असम के जंगलों में चाय के पौधों की छान-बीन करने के बदले कमिटी के सचिव को चीन भेजा गया। उसने चीन से 80,000 चाय के पौधे लाकर कलकत्ते के बोटेनिकल गार्डेन में लगाया। इस प्रकार यहां एक नर्सरी स्थापित किया गया। हालाकि यहां पर परिस्थितियां चाय उत्पादन के अनुकूल नहीं थी फिर भी इस टीम ने पौधों के बीज को सुरक्षित रखा और धीरे-धीरे जंगल के क्षेत्रों में चाय के खेत का निर्माण हुआ और बड़े स्तर पर चाय की खेती का सिलसिला चल पड़ा।
जहांतक नीलगीरी के अंचल में चाय की खेती की बात है तो इसका भी वाकया कम रोचक नहीं है। यहां चाय की खेती की रफ़्तार धीमी थी। शायद स्थानीय लोगों द्वारा कॉफी अधिक पसंद किए जाने के कारण चाय उतना प्रचलन में नहीं रही होगी। लेकिन जब कॉफी की फसल में कमी हुई, तो लोगों ने चाय के बगान की ओर रुख किया। मद्रास के एक सर्जन डॉ. क्रिस्टी को दक्षिण भारत के मौसम और भूवैज्ञानिक अध्ययन के लिए 1832 में विशेष रूप से नियुक्त किया गया। उसे इस बात की जानकारी तो थी ही कि यहां की जमीन में चाय की खेती की प्रचुर क्षमता है, इसलिए उन्होंने शीघ्र ही जमीन के आवंटन के लिए आवेदन कर दिया।
दुर्भाग्यवश उनकी नवम्बर में मृत्यु हो गई। उनके चाय बगानों में से तीन बगान ऊटी के कमांडेंट, कर्नल क्रियु को दे दिया गया। बाक़ी के बगान अन्य लोगों में वितरित किया गया। मान पहले ऐसे व्यक्ति थे जिसने सबसे पहले नीलगिरी में चाय का उत्पादन किया। 1854 में उन्होंने चीन से बीज मंगवाकर कुन्नूर में चाय की खेती की। 1863 तक इस अंचल के विभिन्न भागों में चाय की खेती होने लगी।
चाय के बनाने की विधि पर भी इस फ़ैक्टरी में एक स्लाइड शो के बारे में बताया जाता है। चाय के उत्पादन में निम्न लिखित प्रक्रिया होती है,
- Withering
- crushing
- fermentation
- drying
- grading
चाय की पत्तियों को तोड़ना भी बड़े कायदे का काम है। हो भी क्यों नहीं, आख़िर इसी के आधार पर चाय की गुणवत्ता निश्चित होती है। सबसे अच्छा तरीक़ा यह है कि दो पत्तियां और एक कलिका तोड़ी जाए। चाय की पत्तियां तोड़ने वाले एक दिन में 25 से 30 किलो तक चाय की पत्तियां तोड़ डालते हैं।
चाय उत्पादन के प्रथम चरण में चाय बगान से आई चाय की पत्तियों को सुखाया जाता है। इसे एक कठौते नुमा पात्र में रखा जाता है जिसमें से गर्म और ठंडी हवा प्रवाहित की जाती है। इस प्रक्रिया के कारण पत्तियों से नमी की काफ़ी मात्रा निकल जाती है। इस पूरी प्रक्रिया में 10 से 12 घंटे लगते हैं।
नमी से रहित पत्तियों को एक चकरीनुमा यंत्र से गुजारा जाता है, जहां इन पत्तियों को चूरा जाता है ताकि इसमें से रस बाहर हो जाए।
इसके बाद पत्तियों को सीटीसी (C = Cutting, T = Tearing, C = Curling) मशीन से होकर गुज़रना पड़ता है। मशीन के अन्दर दांत की तरह के ब्लेड होते हैं जो स्टेनलेस स्टील के रोलर के सहारे चलते रह्ते हैं। ये दांत एक दूसरे की विपरीत दिशा में घूमते हैं। कटी हुई पत्तियां इसके बाद एक गूगी नामक यंत्र से गुज़रती हैं जहां अल्युमुनियम के बड़े बड़े ड्रम की तरह के यंत्र होते हैं। इनसे गुजर कर इन पत्तियों का आकार गोला हो जाता है।
यहां से निकली पत्तियों को फर्मेन्टेशन ट्रे में फैला दिया जाता है। 4 फीट चौड़ी और 10 फीट लम्बी ट्रे में तीन इंच की ऊंचाई लिए इन पत्तियों को फेर्मेन्टेशन के लिए छोड़ दिया जाता है। वातावरण में उपस्थित ऑक्सीजन के साथ प्रतिक्रिया के कारण इनका रंग बदलने लगता है। हरी पत्तियां, अब धूसर या भूरे रंग में बदल जाती हैं। जब एक खास प्रकार की खुश्बू आने लगती है तो यह मान लिया जाता है कि अब इन्हें सुखाने का वक़्त आ गया है।
अब चाय की पत्तियों को स्टेनलेस स्टील की एक जालीदार शीट के ऊपर से गुजारा जाता है। एक हीटर द्वारा उत्पन्न की गई गर्म हवा नीचे से छोड़ी जाती है। इस तरह इस फ़्लुइड बेड ड्रायर से 16 मिनट तक गुजरकर फ़ायब्रोमैट नामक मशीन में गिराई जाती है। इस मशीन के द्वारा रेशे तंतु हटा दिया जाता है। यह मशीन डस्ट और पत्तियों को अलग कर देती है। इसके बाद शिफ़्टर्स डस्ट को अलग और लीफ़ को अलग कर देता है।
लीफ़ चाय के कई प्रकार होते हैं,
- Pekoke
- BOP (Broken orange pekoke)
- BP (broken pekoke)
- BOPF (Broken orange pekoke fine)
इसी तरह डस्ट चाय के भी कई प्रकार होते हैं,
- Pekoke dust
- Red dust
- Super red dust
- Super fine dust.
इन पत्तियों को चलनी से से छान कर साफ़ कर लिया जाता है और अब ये बिक्री के लिए तैयार होते हैं।
भारत में चाय असम, दार्जिलिंग और नीलगिरी के बगानों से आते हैं। असम में लगभग 2,70,000 हेक्टेयर जमीन पर चाय की खेती की जाती है, जबकि दार्जिलिंग में 18,000 हेक्टेयर और नीलगिरी में 60,000 हेक्टेयर की जमीन पर। असम में कुल 4.50,000 टन सालाना चाय की पैदावार होती है जबकि दार्जिलिंग में 10,000 टन और नीलगिरी में 90,000 टन की।
भारत संसार का सबसे अधिक चाय उत्पादन करने वाला देश है। भारत के अलावा चीन, ताइवान, जापान, इंडोनेशिया, श्रीलंका, कीनिया और तुर्की में भी काफ़ी मात्रा में चाय का उत्पादन होता है।
तो एक कप चाय हो जाए …! देर किस बात की … !!
एक चाय की चुस्की
एक कहकहा
अपना तो इतना सामान ही रहा ।
उमाकांत मालवीय
आपकी पोस्ट पढ़ते हुए मेरे सामने चाय का कप पड़ा है...बहुत ताज़ी खुशबू आरही है इस पोस्ट से...बढ़िया वर्णन चाय बनाने की...
जवाब देंहटाएंमनोज जी अच्छी जानकारी दी, मैंने चाय की चुस्कियों के साथ इसे पढ़ा भी बधाई
जवाब देंहटाएंएक गरम चाय की प्यालीहो.
जवाब देंहटाएंकोइ उसे पिलाने वाली हो!
एक दम ताजगी भारीपोस्त... सीधा ऊटी के चाय बागानों से!!व्यवस्थित जानकारी!!
ऊटी के चाय बगान से आती सुबह सुबह ताजा चाय की खुशबू , चाय पत्ती प्रोसेस करने की विधि, जानकारी प्रद रही , फुर्सत में आप कमाल करते है . कभी गोदना दीखाते तो कभी चाय बगान की सैर कराते है . आपकी अगली यात्रा में और भी ऐसे फुरसतिया क्षणों की बानगी देखने पढने के उम्मीद रहेगी .
जवाब देंहटाएंबेहतरीन जानकारी दी आपने...विस्तार से.
जवाब देंहटाएंसुंदर जानकारी और बढ़िया आलेख ...
जवाब देंहटाएंदुःख की बात ये है की इतनी चाय बनाने के बावजूद हमें अच्छी चाय पीने नहीं मिलती क्योंकि the best quality tea is exported .We in India dont get to drink the best quality tea ...!!
चाय बागानों में भी आप चाय पीजिये उसका स्वाद ही अलग होता है ..!!आपकी पोस्ट पढ़ते पढ़ते आज उम्दा चाय की खुशबू ध्यान में आ गयी .
चाय पीते पीते इसे पढ़ा,मज़ा दुगुना हो गया.
जवाब देंहटाएं@ अनुपमा जी,
जवाब देंहटाएंसही कहा अनुपमा जी। अच्छी गुणवत्ता वाली चाय निर्यात कर दी जाती है। ... और हम उनके स्वाद-सुगंध से वंचित रह जाते हैं।
बाघ-बकरी चाय का फार्मूला क्या है?
जवाब देंहटाएंचाय के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए आभार।
जवाब देंहटाएंExcellent and informative post. ...only today I could know the exact meaning of CTC!
जवाब देंहटाएंThanks! (sorry transliteration is not working!)
@ अरविन्द मिश्र जी,
जवाब देंहटाएंसर आप आए यही हमारे लिए खुशी की बात है, भाषा कोई भी हो!
कितनी आसानी से बन जाती है एक कप चाय ...पर चाय का उत्पादन करने में कितने श्रम कि ज़रूरत होती है वो आपके लेख से पता चला ..चाय के विस्तृत इतिहास के बारे में जानकारी भी ... अच्छी पोस्ट ..
जवाब देंहटाएंअपनी पसंदीदा चाय पर इतनी जानकारी ...
जवाब देंहटाएंचाय- सा ही लुत्फ़ हुआ !
आभार !
चाय तो अब और भी स्वादिष्ट लग रही है .....आभार !
जवाब देंहटाएंये चाय-वाय की बात ही निराली है।
जवाब देंहटाएंबहुत ही बढ़िया जानकारी वाला पोस्ट ... जहाँ तक मुझे पता है बाज़ार में चाय के तीन प्रकार पाए जाते हैं ... Dust, CTC और Leaf ... पर आपने विस्तृत जानकारी देकर बहुत उपकार किया है ...
जवाब देंहटाएंचाय पीते हुये आपका आलेख पढ़ रहे हैं।
जवाब देंहटाएंबहुत उपयोगी संस्मरण!
जवाब देंहटाएंअब तो एक कप चाय हो जाएँ!
चाय के ऊपर इतनी शोध परक जानकारी चलते चलते चाय के प्याले के साथ .चाय वैसे भी एक सात्विक नशा है सेहत के लिए अच्छा है .
जवाब देंहटाएंमुझे एक बार राजभाषा सम्मेलन के लिए कोरडाईट फैक्ट्री,अरूवनकाडू जाने का अवसर मिला था,चाय की फैक्ट्री भी देखा था किंतु चाय के बारे में इतनी विस्तृत जानकारी न प्राप्त कर सका। फुरसत में- एक कप चाय हो जाए...के माध्यम से आपके द्वारा प्रस्तुत जानकारी मुझे फिर उस चाय फैक्ट्री की याद दिला दी जहां जाकर भी मैं इतनी जानकारी से वंचित रह गया था जिसका दंश सर्वदा रहेगा। चाय के बारे में अच्छी जानकारी से परिचित करवाने के लिए आपका विशेष आभार।धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंचाय की पूरी कथा ही बयाँ कर दी...बहुत बहुत आभार.
जवाब देंहटाएंजो जानकारी टुकड़ों में इधर-उधर मिली थी..आज एक साथ एक ही जगह पढ़ने को मिली...बहुत जानकारीपूर्ण पोस्ट.
क्या बात है ...दिल चाय चाय हो गया.एकदम फ्रेश.
जवाब देंहटाएंयूँ फुर्सत में लिखी पोस्ट बहुत ही ज्ञानवर्धक रही.
बेहद इन्फोर्मेटिव पोस्ट...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर जानकारी से पूर्ण प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत बधाई.
जवाब देंहटाएंमनोज जी लगता है आप मेरे ब्लॉग को भूल गए हैं.
क्या कोई भूल हुई है मुझ से ? यदि ऐसा है तो दिल से क्षमा चाहूँगा.
अब तो "फुरसत में" में भी गंभीर और ज्ञानवर्धक विषय से साक्षात्कार हो गया। अब पता चला कि चाय को जितना आसानी से बनाकर सिप करके हम मजे लेते रहे हैं उसका बनना इतना आसान नहीं है। अति उत्कृष्ट जानकारीपरक पोस्ट के लिए आभार,
जवाब देंहटाएंचाय की इतनी विस्तृत जानकारी के लिए आभार
जवाब देंहटाएंचाय बनाने की अच्छी जानकारी दी...
जवाब देंहटाएंआभार।
चाय से संबंधित ज्ञानवर्धक आलेख के लिए साधुवाद!
जवाब देंहटाएं=================================
सत्तर-पचहत्तर वर्ष पहले सामान्य लोगों का नास्ता गुड़, चना, सत्तू, शरबत, दूध, मठ्ठा, दही आदि होता था। चाय का चलन जैसा आज है, वैसा न था। मैंने अपनी नानी से सुना था कि सन १९३५ के आस-पास लखनऊ में ब्रुकब्रांड कं० के कर्मचारी अपने उत्पादों का प्रचार करने के लिए प्रतिदिन आते थे। चाय की खूबियों से परिचित कराने के लिए वे चौराहो-चौराहों पर बड़े-बड़े कंट्रेनरों में चाय बनाते और जनता को मुफ़्त में पिलाया करते थे।
===================
सद्भावी- डा० डंडा लखनवी
तीसरे अंक में ऊटी की चाय भी अच्छी लगी। धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंwah chai...
जवाब देंहटाएंजानकारी परक लेख के लिए शुक्रिया !!
जवाब देंहटाएंपूरी प्याली क्या, यह तो डबल हो गई वो भी मलाई मार के.
जवाब देंहटाएं