भारतीय काव्यशास्त्र-69
आचार्य परशुराम राय
पिछले अंक में संलक्ष्यक्रम अर्थशक्त्युत्थ कविनिबद्धप्रौढोक्तिसिद्ध पदद्योत्य ध्वनि के चार भेदों- वस्तु से वस्तु ध्वनि, वस्तु से अलंकार, अलंकार से वस्तु और अलंकार से अलंकार ध्वनि पर चर्चा की गयी थी। इस अंक में संलक्ष्यक्रम अर्थशक्त्युत्थ कविनिबद्धवक्तृप्रौढोक्तिसिद्ध पदद्योत्य ध्वनि के चार भेदों- वस्तु से वस्तु ध्वनि, वस्तु से अलंकार, अलंकार से वस्तु और अलंकार से अलंकार ध्वनि पर चर्चा की जाएगी।
सर्वप्रथम वस्तु से वस्तु ध्वनि पर चर्चा के लिए एक निम्नलिखित उदाहरण ले रहे हैं-
णवपुण्णिमामिअंकस्स सुहअ कोत्तं सि भणसु मह सच्चम्।
का सोहग्गसमग्गा पओसरअणि व्व तुह अज्ज।।
(नवपूर्णिमामृगाङ्कस्य सुभग कस्त्वमसि भण मम सत्यम्।
का सौभाग्यसमग्रा प्रदोषरजनीव तवाद्य।। संस्कृत छाया)
अर्थात् हे सुभग, सच-सच बताओ कि पूर्णिमा के नवोदित चन्द्रमा के तुम क्या लगते हो और आज रात्रि के मुख (प्रदोष को रात्रि का मुख अर्थात् रात का आरम्भ कहा जाता है) के समान सौभाग्ययुक्त (अनुरक्त नायिका) तुम्हारी कौन है।
यहाँ श्लोक में बतायी गयी वस्तु से प्रदोष पद से नायिका के दूषित चरित्र, नवपूर्णिमामृगाङ्क पद से क्षणिक और कलंकित अनुराग आदि वस्तु व्यंजित होती है।
तदुपरान्त अब पदद्योत्य वस्तु से अलंकार ध्वनि के लिए निम्नलिखित उदाहरण प्रस्तुत है। नवोढा नायिका के साथ किसी सखी के द्वारा सुहाग रात के बाद ठिठोली करती हुई कहती है -
सहि णवणिहुवणसमरस्मि अंकवालीसहीए णिविडाए।
हारो णिवारियो विअ उच्छेरन्तो तदो कहं रमिअम्।।
(सखि नवनिधुवनसमरेSङ्कपालीसख्या निविडया।
हारो निवारित एवोच्छ्रियमाणस्ततः कथं रमितम्।। संस्कृत छाया)
अर्थात् हे सखि, प्रथम सुरत-समर में गाढ़े आलिंगन रूपी सखी ने हार तो (तोड़कर) हटा ही दिया। फिर तुमने किस प्रकार रमण किया (यह तो बताओ)।
इस श्लोक में व्यक्त वस्तु से प्रश्न- वह (रमण) कैसा था से प्रौढा नायिकाओं के रमण से अधिक आनन्ददायक रही होगी, यह व्यंजित होता है। यहाँ प्रौढ़ा नायिका के रमण से नवोढ़ा नायिका का रमण अधिक आनन्दकर होने के कारण व्यतिरेक अलंकार व्यंग्य है। जहाँ उपमेय को उपमान से अधिक या कम बताया जाय, वहाँ व्यतिरेक अलंकार होता है।
अब अलंकार से वस्तु ध्वनि के लिए निम्नलिखित उदाहरण लेते हैं। यहाँ एक नायिका पानी लेने नदी गई हुई थी। वहीं उपनायक से मिलने का समय नियत था। पर प्रतीक्षा के बाद उपनायक के न आने पर वह घड़े में पानी भरकर वापस चल पड़ी। वह जैसे ही अपने घर में प्रवेश करने को हुई कि पीछे-पीछे आता उपनायक दिखायी पड़ गया और वह घड़ा दरवाजे से टकराकर जानबूझ कर फोड़ देती है, ताकि दूसरा घड़ा लेकर पानी लेने के लिए उसे पुनः नदी जाने का बहाना मिल जाय। इसपर उसकी सहेली उससे कहती है-
विहलखलं तुमं सहि दट्ठूण कुडेण तरलतरविट्ठिम्।
वारप्फंसमिसेण अ अप्पा गुरुओत्ति पाडिअ वहिण्णो।।
(विशृङ्खलां त्वां सखि दृष्ट्वा कुटेन तरलतरदृष्टिम्।
द्वारस्पर्शमिषेण चात्मा गुरुक इति पातयित्वा विभिन्नः।। संस्कृत छाया)
अर्थात् हे सखि, तुम्हें व्याकुल और तुम्हारे चंचल नेत्रों को देखकर तथा खुद को भारी मानकर दरवाजे के स्पर्श के बहाने घड़ा खुद ही गिरकर फूट गया।
इस श्लोक में अपह्नुति अलंकार (जब प्रस्तुत या उपमेय का प्रतिषेध कर अप्रस्तुत अर्थात् उपमान को स्थापित किया जाता है, वहाँ अपह्नुति अलंकार होता है) है। इससे यह व्यंजित होता है कि उपनायक को पीछे से आता देखकर पुनः नदी जाने की व्याकुलता के कारण तुमने जान-बूझकर घड़े को फोड़ दिया, यह मैं समझ गई।, किन्तु तुम परेशान न हो, जाओ अपना काम करो। मैं तुम्हारी सास को सब समझा दूँगी, यह वस्तु व्यंग्य है। यह व्यंग्य मया चिन्तितम् (मैं समझ गई) पद से प्रकाशित हो रहा है।
यहाँ दूसरी बात ध्यान देने योग्य है कि घड़े (एक अचेतन) में चेतन धर्म का आरोपण किया गया है। अतएव यहाँ पदद्योत्य कविनिबद्धवक्तृप्रौढोक्तिसिद्ध अलंकार से वस्तु ध्वनि व्यंग्य पुष्ट होता है।
अब अंत में अलंकार से अलंकार ध्वनि का उदाहरण लेते हैं-
जोह्णाइ महुरसेण अ विइण्णतारुण्णउत्सुवमणा सा।
बुढ्ढा वि णवोढव्वि परवहुआ अहह हरइ तुह हिअअम्।।
(ज्योत्स्नया मधुरसेन च वितीर्णतारुण्योत्सुकमनाः सा।
वृद्धापि नवोढेव परवधूरहह हरति तव हृदयम्।। संस्कृत छाया)
अर्थात् चाँदनी और मधु (वसन्त और मद्य) के रस से तरणाई की उमंग से भरी वृद्धा होने पर भी परवधू नवोढ़ा नायिका की भाँति तुम्हारे हृदय (मन) को हर रही है, यह बड़ा आश्चर्य है।
यहाँ केवल परवधू होने परवधू होने के कारण वह तुम्हें मोहित कर रही है में काव्यलिंग अलंकार (जब कोई कारण देकर पद या वाक्य के अर्थ का समर्थन किया जाय, तो काव्यलिंग अलंकार होता है) है, जिससे तुम मेरी जैसी युवती को छोड़कर बूढ़ी परवधू पर मोहित हो रहे हो, तुम्हारा यह आचरण समझ में नहीं आता यह व्यंग्य है और इसमें आक्षेप अलंकार है (अभीष्ट वस्तु की कुछ विशेषता प्रतिपादित करने के लिए निषेध का आभास आक्षेप अलंकार कहलाता है)। अर्थात् काव्यलिंग अलंकार से आक्षेप अलंकार व्यंग्य है।
*****
ध्वनि के विषय में आपकी इस पोस्ट से ज्ञानवर्धन हुआ ...आपका आभार
जवाब देंहटाएंज्ञान वर्धक एक और अंक. आचार्य जी बहुत आभार.
जवाब देंहटाएंnice and informative post.
जवाब देंहटाएंएक बार फिर ज्ञान का भंडार आपने हमारे वास्ते खोला है।
जवाब देंहटाएंबहुमूल्य ज्ञानकोष!!
जवाब देंहटाएंशोधपरक विषयवस्तु...
जवाब देंहटाएं