देसिल बयना- 83
पुरनका आंगन के शोभा में चार चांद लग गया था। घपोचन कका चूना-पालिस वला दिवाल को सिर उठा-उठा कर निहार रहे थे तो लुखिया ताई गाय के गोबर से लिपे आंगन में छम-छम कर रही थी। रह-रह कर जनाना मंडली के मंगल गीत गूंज जाते थे, “ऐलई शुभ के लगनमा शुभे हो शुभे…. !” आखिर लगन का घर था। लगन किसका था ई नहीं बतायेंगे बांकिये पूरा किस्सा सुनिये सोल्लास।
कहावत है कि फ़गुआ में मरद उन्मत्त हो जाता है और लगन में जनानी। उमें भी मिथिला के लगन… शुभे हो शुभे। इहाँ तो भगवानो को भी हार मानना पड़ा था। “ललन तुमको मिथिला में रहना पड़ेगा, सरस मीठी गाली को सहना पड़ेगा।” मगर बात सच्चे है मिथिला की गालियाँ भी सेनुरिया आम से जादे मीठी होती है। हमरे पास तो अभी फ़रेश अनुभव है।
बड़की आजी का हुकुम हुआ था, “ए लुखिया दुल्हिन…. आज भूल मत जैहो…. सांझे लावा भुजाई है…. दूल्हा को दिन में नौ दफ़े उबटन लगेगा। अतरुआ वाली ओझाइन, नसीमा बानो, और जुगेसर हजाम की लुगाई का फुल-टाइम डियुटी लगा हुआ था। ई तीनों लगन के गीत और गाली गाने में जिलाजीत थी। वैसे छतनेसर वाली काकी भी कौनो कम नहीं थी। मौके-मौके उ भी आ जाती थी `शुभे हो शुभे’ करने।
गीतगायिन सब भी दू गुरूप में बंट गयी थी। एक गाँव के बेटी का गुरूप जौन का मोर्चा बुलंती बुआ संभाले थी और दूसरा गुरूप गाँव के पतोहु का जिसकी नेता थी मझली काकी। दोनों तरफ़ से एक पर एक आइटम बरस रहा था और फ़ायदा में खुशकिस्मत जुगेसर हजाम। सब-कुछ छूटा-बढ़ा “हजमा तोरे देबौ रे…..!”
पुरनका आंगन ई छोड़ से उ छोड़ तक एकदम खचाखच भरा था। इतना ठसमठस कि सीताराम और नथुआ को पानी का बाल्टी भी चहरदीवारी के सहारे ले जाना पड़ रहा था। इहाँ से उहाँ तक दरी-जाजिम बिछा था। बुआ-काकी, भौजी-मामी सब बीच में दूल्हा को बैठाकर घड़ी-घड़ी पसाहिन कम धमगज्जर जादे कर रही थी। आखिर बड़की आजी का हुकुम था। नौ बार तो पूरा करना पड़ेगा।
एक तो दही हल्दी के उबटन और उपर से हर उबटन के बाद स्नान। दूल्हा बाबू तो बुझिये कि नहा-नहा कर उज्जर हुए जा रहे थे मगर पानी-उनी गिरने से आंगन में खिचमखिच बढ़ता जा रहा था। सातम पसाहिन होते-होते सांझ हो गया था। चापा कल के पास होने से उतरवारी तरफ़ वाली दरी में तरी कुछ जादे ही हो गयी थी। और नथुआ के बाल्टी का पानी छलक-छलक कर पुरवारी जाजिम को भी गीला कर दिया था। बचे हुए दखिनवारी जाजिम पर अपने घर के जर-जनानी आसन जमाये थी और पछियारी चटाई पर पौनी-पसारिन (काम करने वाली) सब का बैठकी था।
खिचमखिच और फिसलन बढ़्ते देख लुखिया ताई रुदल दास को अवाज लगाई, “ए रुदला… अरे ड्रमवा में पनिया भरा गया…. ई अंगना का हाल क्या बना दिया… कैसे विध-बेहबार होगा….? जरा झड़ुआ मारके भिजलका जाजिम बदल दे…..!”
रुदल दास तुरत बुहार-सोहार के आंगन को फिट कर दिया। टेंट हाउस का सामान आया नहीं था घर में अब उतना बड़ा जाजिम था नहीं। किसी तरह जोर-जारकर बिछा दिया। कौनो बात नही। अब दुइये पसाहिन बचा हुआ है न। आसन-बासन लगते ही लुखिया ताई का सुर मचलने लगा, “रामजी के करियौन पसाहिन उदगार से अपना विचार से न….!” एक बार हल्दी लगे दूल्हा को और पाँच बार गीत-गायिन सब अपने में हँसी-ठट्ठा। खैर आठम पसाहिन भी पूरा हुआ। फिर स्नान।
रुदला पानी चला रहा था। ई बार दूल्हा सरकार भी कनिक बढ़िया से हर-हर गंगे कर दिये। उधर दूल्हाजी जब तक धोती बदलें कि फिर बड़की आजी की आवाज कड़की, “ए बबुआ…. धोती पहिर के सीधे इधरे आजा बेटा… आज का अंतिम हल्दी भी लगवाइये लो।”
चलो भाई किसी तरह विध खतम और जान बरी हो। महिला मंडली अंतिम उबटन में बचा-खुचा सारा उल्लास उड़ेल देना चाहती थी। ’ताड़ पर नाचेला दूल्हा के मौसी….’ तो दूल्हा के फ़ुआ…..’ खूब हुआ। एक दूसरे पर हल्दी फेका-फेकौव्वल भी खूब हुआ।
इधर शुभे हो शुभे चल ही रहा था कि उतरवारी साइड से हें…हें…हीं….हीं…. शुरु हो गया। चापा-कल का पानी ससर के जोरलका जाजिम के नीचे चला गया। ठीक वही जगह बैठी थी छबीली मामी। कुछ सुरसुराया तो बेचारी हाथ से टटोली। हाथ से टटोली तो हाथ गीला। बेचारी झटके से उठकर खड़ी हो गयी। ऊंह…. छबीली मामी की साड़ी तो कमर के नीचे बोतरा-बोतरा भींग गयी थी। बेचारी मामी झुंझलाते हुए साड़ी निचोड़ने लगी। उधर बुलंती बुआ को मजाक का नया बहाना भेंटा गया। अतरुआ वाली ओझाइन की गाली का तोप भी मामिये के तरफ़ घूम गया और नसीमा बानो भी लगी चटकार छोड़ने, “मामी के साड़ी गीला और…. फ़लाना चीज ढीला…!”
हँसी मजाक के रिश्ते वाली सभी गीतगायिन लगी मामी का मजाक उड़ाने। तब तक पानी जाजिम के नीचे-नीचे ससर-ससर कर कुछ और गीतगायिन की साड़ियों को शिकार बना चुका था। अब जौन जनानी धरफ़राकर उठे और साड़ी निचोड़े बस मजाक का तोप उसी की तरफ़ घूम जाये मगर दू-चार हमदर्द होने से छबीली मामी का उत्साह भी बढ़ा। ली निशाने पर बुलंती बुआ को, “ए बबुनी…. का कहता है उहे वाली बात। भतीजा का ब्याह है तो बनो हिरोइनी। अच्छे पाट पर अपने बठे, फ़टा पाट गीतगायिन को….!”
भींगी साड़ी वाली गीतगायिन तुरत बन गयी चोर-चोर मौसेरी बहन। “हाँ-हाँ ठीक कहती है छबीली भौजी…. ! ई बुलंती दाई… बड़ी हरजाई….. ! अपना भतीजा का ब्याह, अपना घर तो अपने सब बैठ गयी है अच्छे-अच्छे पाट पर हमलोग गीत गाते-गाते गला फ़सा लिये और हमहिको बैठा दिया फ़टे पाट पर… मार छि…..!”
एक इधर से टोन छोड़े तो दूसरी उधर से। अरे बाप रे बाप! हमरा तो समझिये हँसते-हँसते पेट फूल रहा था। छबीली मामी क्या इस्टाइल में कमर को टेढ़ाकर पछिलका साड़ी को आगे लाकर निचोड़ते हुए आँख मटकाकर बोली थी, “अच्छे पाट पर अपने बैठे, फ़टा पाट गीतगायिन को!” मामी की अदा देख कर और फ़करा सुनके हंसी तो रुक नहीं रही थी मगर कहावत का मरम समझना भी तो जरुरिये था।
मामी की बात में सिर्फ़ परिहास नहीं बल्कि एक दर्द भी छुपा था। “अच्छे पाट पर अपने बैठें, फ़टा पाट गीतगायिन को!” अर्थात
अकर्मण्य नेतृत्व के पास भी सारी उत्कृष्ट सुविधाएं और कार्यकारी शक्तियों के लिये लचर व्यवस्था।
कहावत का मतलब स्पष्ट होते ही एक आँख में दिल्ली का दिरिस और दूसरी आँख में झिंगुर दास का चेहरा दौड़ गया।
:)
जवाब देंहटाएंbehatreen lekhan.
वाह केशव जी,वापसी के बाद ज़बरदस्त मज़ेदार पोस्ट. पढ़कर हमेशा की तरह मज़ा आ गया.
जवाब देंहटाएंबढ़िया बयाना...मिथिला के जीवन से परिचय कराती रचना ..झींगुर का चित्र मार्मिक है...
जवाब देंहटाएंbohot khoob
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर और शानदार लेख! बेहतरीन प्रस्तुती!
जवाब देंहटाएंbahut badiya behatrin lekh.badhaai aapko.
जवाब देंहटाएंplease visit my blog and leave a comment.thanks
देसिल बयना में जिन परिस्थितियों का वर्णन हुआ वे सहज ही हमें उस परिवेश में पहुंचा देती हैं।
जवाब देंहटाएंसदा की तरह आपकी शैली का जबर्दस्त आकर्षण है और हमें एक नई कहावत से भी परिचय कराती है।
बहुत रोचक प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंबाबू करण को आसीरबाद पहुंचे और बियाह का सब बधाई.. इश्वर राम सीता का जुगुल जोड़ी आबाद रखे.. आगे अहवाल ई है कि आजकल इतना लटपटाए हैं काम में कि फुर्सते नहीं है..मनोज जी का तहर हफ्ते में एगो फुर्सत में आ जाता है..इहाँ त खजुआने का फुर्सत नहीं है!!
जवाब देंहटाएंआज के देसिल बयाना से जादा आनंद त गारी में आया.. एक्के बार में फुआ, मौसी,चचानी, भौजाई, सब का खुल्खुल्ली हंसी कान में बज गया. जिसमें गीत कम अउर हर लाइन के बाद हंसी बेसी रहता है!!
आबाद रहो बाबू!!
- सलिल वर्मा
शानदार !
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