फ़ुरसत में…
गइल भईंस पानी में ..!
मनोज कुमार
शादियाँ तो ऊपर ही तय होती हैं। सुना है। बड़े-बूढ़े कह गए हैं तो सही ही होगा। मेरी भी वहीं तय होगी, मैंने सोच के रखा था। इसलिए कोई ‘विशेष’ प्रयास नहीं करता था। ऊपर ही तय होनी है, तो उनका काम वो जानें। आज की तो नहीं कह सकता, उन दिनों होती रही भी होगी। वहाँ से बचे तो माता-पिता तय कर देते हैं। अगर वे भी अपने दायित्व का ठीक से पालन न कर पाए तो .. (इसमें समय फ़ैक्टर भी अहम है?) तो क्या? ऐसा थोड़े ही है कि सारी उम्र भगवान भरोसे रह जाएँगे। ख़ुद ही तय कर लेंगे ... यह हमने तय कर रखा था।
हमारे ज़माने में तो हम माता-पिता को भगवान से भी ऊंचा दर्ज़ा देते थे। इसलिए उनकी पसंद सबसे पहले हुआ करती थी। और शादियाँ तय भी बड़े कमाल तरीक़े से हो जाया करती थीं। दोनों पक्षों के बुज़ुर्ग एक साथ बैठते थे। खेत-खलिहान की बातें होती थीं। गाछी में कौन-कौन से आम हैं, इस सूचना का आदान-प्रदान होता था। मालदह, बम्बईया है, तो परिवार सम्पन्न है, मान लिया जाता था। सम्पन्न के साथ-साथ आम की श्रेणी की तरह उच्च श्रेणी का परिवार है। अगर साही लीची की गाछी है, तब तो परिवार सर्वगुण सम्पन्न होगा ही, तय था। ... लेकिन यदि परिवार केलबा, धुनिया, सुक्कुल और सीपिया आम की गाछी का स्वामी है, तो समझिए कि मध्य श्रेणी का परिवार है। खुदा-न-खास्ता गाछी में सिर्फ़ बिज्जू आम रह गए हों, तब तो उनकी ख़ुदा ही ख़ैर करे। बड़ी ही मुश्किल से उस घर के बेटों के सात फेरे लगते थे। कहने का मतलब बिलकुल साफ़ है, रिश्तेदारी में, उन दिनों बेटी वालों का हाथ ऊँचा रहता था, क्वालिटी टेस्टिंग तो बेटे वालों की होती थी।
हमारे यहाँ (गाछी में) तो बाबा (दादा) की कृपा से बम्बईया भी था, सुक्कुल भी और मालदह से तो गाछी भरी पड़ी थी। साही लीची का पेड़ नहीं था तो क्या हुआ, लड़का मुज़फ़्फरपुर, यानी लीचियों के शहर में पढ़ता है, यही सर्वगुण सम्पन्न होने की गारंटी दे जाता था। इसलिए पिताजी को दरवाज़े पर लड़की वालों की बाट जोहनी नहीं पड़ती थी।
पिताजी, नौकरी के सिलसिले में गांव से शहर (मुज़फ़्फ़रपुर) आ गए थे, सो हम भी वहीं पले-बढ़े। उन दिनों मुज़फ़्फ़रपुर कई मामलों में पटना से कम नहीं था। और लीची के मामले में विश्वविख्यात होने का दर्ज़ा भी रखता था। शहर में पलना और बढ़ना भी एकाध अधिक गुण वाला होना माना जाता है। इसलिए हम भी थोड़े शहरी हो गए थे। शहरी माने ... विवाह थोड़ी देर से होगा ... और इसकी भी पूरी-पूरी संभावना थी। बड़ा अच्छा जुमला चल पड़ा था, शहरों में, --- ‘लड़का ज़रा सेटल हो जाए!’ हमारे परिवार (उन दिनों परिवार माने पिताजी के सभी भाईयों को भी गिना जाता था, उनके बाल-बच्चों को भी) में हमसे जितने बड़े लड़के थे उनकी शादी तो उम्र बीस पार करते ही चिंता का विषय हो जाया करती थी। बड़े भाईयों से चाचा लोग समय से ही निपट लिए थे, और हमारी बारी जब आई, तो हम मधुर अरमान और मीठे सपने पालने लगे। यहीं पर भगवान की भी एंट्री हुई और शादी तो ऊपर तय होनी थी। हुई नहीं। हुई शहरी लक्षण की। कोई रिश्ते की बात करता तो --- ‘लड़का ज़रा सेटल हो जाए!’ यह सुनते ही मेरे मन में टेप बज उठता – गइल भईंस पानी में!
एक से अधिक बार जब यही टेप घर में बजा, तो मुझे भी लगा कि अब सेटल होना ही पड़ेगा। ऐसी धुन सवार हुई सात फेरे के फेर में पड़ने की कि हमने भी सेटल होने के लिए ‘लॉंग कट’ रास्ता अपना लिया। बड़ी बहन ने तो इंटर करते ही मेडिकल एडमिशन टेस्ट दिया, चुन ली गई, और दरभंगा मेडिकल कॉलेज में एम.बी.,बी.एस. करने लगी। उसकी हाउसमैनशिप आते-आते कुछ कमाई-धमाई भी होने लगी थी, केजड़ीवल होस्पीटल के सौजन्य से। बस फिर क्या था, उसकी शादी भी कर दी गई। मेरा हाल ये था कि जब उसके अस्पताल की पढ़ाई के दौरान शवों के ऊपर चाकू चलाने की बात हमने सुनी, तो बायोलोजी के साथ मैथ भी रख लिया। मेडिकल टेस्ट न देकर लक्ष्य बनाया कि मुझे डॉक्टर नहीं बनना है। सिविल सर्विसेज देंगे। पहले बी.एस.सी फिर एम.एस.सी. किया और सिविल सर्वेंट बनने के अरमान लिए पटने चले आए कोचिंग क्लासेज के लिए। तब हमें क्या मालूम था कि सिर्फ़ अपने विषय (ज़ुऑलज़ी) से काम नहीं चलेगा। एक और विषय रखना पड़ेगा। उन दिनों अधिकांश लोग इतिहास रखते थे। हमने भी रख लिया।
इसके पहले इतिहास का मतलब हम पानीपत-वानीपत की लड़ाई आदि समझते थे। पानी में जब उतरे तो उसकी गहराई का पता चला। उसी वर्ष इतिहास का सिलेबस बढ़ा दिया गया था और जब हमने सिलेबस देखा तो हमारा माथा ही चकरा गया। भारत का इतिहास हड़प्पन सभ्यता से शुरु होकर आधुनिक भारत के निर्माण तक और विश्व का इतिहास भी प्राचीन सभ्यताओं से शुरु होकर चीन, जापान, इंडोनेशिया, अमेरिका आदि के स्वतंत्रता संग्राम समेटे हुए था। ऊपर से सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक इतिहास आदि। उफ़्फ़! शादी कब होगी? होनी है तो पढ़ाई तो करनी ही होगी, ... की। सात फेरे के चक्कर में धौलपुर हाउस के तीन चक्कर लग गए।
बिहार में शादी से जुड़ा स्टेटस सिम्बॉल – उन दिनों – दहेज की रकम भी हुआ करता था। -- .. ‘‘मेरे लड़के को इतना मिला, उसको तो उतना ही।” – इस होड़ में सब माँ-बाप पड़े रहते थे। जब हमारे धौलपुर हाउस के चक्कर लगने की ख़बर सर-समाज में फैली तो हमारा भी मार्केट वैल्यू बढ़ने लगा, शेयर मार्केट के ग्राफ़ के उतार-चढ़ाव की तरह। ‘लड़का तो पटना में रहकर सिविल सर्विसेज की तैयारी कर रहा है’, तो पाँच लाख (ऐटीज़ के हिसाब कम नहीं था!) हमारा मार्केट रेट हो ही गया था। प्रिलिम्स क्लियर करने के बाद वह रकम बढ़कर सात-आठ लाख तक चली जाती थी। जब मेन्स में भी निकल जाते तो बोली दस से शुरु होती थी। इन्टरव्यू के बाद तो मार्केट रेट पन्द्रह से खुलता ही था।
इन्टरव्यू हो चुका था। हम पटने से मुज़फ़्फ़रपुर आ चुके थे। पुलिस भी आकर वेरीफ़िकेशन कर चुकी थी। इस बात की जानकारी समाज में इस तरह से फैली जैसे कि लड़का तो इस बार चुन ही लिया गया है। पुलिस वेरीफ़िकेशन भी हो चुका है। मार्केट रेट पन्द्रह पार कर चुका था।
एक दिन सुबह के आठ-साढ़े आठ के क़रीब अपने घर के बगीचे में खुरपी चलाते हुए पेड़-पौधों की देख-भाल कर रहा था। मेरे शरीर पर लुंगी और सैंडो गंजी भर थे और पैर में हवाई चप्पल। तभी एक चमचमाती फ़िएट कार मेरे दरवाज़े के सामने आकर रुकी। ग़ौर से देखा, तो पाया कि उसका रजिस्ट्रेशन भी नहीं हुआ था, ‘एप्लायड फॉर’ की प्लेट लगी हुई थी। आश्चर्य से मैंने उस ओर देखा, ‘ब्राण्ड न्यू गाड़ी। .... कौन है?’
देखा एक साहबनुमा व्यक्ति और उनके साथ एक और सज्जन उस गाड़ी से उतरे। आगे बढ़े, और उन्होंने मुझसे पूछा, “अवधेश बाबू हैं क्या?”
मेरे पिताजी पूर्वोत्तर रेलवे के बड़े निष्ठावान कर्मचारी थे। आठ से चार की ड्यूटी निभाने साढ़े सात बजे ही चले जाते थे। मैंने आगन्तुक सज्जन से कहा, “.. नहीं, .. वे तो कार्यालय में होंगे। .. कहिए क्या बात है?”
उन्होंने कहा, “उनके लड़के के लिए बात करने आए हैं!”
मुझे देखकर शायद आगन्तुक सज्जन मुझे ‘वह’ लड़का न समझ पा रहे होंगे। उनकी आँखों में तो किसी रोबीले, साहबनुमा शख़्सियत की छवि समाई होगी। यहाँ, हमें तो भगवान ने भी फ़ुरसत में ही गढ़ा होगा। पिलपिला, पिद्दी-सा, काला और ऊपर से खेत में काम करता देख उन्होंने नौकर आदि समझ लिया होगा।
उन्होंने मनोज बाबू की खोज-खबर ली और अपनी नई-नवेली फिएट को यहीं छोड़ जाने का ऑफर दिया। उस पर से बीस लाख की नगदी भी!!
उनका प्रस्ताव सुन हमने अपनी सारी संचित ऊर्जा का प्रयोग करते हुए उन साहब को दहेज और उसकी बुराईयों पर ऐसा लेक्चर पिलाया कि उनके होश ठिकाने आ गए। --
“आपको क्या लगता है, इस चमचमाती ब्राण्ड न्यू गाड़ी की चमक से हमारी आँखें चकाचौंध हो जाएँगी और हमारे ऊपर आपका चक्कर चल जाएगा। एक हवाई चप्पल में अपनी ज़िन्दगी की गाड़ी चलती रही है, आगे भी चल जाएगी। इससे ज़्यादा की न अपनी हैसियत है और न ही चाहत।
“आप लोग समाज के रखवाले हैं, बिहार प्रशासनिक सेवा से हैं, जिनका काम समाज की दशा और दिशा सही रखना है, वे ही अगर दहेज की आग को हवा दें तो यह दावानल तो हमें लील ही जाएगा। - - और लालच और बेईमानी की इस आग पर यदि हम अपने जीवन की शुरुआत करें तो देश की कौन-सी सेवा कर पाएँगे हम?
“यह तो अच्छा हुआ कि आपकी भेंट मुझसे हुई, जिसने इतनी अच्छी तरह आपसे बात कर ली। अगर मेरे पिताजी से भेंट हो गई होती और आपने अपना व्यापारी दिमाग उनके सामने चला दिया होता, तो उनका ताप तो आप झेल ही नहीं पाते। उन्होंने अपनी बेटी की शादी के लिए तो दहेज लेने वाले के दर पर पांव नहीं धरा, तो अपने बेटे के खरीददारों को क्या नसीहत देते, समझ सकते हैं आप।
“आप बड़े हैं। नसीहत तो नहीं दे सकता। सलाह देता हूँ – हो सके तो समाज के लिए कोई नेक काम कीजिए।”
जब मैं चुप हुआ, तो उन्होंने पूछा कि तुम कौन हो? मैंने उन्हें बताया, मैं ही मनोज हूँ। यह सुनकर उनकी बगल में खड़ा उनका रिश्तेदार बोला, “गइल भईंस पानी में!”
***
(फुटनोट : उस दिन उन सज्जन को उनकी गाड़ी के साथ क्या लौटाया, चार चक्कों वाले वाहन के लिए हमें अगले पन्द्रह सालों तक इंतज़ार करना पड़ा।)
--
बहुत जबरदस्त!!!
जवाब देंहटाएंइसीलिए कहावत बनी होगी कि घर आई लक्ष्मी को ठुकराते नहीं हैं. सारे नेता इस कहावत के उपासक हैं.
आपने गाड़ी ठुकराई-लक्ष्मी का ही रुप है- देखा न फिर कैसे १५ साल तक टपे. :)
आनन्द आ गया पढ़कर!!
रोचक, मजेदार.
जवाब देंहटाएंज़िन्दगी से जुड़ा हुआ ...सारगर्भित ...बहुत बढ़िया ....!!
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया सुबह-सुबह आपका आलेख पढ़कर
जवाब देंहटाएंमजा आ गया है !
@ समीर भाई!
जवाब देंहटाएंऑव्ज़र्वेशन बहुत सही है!
पर क्या करें आज तक नेतागिरी सीख नहीं पाए और हर बार लक्ष्मी जी का वाहन ही बनते रहे!
इति श्री विवाह महागाथा।
जवाब देंहटाएंबिहार में दुल्हों की बोलियाँ खूब लगते सुना है ...
जवाब देंहटाएंआपने प्रमाण भी दे दिया !
रोचक !
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंकोई बात नहीं, पन्द्रह साल बाद की चौपहिया गाड़ी जितना सुकून दे रही है, शायद दहेजवाली उतना नहीं देती और न ही हम पाठकों को इतना प्रेरक प्रसंग पढ़ने को नहीं मिलता।
जवाब देंहटाएंबड़ी ही रोचक और रोमांचक रही आपकी विवाह -यात्रा !उस ज़माने के विवाह आज के तौर-तरीकों से बिलकुल अलग थे ! कम से कम आप विवाह के बहाने 'सेटल'तो हो गए !दहेज़ के बारे में आपके विचार क्रान्तिकारी लगे !
जवाब देंहटाएंमुझे नहीं लगता कि आपकी भैंस पानी में गई :-)
@ कम से कम आप विवाह के बहाने 'सेटल'तो हो गए !
जवाब देंहटाएं** संतोष भाई यह तो आज तक मैंने ध्यान ही नहीं दिया ! :):)
आपके व्यक्तित्व का कायल तो हूँ ही इस पोस्ट ने आपकी अच्छाइयों को गहराई तक समझने का मौका दिया.सलाम करता हूँ आपकी सोंच और आपके व्यक्तित्व को,मनोज जी.
जवाब देंहटाएंपढ़कर मन गदगद हो गया. आभार.
बिहार में विवाह कैसे सैटल होते हैं इसकी रोचक जानकारी मिली ... १५ साल बाद ही सही पर आज जिस चार चक्कों की गाड़ी पर आप सैर करते होंगे उसका आनंद ही कुछ और होगा ..
जवाब देंहटाएंरोचक प्रस्तुतिकरण
शादी के लिए कुछ अधिक ही उत्सुकता…हम तो कुछ नहीं कहेंगे इसपर…गाँव में होते तो आप लोगों के साथ बैठने भी नहीं देते सब हमको…
जवाब देंहटाएंगइल ‘फ़िएट’पानी में.... ऐसन गइल कि हमहु ना निकाल पइनी....!
जवाब देंहटाएंसारगर्भित और संप्रेष्य व्यंग्य! साधुवाद!!
वाह! वाह! वाह! जी.
जवाब देंहटाएंगइल भईंस पानी में
पढकर मजा आ गया जी.
जबरदस्त संस्मरण। रोचक अंदाज। प्रेरक प्रसंग। आनंद आ गया। गइल भैंस पानी में का जवाब नहीं..वाह!
जवाब देंहटाएंबढ़िया ....
जवाब देंहटाएंबधाई जान छुडा पाने की !
कहते हैं जोड़े स्वर्ग में बनाते हैं, ये बात और है कि टूटते धरती पर हैं... आपका यह वाहन रिफ्यूजल प्रकरण सुनकर दिल खुश हुआ... खुशी का एक कारण रेलवे का नमक और परवरिश भी है.. कोयले की खान से हीरे निकलते हैं, यह देखा है मैंने... चौपाया होने में हमें काफी टाइम लगा, इसलिए कि ज़रूरत नहीं हुई, परमात्मा ने दोपाया बनाया तो उसी हाल में ठीक थे.. एक बार विवाह-वार्षिकी से पूर्व इनकी आँखों में एक स्विफ्ट चुभ गयी, बस तब से हम चौपाये हुए!! आपकी फुर्सत रंगीन होती जा रही है मनोज बाबू!! लगे रहिये!!
जवाब देंहटाएंBAHUT BADHIYA MANOJ BHAI ! LEKH
जवाब देंहटाएंPADH KAR AANANDIT HO GAYAA HUN .
यह तो अधूरी बात हुई आगे क्या-क्या हुआ वह कहानी तो सुनाइये .
जवाब देंहटाएंमेरे मन की जिज्ञासा दूर करें प्राणी विज्ञानी महोदय (मैं भी वही हूँ ) ....क्या शादी और कहीं हुयी ?
जवाब देंहटाएंहा हा हा ! मज़ेदार पेशकश ।
जवाब देंहटाएंआदर्शों के रास्ते ऊबड़ खाबड़ और कंटीले तो होते ही हैं ।
वैसे हमें भी ससुर जी जब देखने आए तो इसी भेष में थे , लेकिन हॉस्टल में ।
acchha hua fiat gayi pani me....varna pata chalta aap fiat wali ki drivery kar rahe hain.
जवाब देंहटाएंsuna bahut hai bimar ki dahej pratha ke bare me....aaj ek aur praman mil gaya...aapke time me hi doolhe itne mehnge the to ab kya haal hota hoga.
apke mata pita us samay dahez pratha k itne khilaf the jaan kar acchha laga. guni mata-pita ki santaan se aisi hi umeed ki ja sakti hai.
ummeed hai ab bhains pani me nahi hogi...na hi aaj us baat ka pachhtava.
sunder sansmaran.
महाराज क्या मस्त तरीके से भैस को पानी में उतरा है ... आनंद आ गया पूरी कथा बांछ्ते बांछ्ते ... जय हो आपकी ... जय हो ...
जवाब देंहटाएंबढिया । यहां तो भैंस पानी में चली गई फिर बात बनी कैसे और कहाँ ।
जवाब देंहटाएंमनोज बाबू,
जवाब देंहटाएंदेखिये आपको आलेख को पढकर जिस मूलभूत समस्या का आपने ज़िक्र किया है उसे जानकर, अनामिका जी ने आपके (हमारे) प्रदेश का नाम ही"बिहार" से बदलकर "बीमार" कर दिया है!! अब त गईल भईंस पानी में!!!
सलिल जी ,
जवाब देंहटाएंभले ही कोई बिहार को बीमार कह दे पर बिहार के ही दो लोग बने हैं करोड़पति ..
संगीता दी,
जवाब देंहटाएंआभार आपका.. ऐसे कई करोड़पति हैं बिहार के.. दिनकर, रेणु, जानकी वल्लभ, नागार्जुन, राजेन बाबू, शेखर सुमन, शत्रुघ्न सिन्हा, भूषण तिवारी.. न जाने कितने!!
पुनः धन्यवाद!!
गइल भैंस पानी में ..आपके लेक्चर के बाद यही हमारे मुँह से निकला क्योंकि हमने सुना है बिहार में आप जैसे सर्व गुण संपन्न अगर आना कानी करे तो उसका अपहरण कर लिया जाता है और फिर शादी धूमधाम से करा दी जाती है.
जवाब देंहटाएंपर फिर नोट देख जान में जान आई :)
क्या एक के बाद एक रोचक वृतांत है.मजा ही आ गया पढ़कर .
बहुत रोचक प्रस्तुति। एक सामान्य सी घटना को इतने सरस और आकर्षक ढंग से प्रस्तुत करना कोई आपसे सीखे। और, हास्य के पुट के साथ जिस तरह से आपने एक सामाजिक बुराई पर सहजता से व्यंग्य किया है, वह अद्भुत है।
जवाब देंहटाएंमनोज भाई ! डायरी के पन्नों में दबे इस फूल की खुशबू को आपने फिर से हवा देदी ...यहाँ तक तो ठीक है पर इस परमसुखदायी कथा के आगे...पीछे...दायें ...बाएं सभी डायमेंशंस में खोज मारा ...एक अदद "क्रमशः ..." नामक शब्द के कहीं दर्शन नहीं हुए. जब फुरसत में थे ही तो तीन अक्षर के इस छोटे से शब्द ने भला क्या बिगाड़ा था आपका ......कहीं टांक देते तो भला हम ये शिकायत क्यों करते ?
जवाब देंहटाएंफुरसतनामा के बहाने एक बार फिर बिहार की विशिष्टता दुनिया के सामने है. बिहारी छात्रों की प्रतिभा का दबदबा जग जाहिर है. आर्यावर्त के पाँच महान विश्वविद्यालयों में से दो... विक्रमशिला और नालंदा बिहार की देन थे. विद्वता, सामाजिक जागरूकता, क्रान्ति और अवतारों के मामले में भी बिहार आगे रहा है. बिहार की मिट्टी में गंगा ने हिमालय के उत्तुन्ग शिखरों की ऊंचाई को स्थापित कर दिया है ...इस ऊंचाई में गंगा की पवित्रता है. जीवन में आदर्शों की शुचिता का व्यावहारिक पक्ष बिहार में देखने को (अपेक्षाकृत) अधिक मिलता है. हम नयी पीढ़ी से भी यही अपेक्षा रखते हैं.
हाँ, तो मनोज जी ! उस क्रमशः का क्या हुआ ?
@ कौशलेन्द्र भाई,
जवाब देंहटाएंहाहाहा,
क्रमशः इसलिए कि याददाश्त क्रम से नही आ रहे। जब जो याद आ जाता है उसे फ़ुरसतिया देता हूं।
इ देखिये बियाह क नाम से लड्डू फूट रहा होगा ऊपर से फियेट देखकर तो सुहागा के साथ कस्तूरी भी दिखी होगी . बस संस्कार ने रोक लिया नहीं तो सच में भईस पानी में हेल जाती तो निकलती कब इ नइखे पता .. वैसे हमहू बिहार के भुक्तभोगी है . अच्छे वाले .
जवाब देंहटाएंवाकयी में गयी भैंस पानी में। बहुत जबरदस्त रहा संस्मरण। आखिर में विकेट कैसे गिरा यह भी तो बता दीजिए।
जवाब देंहटाएंभैंस को तो पानी में ही जाना है सर,
जवाब देंहटाएंअकेले जाए चाहे सवारी को लेकर जायेगी पानी में ही :)))
रोचक...
सादर....
गई भैंस पानी में ... हा हा मजेदार प्रसंग को रोचक शैली में लिखा है आपने ... जीवन से जुड़े वाकये को याद कर के बहुत मज़ा आता है ...
जवाब देंहटाएंगईल भैंस पानी में—समाजिक व्यवस्था के साथ और व्यवस्थाएं भी ज़रूरी हैं.
जवाब देंहटाएंमनोज जी, पूत के पाँव पालने से ही दिखाई देते हैं...रिज़ल्ट आने के बाद तो लोग रेट आंकने में लगे रहते हैं...लोगों को ये नहीं मालूम हर माल बिकाऊ नहीं है...
जवाब देंहटाएंअब तक तो भैंस पानी से निकल आई होगी।
जवाब देंहटाएं*
ऐसा भ्रम वाकया अपने साथ भी हो चुका है।
बहुत ही रोचक जान सुनकर अच्छा लगा...|
जवाब देंहटाएंहम तो लीची पर ही अटक गये। क्या शानदार फल है। पर भगवान ने इसे मात्र कुछ दिनों का ही मौसम क्यों दिया है।
जवाब देंहटाएंमैं बोटानिस्ट होता तो लीची की ऐसी प्रजाति उत्पन्न करता जो मुजफ्फरपुर ही नहीं, सब जगह होती और साल के कम से कम छ सात महीने पैदा होती!
सॉरी पोस्ट के इतर टिप्पणी के लिये।
bahut hi prabhawshali dhang se aapne apni baat un sajjan tak pahuncha di.....kash aap jaise logon ki sankhya zyada hoti......
जवाब देंहटाएंbahut achchha laga.Manoj ji. .aap itni gahrayi me hain ...shat shat nmn...........
जवाब देंहटाएंआप तो शर्मिन्दा कर रही हैं, नमन शब्द का प्रयोग करके।
हटाएंआप मेरे ब्लॉग तक आईं, यह मेरे लिए सौभाग्य की बात है। आभार आपका।
गइल गाड़ी पानी में । ये शब्द आपके होने थे लेकिन जब पांव पर कुल्हाड़ी चला ही ली तो ये शब्द कहां से निकलते । खैर मजाक को छोड़ कर सच तो ये है ग्रामीण परिवेश से रूबरू करवाती आपकी यह रचना बहुत अच्छी है । कोलकाता नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति द्वारा “गइल भईंस पानी में’ रचना को सर्वष्रेष्ठ घोषित तो करना ही था । बधाई ।
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंArey wah!!! Ye to sahi hai... Hum bhi yahi bolenge apne samay par...:D
जवाब देंहटाएंWaise, aage ki kahani kaha hai???
शिखा जी, आगे की कहानी इस लिंक पर है।
हटाएंhttp://manojiofs.blogspot.in/2012/04/blog-post_07.html
वाह ...क्या रोचक प्रस्तुति ...मजा आ गया .....वैसे आप ये क्यूँ समझे बैठे हैं कि वो महाशय आपके लेक्चर से डर गये थे ...जनाब 'ऊपर की कमाई' ना कमा पाने का आपका 'दोष' उन्हें आपकी बातों में ही समझ आ गया होगा ...अब ऐसे 'बेकार' को कोई कार वाला तो अपनी बेटी देने से रहा :P
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