बुधवार, 23 नवंबर 2011

देसिल बयना – 106 : हंसा था सो उड़ गया, कागा भया दिवान...!

 

-- करण समस्तीपुरी

“आ...ह..हा...! आ... हा... हा...! धन ओ राजा धन ओ देस, जहाँ बरसे अगहन मेघ। बरसो हो इन्दर देवता...!” भरे सांझ बरखा रानी का टिप-टाप सुनकर बिसुन बाबा सहजे इन्दर देवता को सुमिरने लगे थे। सामने फ़गुनी पाठक सरपट चले आ रहे थे माथा पर गमछी का ओहार लगाए। बिसुन बाबा चिल्लाए, “हे.. हे...! देख के हौ...! अरे भाई मघुआ कोबी लगा हुआ है। साइड से आओ...।” बिसुन बाबा की बोली सुन पाठक जी वहीं ठिठक कर बोले, “कका...! भोज का न्योत है...!” “आ.. हा... तब तो सीधे चले आओ... दू चार पौधे टूट भी गये तो कौनो बात नहीं।”

पाठकजी आकर बताए थे, “कल्ह गंडक-पार चलना है, चोकटी सेठ कने बड़का भंडारा है।” हमलोग तो तभिये से पूरी-जिलेबी के साइज का अंदाज लगाने लगे। भैंस के दूध का थलगर दही का महक से एक दिन अगरे नथूने फूलने लगे थे। उपर से नैय्या पर नदी पार करने का जोस अलग से। अगले दिन का इंतिजार था मोस्किल मगर करना तो पड़ेगा। रात सपने में तो और हद होय गया। ओह... उ बड़का पुरैन के पत्ता पर चिउरा-दही, बुंदिया-जिलेबी के उपर से भूरा-भूरा लालमोहन और उजरा सिस्पेंज भी लोंघरा रहा था।

सुबह में ठंडक तो बढ़ गयी थी मगर सुरुज महराज जादे इंतिजार नहीं करवाए। बबूल के दतवन से रगर-रगर के दाँत को जोख किये और जलखई में सिरिफ़ गुर-अजवाइन-आँवला खाकर चारों बाप-पूत निकल गए पितरिया लोटा लेकर चौबट्टी दिश।

उधर से कनहू काका आए। रमेसर झा, लटोरन सरमा, बुल्ले चौधरी, खखोरन, दहाउर, जट्टा झा और पोठी दूबे का गुरूप भी जमा हो गया मझकोठी चौबटिया पर। कुछे देर में बिसुन बाबा, गोवधन मिसिर, घंटी झा, डमरू और चौबन्नी पांड़े भी आ गए। ओह... ई फ़गुनी पाठक कहाँ रह गए। सारी बेसब्र आँखे यही सवाल कर रही थी। कुछ ने तो मुँह खोलकर बोल भी दिया था। आखिर चोकटी सेठ जिजमान तो उन्हीं का है। उका घर-ठिकान भी उन्हीं को मालूम है। उनके बिना जत्था कैसे बढ़ेगा?

“हई रहे पाठक जी।” लोग चहक पड़े थे। पाठकजी एकदम धोआ धोती पर चंदन-फ़टाका झार के दहिना हाथ मे कमंडल डुलाते चले आ रहे थे। पाछे-पाछे कुसेसरा खवास ललका झोरिया बगली में दबाए झटक रहा था। पाठकजी पहिले पहिले चौबटिये पर सभी जने की गिनती कर लिये फिर इतमिनान होकर चले। आधा घंटा चलते आ जाती है गंडक नदी।

घाट का रखवार भी फ़गुनी पाठक का जिजमान ही है। नैय्या फ़्री। खेबैय्या फ़्री। तरे-उपर कर दो नाव सवारी। बोल गंडकी मैय्या की जै। कर के दोनो नैय्या गंडक नदी की मद्धिम लहरों पर बलखाने लगती है। केवट भैय्या बताते हैं कि पछिया हवा बह रही है। हाँ सच्चे तो...! जट्टा झा की टीकी (चोटी) भी तो पच्छिमे दिशा में उड़ रही है।

पार उतरने पर भी कोस भर जमीन लांघना पड़ेगा। मगर कौनो बात नहीं। दस लग्गा चलते ही पुरी-जिलेबी का गमक अपने आप खींच लेगा। हूँ... हउ देखो...! अब उ गाँव के मंदिर का चोटी दिख रहा है... न! वही के पजरी में है चोकटी सेठ का कोठी। फ़गुनी पाठक की इस बात पर सभी कदम अनायास ही तेज हो गए थे।

ओह तोरी के....! डबल-डबल समियाना-कनात से घेर-घार कर सेठ जी तो बंपर इंतिजाम किये हुए थे। भोज के गमक से परोपट्टा गमक रहा था। मिनिटे भर इंतिजार के बाद सेठजी आकर फ़गुनी पाठक के पांव लगे। फिर सब ब्रह्मण को नमस्कार कर सविनय समियाना में चलने का आग्रह किये। हमलोग तो दौड़-दौड़ कर सबसे पहिलहि कुश की बिड़िया पर आसन जमा लिये। जट्टा झा बैठते ही अपनी टीकी में गांठ लगा लिये थे।

एंह... गोल-गोल पुरैन के पत्ता। जल से सिक्त किये। फिर चिउरा, दही, चीनी, पूरी, महीन-दाना बुंदिया जिलेबी, मोतीचूर लड्डू, केहुनिया खाजा, बालूसाही, उसना आलू के अंचार, ओल की चटनी, बिना प्याज-लहसुन वाली तरकारी बारी-बारी से छप्पनो प्रकार सज गया पत्ता पर। खूब छक कर खाए। “आहि तोरी के... अब उ टिनही बाल्टी में क्या आ रहा है...?” अच्छा रसगुल्ला है। हाँ अब लालमोहन भी जूठे पत्तल में लोटने लगे थे। सिस्पेंज का तो रस निचोर-निचोर कर चूसे। एकदम मनमाना। जितना चाहो उतना।

पूरे दो घंटे में भोज संपन्न हुआ। फिर पान-सुपारी,सौंफ़-इलैंची। दच्छिना में भी सेठजी तिजौरी खोल दिये। सबको यथायोग्य सोना-रूपा, तांबा-पीतल, पैसा-रुपैय्या और घर के लिये भर-भर झोरी पूरी-जलेबी-बुंदिया का नैवेद। सब लोग चोकटी सेठ का जै-जैकार करते हुए चल पड़े गंडक किनार।

रास्ते में बिसुन बाबा बाघो सिंघ उर्फ़ बघबा डकैत का किस्सा कहते चले आ रहे थे, “भले दिन रहते चले आए। ई सब बघबा का ही इलाका है। बाप रे बाप...! एक जमाना में तो गंडक दियारा में दिन-दुपहरिया भी चलना मना था...! ससुर के नाती ऐसन पाजी कि नौआपुर के बुरबक ब्रह्मण तक को नहीं छोड़ा...! सबा रुपैय्या के लिये जान ले लिहिस था।”

किसी ने कहा था कि मगर अब न तो उ का गुरुप रहा न जवानी। सुनते हैं कि अब तो उ हंसा बाबा के परवचन सुनकर सनयासी हो गया है।” “मार खच्चर! चोर चोरी से जाता है, हेराफेरी से नहीं। अब ई कहौ कि देह और वश नहीं चलता है... !” इ सब बात विचार चलिये रहा था कि उधर से काग के कर्राने की आवाज आई। सब लोग पलट के देखे। उधर से कगबा रोते-सुबकते दौड़ा चला आ रहा था। अरे कगबा को नहीं पहिचाने...? आज-कल वही तो बाघो ठाकुर का चिलमची था। हमलोग तो सच्चे में सहम गये। मगर उ कगबा लग्गा भर अलगे से भुइयां में लोट-लोट कर दंडवत करे लगा।

फिर ठेहुनिया रोपकर और कर जोरे बोला, “आपलोग ब्राह्मण देवता हैं...। सकल लोक का उद्धार आपहि से होता है। बेचारे बाघो ठाकुर का चोला बदल गया...! अब ई जनम में जौन कुकरम-सुकरम किये रहे... अब तो उनकी गति भी आपहि के हाथ है। केहु नहीं आया...! आपलोगों में से कोई चलिये और दू गो मंतर पढ़ा दीजिये, जौन इनकी आत्मा की शांति होय...! और तो कौनो है नहीं हमही मुखबत्ती लगाकर गंडकी माई की गति लगा देंगे।

किसी को हिलते न देख कागा ठाकुर फिर से बोला, “ब्राह्मण विष्णु बरोबर होता है। ब्राहमण-बैष्ण्व पापी और धरमात्मा में फ़रक नहीं करते हैं। जौन आपके पैर परा उका उद्धार कर दीजिये दैव! दान-दच्छिना का फ़िकिर भी मत कीजिये। मालिक अपने किरिया-करम और दान-दच्छिना के लिये काफ़ी कुछ छोड़ गए हैं।”

पंडीजी सबपर कगबा का आखिरी मंतर असर करने लगा था। गोवधन मिसिर के तो कदम भी बढ़ गए थे मगर बिसुन बाबा को देख कुछ सकपका गए। फिर कगबा कुछ और दोआ-सलामती किया तो उ आगे बढ़ गए। बिसुन बाबा समझाए भी मगर उ नहीं माने।

घाट किनार का केवट उधर से आ रहा था। मिसिरजी को उल्टा मुँह जाते देख कारण पूछ कर समझाया, “ना जाइए मिसिरजी। हंसा था सो उड़ गया, कागा भया दिवान...! ए ब्रह्मण तू लौट जा बाघ कहीं जजमान।” मगर गोवधन मिसिर पर तो बाघो ठाकुर को उद्धार करे का भूत सवार था। चल पड़े कगवा के पाछे-पाछे।

अब इधर दोमरजा (दुविधा)। मिसिर जी को छोड़ चलें कि इंतिजार करें। फिर बिसुन बाबा बोले, “उ लोभी लाल चलिये गए तो अब क्या करें... थोड़ा देर इंतिजारी कर लो...! राम जी की इच्छा से सब ठीक होए... दू मिनिट में मंतर पढ़ाके लौट आएंगे। नहीं तो सांझ ढ़ले भला अकेले मिसिर भाई भी कहां जाएंगे।” बिसुन बाबा की बड़ी परतिष्ठा थी। कौनो उकी बात नहीं काटता था। हमलोग वहीं गंडक किनार में नैय्या का टेक लगाकर कि बालू पर गमछी बिछाकर मिसिरजी का इंतिजार करने लगे।

दस मिनिट गया। आधा घंटा। फिर एक घंटा। तब सब को शक होने लगा। बिसुन बाबा बोले, “अरे हमको तो पहिलहिये शंका हो रहा था। गए थे बघबा के किरिया-करम कराने। कहीं उलटे ना हो गया हो...! चलो-चलो... सब लोग हुजुम बांधकर चलो...! एक साथ रहे तो कौनो घटना-दुर्घटना भी संभाल सकते हैं। बिसुन बाबा आगे बढ़े, पाछे पूरा टीम। दोन्नो केवट भी साथ लग गया।

किधर गए भाई ई मिसिर जी? आधा घंटा तक खोजे के बाद उधर अंधरिया में झार-फूंस खरखराया। सब लोग उधर बढ़े। एक केवट चौरबत्ती जलाया, “ओह तोरी के! हई इधर देखिये बाबू लोग ! अरे मिसिरजी को इहां बांध दिया है। आहि रे बाप ! उनका मोटरी-चोटरी.... देह के कपड़ा तक उतार लिया है...!” कागा ठाकुर और बाघो सिंघ का कहीं पता नहीं। सब लोग लपके उधर। सबसे पहिले मुँह में कोंचलका कपड़ा निकाले। फिर रस्सी बंधन खोले...! बिसुन बाबा अपना गमछी लपेट दिये मिसिरजी के डांर में। तरह-तरह की बात। सब लोग अपनी-अपनी कह रहे थे और बेचारे मिसिर जी बक-बक देख रहे थे और आंख से ढबर-ढबर लोर गिर रहा था। दूसरा केवट भी कहने लगा, “हम तो तभिये कहे थे मिसिरजी घुर चलिये..! ‘हंसा था सो उड़ गया, कागा भया देवान! रे ब्रह्मण तू लौट जा, बाघ कहीं जजमान!!’ पता नहीं मिसिर जी कौन लालच में चले गए...! उ बघबा डकैत दूसरे को लूटने वाला इनका जजमान हुआ है? हंसा बाबा के परवचन का असर कुछ दिन तक रहा फिर उड़ गया। उपर से उको मिल गया है कागा ठाकुर जैसा नमरी धुर्त दिवान। लूट ले गया लोभी मिसिर जी को।

खैर किसी तरह सब लोग गोवधन मिसिर को बोल-भरोस दिलाते हुए लेकर चले। दोनों केवटों ने नैय्या बढ़ा दिया पानी में। चौबनिया बोला, “केवट काका ! उ कौन फ़करा कहे थे?” केवट बोला, “अरे फ़करा क्या बाबू! उ तो बूढ़-पुरान का किस्सा है। हंसा था सो उड़ गया, कागा भया दिवान ! रे ब्रह्मण तू लौट जा, बाघ कहीं जजमान?” लगले डमरुआ पूछा, “उ का माने का हुआ?” “अब माने-मतलब हमका क्या मालूम पंडीजी! हम तो बस अपने बाप-पुरखे से सुने रहे।”

मतलब ई हुआ कि...! आगे बिसुन बाबा कहने लगे, “हंसा था सो उड़ गया मतलब और कागा हुआ दिवान। मतलब कि जब नीति व्यवस्था उल्टी हो गयी। तंत्र भ्रष्ट हो गया तो हंस जैसा योग्य (नीर-क्षीर न्यायकारक) उस से अलग हो गया। और उसके जगह मंत्रीत्व का अधिकार आ गया कौव्वा जैसे मक्कार, धुर्त और अवसरवादियों के हाथ। अब ऐसी व्यवस्था के विधाता से न्याय की उम्मीद करना तो बेमानी ही है न। इसीलिये, रे ब्रह्मण तू लौट जा ! बाघ कहीं जजमान? शार्ट-कट में कहो तो अयोग्यों के हाथ अधिकार जाने पर व्यवस्था विपरीत हो जाती है और विपरीत व्यवस्था पर कभी विश्वास नहीं करना चाहिये।”

वैसे तो बिसुन बाबा हमलोगों को शार्ट-कट में समझा दिए मगर आसन्न पीढ़ी के लिये भी संस्कृत में लिख गए, “पंचतंत्र” और उसमे जोड़ दिहिन ‘ब्याघ्र-कंगन’ कथा। अब याद आया??

8 टिप्‍पणियां:

  1. करन जी देश का हाल व्यंग्य और लोक आचरण के माध्यम से जितनी सहजता से आप कह देते हैं, वही देसिल बयना का आकर्षण है.. बहुत सुन्दर...

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  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति ||

    बधाई महोदय ||

    dcgpthravikar.blogspot.com

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  3. करन बाबू, सुन्दर देसिल बयना। मजा आ गया।

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  4. फिर चिउरा, दही, चीनी, पूरी, महीन-दाना बुंदिया जिलेबी, मोतीचूर लड्डू, केहुनिया खाजा, बालूसाही, उसना आलू के अंचार, ओल की चटनी, बिना प्याज-लहसुन वाली तरकारी बारी-बारी से छप्पनो प्रकार सज गया .अतिसुन्दर प्रस्तुति।

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  5. देखिये करण बाबू, कलेंडर पलटाने के पहिलहीं हाजिरी लगा दिए हैं.. फिनू सिकायत का मौक़ा नहीं देंगे.. ई जो भोज का बरनन किये हैं ऊ सब अब कहाँ देखाई देता है.. भोज त होब्बे नहीं करता है, ऊ का कहते हैं पार्टी होता है..
    मजा आया, खिस्सा का खिस्सा अऊर गियान का गियान.. एही न है देसिल बयना का सार सद्गुण!!बधाई!!

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  6. विवरण का पहला हिस्‍सा बिना पेंचो-खम के, कहानी से भी ज्‍यादा रोचक.

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  7. आज देश कि स्थिति भी यही हो रही है ..हंसा था सो उड़ गया कागा हुआ दीवान ..

    बढ़िया देसिल बयना

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