बुधवार, 9 नवंबर 2011

देसिल बयना – 104 : भलो भयो मेरी मटकी फूटी.....

देसिल बयना 104

भलो भयो मेरी मटकी फूटी.....

AIbEiAIAAAAhCOGGwPuf3efHRhC_k-XzgODa1moYsN388brgg9uQATABK_5TSqNcP8pRR08w_0oJ-am4Ew4करण समस्तीपुरी

दीपावली के लुक्का-बाती में जल कर कीट-पतंग, रोग-ब्याधि, दरिद्रा-तंगी का सत्यानाश हो चुका था। छट्ठी मैय्या अरघ लेकर जा चुकी थी। धन-धान्य का वरदान पाकर रेवाखंड हुलस रहा था। अगहन्नी धान पर पियरी चढ़ चुका था। मंद समीर में बालियों के टकराने की झंकार पर किसानों का मन नाच उठता था।

वृद्धाएं कार्तिक-पुर्णिमा के गंगा स्नान की तैय्यारी में व्यस्त थीं। युवतियां ‘शामा-चकेवा’ में और युवक वृंद के लिये तो... “सोनपुर के मेला मशहूर हो बाबा जाएब जरूर...!” शरद-ऋतु ने दस्तक दे दिया था। रेवाखंड सांझ से पहिले हल्के कुहासे का धुंधला चादर-सा ओढ़ लेता था। चौपालों पर घुरे सुलगने लगे थे। रेवाखंड में अगले पर्व की तैय्यारी थी – कार्तिक देवोत्थान एकादशी का अष्टयाम।

दीपावली, अन्नकूट, भ्रातृ-द्वितीया, छठ, शामा-चकेबा के तरह ही एकासी का ‘अठिजाम’ रेवाखंड के सांस्कृतिक विरासत का अभिन्न अंग है। पता नहीं कब से होता आ रहा है...! हमरे बाबा कहे थे कि नेत्रहीन किशुनदेव गुरुजी सन 1938 में जानकी किर्तन समाज बनाकर इसे संस्थानिक रूप दे दिये थे। तभी से हर साल कातिक एकादसी को रेवाखंड में उके बरसगांठ-स्वरूप हर साल अष्टयाम किया जाता है।

रायजी की गोहाली के घूरे से उठ रही धुएँ की आरी-तिरछी लकीड़ें शाम के धुंधलके को और स्याह कर रही थी। उसी घुरे के चारों ओर चौपाल जमी थी। वहीं बन रही थी एकादशी के अष्टयाम की योजना। बड़का पितरिया थाल में खजुरी, ठेकुआ, गुझिया सब रखा था बीच में। रामजी बाबू, बड़का बाबा, मिलिटरी साहेब, सिरनाथ झा पंडीजी, कनहैय्या कका, बैजू महंथ और न जाने केतना लोग सब बैठे थे। “ई बार का अठिजाम मझकोठी चौबटिया पर होगा।” रामजी बाबू के घोषणा के साथे हम जैसे बाल-गोपाल शुरु हो गये, “आ रे जय सिया रामा.. जय...!”

जगह निश्चित होने के बाद अष्टयाम सम्पन्न कराने की जिम्मेदारियों का बँटवारा होने लगा। और मिलिटरी साहेब चंदा-वसूली करेंगे। बड़का बाबा व्यवस्था-बात। साफ़-सफ़ाई बैजू महंथ के जिम्मे और किर्तन मंडली को हरकारने का काम कन्हैय्या कका करेंगे। पूजा-पाठ, हवन-दान का सिरनाथ झा पंडीजी खुदे संभालेंगे। अठिजाम के बाद सांस्कृतिक कार्य-क्रम कराने का दायित्व मिला था हमरे बाबूजी को।

दसमी के सांझे बाबूजी, गोधन कका और महटर साहेब समस्तीपुर बजार से फ़ल-प्रसाद, धूप-चंदन, अगर-तगर-जटामसी आदि का ‘शापिंग’ कर लाए थे। कन्हैय्या कक्का भी आकर बताए थे, “दू-दू घंटा के लिये दसो मंडली बुक है और पहिल और अंतिम घंटा तो अपने सब का रहेगा... ई तरह से चौबिसो घंटा खूब होगा राम-नाम के लूट।” बाबूजी भी कहे थे, “और हाँ... नरैनपुर वाला किसनलीला मंडली भी तैय्यार हो गया है, रतुका परोगिराम के लिये।” फिर तो दे ताली... हमलोग खिलखिलाते हुए निकल पड़े थे अपने बाल-मंडली को ई समाचार देने।

एकादशी के भोरे से नरेश कक्का रंगीन कागज का फूल-पत्ती, फ़न्ना, बंदवार, धुजा-पताका काटने में लगे थे। हमलोग पतरका सुतरी में आंटे की पतली लोई लगा रहे थे और लटोरन भैय्या और चम्मूसिंघ उमे नरेश कक्का की कलाकारी को बड़ी सावधानी से चिपका रहे थे।

गोवधन कका चौकी पर चौकी और उके उपर छोटका टेबुल लगा के ई सुंदर मंच बनाए थे। उको हरे-हरे केला के थंभ और अशोक के पत्ता से सजाए थे। उ में चारो दिश से सब देवी-देवताओं की सुंदर-सुदर तस्वीर। ओह... रे... ओह...! लगता था बैकुंठे उतर आया है रेवाखंड में। भुटवा ठाकुर अपना लौडिसपीकर और चोंगा भी लटका गया था। हम बच्चों में उत्साह इतना कि एक काम निपटे कि दूसरे के इंतजार में इधर-उधर हिरण की तरह कुलांछे भरने लगते थे।

संकलप का मुहुरत था एक बजे दुपहरिया में। सिरनाथ झा के साथ बड़का बाबा संकलप किये थे। संकलप के साथे विनो कका का हरमुनिया पिपियाने लगा था, “अरे जो सुमिरत सिधि होय..... गननायक करिवर बदन....!” कुछ मंतर के बाद फिर उ हरमुनिया लटक गया था उनके गले में। रामजी बाबू ढोलक पर चाटी दे रहे थे। “जय सियाराम जय-जय सियाराम.... जय सियाराम जय-जय सियाराम!” झाल-मजीरा-करताल सब झनझनाने लगा....।

सांझ से रात और रात में तो मंडली जम गया था। गाँव-घर के बूढ़े बुजरुग लोग वहीं रायजी के दलान पर धान के लार का सेजौट लगाकर कंबल से देह-हाथ ढांपे अष्टयाम जग का आनंद ले रहे थे और व्यवस्था-बात भी देख-परीख रहे थे। जुबक-वृंद सब लगा है मंडलियों के आगत-भागत, लाइट-बत्ती, पान-परसाद और अन्य इंतिजाम में।

महदेवा को लौडिसपीकर में बोलने का बड़ी शौक था। ससुर अठिजाम में चौबिस घंटा तक खरे रह जाता था माइक के पास। समथु वाला मंडली की बारी थी। किर्तन जमजमाया था। लय-ताल-मंतर सब को किनार कर उ महदेवा लगे बीच में लौडिसपीकर में तोतलाय, “थीतालाम...थीतालाम बोल पागल मनमा....!” कभी कभी तो फ़िल्मियो गीत धरा देता था, “धुमका गीला ले....!” हा... हा... हा... हा....! हमलोगों की हंसी और बाप-रे-बाप...! बड़का बाबा तो एकदम से गुस्सा से आग हो गये थे, “मार बेहूदा....! डाल दो ई को हवन-कुंड में....!” बाबा का कान थड़थड़ाने लगा था। हा.. हा... ही... ही... हें..हें..हें.... एक राउंड की और हंसी।

तेइस घंटा बीत गया। चौबिसम घंटा में घुसते ही अठिजाम का मंतर समदाउन का धुन पकड़ लेता है, “आ रे.... जय सियाराम जय... जय सियाराम जय... जय सियाराम जय... जय सियाराम... जय हो सियाराम....!” अष्टयाम की विदाई है। ओह...! यह धुन ऐसा मर्मस्पर्शी है... लगता है कि सच में बेटी की ही विदाई हो।

बड़का बाबा, रामजी बाबू, बाबूजी, पंडीजी सब धोती-गमछी के कोर से आँखें पोछने लगते हैं। आगे-आगे गा रहे विनो कक्का का गला भी भरिया जाता है। जोगिन्दरा पकड़ता है अगिला लाइन, “आरे जय सियाराम जय....!”

इस तरह भाव-पूर्ण विसर्जन के बाद नगर कीर्तन करते हुए कलश का भसावन होता है गौरी पोखर में। फिर उधर से नचारी गाते हुए अष्टयाम-स्थल तक लौटते हैं। एक बार फिर से करुणा का स्थान उल्लास लेता है। भुटवा पंचलाइट में हवा टाइट कर मैक-लाउडिसपीकर को भी ठोक-ठठाकर कर देता है हेल्लो-चेक, “नरैनपुर वाली मंडली आ गयी है। थोड़के देर में किसनलीला शुरु होगा।”

कनहू मिरदंगिया टीम-टाम शुरु कर दिया था। झोंटैला महंथ के हरमुनिया पर हाथ फेरते ही पूरा टोला गनगना गया, “सा.. सा... सा... नि ध नि ध पमप...! ता तिरकिट धिन... धा तिरकिट तिन... कट-कट टांय... कट-कट टांय...!” बाप रे..! मिनिटे भर में एतना भीड़ लग गया जेतना चौबिस घंटा के अठिजाम में भी नहीं लगा था।

कीर्तन-भजन होता रहा। धीरे-धीरे... गोपियों की वेस धरे नचनिये आने लगे। एक घंटा में लीला भी शुरु हो गया। हरमुनिया मास्टर गला खंगाल कर थीम सांग गाना शुरु कर दिया था, “ऐसा था बांसुरी के बजैया का बाल-पन...! क्या-क्या कहूँ मैं कृष्ण-कन्हैया का बालपन...!”

“पीं... पीं... पींपींपींपीं.... पीं...पीं..पीं...!” ओह तभी बाँसुरी बजाते किसन भगवान परकट होते हैं....! मार ताली... देख कबीरा... रास मची है, रंग जमी है रेवाखंड में.. आए किसना... राधा आई... ललिता आई... दाउ और सुदामा आए... आए भैय्या लोग हजारन, रंग जमी है रेवाखंड में....!” हरमुनिया मास्टर का कवित्त खतम होने तक अनेक महिला-पुरुष कर जोरे नटकीया भगवान को नमस्कार करते रहे।

अब दृश्य है वृंदावन का। हरमुनिया मास्टर का स्वर तेज हो जाता है,

“शरद की पुर्णिमा थी, रात में चंदा चमका !

ग्वाल-बालों के संग कन्हैया ने मुरली फूँका।

मुरली की तान को सुन गोपियाँ घर छोड़ चली।

सास से, स्वामी से, महलों से नाता तोड़ चली।”

हरमुनिया मास्टर के गान पर गोपी-किसन झूम-झूम कर नृत्य-नाट्य करते रहे। ताली और रेजगारी बरसती रही।

अब है दृश्य यमुना किनारे का। राधा, ललिता, श्यामसखी व अन्य गोपियाँ दही बेचने जाती हैं। मालती का मन तो नहीं है लेकिन ननद हरजाई के ताने सौतिया-सास की गाली, छोड़ो आली...! बेचारी मन मसोस, माथे मटकिया चढ़ा चल देती है ग्वाल-सखीन के संग।

जमुना किनार। कन्हैय्या घटवार...! अरे बात तो सुन सही...! पहले हमें देई दे माखन-दही... ! गोपिया दही नहीं देने को तैय्यार। छिड़ गई रार। एक सखी खिसियाई बोली, “कन्हैया तोहे पड़ेगी हम से मार...!”

बांके-बिहारी की लीला न्यारी। एक अकेला सब पर भाड़ी। कंकड़िया दे मारी...! मटकी बेचारी...! टूटके बिखरी जमीन पे... बह चली दही की धारी...! ब्रज की नारी...! दे गारी... करे शिकायत महतारी से, “मैय्या जशोदा हे....! तोरो बलकबा मटुकी दिहले फ़ोर...!” मगर मैय्या नहीं मानती है, “ना मोर बलकबा लुच्चा-लफ़ंगा...! ना मोर बलकबा चोर...! ना मोर बलकबा नशा के मातल, काहे मटुकिया फ़ोरिहैं तोर....!” जो मैय्या जशोदा बनी थी उ तो और हाथ हिला-हिला कर, आँख-मुँह नचा-नचाकर ऐसा एक्टिंग की थी कि पब्लिक दे ताली से गनगना दिया।

मैय्या के आगे दाल न गली तो सखियाँ चली थाने। रपट लिखाने, “हमें तो लूट लिया मोर मुकुट वाले ने... मुरली वाले ने, बांसुरी वाले ने....!”

मटकी फूटने से सब सखी दुखी। एक सखी खुश। अजी मालती। उ तो अभी तक जमुने किनार में नाच रही है, “भलो भयो मेरी मटकी फूटी... दही बेचन से छूट गई...!” ओह तोरी के...! पब्लिक फिर से दे ताली... गनगना दो रेवाखंड को।

तालियों के बीच में ही सिरनाथ झा टिहुंक पड़े, “खूब खेल है...! खूब कही है, “भलो भयो मेरी मटकी फूटी... दही बेचन से छूट गई...!” अजी काम करने का मन नहीं अब तो उपर से बहाना भी मिल गया....!” पंडी जी की बात खतम होते-होते, किसनलीला का महंथ भी बोल दिया, “बोला द्वारिकानाथ वृंदावन कृष्णचंद्र की जय।”

इस तरह अठिजाम-किसनलीला तो खतम हुआ मगर एगो कहावत और एगो जुगत तो सीखे। “भलो भयो मेरी मटकी फूटी... दही बेचन से छूट गई...!” मतलब कि काम नहीं करने का बहाना मिल गया। जय हो रेवाखंडी अठिजाम की।

15 टिप्‍पणियां:

  1. डूबे रहे आठों याम में हम भी.

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  2. “भलो भयो मेरी मटकी फूटी... दही बेचन से छूट गई...!”bahut achcha likhe hain.

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  3. देसिल बयना के माध्यम से लोक जीवन और लोकरंजन का भावपूर्ण चित्रण कर देते हैं.. हारमोनियम का पिपियाना वही महसूस कर सकता है जो सूना हो उसे... बहुत सुन्दर... अदभुद...

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  4. "...दीपावली के लुक्का-बाती में जल कर कीट-पतंग, रोग-ब्याधि, दरिद्रा-तंगी का सत्यानाश हो चुका था। छट्ठी मैय्या अरघ लेकर जा चुकी थी। धन-धान्य का वरदान पाकर रेवाखंड हुलस रहा था। अगहन्नी धान पर पियरी चढ़ चुका था। मंद समीर में बालियों के टकराने की झंकार पर किसानों का मन नाच उठता था।" .....


    "... रायजी की गोहाली के घूरे से उठ रही धुएँ की आरी-तिरछी लकीड़ें शाम के धुंधलके को और स्याह कर रही थी। उसी घुरे के चारों ओर चौपाल जमी थी। ..."

    लेखक के शब्दों से ऐसा मालूम होता है कि, अभीए अभीए हम भी हो आए रेवाखंड से. सुन्दर वर्णन.

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  5. बहुत अच्छा, लोक जीवन का बहुत ही स्वाभाविक चित्रण। आभार।

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  6. करण इस बार अष्टयाम नहीं हुआ। इस बार आप गए नहीं, कहीं यही कारण तो नहीं था?

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  7. परब-तेहवार, गाँव का सीन और देसिल बयना तक आपका पहुँचना, साथ में मनोज जी का ई कहना कि आपके नहीं आने से रेबाखंड का सूनापन... कुल मिलाकर सब पुराना इस्टाईल में मन को छूता हुआ!!

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  8. बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!

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  9. आज के देशील बयना में तो पूरा ही सांस्कृतिक कार्यक्रम दिखा दिया ... साथ में कहावत भी ..बहुत बढ़िया ...सारे त्योहारों को बताती अच्छी पोस्ट

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  10. सभी पाठकों को धन्यवाद और गुरुपर्व की हार्दिक शुभ-कामनाएँ।

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