बुधवार, 16 नवंबर 2011

देसिल बयना – 105 : जनमा पूत तो आया भूत…..

 

-- करण समस्तीपुरी

उ दिन मधकोठी में दुइए आहट था, गमगमाहट और गनगनाहट। मुठिया केला से पूरा टोला गमगमा रहा था और लौडिसपीकर पर फ़िलमी कीर्तन से गनगना रहा था। सांझ से चहल-पहल और तेज हो गयी थी। तेसर शंख बजते ही पूरा रेवाखंड रकटूलाल के दरवाजे पर उमड़ पड़ा था। पहिले लोटा भर-भर शीतल प्रसाद और फिर पुरी-जलेबी का भोज। दही-सकरौरी भी। बारहों वरण को न्योता-हकार था। भर पेट खाकर डकार मारने के बाद भी लोगों को ई भरोसा नहीं होता था कि भोज रकटूलाल कने खाये हैं।

रकटूलाल रेवाखंड में नामी थे। नामी काहे उ भी सुनिये। एक बार रकटूलाल कलेउ कर रहे थे। उ कहते नहीं हैं कि ‘प्रथमे ग्रासे मक्षिकापातं’। एगो मिसिया भर की मक्खी पता नहीं कहाँ से थकी-मांदी आयी और गश्त खाकर गिर गई। ससुरी मक्खी गिरी कहाँ तो बेचारे रकटूलालजी के दाल में। मगर लालाजी भी हार मानने वाले नहीं थे। तर्जनी और अंगुठे की चिमटी बनाकर चप से मक्खिया को पकड़े और पुचुकऽऽऽऽऽ....! दाल का क्या हाल... रकटूलाल तो मक्खी की डैश तक चूस लिये। हिन्दी शब्द-कोश में उसी दिन से ‘मक्खीचूस’ नामक विशेषण का आविर्भाव हुआ। बेचारी मक्खी खुद तो शहीद हो गयी मगर लालाजी को अमर कर गयी।

दिन-महीना-साल में समय बदलता गया। मगर अचरज ई कि रकटूलाल का नेचर कैसे बदल गया। दू मोदल हो गया था और तीसरा टीरीप चल रहा था। रकटूलाल सभै बाप-पूत भोज के लिये आने वाले को दुआ-सलाम कर जगह धरा रहे थे और भोज खाकर जाने वाले को पान-सुपारी। चौथे मोदल के बाद भोजकों का आवक थोड़ा कम हो गया था। भोजी-घरबैय्या और परोसैय्या भी कनिक-कनिक इतमिनान कर रहे थे। लखनौआ जाजिम बिछी चौकी पर बैठे रकटू लाल आगन्तुकों की बधाई और छोटका बेटा की कामयाबी पर फूले नहीं समा रहे थे। इतने फूल गए थे कि बंडी उतार कर फैलना पड़ा। वजह भी थी। उनका छोटका बिसुनदेव एतनी कम उमर में एतना बड़ा उड़ान जो भरा था।

अब मक्खीचूसने के दिन गये। रकटूलालजी के और बाल-बच्चे अपना-अपना धंधा बिजनिस में लग गये थे। बढिया खाता-पीता परिवार हो गया था। उपर से बिसुनदेव कठमंडू से डाकटरी पढ़कर आया था। लगे हाथ गंडकीपुर गुरमिंट असपताल में लग गया। पहिला तनखा मिलते ही मलेरिया-नेमारन का इनाम भी लेकर आया था। सिविल-सार्जन और जिला-मजिस्टिक के साथ इंगरीजी अखबार में छपा फ़ोटु भी लाया था। अगिले दिन रकटूलालजी पूरे रेवाखंड में बरहवरणा भोज का न्योता पठवा दिये थे।

चौकी पर बैठे रेवाखंड के गिने-चुने बुद्धिजीवियों के बीच कठमंडू से लेकर पटना तक के समाचार पर चर्चा चल रही थी। रकटूलाल जब किसी बात के बीच में सगर्व डाक्टर बिसुनदेव की तरफ़ देख लेते थे तो उ भी अपना विनम्र मन्तव्य रख देता था। फिर भाइ-दोस्तों के साथ बचे-खुचे भोज के इंतिजाम-बात में लग जाता था।

बुझावन पंडित कहचरी से कनिक देर से लौटते हैं। गए रात आए भोज में खराऊँ खटखटाते। रकटूलाल कर जोर कर प्रणाम कर पंडितजी को आसन बैठाए। उमर में तो ड्योढ़ा अंतर था मगर दोस्ती पुरानी थी सो पंडितजी भी दोस्त की खुशी में दोहरे हुए जाते थे। डाकटर बिसुनदेव ने पंडितजी के पैर छुए तो उसे अशीषते हुए पंडितजी का हाथ बरबस रकटूलाल के कंधे पर जाकर रुका और खिलखिलाकर बोले, “का रे रकटू... आज बता...! केतना खुसी है? उ

दिन गुरुजी के इनार पर टिटन्ना लोर बहा रहा था... बोल अब हम का कहे थे?”

रकटूलाल की आँखें फिर लोरा गयी थी मगर खुशी के आंसू से। भाव-विभोर होकर बोले, “हाँ पंडित भाई! ठीके कहे रहे, “जनमा पूत तो आया भूत, कमाया पूत तो भागा भूत! आखिर वैसहि दुनिया आपको पंडित थोड़के कहती है। आपकी बरहमलेख होती है...! दोनों दोस्त गले लग गये थे। दोनों की पीठ पर फिर एकाध बुंद आँसू लुढक गये।

हमरे जैसे नवतुरिया तो दोनों को निहारते भर रह गये, “ई कौन किस्सा हुआ पंडित बाबा?” हमें भौचक्क देख पंडितजी डागडर साहेब को अवाज लगाए। फिर बगल में बिठाकर लगे परवचन सुनाए, “ए डागडर बाबू! ई देखि लेयो अपने बापू को...! सबसे पहिले ईका इलाज करि देओ, फ़्री में। काहे तो फ़ीस लगे तो ई कंजूस बनिया फिर जाए गुरुजी के इनार पर माथा फोड़े।” हा.. हा... हा... हें... हें... हें... हें....! “हाँ नहीं तो क्या....!” हमें हंसते हुए देख पंडितजी और हुमच के पालथी लगाए कर बोलने लगे।

“हौ जी डागडर...! ई किस्सा है तोहरे जलम का। ठीक कातिक देव-उठाउन एकासी के आए रहे तुम बबुआ...! सच्छात बिसनु भगवान के अवतार...! एहि खातिर तोहरा नाम भी पड़आ बिसुनदेव। छ्ट्ठी दिन परिवार-समाज में भाड़ी उछाह... मगर ई रकटूआ...! गुरुजी के इनार पर माथा पकड़ के बैठा। एतवार के दिन हम वीरनगर से चले आ रहे हैं। रकटू को इनार पर बैठे देख कनिक अचरज तो हुआ... मगर हम भी सोचे कि चलो दोस्त है तो हम भी दम धर लेते हैं।”

“मगर हे... ई मरदे बनिया... काहे का दुआ-सलाम! ससुर दुन्नु हाथ में अपने मुंडी जकड़े बैठा रहा। आखिर हमहि अगुआ के पूछे कि अरे भाई घर में बिसनु भगवान अवतार लिये हैं... आज तो छट्ठी भी है... का पिलान है भैय्या....?”

पंडितजी रकटूलाल पर एक नजर फेंक कर मुस्कराये थे और फिर जारी रहे, “ई बुरबकहा... फूट-फूट कर रोये लगा। एं... पंडित भाई....! ई महंगी में हमरा जान खाने के लिये चार दुश्मन कम था कि एगो और ई मुदई पैदा ले लिया...! उ चारो के लिये भूट्टा-दलिया तक जुटता नहीं है अब ई के लिये दूध-सबूदाना हर्रे-मुसव्वर कहाँ से जुटाएंगे? आप पिलान कहते हैं... इहां तो ससुरी दुकान भी डूब रही है ई पलिवार के खर्चे में... जब से बियाह हुआ पता नहीं ससुर कौन सा भूत लग गया है गल्ले में... कुछ बचता ही नहीं है। उपर से आग लगाए ई डायन मंहगाई... ससुरी दाई भी डेढ़ सौ मांगती है! मन तो ऐसा करता है पंडित भाई कि एहि इनार के जगत पर सर पटक कर फोड़ लें...!” डाक्टर बिसुनदेव समेत सारी नजरें रकटूलाल की ओर उठी थी। बेचारे कुछ झेंप से गये थे। लेकिन बुझावन पंडित का गप्प जारी था।

“ई मरदे तो इतना बेकल था कि सच्चे में मुंडी पटक लेता इनार पर...! हमको भी दुख हुआ। मगर समझाए, “ए दोस्त ! घबराओ मत। उ कहते हैं न कि “जनमा पूत तो आया भूत, कमाया पूत तो भागा भूत।” भगवान तुमको पांच पूत दिये हैं। अरे घटी-बढ़ी तो चलते रहता है। सब दिन एक्कहि जैसा थोड़े रहेगा...! इनको पाल-पोस, पढ़ा-लिखा देयो, जौन आगे जाके एहि पांचो हाथ थाम लिया तो तोहरे सारा संकट खतम...!”

पंडितजी की सरोष वाणी कुछ थमकर आगे बढ़ी, “का हो रकटू बाबू ! ई बिसुनदेव तोहरे बेटवा है न....! छ्ट्ठी के भोज में तो माथा तोड़ रहे थे और आज बारहों वरण से जलेबी तुड़वा रहे हो...!”

रकटूलाल भी सगर्व बोले, “आपहि का बात रहा पंडीत भाई! अब तो पांचो बेटा अपना हाथ-पात संभाल लिया...! बिसुनदेव तो सात पुरखा का नाम रौशन कर दिहिस...! अब तो बैठे-बैठे भी पांचो दिस से टपकेगा, नहियों कुछ तो पांच-पांच नमरी...! सत्त वचन। ‘कमाने लगा पूत तो भागा भूत...!’ अब न महंगाई डायन का डर है न खर्चे के भूत का...!”

“समझे बिसुनदेव! तो ई किस्सा था, “जनमा पूत तो आया भूत और कमाने लगा पूत तो भागा भूत!” कहानी का पटाक्षेप बुझावन पंडित ही किये थे मगर उको फ़ाइनल टच दिहिन बिसुनदेवे डाक्टर, “हाँ पंडीत कका...! ई किस्सा तो हर जगह लागू होता है। दर-असल एहि तो फ़ार्मूला है जिम्मेदारी (liability) और संपत्ति (asset) का। जब आप पर जिम्मेदारी आती है तो बहुत तरह से परेशान होना पड़ता है...! लेकिन सफ़लतापूर्वक जिम्मेदारी पूरा कर लीजिये तो वही कल के लिये आपकी संपत्ति हो जाएगी। “टूडे’ज रिस्पांसिबिलिटिस आर टुमारो’ज असेट।” शुरु में आपकी संतान आपकी जिम्मेदारी होती है तो परेशानी और बाद में आपका असेट हो जाता है इसीलिये खुशी ही खुशी।

“हाँ... देखो तो क्या बात कहा है डागडर। चलो-चलो अब एहि बात पर आखिरी मोदल भोज जमाएं।” बुझावन पंडित खराऊँ संभाल के भोजकों के इंतिजार कर रही दरी पर बैठ गए थे।

10 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सार्थक प्रस्तुति, आभार.

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  2. बहुत बढ़िया करन बाबू। हम तो सोचे थे कि आज देसिल बयना का दर्शन ही नही होगा। लेकिन चलो शाम को दर्शन हो गया और वह भी इतना रसदार कि क्या कहना। साधुवाद।

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  3. इस बार के देसिल बयना में एलाका का टच त ह‍इए है, लेकिन कहानियो जोरदारे था। उप्पर से जे फाइनल टच दिए हैं फकरा की माने समझा कर ऊ हो ला जवाब रहा।
    आज का देसिल बयना भले देरी से आया, लेकिन फुल्ल पैसा वसूल था।

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  4. इस बार के देसिल बयना में एलाका का टच त ह‍इए है, लेकिन कहानियो जोरदारे था। उप्पर से जे फाइनल टच दिए हैं फकरा की माने समझा कर ऊ हो ला जवाब रहा।
    आज का देसिल बयना भले देरी से आया, लेकिन फुल्ल पैसा वसूल था।

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  5. करन भाई... हफ्ता डर हफ्ता बयना निखर रहा है... आज कथ्य और शिल्प दोनों के स्तर पर उत्कृष्ट रचना है...

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  6. कमाया पूत तो भागा भूत ...बढ़िया देसिक बयना .. पर आज कल एसेट कहाँ बनता है ...बस अपनी ज़िम्मेदारी निभ जाये वही काफी है ..

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  7. जबरदस्त.... करण बाबू त दिनानुदिन निखारि रहे हैं.....कयसन सानदार पोस्ट किये हैं ...

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  8. हमेशा की तरह सुन्दर,सरस और ताज़ा गन्ने की जूस की तरह मीठा !
    आभार !

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  9. “टूडे’ज रिस्पांसिबिलिटिस आर टुमारो’ज असेट।”...बहुत ही भीषण विचार हैं...और शैली तो लाज़वाब है ही...ई मिथिली समझय में हमहन के थोडा टैम लगेला...

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  10. मैंने आज अनेकता में एकता भी देखा... कुछ शब्द भोजपुरी से आकर बिना चिल्ल-पों किए अपना असर दिखा दिया, तो कुछ बुन्देलखंडी; शब्द (दिहिस)आकर ऐसे समाया मानो कानपुर दरभंगा और समस्तीपुर के बीचे में ही कहीं पड़ता हो. कथानक लाजवाब था और अंत साधारण. देस की बात मैंने भी अंगरेजी में कहने की कोशिश की ज़रा एक नजर इधर भी दौडाईएगा.

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