समीक्षा
आँच-95 - जिन्दगी कहाँ कहाँ....
हरीश प्रकाश गुप्त
डॉ. जेन्नी शबनम एक सजग एवं संवेदनशील रचनाकार हैं। उनकी कविताएँ उनके ब्लाग “लम्हों का सफर” पर नियमित रूप से प्रकाशित होती रहती हैं। उनकी कविताओं का केन्द्र विन्दु प्रायः स्त्री विमर्श होता है। बावजूद इसके उनकी कविताएँ कोरी बौद्धिक उपज न होकर यथार्थ को स्पर्श करती हैं और उनमें स्त्री संघर्ष, उसकी पीड़ा और उसके भीतर पसरी रिक्ति नितांत सहज तरीके से प्रकट होती है जो अवसर आने पर सुखानुभूति से भी मुख नहीं मोड़ती। इस प्रकार वह कविता को एकांगी होने से मुक्त रख पाती हैं। अभिव्यक्ति उनकी अनुभूति प्रतीत होती है और दायित्वबोध उनका सम्बल। इसीलिए वे सीधे पाठक की अनुभूति से हृदय तक पहुँच बनाती हैं। आज उनकी ऐसी ही एक कविता “जिन्दगी कहाँ कहाँ....” (http://lamhon-ka-safar. blogspot.com/2011/11/blog- post_06.html) यहाँ चर्चा की विषयवस्तु है। यह कविता उनके ब्लाग “लम्हों का सफर” पर पिछले सप्ताह ही प्रकाशित हुई थी।
हमारी सामाजिक संरचना कुछ इस प्रकृति की है कि स्त्री जीवन को एक ही समय में कई अलग-अलग चरित्रों को एक साथ जीना पड़ता है। उसे हर स्थित में सामंजस्य बिठाना पड़ता है और यह उसके ही नहीं औरों के भी सुख-दुख का आधार बनता है। कभी-कभी तो परिस्थितियाँ बिलकुल विपरीत होती हैं, तब भी उसे संयम रखते हुए तथा संतुलन बनाते हुए निर्वाह ही करना पड़ता है। तमाम दायित्वबोध सम्मुख होते हैं, तब अपनी चाहतें गौण हो जाती हैं। विस्थापन उसकी नियति है जिसमें उसे अपनी जड़ों को त्यागना पड़ता है, अपने अस्तित्व को मिटाना पड़ता है। हालाँकि इसकी कसक और पीड़ा मन के एक कोने में हाथी पाँव की तरह आसन जमाए रहती है। उसकी अपनी पहचान आश्रित हो जाती है। हालाकि यह बहुत कठिन स्थिति होती है, लेकिन, बावजूद इसके, प्रत्येक स्त्री को इसे जीना पड़ता है। वह इसे एक सम्बल के साथ जीती भी है और इसे अपने जीवन का अटूट अंग समझती हुई इसे ही जिन्दगी मानती है।
अपने प्रिय के सान्निध्य और प्रेम के विश्वास में उसकी वेदना तिरोहित हो जाती है। वियोग की अवस्था में भी वह बहुतों के संतोष के लिए तमाम कृत्रिमताओं के साथ जीते हुए भी वह बिलकुल निजी और एकांत के क्षणों में अपने स्वाभाविक चरित्र को बचाए रखती है और अपने प्रिय के स्मरण के साथ आत्मिक सुख और सुरक्षा अनुभव करती है। अनेक सुखद और पीड़ादायक स्मृतियाँ क्रमशः आती जाती हैं। मन विचारों में खोता है और अपने अस्तित्व व पहचान की तलाश में इन तमाम चरित्रों के बीच भटकता है। अन्तर्मन में पीड़ा गहराती है। उसे लगता है कि उसका अपना व्यक्तित्व दब गया है, उसकी पहचान समाप्त हो गई है। अन्दर छटपटाहट होती है। वह जीना चाहती है असलियत, अपना मूल स्वभाव। अब नहीं जीना चाहती अनेक चेहरे, अलग-अलग आवरणों के साथ। स्त्री का कोमल स्वभाव जहाँ एक गुण है वहीं व्यावहारिक जीवन में एक कमजोरी भी साबित होता है। उसे अपने स्त्री होने का बोध है इसीलिए अपने सम्मान और स्वाभिमान के लिए अपने प्रिय के सम्बल की आस रखती है। इसी भावभूमि पर रची गयी डॉ. जेन्नी शबनम की यह कविता स्त्री स्वाभिमान की मुखर अभिव्यक्ति है। देश की करोड़ों स्त्रियों की नियति कुछ ऐसे ही चरित्र की है और वे अपने सम्मान और पहचान से अबोध बने बस जीवन जीती मात्र हैं। डॉ. जेन्नी की नायिका इस सामाजिक रीति, नियति और ढर्रे से विद्रोह नहीं करती, बल्कि संस्कारों के दायरे में रहकर प्रतिकार करते हुए अपनी पहचान और सम्मान की रक्षा की दिशा में कदम बढ़ाने को तत्पर होती है।
अपने प्रिय के सान्निध्य और प्रेम के विश्वास में उसकी वेदना तिरोहित हो जाती है। वियोग की अवस्था में भी वह बहुतों के संतोष के लिए तमाम कृत्रिमताओं के साथ जीते हुए भी वह बिलकुल निजी और एकांत के क्षणों में अपने स्वाभाविक चरित्र को बचाए रखती है और अपने प्रिय के स्मरण के साथ आत्मिक सुख और सुरक्षा अनुभव करती है। अनेक सुखद और पीड़ादायक स्मृतियाँ क्रमशः आती जाती हैं। मन विचारों में खोता है और अपने अस्तित्व व पहचान की तलाश में इन तमाम चरित्रों के बीच भटकता है। अन्तर्मन में पीड़ा गहराती है। उसे लगता है कि उसका अपना व्यक्तित्व दब गया है, उसकी पहचान समाप्त हो गई है। अन्दर छटपटाहट होती है। वह जीना चाहती है असलियत, अपना मूल स्वभाव। अब नहीं जीना चाहती अनेक चेहरे, अलग-अलग आवरणों के साथ। स्त्री का कोमल स्वभाव जहाँ एक गुण है वहीं व्यावहारिक जीवन में एक कमजोरी भी साबित होता है। उसे अपने स्त्री होने का बोध है इसीलिए अपने सम्मान और स्वाभिमान के लिए अपने प्रिय के सम्बल की आस रखती है। इसी भावभूमि पर रची गयी डॉ. जेन्नी शबनम की यह कविता स्त्री स्वाभिमान की मुखर अभिव्यक्ति है। देश की करोड़ों स्त्रियों की नियति कुछ ऐसे ही चरित्र की है और वे अपने सम्मान और पहचान से अबोध बने बस जीवन जीती मात्र हैं। डॉ. जेन्नी की नायिका इस सामाजिक रीति, नियति और ढर्रे से विद्रोह नहीं करती, बल्कि संस्कारों के दायरे में रहकर प्रतिकार करते हुए अपनी पहचान और सम्मान की रक्षा की दिशा में कदम बढ़ाने को तत्पर होती है।
डॉ. जेन्नी शबनम इस कविता के माध्यम से परम्परागत नारी की उस पीड़ा को व्यक्त करती हैं जो उसके अपने वास्तविक व्यक्तित्व के दमित होने और उसके खोने की पीड़ा से उद्भूत है। वह पहचान और सम्मान की रक्षा को आतुर परम्परागत नारी की वेदना को प्रखरता से स्वर प्रदान करती हैं। इसके साथ ही वे स्त्री जीवन के विरोधाभास को भी व्यक्त करना चाहती हैं। यह अर्थपूर्ण कविता भाव सम्प्रेषण में सफल है।
लेकिन कविता के शिल्प में कवयित्री की शिथिलता स्पष्ट दृष्टिगत होती है। कविता में एकाधिक स्थानों पर अनावश्यक शब्द प्रयोग हुए हैं जो कविता पर बोझ स्वरूप हैं और काव्य की आभा को क्षीण करते हैं। जैसे –
लेकिन कविता के शिल्प में कवयित्री की शिथिलता स्पष्ट दृष्टिगत होती है। कविता में एकाधिक स्थानों पर अनावश्यक शब्द प्रयोग हुए हैं जो कविता पर बोझ स्वरूप हैं और काव्य की आभा को क्षीण करते हैं। जैसे –
तुम्हारी निशानदेही पर
साबित हुआ
कि ज़िन्दगी कहाँ कहाँ है
और कहाँ कहाँ से उजड़ गई है !
साबित हुआ
कि ज़िन्दगी कहाँ कहाँ है
और कहाँ कहाँ से उजड़ गई है !
में कि, और व है नाहक ही प्रयोग हुए हैं। कविता के अर्थग्रहण में इनकी कोई आवश्यकता नहीं है। पंक्ति के विभाजन से इनका अर्थ तो स्वयमेव अन्वित हो ही रहा है।
इसी तरह
या फिर देहात की औरतें
जैसे भोर में गीत गुनगुनाते हुए
रोपनी करती हैं या फिर
धान कूटते हुए
लोक गीत गाती हैं,
मुझमें वैसे हीं उतर गए तुम।
जैसे भोर में गीत गुनगुनाते हुए
रोपनी करती हैं या फिर
धान कूटते हुए
लोक गीत गाती हैं,
मुझमें वैसे हीं उतर गए तुम।
इन पंक्तियों में या फिर की पुनरुक्ति शोभा नहीं बनती और भोर में रोपनी यहाँ सदोष आ गया है क्योंकि खेत में रोपनी का कार्य निश्चय ही भोर में नहीं हुआ करता।
हर दिवस के अनुरूप !
और जब मैं रात्रि में अपने केंचुल में समाती हूँ।
और जब मैं रात्रि में अपने केंचुल में समाती हूँ।
में पहली पंक्ति विशेष अर्थ नहीं रखती और यदि प्रयोग भी हुआ है तो शब्द योजना तो अनुरूप होनी चाहिए। “हर” के साथ तत्सम “दिवस” अटपटा प्रयोग है। इसी प्रकार यहाँ “रात्रि” के स्थान पर “रात” ही अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है। “और” का प्रयोग अनावश्यक है। इसी प्रकार का अनावश्यक भार कविता से उतार देने पर यह कविता शिल्प की दृष्टि से कस जाती और आकर्षक भी बन जाती है।
कविता का विशेष आकर्षण इसमें प्रयुक्त नए बिम्ब हैं। जैसे –
कविता का विशेष आकर्षण इसमें प्रयुक्त नए बिम्ब हैं। जैसे –
एक लोकोक्ति की तरह / तुम बसे हो मुझमें
और
देहात की औरतें
जैसे भोर में गीत गुनगुनाते हुए
रोपनी करती हैं या फिर
धान कूटते हुए
लोक गीत गाती हैं,
मुझमें वैसे हीं उतर गए तुम।
जैसे भोर में गीत गुनगुनाते हुए
रोपनी करती हैं या फिर
धान कूटते हुए
लोक गीत गाती हैं,
मुझमें वैसे हीं उतर गए तुम।
ये बिम्ब न केवल देशज प्रतीति कराते हैं, बल्कि बड़े आत्मीय से भी लगते हैं। केंचुल भी अपने मूल स्वभाव को दर्शाने वाला बिलकुल सार्थक प्रयोग बन गया है।
संक्षेप में कहें तो डॉ. जेन्नी शबनम की यह कविता बहुत ही भाव प्रधान है, हृदयस्पर्शी है, लेकिन शिल्प की ईषत् शिथिलता के कारण अपेक्षित उत्कर्ष को प्राप्त नहीं हो सकी है।
संक्षेप में कहें तो डॉ. जेन्नी शबनम की यह कविता बहुत ही भाव प्रधान है, हृदयस्पर्शी है, लेकिन शिल्प की ईषत् शिथिलता के कारण अपेक्षित उत्कर्ष को प्राप्त नहीं हो सकी है।
हरीश जी ने इस बार कविता की व्याख्या विस्तार से की है और शिल्पगत समीक्षा को कॉम्पैक्ट बनाकर प्रस्तुत किया है... कविता के भाव नए नहीं हैं मगर अभिव्यक्ति नयी है..और जैसा हरीश जी ने कहा, बिम्ब नए हैं... कवयित्री की संवेदनशीलता पूरी कविता पर पसरी हुयी है, लेकिन शब्द-संयोजन और शब्दों का चयन थोड़ा खटकता है. एक वाक्य, जिसपर हरीश जी ने कुछ नहीं कहा (या शायद ध्यान न गया हो) शिल्प की दृष्टि से कटु प्रतीत हो रहा है:
जवाब देंहटाएंजब तुम्हारे संग
अपने सच्चे वाले रंग में थी
'सच्चे वाले रंग' कविता की दृष्टि से उचित नहीं प्रतीत हो रहा (कम से कम एक पाठक की ओर से... कुल मिलाकर समीक्षा संतुलित है और कविता संवेदनशील!!
पुनश्च: कविता का लिंक नहीं खुल रहा है, ब्लॉग के द्वारा कविता तक पहुँचना पड़ा!
सटीक समीक्षा!
जवाब देंहटाएंकमाल की समीक्षा है ....
जवाब देंहटाएंलिंक ठीक काम नहीं कर रहे हैं !
आपको और शबनम जी शुभकामनायें
आँच की जाँच में हुई काट-छांट ।
जवाब देंहटाएंविस्तार से पढ़ना पड़ेगा संदर्भित ब्लॉग को।
..अच्छी पोस्ट।
बढ़िया समीक्षा लिखी गई है.
जवाब देंहटाएंकसाव दार सटीक समालोचना .
जवाब देंहटाएंजेन्नी जी की कविताओं में नारी संवेदना की गहरी पैंठ होती है.
जवाब देंहटाएंएक सम्पूर्ण समीक्षा के लिए आभार.
@ सलिल जी,
जवाब देंहटाएंआपकी सजग एवं सूक्ष्म दृष्टि से अभिभूत हूँ और यह निसंदेह बहुत प्रभावित करती है। किसी भी रचना पर आपके विचार स्वयमेव किसी समीक्षा से कम नहीं होते। भले ही वह रचना ही समीक्षा क्यों न हो। यह प्रतिक्रिया आपकी इसी विशिष्टि को प्रमाणित भी करती है।
मैं आपसे पूर्णतया सहमत हूँ कि यहाँ "अपने सच्चे वाले रंग" अटपटा प्रयोग है। ऐसा नहीं है कि दर्शाई गई कमियों के अतिरिक्त कविता निर्दोष है। कविता में और भी स्थानों पर कुछ शिल्पगत त्रुटियाँ हैं जिनका उल्लेख नहीं किया गया है। इनका उल्लेख केवल कविता के पूर्वार्द्ध तक सीमित है। हाँ, आगे के लिए यह कहते हुए कि "इसी प्रकार का अनावश्यक भार कविता से उतार देने पर यह कविता शिल्प की दृष्टि से कस जाती और आकर्षक भी बन जाती है।" संकेत भर किया है ताकि समीक्षा दोषदर्शन से बोझिल न होने पाए और मेरा मन्तव्य भी रचनाकार तथा पाठकों तक सम्प्रेषित हो जाए।
सादर,
पहले कविता का लिंक नहीं दिया जा सका था। क्योंकि मुझे लिंक देने की कला का ज्ञान ही नहीं है और पोस्ट मैंने भेजी थी। आपको हुई असुविधा के लिए खेद है।
जवाब देंहटाएंअब, कविता का तथा डॉ. जेन्नी शबनम के ब्लाग का लिंक उसके शीर्ष पर दे दिया गया है।
आंच का एक और अंक. एक और उत्कृष्ट समीक्षा... कई बार कविता पढ़ते हुए ..कविता रचते हुए... कविता में निहित कमियों के प्रति ध्यान नहीं जाता ... लेकिन गुप्त जी जिस प्रकार भाव और शिल्प दोनों की खूबियों और कमियों की ओर ध्यान दिलाते हैं... समीक्षा के पाठ बन जाता है... जेन्नी जी को नियमित पढता हूं... उनकी कविता के विम्ब और शिल्प तथा शिल्प में दोष को देखकर काफी कुछ सिखने को मिला है.. और सचेत रहने की सीख भी मिली है... गुप्त जी की एक और उत्कृष्ट समीक्षा....
जवाब देंहटाएंहरीश जी,
जवाब देंहटाएंआभार आपका!! आपने जो सम्मान मुझे दिया उसपर खरा तथा अपनी टिप्पणियों में निष्पक्ष बने रहने की चेष्टा करूँगा!!
कवयित्री को पुनः शुभकामनाएं तथा आपकी समीक्षा को सलाम!!
डॉ. शबनम की कविताओं में काव्यात्मकता के साथ-साथ संप्रेषणीयता भी है। वे जीवन के जटिल से जटिल यथार्थ को बहुत सहजता के साथ प्रस्तुत कर देती हैं। उनकी भा्षा काव्यात्मक है लेकिन उसमें उलझाव नहीं है।
जवाब देंहटाएंआपकी समीक्षा ने कविता के विभिन्न पक्षों को उजागर कर दिया है। आपका वन ऑफ द बेस्ट ... हरीश जी! आभार इस प्रस्तुति के लिए।
शुक्रिया, सलिल भाई।
जवाब देंहटाएंअपना भरसक प्रयास मैं भी करता हूँ निष्पक्ष रहने का। कितना रह पाता हूँ, यह तो आप जैसे सुधी जन ही आकलन कर सकते हैं। यदि कहीं कोई कमी पाएँ तो साधिकार संकेत अवश्य करें, आपका कृतज्ञ होऊँगा।
@ मनोज जी, अरुण जी,
जवाब देंहटाएंआत्मीय प्रतिक्रिया के लिए आप दोनों का बहुत-बहुत आभारी हूँ।
अनुभवी लोग बहुत कुछ कह चुके हैं। इसलिए संक्षेप में यही कहूँगा समीक्षा में समीक्षक कविता को देखने और समझने की दिशा देने में सफल रहा है, जो मेरी समझ से इस स्तर पर पर्याप्त है। साधुवाद।
जवाब देंहटाएंसबसे पहले मनोज जी का बहुत बहुत शुक्रिया. आपके माध्यम से मेरी रचना यहाँ तक पहुंची और इतनी विस्तृत समीक्षा की गई.
जवाब देंहटाएंहरीश जी का बहुत बहुत धन्यवाद. आपने बहुत गहनता और विस्तार से कविता के हर पक्ष की समीक्षा की है तथा कविता के भाव और स्त्री जीवन पर भी सार्थक चिंतन किया है. आपकी समीक्षा से निःसंदेह बहुत कुछ सीखने और समझने को मिल रहा है. त्रुटियों और कमियों को इंगित करने के लिए ह्रदय से आभारी हूँ. आगे भी आपके द्वारा मेरी कविता पर सार्थक समीक्षा की उम्मीद रहेगी. शिल्प, शब्द चयन और शब्द संयोजन को सुधारने का प्रत्न करुँगी. ह्रदय से आभार.
समालोचना और सार्थक प्रतिक्रया के लिए सभी पाठकों का दिल से शुक्रिया. मेरे ब्लॉग तक आने के लिए आप सभी का धन्यवाद.
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंसाहित्य के क्षेत्र में आपका प्रयास अत्यंत सराहनीय है। आपको शुभकामनाएँ।
जवाब देंहटाएंएक सार्थक समीक्षा...समीक्षा अपने उद्देश्य में सफल रही है। "मनोज" यह ब्लॉग हिंदी साहित्य के नए लेखकों का मुख-पत्र सा लगता है।
जवाब देंहटाएंआपके इस सुन्दर प्रविष्टि की चर्चा आज दिनांक 11-11-2011 को शुक्रवारीय चर्चा मंच पर भी होगी। सूचनार्थ
जवाब देंहटाएंबढ़िया लगी समीक्षा
जवाब देंहटाएंGyan Darpan
Matrimonial Site
संपूर्ण,सटीक समीक्षा.
जवाब देंहटाएं@ डॉ जेन्नी शबनम,
जवाब देंहटाएंअपनी कविता के माध्यम से समीक्षा हेतु भावभूमि उपलब्ध कराने के लिए तथा उस पर सहृदयता के साथ की गई सकारात्मक प्रतिक्रिया के लिए आपका बहुत आभारी हूँ।
उत्साहवर्धक टिप्पणियों के माध्यम से प्रोत्साहित करने के लिए आप सभी पाठकों को हृदय से धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंahilo ko apni prasansa sunna kitna acah lagta hae vi hi dekha rahi hu is blog par
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