समीक्षा
आँच-96- टेढ़े-मेढ़े उल्टे-सीधे....रिश्ते......
हरीश प्रकाश गुप्त
मृदुला प्रधान जी की यह कविता “जब टेढ़े-मेढ़े उल्टे-सीधे.......” उनके ब्लाग “Mridula’s blog पर” दिनांक 08 नवम्बर 2011, को प्रकाशित हुई थी। यह कविता आम आदमी की जिन्दगी से सीधे जुड़ी हुई एक भावनात्मक कविता है जो सामाजिक सम्बन्धों की जटिलता पर सूक्ष्मता से दृष्टिपात करती है तथा आधारहीन विवेचनों, आग्रहों और प्रपंचों से उपजी पीड़ा को व्यक्त करती है। उनकी यह कविता “जब टेढ़े-मेढ़े उल्टे-सीधे.......” आज की आँच में चर्चा की विषयवस्तु है।
सम्बन्धों में माधुर्य वहाँ है जहाँ रिश्तों में निश्छलता, निष्कपटता और मर्यादा है। समय के साथ-साथ जैसे-जैसे हम आगे बढ़ रहे हैं, सम्बन्धों का क्षरण हो रहा है, रिश्तों में सरसता घट रही है। अधिकांश सामाजिक सम्बन्ध जितने सीधे, स्पष्ट और मधुर दिखते हैं, प्रायः उतने होते नहीं हैं। वस्तुतः इन रिश्तों मे कई चरित्र छद्म रूप में एक साथ जी रहे होते हैं। लेकिन जब हमें इनकी वास्तविकता का पता चलता है तो इनके ताने-बाने को समझना और इनकी दिशा को पहचानना बड़ा दुरूह हो जाता है। क्योंकि इनका कोई शिरा-किनारा नहीं होता और इनके उद्देश्य अपने आग्रहों के अवलम्ब पर स्थापित होते हैं तथा सह-अनुभूति एवं सह-अभिव्यक्ति के मिथ्या संतोष से पोषित और एक-दूसरे के समर्थन से अभिसिंचित होते हैं। स्वाभाविक है कि इनका कोई आधार नहीं होता। भौतिक रस-विलास अर्थात बतरस ही इनका प्रणेता है। इसे सामान्य बोलचाल में प्रपंच की संज्ञा से विभूषित किया जाता है। यह अनर्गल बतरस ही अधिकतर तमाम सम्बन्धों में दरार पड़ने और मर्यादा खोने का कारण बनता है और मजबूत तथा अच्छे-भले सम्बन्धों की आहुति चढ़ जाती है। जिन रिश्तों का निश्छल प्रेम और स्नेह से पोषण होता है, उन्हें बनाया तथा सँवारा गया होता है, उन पर आघात पहुँचता है। भावनाएँ आहत होती हैं, प्रगाढ़ता समाप्त होती है, विश्वास टूटता है और रिश्ते अपना अस्तित्व खोने लगते हैं। इसके बावजूद, उपजी रिक्ति को पूर्व में बिताए गए सुखद क्षणों की स्मृतियाँ समय का अन्तराल में कुछ सीमा तक भर देतीं हैं। यही इस कविता की भावभूमि है।
मृदुला जी की यह कविता वर्तमान समय में तेजी से ऐसे ही बनते बिगड़ते सम्बन्धों के कारण उपजी पीड़ा की अभिव्यक्ति है। यह पीड़ा किसी व्यक्ति विशेष की पीड़ा नहीं है, बल्कि इसका दर्द लगभग प्रत्येक व्यक्ति ने कभी न कभी, कहीं न कहीं सहा अवश्य है। यह कविता आमजन की पीड़ा की अभिव्यक्ति है। इसका प्रभाव क्षेत्र व्यापक है। इसीलिए यह पाठक के हृदय से सरलता से जुड़ती है और उसे संवेदित करती है।
यद्यपि कविता का विषय अधिक बड़ा नहीं है किन्तु इसकी तुलना में लम्बाई अधिक हो गई है तथापि इसके पूर्वार्ध और मध्यभाग की शब्द योजना क्रमबद्ध है और उसमें आकर्षण है। परंतु, -
“.......समय के धरातल पर,
उधड़ते हुए
रिश्तों का,
धूल-धुसडित रेशमी डोर,
अपने होने का
एहसास .......भर करा देता है,
या कहूं......... कि
'येन - तेन- प्रकारेण'
बहला देता है.......”
इन पंक्तियों में दो स्थानों पर टंकण अशुद्धियों के अतिरिक्ति भी रिक्ति प्रतीत होती है और यह कदाचित भ्रमित सी करती है। पंक्ति - “धूल-धुसडित रेशमी डोर,” पहले और बाद की पंक्तियों से अलग-थलग, जबरन प्रविष्ट-सी लगती है या फिर आगे की पंक्तियों का सम्भावित लिंग दोष और प्रवाह अर्थ-बोधन में ईषत् बाधा उत्पन्न करता है। आगे की पंक्तियों में क्रियाएँ पुल्लिंग में प्रयुक्त हुई हैं जबकि डोर स्त्रीलिंग है, यदि क्रियाएं उसी के अनुरूप होंती तो अर्थ की अन्विति उपयुक्त हो सकती थी। यह भी हो सकता है यह टंकणगत त्रुटि ही हो। कविता के पूर्वार्ध की पंक्तियों में “रिश्तों की कौमें” प्रयोग हुआ है। यहाँ “कौमें” बिम्ब का प्रभाव व्यापक है। यह अपने अर्थ से कविता के अर्थ का अतिक्रमण–सा कर रहा है और दिशा भी थोडा अन्यत्र है। कविता में कई स्थानों पर अल्पविराम, विराम तथा पंक्ति विच्छेदन उपयुक्त नहीं है जो कवयित्री की शिल्प के प्रति शिथिलता का परिचायक है। कविता के शीर्षक पर भी श्रम नहीं किया गया है। इसके लिए कविता के हिस्से की ही एक लम्बी सी अपूर्ण पंक्ति ले ली गई है जो अटपटी सी है और कविता के विस्तृत अर्थ का प्रतिबिम्बित नहीं कर पा रही है। बावजूद इनके, कविता की निम्न पंक्तियाँ काफी चमत्कारपूर्ण हैं और इनमें आकर्षण भी है -
“एक -दूसरे की गवाही
लेकर,
अपने-आपको स्थापित
करने लगतीं हैं .......”
“संबंधों के अलाव,
भौतिक रस-विलास के
सौजन्य से......
बढ़-चढ़ कर
फैलने लगते हैं,”
और
“खोने लगता है,
स्नेह-सिंचित जड़ों से,
निश्छल कोमलता का
चिर-संचित
अभिमान.....”
इनमें शब्दयोजना भी उपयुक्त है और रिश्तों की टूटन से उपजी पीड़ा को बड़े स्वाभाविक ढंग से अभिव्यक्त करतीं हैं। इस प्रकार, समग्र में यह कविता संवेददनशील भावों से समृद्ध होने के बावजूद विरल अभिव्यक्ति वाली कविता बन गई है।
सार्थक समीक्षा ...
जवाब देंहटाएंआपकी समीक्षा से बहुत कुछ सीखने को मिलता है.
जवाब देंहटाएंमृदुला जी का लेखन मुझे आकर्षित करता रहा है.आभार.
बहुत ही गहनता से आपने व्यक्त किया है मृदुला जी के लेखन को ...आभार
जवाब देंहटाएंस्पष्ट और बेबाक समीक्षा !
जवाब देंहटाएंआभार !
आंच और गुप्त जी के प्रतिष्ट के अनुरूप समीक्षा...मृदुला जी स्थापित कवियत्री हैं और उनकी कविता पर इस तरह की बेबाक चर्चा केवल आंच पर हो सकती है...
जवाब देंहटाएंgehen aur acchhi sameeksha.
जवाब देंहटाएंसमीक्षा में विवेच्य कविता के गुण-दोषों का अच्छा विवेचन किया गया है। कविता देखते समय हरीश जी की नजर सजग हो जाती है। समीक्षक और कवयित्री दोनों को बधाई।
जवाब देंहटाएंहरीश जी,
जवाब देंहटाएंमृदुला जी की कविताओं के विषय में (चूँकि इनको काफी समय से पढ़ता आ रहा हूँ) प्रस्तुत कविता के अतिरिक्त एक बात कहना चाहूँगा... मृदुला जी की कविता भावों के साथ-साथ लिखी गयी होती हैं.. इनमें बनावट नहीं होती और सोच-समझकर शब्दों को बिठाने की चेष्टा भी नहीं होती... अतः इनकी लगभग हर कविता में इस तरह के दोष (जिनकी चर्चा आपने अपनी समीक्षा में की है और जिन्हें आपने टंकण की अशुद्धि बताया है) प्रायः दिखाई देते हैं..
रिश्तों के सम्बन्ध में 'रेशम की डोर' जैसे बिम्ब का प्रयोग एक पतली किन्तु दृढ पकड़ (सम्बन्ध) के रूप में किया जाता रहा... इसलिए 'धूल-धूसरित' शब्द का प्रयोग कर उन्होंने इस डोर के कमज़ोर होने की बात कहनी चाही है, जो स्पष्ट नहीं हो पाई है...
और क्या कहूँ, आपकी समीक्षा के बाद कुछ कह पाने की गुंजाइश ही नहीं होती, इतना कह देना धृष्टता की ही श्रेणी में कहा जाएगा!!
यह कविता आमजन की पीड़ा की अभिव्यक्ति है। इसका प्रभाव क्षेत्र व्यापक है। इसीलिए यह पाठक के हृदय से सरलता से जुड़ती है और उसे संवेदित करती है।
जवाब देंहटाएंहरीश भाई, आपकी समीक्षा अच्छी लगी ।धन्यवाद ।
aapki sameekcha sar aankhon par......kafi kuch seekhne ko mila,aabhari hoon.......
जवाब देंहटाएंसमीक्षा में कविता के सभी पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है। समीक्षा अच्छी लगी।
जवाब देंहटाएंआंच अपने नाम के अनुरूप ही अपनी समीक्षा के माध्यम से सदा ही रचनाओं को निखारने में उर्जा प्रदान करता रहा है...!
जवाब देंहटाएंअच्छी लगी समीक्षा!
सलिल भाई, आपने ठीक कहा है। लेकिन डोर शब्द स्त्रीलिंग होने से उसके विशेषण एवं क्रियाएँ आदि भी स्त्रीवाची होने चाहिए ताकि पाठक को अर्थ समझने में कठिनाई न हो, अल्पविराम जहाँ नहीं लगने चाहिए, लगे हैं -
जवाब देंहटाएं“.......समय के धरातल पर,
उधड़ते हुए
रिश्तों का,
धूल-धुसडित रेशमी डोर,
अपने होने का
एहसास .......भर करा देता है,
या कहूं......... कि
'येन - तेन- प्रकारेण'
बहला देता है.......”
ऐसा न होने से अर्थान्वयन में कठिनाई होती है। स्वाभाविक होने के साथ-साथ आवश्यक भाषिक संकेतों का उचित प्रयोग जरूरी है।कविता भाव-प्रवण तो है, पर थोड़ी सी सावधानी बरतने से कविता में चार चाँ लग जाते।
@ श्री सलिल जी,
जवाब देंहटाएंकाव्य पर आपकी सूक्ष्म दृष्टि तथा गहन पहुँच प्रशंसनीय है और इसका प्रभाव मुझ पर दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है।
कोई दो मत नहीं कि मृदुला जी की कविताएँ जन सामान्य की भावनाओं को संवेदना के साथ व्यक्त करती हैं और यह अभिव्यक्ति नैसर्गिक होती है। इसे मैंने "संवेददनशील भावों से समृद्ध होने" और "बड़े स्वाभाविक ढंग से अभिव्यक्त करती है" कहकर संकेत भी किया है।
कविता के उत्तरार्ध के प्रसंग में, जिसे आपने "...... इस डोर के कमज़ोर होने की बात कहनी चाही है, जो स्पष्ट नहीं हो पाई है... " कहा है वही मैंने "....टंकण अशुद्धियों के अतिरिक्ति भी रिक्ति प्रतीत होती है और यह कदाचित भ्रमित सी करती है।" कहकर संकेत किया है। रेशम का एक गुण उसका चमकीला और आकर्षक होना भी है, मेरा मानना है कि "धूल धूसरित" कहकर वह शायद रिश्तों के मलिन होने और आभा-क्षीण होने का अर्थ देना चाहती हैं। टंकण त्रुटि की बात इसलिए कही है क्योंकि ये अनजाने हो जाती हैं और मुझसे भी होती रहती हैं तथा किसी से भी हो सकती हैं। विराम चिह्नों के महत्व के सन्दर्भ में आचार्य राय जी ने स्पष्ट कर दिया है, अतः यहाँ पुनः कहने की आवश्यकता नहीं है। इन्हीं कुछ कमियों के कारण कविता का उत्तरार्ध भ्रमित करता है और प्रभावशाली नहीं बन सका है।
अपने निष्पक्ष विचारों से अवगत कराकर हमारा उत्साह वर्धन करने के लिए सभी पाठकों का हृदय से आभारी हूँ।
जवाब देंहटाएंबढ़िया समीक्षा.रचनाकार और समीक्षक दोनों को बधाई.
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