कोहरे में डूबा होगा घर-गांव
यादों की गलियों
घूम रहा एकाकी
मन गीला गीला।
दूर,
तुमसे दूर
मीलों दूर
लोहे की नगरी यह पिंजरा।
सीख नहीं पाता
मन यंत्रों की भाषा
तेरी उन्मुक्त हंसी-झरनों का
राग नहीं बिसरा।
लघुता,
स्वीकारता नहीं
आदत में बसा हुआ
अगहन का विस्तृत
नभ गहरा नीला।
रातों की चुप्पी को
तोड़ रही सांसों की
घुरुर-घुरुर चक्की।
लगता है
भीतर ही भीतर तुम
गा गाकर पीस रही मक्की।
क्या अच्छा होता,
जो होता
दुनिया की जगह
सिर्फ़ इक कबीला।
बड़ी सुन्दर कविता।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर शब्दचित्र!
जवाब देंहटाएंनया छंद पढ़ा,अच्छा लगा !
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर नवगीत पढ़ने को मिला.आभार.
जवाब देंहटाएंरातों की चुप्पी को
जवाब देंहटाएंतोड़ रही सांसों की
घुरुर-घुरुर चक्की।
लगता है
भीतर ही भीतर तुम
गा गाकर पीस रही मक्की।...bahut hi sundar geet
सीख नहीं पाता
जवाब देंहटाएंमन यंत्रों की भाषा
तेरी उन्मुक्त हंसी-झरनों का
राग नहीं बिसरा।
बहुत ख़ूबसूरत, बधाई.
वसुधैव कुटुम्बकम् की बात अच्छी लगी। लेकिन दुनिया तो आज बाजार बनती जा रही है। कहाँ रहे गाँव?
जवाब देंहटाएंखूबसूरत गीत पढवाने के लिए आभार
जवाब देंहटाएंरातों की चुप्पी को
जवाब देंहटाएंतोड़ रही सांसों की
घुरुर-घुरुर चक्की।
लगता है
भीतर ही भीतर तुम
गा गाकर पीस रही मक्की।
नवगीत की मिठास शाश्वत प्रतीत होती है .
bahut sunder git .....
जवाब देंहटाएंरातों की चुप्पी को
जवाब देंहटाएंतोड़ रही सांसों की
घुरुर-घुरुर चक्की।
लगता है
भीतर ही भीतर तुम
गा गाकर पीस रही मक्की……………कितनी गहरी बात कह दी…………सुन्दर अभिव्यक्ति।
शाश्वत मिठास .....
जवाब देंहटाएंअदभुद प्रेम गीत... भावुक मन कहाँ सीख पता है यंत्रों की भाषा.... बहुत बढ़िया...
जवाब देंहटाएं……सुन्दर अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर लिखा है आपने
जवाब देंहटाएंमैं तो मक्की पर अटक गया! शीत आ गया है और इस मौसम में मक्की की रोटी नहीं बनी घर मे!
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंदैनिक जीवन की सामान्य चीजों को लेकर कविता में अनुस्यूत करना श्यामनारायण मिश्र जी की प्रकृति है। आभार।
जवाब देंहटाएंदैनंदिन जीवन के प्रतीक और इस प्रकार की छंद रचना... विलक्षण है यह प्रतिभा!!
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर....
जवाब देंहटाएंसुन्दर अभिव्यक्ति।
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