भारतीय काव्यशास्त्र – 91
आचार्य परशुराम राय
पिछले अंक में हतवृत्त, न्यूनपदत्व और अधिकपदत्व वाक्य दोषों पर चर्चा की गयी थी। इस अंक में कथितपद या पुनरुक्त, पतत्प्रकर्ष, समाप्तपुनरात्त और अर्धान्तरैकवाचकता दोषों पर चर्चा की जाएगी।
जहाँ एक ही शब्द एक ही अर्थ में एक से अधिक बार प्रयोग किया गया हो, वहाँ कथितपद दोष या पुनरुक्त दोष होता है। जैसे-
अधिकरतलतल्पं कल्पितस्वापलीलापरिमिलननिमीलत्पाण्डिमा गण्डपाली।
सुतनु कथय कस्य व्यञ्जयत्यञ्जसैव स्मरनरपतिलीला यौवनराज्याभिषेकम्।।
अर्थात् सोते समय बाहों को सिर के नीचे रखकर सोने से पाण्डुता (पीलापन) समाप्त होकर लाल रंग के गालोंवाली हे सुन्दरि, बताओ कि ये (लाल रंग के गाल) किस सौभाग्यशाली कामदेव के समान राजा की लीलाओं के युवराजपद पर होनेवाले अभिषेक की सूचना दे रहे हैं।
यहाँ लीला शब्द का दो बार अनावश्यक रूप से प्रयोग हुआ है। इसलिए यहाँ कथितपद या पुनरुक्त दोष है। इसी प्रकार हिन्दी के निम्नलिखित दोहे में स्याम शब्द तीन बार एक ही अर्थ में अनावश्यक रूप से प्रयोग किया गया है। अतएव इसमें भी कथितपद या पुनरुक्त दोष है-
स्याम गात पर पीत-पट, स्याम करन में वेनु।
स्याम बदन पै मोर को मुकुट, चरावत धेनु।।
जहाँ कविता में उत्कर्ष पूरी तरह समान रूप से न हो, अर्थात् जहाँ कविता में काव्यार्थ एवं वर्ण-योजना आदि का समान निर्वाह न हो, वहाँ पतत्प्रकर्ष दोष होता है। पतत्प्रकर्ष का अर्थ ही होता है प्रकर्ष का पतन। जैसे-
कः कः कुत्र न घुर्घुरायितघुरीघोरो घुरेत्सूकरः
कः कः कमलाकरं विकमलं कर्तुं करी नोद्यतः।
के के काति वनान्यरण्यमहिषा नोन्मूलयेयुर्यतः
सिंहीस्नेहविलासबद्धवसतिः पञ्चाननो वर्तते।।
अर्थात् सिंहनी के प्रेम-बन्धन में बँध जाने से निशंक या निडर होकर भयंकर सूअर कहाँ-कहाँ तरह-तरह से घुर-घुरा रहे है, हाथी कमल से भरे तालाबों को कमलहीन कर रहे हैं और कैसे-कैसे जंगली भैंसे जंगलों का विनाश कर रहे हैं।
इस श्लोक में प्रथम तीन चरणों में जिस प्रकार के विनाश की कठोरता देखने को मिलती है वैसा अन्तिम चरण में नही हो पाया है। अतएव यहाँ पतत्प्रकर्ष दोष है।
इसी प्रकार निम्नलिखित हिन्दी रोला में पहले श्रीमदभागवत महापुराण को विभाकर (सूर्य) कहा गया है और फिर बाद में दीप कहा गया है। अतएव इसमें भी पतत्प्रकर्ष दोष है-
तिमिर-ग्रसित सब लोक-ओक-दुख देखि दयाकर।
प्रगट कियो अद्भुत-प्रभाव भागवत-विभाकर।
जे संसार-अँधियार-अगर में भए मगन बर।
तिन हित अद्भुत दीप प्रगट कीनो जु कृपाकर।।
जब काव्य में वाक्य के समाप्त हो जाने के बाद भी उससे सम्बन्धित शब्द प्रयुक्त हों, तो समाप्तपुनरात्त दोष है। जैसे-
क्रेङ्कारः स्मरकार्मुकस्य सुरतक्रीडापिकीनां रवो
झङ्कारो रतिमञ्जरीमधुलिहां लीलाचकोरीध्वनिः।
तन्व्याः कञ्चुलिकापसारणभुजाक्षेपस्खलत्कङ्कण-
क्वाणः प्रेम तनोतु वो नववयोलास्याय वेणुस्वनः।।
अर्थात् कामदेव की धनुष की टंकार की ध्वनि के समान सुरतक्रीडा में रत कोयलों की कूक, प्रेम-मंजरी के भौरों की गुंजार क्रीडा करती चकोरी की आवाज अथवा तन्वांगी की कंचुकी खोलने के लिए हाथ चलने से कंगनों की ध्वनि, अथवा नवयुवकों को नचाने के लिए बाँसुरी की आवाज तुम लोगों के प्रेम को बढ़ाए।
यहाँ क्वाणः पद के विशेषण के रूप में प्रथम, द्वितीय और तृतीय चरण में पद प्रयोग किए गए हैं और प्रेम तनोतु वो (वः) पर आकर वाक्य पूरा हो जाता है। इसके बाद पुनः नववयोलास्याय वेणुस्वनः (नवयुवको को नचाने के लिए बाँसुरी की ध्वनि) पद का उसके विशेषण के रूप में किया गया प्रयोग बिना किसी अतिरिक्त सौन्दर्य बढ़ाए अनावश्यक हो गया है। इसलिए इस श्लोक में समाप्तपुनरात्त दोष है।
इसी प्रकार निम्नलिखित दोहे में यह समाप्तपुनरात्त वाक्यदोष देखा जा सकता है-
डाभ बचाए पग धरौ, ओढ़ौ पट अति छाम।
सियहिं सिखावैं बाम सब बिरमहु मग के ग्राम।।
इस दोहे में बाम सब पर वाक्य समाप्त हो रहा है। इसके बाद बिरमहु मग के ग्राम पद उसके बाद आए हैं जो इसी से सम्बन्धित हैं। अतएव यहाँ भी समाप्तपुनरात्त वाक्यदोष है।
जब काव्य में प्रथमार्द्ध का एक पद उत्तरार्द्ध में प्रयोग कर दिया जाय तो अर्धान्तरैकवाचकता वाक्य दोष होता है। इसके लिए आचार्य राजशेखर कृत बालरामायण नाटक का निम्नलिखित श्लोक उद्धृत है। राम को वन में छोड़कर लौटने के बाद सुमन्त्र जी की दशरथ के प्रति उक्ति है-
मसृणचरणपातं गम्यतां भूः सदर्भा
विरचय सिचयान्तं मूर्ध्नि घर्मः कठोरः।
तदिति जनकपुत्री लोचनैरश्रुपूर्णैः
पथि पथिकवधूभिर्वीक्षिता शिक्षिता च।।
अर्थात् वन जाते समय रास्ते में पथिकों की स्त्रियाँ आँखों आँसू भरकर जनकपुत्री सीता को देखा और उन्हें समझाया कि कुश से युक्त भूमि पर वे अपने कोमल चरण धीरे-धीरे रखकर चलें, धूप तेज है, इसलिए सिर पर साड़ी का पल्ला डाल लें।
यहाँ तीसरे चरण में प्रयुक्त तत् पद दूसरे चरण में आना चाहिए था। धूप तेज है, इसलिए (तत्) सिर पर पल्ला डाल लें। लेकिन इसके उत्तरार्द्ध में आने से इस श्लोक में अर्धान्तरैकवाचकता दोष है।
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अच्छा विष्लेषण उदहारण के साथ बढ़िया प्रस्तुति है. संग्रहणीय.
जवाब देंहटाएंआभार.
प्रशंशनीय आलेख... शुभकामनाएं...
जवाब देंहटाएंउत्कृष्ट प्रस्तुति व जानकारी हेतु आभार !
जवाब देंहटाएंभारतीय काव्यशास्त्र को समझाने का चुनौतीपूर्ण कार्य कर आप एक महान कार्य कर रहे हैं। इससे रचनाकार और पाठक को बेहतर समझ में सहायता मिल सकेगी। सदा की तरह आज का भी अंक बहुत अच्छा लगा।
जवाब देंहटाएंसूक्ष्म ज्ञान प्राप्त हुआ. इन दोषों से बिल्कुल ही अपरिचित थे.
जवाब देंहटाएंआचार्य जी,
जवाब देंहटाएंसर्वप्रथम एक हल्की फुल्की बात.. काव्य शास्त्र के अनुसार दोष बताने के कारण आपने अपनी तस्वीर भी ज़रा सीरियस सी लगा ली है.. अच्छा लगा देखकर!!
आपकी यह श्रृंखला काफी जानकारी पूर्ण है.. शायद इन्हें गुनकर ही कई बार कुछ कविताओं में दोष भी दिखाई दे जाते हैं और उन्हें इंगित कर देता हूँ.. सीख रहा हूँ, आपसे!!
हिंदी काव्य ज्ञान की जानकारी इतने विस्तृत रूप में शायद ही कहीं उपलब्ध हो...धन्यवाद...
जवाब देंहटाएंmai kuchh kahne ke layak nahi hu, siway ek shukriya ke...
जवाब देंहटाएंkoshish krungi ki har baat, ko yaad rakhu... bahut hi zaroori jankariyan hain...
सलिल भाई, आपकी उदारतापूर्ण बातों के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। मैं नहीं समझता कि ब्लॉग जगत के लोगों को इसकी जरूरत है। यह तो मनोज कुमार जी की इच्छा थी, सो लिखा जा रहा है। यह सबकुछ उन्हीं की देन है। अन्यथा मैं तो कभी सोचा भी नहीं था कि भारतीय काव्यशास्त्र पर मैं काम करूँगा। लगभग तीस वर्षों बाद इस शास्त्र पर कलम उठाना राई से पहाड़ बनाने जैसा काम था। लेकिन मैं इसके लिए मनोज कुमार जी का हृदय से कृतज्ञ हूँ कि उन्होंने मेरे ऊपर विश्वास कर इतना गुरुतर कार्य सौंपा, जो अबतक चल रहा है, आगे भगवद् इच्छा।
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