फ़ुरसत में …
समृद्ध कानपुरः भीतरगाँव का मन्दिर
हरीश प्रकाश गुप्त
आज कानपुर उत्तर भारत का प्रमुख औद्योगिक केन्द्र है। स्वतंत्रता आन्दोलन की चिन्गारी भी यहीँ से फूटी थी। लेकिन यह ऐतिहासिक विरासत लगभग डेढ़ शताब्दी से अधिक पुरानी नहीं है। कम ही लोग जानते होंगे कानपुर का इतिहास डेढ़ सहस्त्राब्दि से भी अधिक पुराना है। वैसे तो मैं भी कानपुर जिले की परिधि में ही जनमा हूँ, तथापि शहर में रहते हुए भी कोई तीस बरस तो हो ही चुके हैं, लेकिन मुझे भी कानपुर के बारे में काफी कुछ तो घूम-फिर कर इसके भूगोल से और लोगों से सुनकर ही यहाँ के इतिहास का ज्ञान हुआ था। जब कानपुर के इतिहास और भूगोल को पढ़ा तो ज्ञान का विस्तार और हुआ तथा यह भी लगा कि मेरी जानकारी कितनी कम थी। पुरातत्व विभाग के खनन से जो प्रमाण सामने आए हैं वे कानपुर नगर की समृद्ध ऐतिहासिक विरासत की पुष्टि करते हैं। अब यह विरासत सांस्कृतिक धरोहर के रूप में संरक्षित की जा रही है। प्रमाण बताते हैं कि कानपुर एवं आसपास के क्षेत्र गुप्त काल (पाँचवीं और छठवीं शताब्दी) में आबाद रहे होंगे। तब, यह तकलीफ हुई कि अपने नगर के बारे में मुझे कितनी कम जानकारी है। जो महत्वपूर्ण स्थल कभी नहीं देखे थे, उनके दर्शन की लालसा ने भी घर कर लिया। इसलिए एक-एक कर अनजान-से स्थलों से परिचय करने का मन बना।
हमारे विभाग में एक वार्षिक पत्रिका प्रकाशित होती है। प्रयास रहता है कि इसके मुखपृष्ठ से नगर की इस विरासत की झलक अवश्य मिले। तब मेरा इन स्थलों से साक्षात परिचय सार्थक होता है और मैं उसका प्रयोग वहाँ कर पाता हूँ। मेरे एक मित्र राजेन्द्र आजाद तन-मन से इस उद्देश्य में मेरे साथ होते हैं। वे एक फोटोग्राफर हैं। उनकी इस प्रतिभा से एक सुविधा भी मिलती है और उनके साथ से अकेलापन भी नहीं रहता। इस बार लक्ष्य था कि भीतरगाँव, जिसे यहाँ के लोग बहुत ही सामान्य रूप से एक छोटा-सा कस्बा समझते हैं, वहाँ के गुप्त कालीन मन्दिर को पत्रिका का मुखपृष्ठ बनाया जाए।
यह कस्बा मुख्य सड़क पर नहीं है। शहर की सड़कों की हालत भी हमें पता ही है। गाँव की सड़कें और वह भी उत्तर प्रदेश की, रास्ता सही-सही पता न हो तो जोखिम रहता ही है। इसलिए बुलेट ही भरोसेमन्द सवारी समझ में आई। फिर, निकल पड़े हम दोनों अपने रास्ते पर। कानपुर से दक्षिण की ओर जाने वाली सड़क – हमीरपुर रोड पर घाटमपुर से पहले लगभग 8 किलोमीटर आगे बाईं तरफ रमईपुर से साढ़ होते हुए नरवल जाने वाली सड़क पर हम आगे बढ़े। जैसे ही इस मोड़ से 3-4 किलोमीटर आगे आए होंगे, गर्म मौसम में भी वातावरण बहुत सुहावना लगने लगा। हवा में शीतलता बढ़ गई। दूर-दूर तक वृक्ष ही वृक्ष दिख रहे थे। महसूस हुआ कि अवश्य ही यह क्षेत्र पहले कभी घने वन से आच्छादित रहा होगा। अनुभूति अत्यंत आत्मिक और सुखद। यहाँ जो कस्बा पड़ता है उसका नाम मँझावन है। यह क्षेत्र कभी घने वन से आच्छादित रहा होगा जिसके कारण शायद इसका नाम पहले मध्यवन रहा होगा। कालांतर में नाम बिगड़ते और परिवर्तित होते हुए यह मध्यवन ही मँझावन में रूपान्तरित हो गया होगा। वातावरण में यह प्रभाव आज भी स्पष्ट अनुभव होता है। यहां से आगे हमें लगभग 18 किलोमीटर दूर स्थित अपेक्षाकृत बड़े कस्बे साढ़ से दाईं तरफ मुड़ना था।
इसी सड़क पर चलते समय अम्बेदकर गाँव लक्ष्मणपुर से थोड़ी ही दूर चलने पर बाईं तरफ पगडण्डी सी थी। मोड़ पर सड़क के किनारे पुरातत्व विभाग का एक बोर्ड दिखा जिस पर लिखा था – “ईंटों के दो प्राचीन मन्दिर, कुर्था (1½ किलोमीटर)”। कुर्था के बारे में तो मुझे अभी तक नहीं पता था। हालाकि रास्ता खराब दिख रहा था, फिर भी सोचा कि डेढ़ किलोमीटर ही तो है, चलो इसे भी देखते हैं। फिर अपनी भरोसेमन्द बाईक उधर मोड़ दी। लगभग एक किलोमीटर दूर कुर्था गाँव पार करते ही बाइक ठिठक गई और उसने आगे बढ़ने से इनकार कर दिया। सामने की एकमात्र कच्ची सड़क कीचड़ से भरी थी। राजेन्द्र कुछ उलझन में दिखे। हमने बाईक और उलझन वहीं छोड़ दी और आगे का रास्ता खेतों से होते हुए पैदल तय किया। सुदूर ग्रामीण इलाके में आए हम दोनो के पीछे बीसियो ग्रामीण बच्चे कौतूहलवश आ गए थे और अपने-अपने ढंग से स्मारक तथा मन्दिर आदि के बारे में उत्साह के साथ बता रहे थे। स्मारक स्थल चहारदिवारी से घिरा था। गेट पर ताला पड़ा था। हमें निराशा हुई। अन्दर बड़ी-बड़ी घास संकेत कर रही थी कि यहाँ उचित देखभाल के लिए कोई व्यक्ति नियमित रूप से नियुक्त नहीं है। पता चला कि एक चौकीदार रहता है जो किसी काम से बाजार आदि गया होगा। हम वापस गाँव आ गए। किनारे वाले कच्चे घर के स्वामी बाबूराम ने हमारी परेशानी को समझ पूरी सेना को चौकीदार का या फिर चाभी का पता लगाने के काम में लगा दिया। दस मिनट के भीतर स्मारक की चाभी हमारे सामने थी। चाभी मिलना हमें बड़ा सुखद लगा और चाभी से भी अधिक जिसने हमें संतोष दिया वह था अतिथि की हर सम्भव मदद करने का भाव, जो इस देश की मिट्टी के कण-कण में रचा बसा है। हाँ, जहाँ मिट्टी ही कंकरीट में तबदील हो गई हो वहाँ इसका अनुभव करना थोड़ा मुश्किल जरूर है।
भीतरगाँव से लगभग पाँच किलोमीटर दूर स्थित इस गाँव में कभी पक्की ईंट से बने दो मन्दिर रहे होंगे। हालॉकि अब ये भग्नावशेष के रूप में हैं लेकिन जो भी बचे अवशेष हैं उनसे शैली वही दिखती है जो भीतरगाँव के मन्दिर की है और यह दोनों का आपस में सम्बन्ध होना प्रमाणित करती है। कुर्था के मन्दिरों में यह स्पष्ट नहीं है कि यहाँ किस देवता की आराधना की जाती थी, लेकिन ग्रामीण लोग पुरातन काल से यहाँ अमूर्त “आलदेव बाबा” के नाम से आराधना करते आए हैं। यहाँ मान्यता है कि ये आराध्य देव कुर्था ही नहीं, आसपास के क्षेत्रों की भी रक्षा करते हैं। ये मन्दिर पक्की ईंटों से बने हैं तथा अपेक्षकृत छोटे हैं। खनन में जो मूर्तियाँ, हथियार और सिक्के आदि सकल रूप में पाए गए थे उन्हें पुरातत्व विभाग के अधिकारीगण संग्रहालय के लिए ले गए, लेकिन कुछ भग्न मूर्तियाँ और टूटे-फूटे हथियार यहाँ अभी भी बचे हुए हैं। ये हमें देखने को मिले।
यहाँ से लगभग 5 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है – भीतरगाँव। यह गाँव अपेक्षाकृत थोड़ा बड़ा है। यह रिन्द नदी के लगभग किनारे पर स्थित है और यहीं पर है इस क्षेत्र का सबसे प्राचीन मन्दिर। पुरातत्व विभाग का मानना है कि इस मन्दिर का निर्माण 5वीं-6ठवीं शताब्दी में गुप्त काल में हुआ होगा। इसके आसपास के अन्य क्षेत्रों में भी इसी काल के कुछ अवशेष और पाए गए हैं। जिनकी वास्तु, शिल्प और शैली लगभग एक समान है। विभाग द्वारा इन्हें भी संरक्षित किया जा रहा है।
भीतरगाँव का मन्दिर विशाल है। वैसे, वर्तमान में इस मन्दिर में भी कोई प्रतिमा नहीं है लेकिन सुदूर ग्राम में अवस्थित इसका विशाल आकार इसकी महत्ता को स्वतः स्पष्ट करता है। सबसे अधिक विशिष्टता इसकी निर्माण शैली है। इसमें 18x9x3 इंच के आकार वाली पक्की ईंटों का प्रयोग हुआ है। मन्दिर के मुख्य मण्डप की लम्बाई 47 फुट तथा चौड़ाई 36 फुट है। गर्भगृह में पहुँचने के लिए एक 8 फुट लम्बे छतदार रास्ते से होकर गुजरना होता है, जो पहले 8x8 फुट की कोठरी में ले जाता है। गर्भगृह में जाने के लिए यहाँ भी कुर्था के मन्दिर की ही तरह छह सीढ़ियाँ हैं। गर्भगृह लगभग 15x15 फुट आकार का वर्गाकार है तथा दीवारें 8 फुट चौड़ी हैं। यहाँ खनन में निकली बड़ी-बड़ी, सुन्दर नक्कासी वाली कुछ गोल तथा शंक्वाकार ईंटे भी रखी हैं। मन्दिर के गर्भ गृह की छत विशिष्ट प्रकार की है और ऊपर की ओर क्रमशः नुकीली होती गई है। भारत में नुकीली मेहराब वाले मन्दिरों के निर्माण का दृष्टांत इससे पूर्व अन्यत्र कहीं नहीं मिलता है। यद्यपि सन 1850 में बिजली गिरने से मन्दिर का ऊपरी परकोटा गिर गया था लेकिन बाहरी दीवारों पर सुन्दर नक्कासी के प्रमाण आज भी मौजूद हैं और उनपर पौराणिक कथाओं के दृश्य भी अंकित हैं। यह मन्दिर अब भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अधीन है और सरकार द्वारा इसे संरक्षित स्मारक घोषित किया गया है।
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हमारे ही इलाके के आस-पास का वृत्तान्त !बड़ा अच्छा और रोचक वर्णन ,आभार !
जवाब देंहटाएंजगह जगह पर बिखरा समृद्ध इतिहास।
जवाब देंहटाएंअलग ही तरीके की शैली के मंदिर, बढ़िया लगा ।
जवाब देंहटाएंहमारी ऐतिहासिक धरोहर यह मन्दिर भारत के प्राचीनतम मन्दिरों में से एक है। यह कानपुर का गौरव है। हालाकि इससे कम लोग ही परिचित हैं। मुझे इसके समीप रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है, इसकी अनुभूति मुझे प्रफुल्लित करती है। इस विरासत से लोगों को जोड़ने के लिए हार्दिक धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंVivek Rastogi ने पोस्ट " फ़ुरसत में … समृद्ध कानपुरः भीतरगाँव का मन्दिर " पर एक टिप्पणी छोड़ी है:
जवाब देंहटाएंअलग ही तरीके की शैली के मंदिर, बढ़िया लगा ।
ऐसे अनजाने पुरास्मारकों का अम्बार है हमारे देश में , जो हमारी पुरातन समृद्ध संस्कृति की झलक दिखाता है .
जवाब देंहटाएंपर्यटन के लिहाज़ से कानपुर का कभी उल्लेख पढ़ा नहीं . यहाँ इन स्थानों के बारे में जानना अच्छा लगा !
मैं तो कानपुर बहुत वर्षों तक रहा मगर इस मंदिर को नहीं देखा.अच्छी जानकारी दी आपने.आभार.
जवाब देंहटाएंकानपुर की इस ऐतिहासिक धरोहर के बारे में नयी जानकारी मिली ..
जवाब देंहटाएंकानपुर की ऐतिहासिक धरोहर के बारे में जानकर अच्छा लगा। इस विस्तृत प्रस्तुति के लिए धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंकानपुर में ऐसे ही ऐतिहासिक महत्व की कुछ और इमारतें तथा अवशेष आज भी मौजूद हैं।
जहाँ मिट्टी ही कंकरीट में तबदील हो गई हो वहाँ इसका अनुभव करना थोड़ा मुश्किल जरूर है।
जवाब देंहटाएंदिलचस्प ढंग से आपने अनजाने से प्राचीन धरोहरों की सैर करवा दी...ऐसे न जाने कितने और धरोहर धूल खा रहे होंगे उन्हें जरूरत है तो आपसे पारखी लोगों की.
नीरज
बहुत उपयोगी जानकारी दी है आपने ।
जवाब देंहटाएंआभार !
कानपुर तो वाकई कई बार जाना हुआ.. लेकिन जहां आपने पहुंचाया वहां नहीं गया था
जवाब देंहटाएंलगता है आज कानपुर को देखा है..
बहुत बढिया
कानपुर के साथ सम्बन्ध तो बहुत पुराना है लेकिन जानने का अवसर नहीं प्राप्त हुआ... भारत वर्ष का मानचेस्टर कहे जाने वाले इस शहर से जुड़े एक ऐतिहासिक स्थल का वर्णन, चित्र एवं इतिहास मुग्ध करने वाले हैं!!
जवाब देंहटाएंहरीश जी धन्यवाद!!
हरीश जी की बहुमुखी रुचि उन्हें तरह-तरह के कार्यों के लिए उकसाती रहती है और उनमें एक खोजी प्रवृत्ति को जन्म दी है। इसी का परिणाम है कि उनके लेखन में विविधता देखने को मिलती है।
जवाब देंहटाएंकानपुर की ऐतिहासिक विरासत को उन्होंने इस लेख में बड़े ही सशक्त रूप से प्रस्तुत किया है। वैसे भी कानपुर के आसपास का क्षेत्र भारत प्रचीन इतिहास का अंग रहा है। साहित्यिक और आध्यात्मिक जगत की महान विभूति आचार्य अभिनवगुप्त पादाचार्य के पूर्वज इसी क्षेत्र से कश्मीर गए थे।
सुन्दर और सार्थक प्रस्तुति.
जवाब देंहटाएंएतिहासिक जानकारी और रोचक प्रस्तुति के लिए आभार.....
जवाब देंहटाएंभारतीय स्थापत्य की एक अनुपम कृति से परिचय कराने के लिए आपका आभार।
जवाब देंहटाएंछत्तीसगढ़ के सिरपुर गांव में ईंटों से निर्मित लक्ष्मण मंदिर भी ऐसा ही दिखता है।
भारत के गाँव गाँव में इतिहास विस्मृत है... बढ़िया आलेख... गुप्त जी आप वास्तव में बहुमुखी प्रतिभा के धनी है...
जवाब देंहटाएंमहेंद्र वर्मा जी ने मेरे मन की बात लिख दी .सचमुच छत्तीसगढ़ के सिरपुर के लक्ष्मण मंदिर की याद आ गई.आपने अपनी लेखनी से इस ऐतिहासिक धरोहर को हर पाठक तक पहुँचा दिया.
जवाब देंहटाएंकानपुर जाना तो कई बार हुआ है, और घूमा भी इस शहर के कई स्थलों को है, पर इस जगह नहीं गए कभी और न किसी ने इसके अहले बताया था।
जवाब देंहटाएंअगली बार जाऊंगा तो आपके बुल्लेट पर आपके साथ इस स्थल की यात्रा ज़रूर करूंगा।
बुलेट अपनी नहीं थी, मनोज जी, अपने मित्र की थी। गाँव का कच्चा-पक्का रास्ता पता नहीं था कैसा होगा इसलिए रास्ते की रिस्क से निपटने के लिए उसी पर विश्वास जमा था। आप कानपुर आइए तो सही, बुलेट भी मिलेगी और मन्दिर के दर्शन भी होंगे।
जवाब देंहटाएंवाणी गीत ने पोस्ट " फ़ुरसत में … समृद्ध कानपुरः भीतरगाँव का मन्दिर " पर एक टिप्पणी छोड़ी है:
जवाब देंहटाएंऐसे अनजाने पुरास्मारकों का अम्बार है हमारे देश में , जो हमारी पुरातन समृद्ध संस्कृति की झलक दिखाता है .
पर्यटन के लिहाज़ से कानपुर का कभी उल्लेख पढ़ा नहीं . यहाँ इन स्थानों के बारे में जानना अच्छा लगा !
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंहम तो शुक्रिया करने आए थे हरीश जी, आपने तो टिप्पणी ही निकाल दी।
जवाब देंहटाएंकम प्रचार पाए कानपुर के एक ऐतिहासिक स्थल को नेट पटल पर प्रस्तुत करके आपने संस्कृति के प्रचार प्रसार में उल्लेखनीय योगदान किया है। आपको बहुत बहुत धन्यवाद।
जवाब देंहटाएं@ मनोज जी,
जवाब देंहटाएंदरअसल एक ही टिप्पणी दो बार क्लिक हो गई थी। इस लिए एक हटा दी थी।
कानपुर के इस अपरिचित किन्तु ऐतिहासक महत्व के मन्दिर के बारे जानकारी पाकर अच्छा लगा। उससे भी अच्छी बात यह रही कि यह पोस्ट 19 नवम्बर को ब्लाग पर पोस्ट हुई और कानपुर की सांस्कृतिक विरासत को सहेजने का कार्यक्रम "कानपुर महोत्सव" यहाँ इसी दिन से प्रारम्भ भी हुआ है।
जवाब देंहटाएंकानपुर के दर्शनीय स्थल बारे में पढ़ कर अच्छा लगा...ये सही है की हम विरासतों को ना तो सहेज पाते हैं...ना ही उन्हें दर्शनीय बना पाते हैं...कानपुर में रहते ११ वर्ष हो गये पर इस स्थान का जिक्र...इस ब्लॉग पर ही मिला...
जवाब देंहटाएंजो बच गया है, उसे ही संभाल लें तो भी बहुत होगा
जवाब देंहटाएंबहुत ही महत्वपूर्ण आलेख
मनोज भाई आप नगीने ढूँढने में माहिर हो
बहुत ही अच्छा www.shivshaktisewa.blogspot.com
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