शनिवार, 26 नवंबर 2011

फ़ुरसत में ... आराम कुर्सी चिंतन!

फ़ुरसत में ...

 

आराम कुर्सी चिंतन!

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IMG_0568मनोज कुमार

पिछले एक महीने के भीतर ब्लॉगजगत में चार-पांच पोस्ट ऐसी आईं जिनका संबंध प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से बाल-श्रम से था। सभी पोस्टों में इस सामाजिक अभिशाप के प्रति चिंता जताई गई थी और व्यवस्था के ख़िलाफ़ आक्रोश भी प्रखर था। इन पोस्टों को पढ़ते वक़्त मेरे भी मन में उथल-पुथल हुई। मन किया इस विषय पर मैं भी कुछ लिखूं, पर उस समय अपने लिखने की इच्छा को दबा गया। इसे दबाने में श्रम तो मुझे भी लगा, पर वह कहीं से भी बाल श्रम नहीं था, बल्कि बल (पूर्वक) श्रम था।

आज एक ऐसी बात हुई जिसने मुझे काग़ज़-पेंसिल उठाने पर मज़बूर कर दिया। मेरे दफ़्तर का एक कर्मचारी जिसे सरकारी भाषा में ‘चपरासी’ कहा जाता था, अब छठे वेतन आयोग के लागू हो जाने से उनकी प्रतिष्ठा (पद नाम बदल कर) बढ़ गई है। अब - MTS – मल्टी टास्किंग स्टाफ़ कहलाते हैं वे। नाम, उसका ... छोड़िए, वह काफ़ी दिनों से पीछे पड़ा था कि उसके लड़के को किसी ग्रुप ‘डी’ के पद पर बहाल करवा दूँ। पढ़ा-लिखा तो कुछ विशेष था नहीं। लेकिन पिछले कई वर्षों से सरकार ने रिक्रूटमेंट पर ‘बैन’ किया हुआ था और जब छठे वेतन आयोग की सिफ़ारिशें लागू की गईं तो इन्हें ‘ग्रुप सी’ में डाल दिया गया, जहां न्यूनतम योग्यता मैट्रिक कर दी गई थी। मतलब उस बेचारे चपरासी के बेटे को सरकारी नौकरी मिलने की रही-सही उम्मीद भी मिट्टी में मिल गई थी। आज बातों-बातों में उससे जब पूछा, “बेटा क्या कर रहा है?” तो उसने जवाब दिया, “करेगा क्या? अब यहाँ तो नौकरी मिलने से रही, मेट्रो निर्माण कार्य चल रहा है, उसी में ईंट ढोने का काम करता है।” मैंने पूछा, “ .. और छोटा बेटा?” उसने जवाब दिया, “उसे भी वहीं बड़े भाई के साथ लगा दिया है।”

मेरे मन में आया – देश की संख्या में – एक और बाल श्रमिक की वृद्धि!

इसी बातचीत ने मुझे फिर से उन पोस्टों की याद दिला दी। मन किया इस विषय पर मैं भी अपनी बात रखूँ। शाम को जब घर आया, तो बैग आदि रखकर बिना कपड़े बदले चल पड़ा एक बार फिर से उन्हीं फूटपाथों पर जहाँ सुबह की सैर को निकलता हूँ। सुबह में तो वहाँ शांति रहती है, किन्तु इस समय मुझे हर झोपड़पट्टीनुमा फुटपाथी दुकानों में एक या उससे अधिक बाल श्रमिक प्लेटें धोने से लेकर प्याज-पकौड़ी तलने तक के काम में लगे दिखे। वापस घर आया। उन पोस्टों को एक बार फिर से पढ़ा। उस दर्द को महसूस किया, जिन्हें इन पोस्टों में दर्शाया गया था। एक टिप्पणी ने विशेष आकर्षित किया – जिसमें लिखा गया था कि इस तरह के लेखन को आराम कुर्सी लेखन का दर्ज़ा दिया जाना चाहिए। मैंने भी मन ही मन सोचा आज आराम कुर्सी लेखन ही कर लूँ। घर के दरवाज़ों को बन्द किया। ए.सी. ऑन कर दिया। एक्ज़ीक्यूटिव चेयर खींच कर उस पर बैठा और लगा करने – आराम कुर्सी चिंतन!

एक-एक कर सारी पोस्ट मस्तिष्क में घूम रहीं हैं और बज रहा है एक स्वर – हथौड़े के माफ़िक – अगर ये बालक श्रम न करें तो क्या करें?

क्या आप और हम इनकी परवरिश की ज़िम्मेदारी लेंगे? क्या सरकार लेगी? .......लेती भी है कभी? ...कौन लेगा? ....इनके मां-बाप? ......होते हैं क्या वे आर्थिक रूप से इतने सक्षम? ... और भी कई प्रश्न थे तो मुझे मथते रहे।

मैं सोचता हूँ – हम चिंतन कर सकते हैं इनके ऊपर, इनकी चिंता नहीं!

सोचिए न – क्या आप अपने बच्चों को इनके साथ खेलने देंगे? क्या उन्हें ... उन्हें क्या, अपने घर में काम करने वाली बाई के बच्चे को ही लें, ... क्या अपने बेड रूम में जाने देंगे? अपने बिस्तर पर एक पल के लिए ही सही, सुलाएंगे? ... छोड़िए वह भी, ... ड्राइंग रूम में ही सही, अगर वह चला गया और वहाँ पर हग दिया, तो ...? ...? क्या आप उसे ‘हग’ करेंगे या ... ... ? छोड़िए वह भी..! सोचिए वह आपके सोफे के बगल में खड़ा है और उसकी नाक से बहता पोंटा आपके सोफे पर गिरता है – तो क्या आपकी वही प्रतिक्रिया होगी जो अपने बच्चे के साथ होती है?

मैं जो भी कह रहा हूँ, लिख रहा हूँ, वह मैंने जिया है।

ब्रह्मपुरा मिडिल स्कूल में जब मैं पढ़ता था, तो इन जैसों के साथ खेला हूँ मैं, और इनके साथ खेलते देख, प्रभात तारा स्कूल में पढ़ने वाले दोस्त मेरे साथ नहीं खेलते थे। चक्कर, मैदान का ‘प्रभात तारा’ स्कूल उन दिनों मुज़फ़्फ़रपुर का एक मात्र कान्वेन्ट स्कूल हुआ करता था। ऐसा नहीं है कि मेरे पिताजी की उतनी हैसियत न रही हो कि वे मुझे ‘प्रभात तारा’ में न पढ़ा पाते। पर देश आज़ाद हुए दो दशक भी नहीं हुए थे। आज़ादी की लड़ाई में थोड़ा-बहुत उन्होंने भी भाग लिया था। शायद उस समय की राष्ट्र-भक्ति के कारण अंग्रेज़ी हुक़ूमत के प्रतीक मिशनरी स्कूलों में बच्चों को पढ़ाना उन्होंने उचित न समझा होगा और सरकारी स्कूल में पढ़ाना उन्हें राष्ट्रीय स्वाभिमान से जोड़ता होगा।

मेरे उस मिडिल स्कूल के सहपाठी दोस्तों से आपका परिचय कराऊँ – शंकर – पिता एक गल्ले की दुकान में काम करते थे, किशोर – पिता मल्लाह, मछली बेचने का धंधा, - अशोक – पिता तेल पेड़ने का काम, नन्द किशोर – ब्रह्मपुरा चौक पर पिता की पान की दुकान और दीपू – पिता मोहन राम – ब्रह्मपुरा चौक पर बुट पॉलिश का काम। ऐसे लोगों के साथ खेला-खाया, बड़ा हुआ। बड़े क़रीब से इनकी दुनिया देखी, उनके दुख-दर्द को महसूस किया। इसलिए कह सकता हूँ, कहना चाहता हूँ – सोचिए, ज़रूर सोचिए बाल श्रमिकों पर, - पर ज़रा सामाजिक परिस्थितियों को भी ध्यान में रख कर सोचिए। ज़रूर सोचिए – पर व्यावहारिक होकर।

सामाजिक स्थिति कैसी रही होगी ... उन दिनों, ... और आज भी क्या बहुत परिवर्तन आ गया है? एक वाकया शेयर करना चाहूँगा। पिताजी के स्कूल के दिनों में उनके एक दोस्त थे – दास। उनके साथ उन्होंने एक थाली में खाना खा लिया था। बाबा को मालुम हुआ, तो उन्होंने उन्हें घर से निकाल दिया। फ़रमान यह ज़ारी हुआ कि रेत में गोबर मिला कर खाएगा, तो शुद्धि होगी – तभी घर में प्रवेश मिलेगा। पिताजी ने बाहर रहना ही उचित समझा।

जो मेरे उस स्कूल के क़रीबी दोस्त थे – एक से एक प्रतिभावन। अशोक की हैंडराइटिंग मोतियों जैसी थी। उतना सुंदर लेखन मैंने आज तक किसी का नहीं देखा। एक से बीस तक पहाड़ा तो वह फटाफट बोलता था। ड्योढ़ा और सवैया भी उसे याद था। किशोर जो ख़ुद अच्छी पहलवानी करता था, उसने मुझे स्कूल के सामने के अखाड़े में पहलवानी के कई गुर सिखाए। उससे सीखे दाँव आज भी लोगों को (काग़ज़ी ही सही) पटख़नी देने में बड़े काम आते हैं। नन्द किशोर की उँगलियाँ तो लाजवाब पान बनाती थीं। जब किशोर पान बनाते समय कटोरी में से चूना निकालता था और पत्ते पर डालता था, तो टन्न-टन्न की दो बार आवाज़ ज़रूर निकालता था। उस आवाज़ की मधुर ध्वनि आज भी मेरे मस्तिष्क मे गूँजती है। शंकर फ़िल्मी गीत बड़ी तन्मयता से  झूमझूम कर गाता था। हम तो उसे रफ़ी ही कहते थे।

पर, आज बात करूँगा दीपू की। दीपू से भी पहले राजकुमार की बात कर लूँ। राजकुमार से मेरा परिचय पटना में हुआ था। सिविल सर्विसेज की तैयारी करने हम छह दोस्त पटने आए थे। तीन रूम वाला एक लौज किराए पर लिया था हमने। हमारा खाना राजकुमार की माँ बनाती थीं। विधवा थीं। उसका एकलौता बेटा राजकुमार माँ के पैसों का दुरुपयोग करता था। एक दिन रहा न गया तो उससे कहा, इसको पढ़ाती क्यों नहीं? बोली पैसा कहाँ से आएगा? लोगों का बरतन-चौका कर तो किसी तरह पेट पालती हूँ। मैंने कहा फिर क्या करेगा वह? ऐसे तो सारा दिन आवारागर्दी करते घूमता रहेगा। बोली – मंटू दा (होटल का मालिक) से बोली हूँ, इसे काम पर लगा लेंगे। मेरा मन गवाही नहीं दे रहा था कि राजकुमार वह काम करे। उन दिनों एक दूरस्थ शिक्षा योजना चली थी। मैंने उसमें आवेदन कर दिया। वे किट आदि भेज देते थे, जिसमें किसी को पढ़ाने की सामग्री होती थी। मैं राजकुमार को पढ़ाने लगा।

मेरे पास एक थ्री-इन-वन ट्रांजिस्टर था। इंगलैंड से एक रिश्तेदार ने लाकर दिया था। उसकी विशेषता थी कि उसमें टीवी भी पकड़ता था। उसमें टीवी की आवाज़ ही आती थी, पर उस रामानन्द सागर वाली रामायण के ज़माने में वह एक अद्भुत चीज़ थी मेरे पास। जब रामायण सीरियल आता था, तो सड़कों पर ऐसा सन्नाटा होता था मानो कर्फ़्यू लग गया हो। मेरे घर में उस थ्री-इन-वन पर रामायण सुनी जाती थी और घर और बाहर बरामदे में भीड़ लगी होती थी, उन झोपड़पट्टी वालों की, जिनमें से एक राजकुमार और उसकी मां भी थे।

छठ में घर गया हुआ था। वापस आया तो अपने कमरे में उस थ्री-इन-वन को नहीं पाया। खोज-खबर ली तो – बाक़ी के दोस्तों ने जानकारी न होने की बात कही। लोगों की सलाह पर थाने में रपट लिखवा दी। दुखी मन से कोचिंग इंस्टीच्यूट चला गया। शाम को वापस लौटा तो मालूम हुआ कि दोपहर में पुलिस आई थी। राजकुमार को पकड़ कर ले गई। थाने में पिटाई पड़ी तो उसने क़बूला कि उसने ही उठाया था। उठाकर आगे किसी के हाथों बेच दिया। जिसे बेचा था उसने साफ़ मना कर दिया है। राजकुमार की पिटाई – मेरा मन व्यथित हो गया। थाने गया – उसके ख़िलाफ़ केस वापस ले लिया।

यह किस्सा यहीं बन्द करता हूँ। आता हूँ दीपू पर। उसके पिता जूता मरम्मत और पॉलिश का काम करते थे। पर फेमस उसकी माँ थी। उसका नाम गयतिरिया माय था। ऐसे लोग अच्छा नाम भी नहीं रख सकते थे। नाम तो उसकी बेटी का गायत्री ही रहा होगा। पर कहा जाता होगा ‘गायतिरिया’। और उसकी माँ – गयतिरिया माय। बहुत गुणी थी। पूरे ब्रह्मपुरा मुहल्ले में उसकी धाक थी। बच्चा पैदा कराने में उसे महारत हासिल थी। एक से बढ़कर एक कॉम्प्लिकेटेड प्रिगनेन्सी को सरल ढँग से कराना गयतिरिया माय के बाएँ हाथ का खेल था। पुरैन निकालने से लेकर नाल काटने तक के काम में वह एक्सपर्ट थी। कह सकते हैं कि वह कई लेडी डॉक्टर से भी बेहतर थी। बल्कि उन्हें अच्छे-अच्छे टिप्स दे दिया करती थी। एवज़ में उसे प्रसूता की साड़ी, कुछ रुपए मिल जाते थे।

दीपू के साथ खेलने में मुझे मज़ा आता था। उसके पिता टायर को जलाकर उसमें से तार निकालते थे। कुछेक टायरों को काटकर चक्का बना देते थे। जिसे एक छोटे से डंडे से मार-मार कर हम गुरकाते थे। दीपू और मैं चक्का गुरकाने का खेल खेलते। वह हमेशा मुझसे तेज़ दौड़ता था। अगर एथलिट बन गया होता, तो अवश्य ही उसका नाम होता। पर ऐसों की क़िस्मत ‘सुशील कुमार’ जैसी थोड़े होती है, जो करोड़पति बन कर नाम कमाए।

समय के साथ लोगों की आदतें बदलीं। उत्पाद की तकनीक बदली, उत्पादों की गुणवत्ता भी। चमड़े के जूते-चप्पलों की जगह प्लास्टिक के जूते-चप्पल आ गए जिन पर पॉलिश की ज़रूरत ही नहीं थी। दाम इतने कम कि यूज़-एंड-थ्रो का प्रचलन बढ़ा। समाज के द्वारा इस वर्ग के लोगों की स्थिति भी यूज़-एंड-थ्रो से बेहतर न हो सकी। लोगों को जूते-चप्पल की सिलाई और काँटा ठोकाई की ज़रूरत नहीं रह गई। फिर पॉलिश भी ऐसे-ऐसे तरल रूप में आ गईं कि लोग घर में ही करने लगे पॉलिश। जूते भी ऐसे-ऐसे आए कि उन्हें पॉलिश करना ही नहीं पड़ता, धोकर सुखा देने से काम चल जाता। मोहन राम का धंधा चौपट हो गया।

बच्चा पैदा करने के लिए भी लोग अस्पताल और डिस्पेंसरी का रुख करने लगे। गयतिरिया माय की पूछ कमती होती गई। ... और दीपू भी मुझे काफ़ी दिनों से दिखाई नहीं दिया। मैं भी तो सातवीं से आगे की पढ़ाई के लिए हाई स्कूल चला गया था। ब्रह्मपुरा मिडिल स्कूल से सिर्फ़ तीन लड़के हाई स्कूल की पढ़ाई ज़ारी रख सके। वे तीनों ही ब्रह्मपुरा रेलवे कॉलोनी वाले ही थे। एक मैं, दूसरा विजय – गार्ड साहब का लड़का और तीसरा माधव, उसके पिता माल बाबू थे। बाक़ी सब कहीं न कहीं बाल श्रम में लग गए। नन्द किशोर पान की दुकान पर बैठने लगा था। अशोक तेल पेड़ने के धंधे में पड गया। किशोर बम्बई सैलून में हेयर कटिंग करने लगा। शंकर गल्ले की दुकान पर।

दीपू...?

सुबह-सुबह टहलने की मेरी आदत बनी हुई थी। उन दिनों बस स्टैंड बैरिया आ गया था। मैं उधर से ही टहलने जाया करता था। एक दिन जब जा रहा था, तो मेरी नज़र एक बस की तरफ़ गई। देखा 12-13 साल का एक लड़का पानी से बस धो रहा था। मैं उसके पास गया। वह दीपू ही था। उसने बताया वह इस बस के क्लीनर-खलासी का काम करता है। मैं उससे और कुछ न पूछ सका। वापसी में मेरे मन में सगीना महतो का गाना गूँज रहा था,

भोले-भाले ललुआ खाएगा रोटी बासी,

बड़ा होकर बनेगा साहब का चपरासी

खेल-खेल-खेल, माटी में होली खेल

गाल में गुलाल है न ज़ुल्फ़ों में तेल ...

***

पुनश्च :

मेरे सामने अब भी प्रश्न वही है – ये बाल श्रम न करें तो क्या करें?

एक तरफ़ दीपू है – दूसरी तरफ़ राजकुमार

एक तरफ़ समाज है, दूसरी तरफ़ सरकार!

--

42 टिप्‍पणियां:

  1. सार्थक चिंतन ..... बाल श्रम का हर रूप हमरे समाज पर धब्बे की तरह लगता है ....विकास के सारे दावे खोखले प्रतीत होते हैं.....

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  2. आराम कुर्सी पर बैठे ही इस चिंतन से मुखातिब हुए......बहुत उम्दा एवं सार्थक...

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  3. Ham chintan karen chahe chinta,baal shram ko rok nahee sakte....ye un bachhon kee,unke mata pita kee majbooree hai...

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  4. जब सरकार ही आराम-कुर्सी पर बैठकर चिंतन कर रही है तो हो भी क्या सकता है. जो भी योजनाएं बनती हैं,आराम-कुर्सी वालों के लिए ही !

    बचपन भी तो अब बंट गया है,'उन' बेचारों के हिस्से में बचपन भी नहीं आ पाया !

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  5. वाकई!
    सही चिन्तन तो आरामकुर्सी पर ही हो सकता है!

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  6. मेरे सामने अब भी प्रश्न वही है – ये बाल श्रम न करें तो क्या करें?
    यही तो अनसुलझा सवाल है -यहाँ भी हर कहीं भी !

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  7. चिंतन और फैसला - हींग लगे न फिटकिरी ... यहाँ तो पढ़े लिखे बेरोजगार हैं और जिनके पाँव तले न ज़मीं है न आकाश , वे पापी पेट के लिए करेंगे ही न काम . जब घर में कोई नहीं होता तो हम छोटे से बच्चे को काम के लिए नहीं उठाते ... सबकी अपनी नियति है , भाषण तो बेकार ही है !

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  8. आपने सत्‍य की भी कलाई खोल दी है। ऐसे लोगों का यही कहना है कि आखिर में करनी तो मजदूरी ही है, तो बचपन से करें या जवानी से क्‍या फर्क पड़ता है? यह भी सत्‍य है कि इनमें शिक्षा के प्रति रुचि नहीं है, यदि जिन्‍हें भी रुचि है, वे पढ़ भी रहे हैं और अपना जीवन स्‍तर सुधार भी रहे हैं।

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  9. ''काजीजी परेशान शहर के अंदेशे से'' को इस तरह भी कहा जाता है, जिसे शहर के लिए अंदेशा होने लगे, वही काजी होता है.

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  10. @ डॉ. अजित जी,
    आपने बिल्कुल सही कहा है, ‘राजभाषा हिंदी’ पर एक ऐसे ही व्यक्तित्व की आत्मकथा ‘जूठन’ का पुस्तक परिचय आज ही पोस्ट की है।
    राजभाषा हिन्दी

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  11. वाह सर जी खूब चिंतन किया.. ये लेख सोचने पर मजबूर करती है मगर सोंच इन सवालों से बहार नहीं निकल पता की कैसे इन मजबूरों का कल्याण होगा !

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  12. बालश्रम रोकने का नारा जितना आकर्षक लगता है उसे रोकने की राह उतनी ही दुरूह है। खासकर उदारवादी लोकतंत्र की पूँजीवादी व्यवस्था में। यहाँ सामाजिक सुरक्षा भी उन्हीं के पास है जिनके परिवार में पूँजी की उपलब्धता है। गरीब घर के बच्चे आँख खोलते ही पेट पालने की चुनौती से दो-चार होते हैं। उन्हें अच्छी शिक्षा प्राप्त करके कैरियर बनाने के बारे में सोचने का भी मौका नहीं मिलता है। सरकार द्वारा जो प्रयास किये जाते हैं वे नितान्त अधूरे हैं और प्रशासनिक अक्षमता व भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ चुके होते हैं। कुछ एन.जी.ओ. भी इसे अपना उल्लू सीधा करने का माध्यम बना लेते हैं और सरकारी अनुदान उड़ाने के चक्कर में ही पड़े रहते हैं। फिर कौन सुधि लेगा इनकी। हमारी सामाजिक आर्थिक व्यवस्था भी ऐसी है कि इन निरीह श्रमिको के बने रहने में ही फायदा लगता है।

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  13. baal sham kae liyae kanun banaaye jaaye taaki ek service industry ki tarah inko sahii aarthik suraksha ho

    bhukhae bachchho sae swamblambi bachchae jyada behtar option haen

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  14. मनोज जी आपने बातों बातों में ही न जाने कितनी बातें कह दीं। जितनी कहानियां आपने बताईं वे सब आपके परिवेश की ही हैं। उन्‍हें और विस्‍तार से लिखा जाना चाहिए।
    जहां तक शिक्षा का प्रश्‍न है वह एकमात्र हल नहीं है रोजगार का। केवल पढ़लिख लेने से रोजगार नहीं मिलता। हां यह जरूर है कि आसानी हो जाती है,संभावना बढ़ जाती है। हम जैसे तथाकथित पढ़े लिखे लोगों को हर समस्‍या का समाधान केवल शिक्षा में ही नजर आता है। लेकिन क्‍या हम वे सब सुविधाएं उनके लिए जुटा पा रहे हैं,जिनके लिए चिंता व्‍यक्‍त करते हैं।
    बात निकली है तो कल ही मेरे एक मौसेरे भाई से बात हो रही थी। वह भी ज्‍यादा पढ़ा लिखा तो नहीं है। उसे अपने विवाह में वाशिंग मशीन मिली थी। घर में उसका कोई उपयोग नहीं हो रहा था। रोजगार की भी समस्‍या थी। किसी तरह मेरे मौसा जी ने रहने के लिए एक छोटा सा घर तो बना ही लिया है। भाई ने लाजशरम एक तरफ रखी और घर के सामने बोर्ड लगा दिया कि यहां कपड़े धोऐ और प्रेस किए जाते हैं। काम चल निकला। उसके बापदादा ने कभी यह काम नहीं किया, नही उनका यह पुश्‍तैनी काम रहा है। मैं कहना यह चाहता हूं कि जो रोजगार इज्‍जत के साथ किया जा सके उसे करने में कोई असम्‍मान नहीं होना चाहिए।
    और हम हर समस्‍या पर सरकार को कोसने के लिए क्‍यों तुल जाते हैं। इस मानसिकता से भी बाहर निकलना होगा। सोचना यह होगा कि सरकार जो कुछ रही है,उसका लाभ इन वर्गों तक पहुंचाने के लिए हम क्‍या कर सकते हैं।

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  15. @ राहुल जी
    अगर "मियाँ बीवी राजी तो क्या करेगा काजी" वाली कहावत सही मानी जाए तो बाल-श्रम पर चर्चा ही व्यर्थ है!! वैसे अंदेशे, काजी और शहर गणित के समीकरण से बाहर की व्यवस्था है यहाँ रिवर्स हमेशा सच हो कहा नहीं जा सकता!!

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  16. सार्थक चिंतन ... ऐसे बच्चे बाल श्रम न करें तो क्या करें ? विचारणीय लेख ..

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  17. बाल श्रमिक पर आपकी चिंता वाजिब है.
    मुझे अपना लिखा निम्न दोहा याद आ गया है:-

    बाल श्रमिक बढ़ने लगे,प्रतिदिन कई हज़ार.
    इनके जीवन की लगे, नैया कैसे पार.

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  18. सवाल तो अब भी बना हुआ है बच्चे बाल श्रम न करें तो क्या करें.हाँ चिंतन आराम कुर्सी पर बैठकर ही हो सकता है.
    सार्थक आलेख.

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  19. बहुत सार्थक चिंतन...हम बाल श्रम पर कितना भी लिखें, कितना भी इसकी बुराई करें, लेकिन जब तक गरीबी समाप्त नहीं होगी तब तक पेट भरने के लिये इन बच्चों के लिये और कोई रास्ता नहीं...केवल इस की निंदा करने से यह बुराई समाप्त नहीं हो सकती..

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  20. बहुत खूब ||
    सुन्दर रचनाओं में से एक ||

    आभार ||

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  21. राजेश उत्साही जी ने बही संक्षेप में बात का निचोड़ निकाल दिया है अब शेष कुछ कहने को नहीं रहता,,,

    नीरज

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  22. फुर्सत में गंभीर चिंतन.... सब थोडा थोडा सोचे...थोडा थोडा करे तो समस्या आधी हो सकती है.....

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  23. देख रहा हूँ पाठकों की रूचि आराम कुर्सी में अधिक है.. कुछ लोगों ने सही बात कही है.. रचना जी ने क़ानून के विषय में कहा है तो बतादूं कि क़ानून है और उसके लागू करने वाले प्रखंड स्तर पर मौजूद हैं.. बाल श्रम और न्यूनतम मजदूरी इनके कार्य-क्षेत्र में आता है.. लेकिन करें तब ना.. डॉक्टर अजित गुप्ता जी ने बहुत व्यावहारिक बात कही है.. कुल मिलाकर यही मेरा भी विचार है!!

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  24. very few websites that happen to be detailed below, from our point of view are undoubtedly well worth checking out

    From everything is canvas

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  25. बाल श्रम पर बहुत विस्तृत लिखा आपने। इस मुद्दे पर पक्ष और विपक्ष में बहुत कुछ वाजिब कहा जा सकता है। और मुझे लगता है कि कानून होना भर कोई समाधान नहीं कर सकता।
    मुद्दा सामाजिक भी है और देश के आर्थिक विकास से भी जुड़ा है।

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  26. सार्थक चिंतन बढ़िया पोस्ट !

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  27. 'कुछ करना चाहिए' कहने के बाद अधिकतर लोगों की स्थिति एक जैसी ही होती है। बाल श्रमिकों को ले कर मैंने भी कुछ लिखा था

    ठिठुरती ठंड में जब कोई बच्चा कुलबुलाता है|
    हवा करती है सरगोशी बदन ये काँप जाता है||

    हमारे मुल्क का बचपन पड़ा है हाशिए पर क्यूँ|
    उसे विद्यालयों से, कौन है, जो खींच लाता है||

    कि जिन हाथों में होने थे खिलोने या क़लम, पुस्तक|
    उन्हें ढाबे तलक ये कौन है जो छोड़ जाता है||

    सड़क पे दौड़ता बचपन, ठिकाना ढूँढ्ता बचपन|
    सिफ़र को ताकता बचपन फकत आँसू बहाता है||

    यही बचपन बड़ा हो कर जभी रीएक्ट करता है|
    जमाना तब इसे संस्कार के जुमले पढ़ाता है||

    'बाल-श्रम' को ले कर आप के चिंतन में मैं भी सहभागी हूँ

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  28. शिक्षा को मौलिक दायित्व के रूप में ले ले सरकार तो बालश्रम रोका जा सका है।

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  29. bahut marmik prasangon se bhara ye lekh bahut kuchh sochne par majboor kar gaya...lekin shayad me apne dukhi man ko yah kah kar tasalli de rahi hun ki nahi....ab haalaat pahle se behtar ho chale hain....gareeb bacche padhne me man lagane lage hain. lekin yathaarth yahi hai ki vo padhayi me man nahi lagate.

    ek baar ek ladki jo 13-14 sal ki rahi hogi...bus stand par bheekh maang rahi thi...use maine kaam karne ki salaah di...lekin jo usne bad-tamiji bhara jawab diya...'ki me kyu kam karu....bartan manju....bheekh me paise dene he to do varna mat do' to ab bataiye....in gareebo ke bhi kahin kahin nakshe alag hi hain.

    aap khudh hi bataiye ki kya vo ladka rajkumar apki koshish karne par bhi padh paya? chori ki lat chhod paya?

    alag alag logon ke sath alag halaat hain.

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  30. फुर्सत में ही सही... पर बहुत वाजिब पोस्ट लिखी है आपने...
    मैं बस एक बात कहना चाहता हूँ...
    १६ बरस का होनहार बालक जो कुछ करना चाहता है अपने परिवार के लिए.. क्या वो भी बालश्रमिक कहलायेगा...
    और ये भी हो सकता है वो जिस पेशे में जाए... उसी के 'अंत' तक पहुँच कर वो एक जिम्मेवार उद्योगपति नहीं बन सकता बनिस्पत किसी पढ़े लिखे लड़के से...
    सोचिये..
    टीप करता भी इसी उम्र में काम करने लग गया था मात्र परिवार को आर्थिक रूप से पुष्ट करने के लिए और कालांतर में उसने स्वयं का उद्योग स्थापित कर ६-८ टेक्निकली लड़कों को रोज़गार दिया...

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  31. वातानकुलित कमरे में आराम कुर्सी पर पसरे हुए चिंतन में निमग्न होना और वास्तविकता की भयावहता से परिचित होने में बुनियादी फर्क है . देखिये अपने उस बहु-कार्य -कुशल स्टाफ के बेटे को नौकरी दिलवा दिया होता तो उसके छोटे भाई को बाल श्रमिक नहीं बनना पड़ता . लेकिन सरकार की गलत नीति से ऐसा होने से रह गया . खैर जो भी अनुभव अपने लिखे है हमहू उनसे दो -चार हुए है . हमारे गांव में मनरेगा में तो बहुते बाल श्रमिकों का नाम होता है परधान की लिस्ट में . का कहा जाय , लोगों ने सब कही दिया .

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  32. मेरा भी विचार है कि सरकार को बाल श्रम करवाने वालों पर कठोर कार्रवाई करनी चाहिए। सभी दुकानों, होटलों व ढाबों पर ‘बाल श्रम न कराने के स्टीकर लगाए जाएं । संवेदनशील पोस्ट । धन्यवाद .

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  33. मनोज जी,
    सिर्फ कानून या सरकार के सोचने से
    कुछ नहीं होगा,इसके लिए पूरे समाज
    को चिंतन करना होगा,अच्छे विषय पर
    बेहतरीन आलेख,...
    मेरे नए पर आपका इन्तजार है,.....

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  34. भूखा बचपन जैसे-तैसे अपने लिए भले दो जून की रोटी जुटा ले,मगर वह राष्ट्र का उत्पादक हाथ नहीं बन सकता। बाल श्रमिकों की बढ़ती संख्या स्वयं प्रमाण है कि हम भविष्य के प्रति कितने चिंतित हैं।

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  35. यह प्रश्न मुझे भी बार-बार कचोटता रहा है। लेकिन प्रकृति ने हमें पहली आवश्यकता के रूप में भोजन दिया है, शेष सब बाद में। जब तक हमारी व्यवस्था सबके भोजन नहीं दे पाती, ये नारे व्यर्थ हैं। आदर्श भूख के यथार्थ पर अपना महल नहीं खड़ा कर सकता।
    बच्चा मेहनत करके कमाता है, तो वह केवल वह अपनी क्षुधा ही नहीं शान्त करता, बल्कि अपने माता-पिता की जिम्मेदारियों को भी बाँटता है। यह दुर्भाग्य की बात है कि सरकार ने हमें केवल अभिव्यक्ति का ही अधिकार दिया है, रोटी,कपड़ा, मकान का नहीं। कानून भी इसकी व्यवस्था नहीं है। इस परिस्थिति में बाल-श्रम को रोकनेवाला कानून अपराध की तरह लगता है। आभार।

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  36. वाकई श्रम करने की आदत जितनी जल्दी पड़ जाये उतना अच्छा...चिड़िया बच्चों को सिर्फ उड़ना सिखाती है...बाकि जीने के लिए वो सब सीख जाता है...आदमी को भी कुछ ऐसा ही होना चाहिए...पहले वो बच्चों के लिए जीता है...बाद में बच्चे उसके लिए...स्वार्थी जिंदगी में खुद के लिए जीने के लिए आर्थिक आज़ादी ज़रूरी है...

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  38. वंचित वर्ग के हर बच्चे की तालीम के साथ-साथ उनके लिए पोषण, किताब-कॉपी, यूनिफॉर्म और वज़ीफ़े का इंतज़ाम करने के लिए सरकार के साथ कॉरपोरेट सेक्टर को भी आगे आना चाहिए...आर्थिक प्रोत्साहन जुड़ेगा तो इन बच्चों से मज़दूरी कराने की जगह शायद उनके मां-बाप भी स्कूल भेजने लगें...

    अभी दो दिन पहले पेट्रोल पंप पर पेट्रोल भरवाने गया था...नोएडा में बड़े मॉल के आगे बना है ये पंप...वहां निर्माण का कुछ काम हो रहा था...वहां जो दृश्य देखा कलेजा मुंह को आ गया...पिता ईंटे चुन रहा था...मां तसले में सीमेंट-गारा लाकर दे रही थी...और उनका बच्चा शायद तीन साल का भी नहीं होगा...अपने कद से बड़े फावड़े से गारे को तसले में भरने की कोशिश कर रहा था...ये वैसे ही था जैसे कोई भी बच्चा घर पर खेल-खेल में अपने पिता के काम की नकल करता है...चाहता तो मोबाइल से उस बच्चे की फोटो ले सकता था...लेकिन मन नहीं माना...

    जय हिंद...

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  39. आपने सामाजिक स्थितियों और बाल श्रम की जमीनी हकिकिअत विस्तार से उदाहरण सहित समझाया!

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  40. आपके चिंतन को एकतरफ़ कर मैंने तो लेखन का मजा लिया, वो भी आफ़िस के ’एक्सिक्युटिव चेयर’ पर। मुझे लगा कि इस आलेख से कहीं प्रेमचंद की संवेदना झांक रही है। सुंदर।

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  41. बाल श्रम बंद तब ही हो सकता है - जब सामाजिक और आर्थिक स्थितयां सुधरें | सिर्फ क़ानून बना देने भर से कुछ होगा नहीं - it is impractical .... सार्थक पोस्ट |

    हम घर बैठे समझ ही नहीं सकते उन बच्चों की मजबूरियां और परिस्थितियां |

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