समीक्षा
आँच-97- तू उस पार दिव्य आलोकित
हरीश प्रकाश गुप्त
अनीता जी मूलतः हिन्दीभाषी वासी हैं परन्तु वर्तमान में असम में रहती हैं। उनका “मन पाए विश्राम जहाँ” नामक एक हिन्दी का ब्लाग है जिसमें वह लगभग नियमित रूप से अपनी कविताएं प्रकाशित करती हैं। उनकी अधिकांश रचनाएँ जीवन के यथार्थ को जीती हैं और उसे अभिव्यक्त करते हुए क्रमशः ईश्वर से एकाकार होने की दिशा में आगे बढ़ती हैं। वह जीवन की दिनानुदिन की पीड़ा और वेदना का समाधान भी उसी ईश तत्व के सान्निध्य में ढूँढती हैं। सम्भवतः यह उनका जीवन दर्शन है जो उनकी कविताओं में भासित होता है। वह एक आध्यात्मिक संस्था से भी जुड़ी हैं, शायद इसीलिए उनकी कविताएं प्रायः आध्यात्मिक चेतना से आवृत्त होती हैं। दिनांक 18 नवम्बर, 2011 को उनके ब्लाग पर उनकी एक कविता “तू उस पार दिव्य आलोकित” प्रकाशित हुई थी। इस कविता का सन्देश उनकी इसी विशिष्टि का परिचायक है और यह उनके द्वारा स्वीकृत जीवन-दर्शन को सम्प्रेषित करती भी है। उनकी यह कविता ही आज की आँच की चर्चा की विषयवस्तु है।
इस भौतिक जगत में व्यक्ति न तो अमर है और न ही व्याधिरहित। उसे जीवन के नियत क्रम को जीना होता है। जन्म से लेकर मृत्यु तक उसे अपने पूर्व जन्म के अर्जित अनेकानेक संस्कारों को संघर्षों और कठिनाइयों के रूप में सामना करना पड़ता है तथा कभी उसे जीवन की कठिनतम और दुष्कर परिस्थितियों से होकर भी गुजरना पड़ता है। तब उसे सासंसारिक जीवन में ऐसा लगता है कि जैसे उसके जीवन में मात्र दुःख ही दुःख हैं, सुख का नामोनिशान तक नहीं। कितना कुछ पीछे भोग आए हैं और कितना और भोगना शेष है, इसका कोई आकलन नहीं है। यह वेदना अन्तहीन सी लगती है। सुप्तावस्था और जाग्रतावस्था, दोनों में एक ही प्रकार के विचार घेरते रहते हैं। निराशा उनकी संवाहक होती है। पहले बीत चुके दुःख और पीड़ाओं की स्मृतियाँ घनीभूत होकर वर्तमान में पीड़ा को और गहराती हैं। कवयित्री का मानना है कि इस संसार में व्यक्ति और ईश्वर के रूप में आत्मा और परमात्मा, दो अमूर्त शिरे हैं। एक दुख का सागर है तो दूसरा सुख का पर्याय। एक कष्ट है तो दूसरा उसका उपचार। इसलिए इन दोनों का एकाकार होना ही सभी प्रकार के दुःखों और कष्टों का समाधान है। लेकिन मनुष्य ने भौतिक जीवन में अपने अज्ञान के कारण अनेक आग्रहों की दीवारें खड़ी कर रखी हैं। यह बाधा मात्र मनुष्य की तरफ से ही है, ईश्वर की तरफ से नहीं। वह तो हमेशा मनुष्य के समीप है, लेकिन मनुष्य उसकी समीपता को अनुभव नहीं कर पाता। यद्यपि दोनों के बीच अप्रत्यक्ष आकर्षण विद्यमान है, तथापि इन अवरोधों के चलते दिव्य प्रकाश रूपी ईश तत्व से उसका मिलन सम्भव नहीं हो पाता है। फिर भी, कवयित्री निराश नहीं है और वह मानती है कि एक न एक दिन समस्त बाधाएं टूटेंगी और दोनों का अलौकिक महामिलन अवश्य होगा। तभी असीम सुखानुभूति होगी और मन कामनाओं से मुक्त होगा।
आज संसार में लगभग प्रत्येक व्यक्ति अपने को दुःख और कष्टों से घिरा पाता है और इनसे उबरने का उसे कोई उपाय नहीं सूझता। इसीलिए यह कविता सभी लोगों के हृदय के स्पर्श करती है और उनकी भावनाओं को अभिव्यक्त करती है। कह सकते हैं कि अनीता जी की यह कविता व्यक्तिनिष्ठता से साधारणीकरण की दिशा में अग्रसर हुई है। इस कविता में भावों की गहनता है लेकिन व्यंजना अधिक गूढ़ नहीं हैं। यह सीधे और सरल शब्दों में अपने भावों का वाचन करती है। हालाँकि उत्तम काव्य का अभीष्ट व्यंजना ही है, अतः यह कविता का कमजोर पक्ष है। कविता के शिल्प की बात करें, तो अधिकांश स्थानों पर सुन्दर शब्द योजना देखने में आती है। गीत में गीतात्मकता लाने का भी भरपूर प्रयास किया गया है, लेकिन कई पंक्तियों में मात्राओं की असमानता और कहीं-कहीं अनुपयुक्त पदों का चयन प्रांजलता में अवरोधक है तथा रसास्वादन में बाधक बनता है। पूरे गीत में जो श्रेष्ठ पद हैं उनमें पंक्तियाँ 16 मात्राओं के आसपास है। असमान मात्राओं में केवल 4थी, 7वीं 12वीं, 13वीं पंक्तियों में 15 मात्राएं तथा 14वीं, 16वीं 22वीं, और 24वीं पंक्ति में 17 मात्राएँ हैं। इनके अतिरिक्त, प्रवाह की दृष्टि से कुछ पदों तथा पंक्तियों में परिवर्तन की आवश्यकता प्रतीत होती है। जैसे –
पहली और दूसरी पंक्तियों में “है” का स्थान बदलने से प्रवाह बढ़ता है। चौथी पंक्ति में “झरण” अनुपयुक्त सा है, इसके साथ-साथ इस पंक्ति में बदलाव करने की भी आवश्यकता है -
जन्म है दुःख, दुःख है मरण
जरा है दुःख, दुःख है क्षरण
जो थोड़ा सा भी सुख मिलता
खो जाता, हो जाता झरण !
में निम्नलिखत परिवर्तन कर देने से कविता में प्रांजलता और मात्राओं में सुधार हो सकता है-
जन्म दुःख है, दुःख मरण है
जरा दुःख है, दुःख क्षरण है
थोड़ा सा भी सुख मिलता जो
खो जाता उस महाशून्य में !
सातवीं पंक्ति में “लघु” को “सूक्ष्म” में बदलने के साथ ही प्रवाह की दृष्टि से पंक्ति में भी परिवर्तन करने की अपेक्षा है –
भीतर कोई दर्द है गहरा
एक चुभन सी टीस उठाती,
रह-रह कर लघु लहर कोई
भीतर कोई पीर जगाती !
में निम्नलिखत परिवर्तन कर देने से कविता में प्रांजलता और मात्राओं में सुधार हो सकता है-
भीतर कोई दर्द है गहरा
एक चुभन सी टीस उठाती,
रह-रहकर इक सू्क्ष्म लहर उठ।
भीतर कोई पीर जगाती !
12वीं पंक्ति में मात्रा भी कम है और भी प्रवाह नहीं है -
जीवन कितने भेद छिपाए
रोज उघाड़े घाव अदेखे,
जाने कितना बोझ उठाना
जाने क्या लिखा है लेखे !
इसे इस प्रकार कर देने से प्रवाह ठीक हो सकता है –
जीवन कितने भेद छिपाए
रोज उघाड़े घाव अदेखे,
जाने कितना बोझ उठाना
है जाने क्या लिखा लेख में !
तेरहवीं पंक्ति में “है” को हटाकर और “अहम्” को “अहंकार” में परिवर्तित कर 14वीं पंक्ति में मात्राएँ बराबर करते हुए पंक्ति बदलने के साथ ही प्रवाह की दृष्टि से 16वीं पंक्ति को भी परिवर्तित करने की आवश्यकता प्रतीत होती है –
अहम् की दीवार खड़ी है
मेरे-तेरे मध्य, ओ प्रियतम !
बाधा यह इक मात्र बड़ी है
मिलन न होता दूर हैं हम-तुम !
में निम्न प्रकार परिवर्तन कर देने से कविता में प्रांजलता बढ़ती है और मात्राओं में सुधार हो सकता है-
अहंकार की दीवार खड़ी,
हम दोनों में भेद न प्रियतम !
बाधा यह इक मात्र बड़ी है
मिलन कहाँ, है दूर बसे हम।
इसी प्रकार पाँचवें पद की अंतिम पंक्ति में यद्यपि मात्राएँ उपयुक्त हैं तथापि “ही” शब्द अनुपयुक्त लगता है, अतः यहाँ पर पहले “यह” प्रयोग किया जाए तो बेहतर होगा –
तू उस पार दिव्य आलोकित
सदा निमंत्रण भेज रहा है,
घन तमिस्र के सूनेपन में
मन ही जिसे सहेज रहा है !
इस प्रकार से -
तू उस पार दिव्य आलोकित
सदा निमंत्रण भेज रहा है,
घन तमिस्र के सूनेपन में
यह मन जिसे सहेज रहा है !
अंतिम पद में “दीवार” तथा “पीड़ा” के प्रयोग से एक-एक मात्रा बढ़ रही है -
कैसा सुंदर पल होगा वह
यह दीवार भी ढह जायेगी,
युगों-युगों से जो मन में है
पीड़ा विरह की बह जायेगी !
अतः इनमें बिना अर्थ परिवर्तन किए क्रमशः “दिवार” तथा “पीर” कर दिया जाए तो गीत में निखार आ जाता है और मात्राएँ भी समान हो जाती हैं। देखिए -
कैसा सुंदर पल होगा वह
यह दिवार भी ढह जायेगी,
युगों-युगों से जो मन में है
पीर विरह की बह जायेगी !
***
बहुत सुन्दर समीक्षा... गुप्त जी की समीक्षा कला की व्यापकता बढ़ रही है...
जवाब देंहटाएंबृहत् और सुंदर समीक्षा ......बहुत गहरे तक उतर कर कविता की संवेदना को मुखरित करती आपकी यह समीक्षा निश्चित रूप से आपकी दृष्टि और समझ को सामने लाती है ......!
जवाब देंहटाएं्बहुत सुन्दर व सटीक समीक्षा की है।
जवाब देंहटाएंसुन्दर समीक्षा!
जवाब देंहटाएंबहुत कुछ सीखने का अवसर देती है आंच की हर समीक्षा!
बहुत सुंदर समीक्षा की है आपने ....
जवाब देंहटाएंहरीश जी! समीक्षा की कसौटी और बेंचमार्क बहुत ऊंचा होता जा रहा है.. अब तो मन में कविता प्रस्फुटित होती है तो आपका स्मरण हो आता है.. यदि इस कसौटी पर कसी गयी कविता और मुहर लगे, तभी परिपक्व मानी जा सकती है..
जवाब देंहटाएंवर्त्तमान समीक्षा इस बात का प्रमाण है कि मेरा कथन अतिशयोक्ति नहीं!!
हरीश जी की समीक्षा कविता की भावभूमि और कुछ आवश्यक कमियों को प्रकाशित करती है, जो कविता लेखन में प्रवृत्त नए कवियों के लिए सहायक सिद्ध होगी।
जवाब देंहटाएंब्लॉग में आंच सा मंच नहीं है अभी... शुभकामनाये
जवाब देंहटाएंकविता की समीक्षा सटीक और स्तरीय है।
जवाब देंहटाएंअनीता जी को कम पढ़ा है ..समीक्षा बेहतरीन लगी.
जवाब देंहटाएंऐसी चर्चाएं होनी चाहिए, सकारात्मक रुख के साथ
जवाब देंहटाएंअच्छा होता यदि आप पीडीएफ या अन्य किसी फॉर्मेट का सहारा ले कर एक पन्ने के दो टुकड़ों में आमने-सामने मूल कविता और प्रस्तावित सुधारों के बाद की कविता प्रस्तुत करते, फिर उस के बाद नीचे - ये सुधार क्यूँ - इस पर प्रकाश डालते
बहरहाल मनोज भाई और हरीश भाई आप लोगों के द्वारा उठाया गया यह अच्छा क़दम है। सकारात्मकता इसे बहुत आगे तक ले जाएगी।
@ नवीन जी,
जवाब देंहटाएंआपका सुझाव बहुत अच्छा है। निसंदेह इससे स्पष्टता बढ़ेगी। मुझमें तकनीक की निपुणता की कमी है। धीरे-धीरे सीख रहा हूँ। पहले मुझे कमेन्ट पोस्ट करना भी नहीं आता था। अब पिछले महीने से जैसा-तैसा कर रहा हूँ। आवश्यकता ने सिखा दिया। इसका भी प्रयास करूँगा।
सुझाव के लिए आभार,