सोमवार, 1 सितंबर 2025

332. 25 जनवरी को गांधीजी की रिहाई

 

राष्ट्रीय आन्दोलन

332. 25 जनवरी को गांधीजी की रिहाई

1931



नमक सत्याग्रह अपने चरम पर था। सरकार का  जुल्म भी। भारतीय राष्ट्रवादियों पर अब तक हुआ यह सबसे निर्दयतापूर्ण अत्याचार वायसराय लॉर्ड इरविन के आदेशानुसार हो रहा था, लेकिन उन्हें यह काम पसन्द नहीं था। नरमदल के नेता असमंजस की स्थिति में थे। वह सत्याग्रह में शरीक़ हो नहीं सकते थे। इसलिए सरकार पर दवाब बनाने लगे कि शान्ति की दिशा में सरकार कोई कदम उठाए। सरकार को भी सत्याग्रह के कारण काफी परेशानी का सामना करना पड़ रहा था। अंग्रेज अधिकारी और व्यापारी-वर्ग दमन-चक्र और भी कठोरता से चलाना चाहते थे। सत्याग्रहियों के ऊपर बढ़ते जुल्म के कारण संसार का लोकमत भी सरकार के विरोध में तेज़ी से बढ़ रहा था। प्रधानमंत्री रैमजे मैकडोनाल्ड और भारत सचिव वैन शान्ति स्थापित करना चाहते थे, बशर्ते कि मजदूर सरकार की स्थिति को कमजोर बनाये बिना ऐसा हो सके। इस परिप्रेक्ष्य में सरकार द्वारा यह निश्चय किया गया कि अंग्रेज शासक भारत की आज़ादी की मांग पर समझौता के लिए लंदन में गोल मेज  सम्मेलन करेंगे और उसमें कांग्रेस प्रतिनिधि भाग लेंगे।

प्रधानमंत्री रैमजे मैकडोनाल्ड गोलमेज-सम्मेलन सफल बनाने को उत्सुक थे, लेकिन उन्हें यह भी पता था कि गांधीजी और कांग्रेस प्रतिनिधियों की उपस्थिति के बिना इस सम्मेलन का कुछ खास असर नहीं होगा। जब नवंबर 1930 में लन्दन में पहला गोलमेज सम्मलेन हुआ तो लेबर सरकार को इस उलझन भरी स्थिति का सामना करना पड़ा कि वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की गैर-मौजूदगी में भारत के ‘प्रतिनिधियों के साथ भारत की भावी संवैधानिक व्यवस्था पर विचार-विमर्श कर रही थी। अनेक निहित स्वार्थों को तो आवश्यकता से अधिक प्रतिनिधित्व दिया गया था, मगर जनता की राष्ट्रीय आकांक्षाओं की बातें करने वाला वहाँ कोई नहीं था। वह विसंगति इतनी स्पष्ट थी कि इसकी ओर से आँखें बंद नहीं की जा सकती थी।

देश के तमाम बड़े नेताओं की गिरफ्तारी हो चुकी थी। कांग्रेस के अध्यक्ष जवाहर लाल नेहरू और उनके पिता मोतीलाल नेहरू भी गिरफ्तार हुए। कांग्रेस की वयोवृद्ध पीढ़ी से लेकर युवाओं तक चार पीढ़ियों के नेताओं की पूरे देश  में बड़े पैमाने पर गिरफ्तारी हुई। इन गिरफ़्तारियों के साथ सरकार खुद को बधाई दे सकती थी कि कांग्रेस की कार्यकारिणी अब काम नहीं कर सकती। सरकार ग़लत थी। कांग्रेस अभी भी काम कर रही थी, समाचार पत्र प्रकाशित कर रही थी, हालाँकि अब वे साइक्लोस्टाइल में छपते थे, और बंबई पर उसका नियंत्रण था। महिलाओं और बाहर रहने वाले नेताओं ने शराबबंदी आदि के रचनात्मक कार्यक्रम को जारी रखा। लोगों के अंदर एक बार फिर से जोश का ज्वार उमड पडा और बड़ी संख्या में लोग अपना सब कुछ त्याग कर देश सेवा के काम में जुट गए थे। सरकार के दमन चक्र के बाद भी लोगों के उत्साह में कमी नहीं आ रही थी इसलिए सरकार को भी अंततः गांधीजी के अहिंसक आंदोलन का लोहा मानना पडा और समझौते के लिए तैयार होना पडा।

गतिरोध को तोड़ने के लिए कठोर रणनीति की ज़रूरत थी। कई ब्रिटिश लेबर मंत्री और उनके समर्थक भारतीय स्वतंत्रता के पक्षधर थे। गांधीजी और हजारों भारतीय राष्ट्रवादियों को जेल में रखना लेबर पार्टी के लिए शर्मनाक था। वायसराय लॉर्ड इरविन के लिए, गांधीजी की कैद शर्मिंदगी से कहीं अधिक थी; इसने उनके प्रशासन को पंगु बना दिया। मैकडोनाल्ड और इरविन के लिए स्थिति राजनीतिक रूप से असहनीय थी। पूना की यरवदा-जेल में, जिसे वह यरवदा-मंदिर कहते थे, गांधीजी एक तरह से आराम ही करते रहे। देश की राजनैतिक स्थिति और अपने शुरू किए हुए सविनय अवज्ञा आंदोलन की चिन्ता उन्होंने जेल में आते ही छोड दी थी। ब्रिटिश पत्रकार जॉर्ज स्लोकोम्बे ने 19 मई को जेल में गांधीजी का साक्षात्कार लिया। उन्होंने लिखा, "कैद में बंद महात्मा अब भारत की आत्मा का अवतार हैं।" स्लोकोम्बे ने व्यर्थ ही विनती की कि सरकार कांग्रेस के साथ बातचीत करे। गांधीजी विचलित नहीं हुए। वायसराय को ज्यादा सख्ती पसंद नहीं थी। वह समझौता चाहते थे। उन्होंने विट्ठलभाई पटेल को एक पत्र में लिखा था—आप तो मेरी इस उत्कट अभिलाषा से परिचित ही हैं कि भारत में फिर से शांति और सद्भावना का वातावरण पैदा हो सके। इसलिए वायसराय की मंज़ूरी से दो मध्यस्थों, सर तेज बहादुर सप्रू और जे. एम. जयकर ने जेल में गांधीजी से बात की। गांधीजी कह रहे थे कि शांति तभी हो सकती है जब ब्रिटिश सरकार परिदृश्य से गायब हो जाए। मोतीलाल और जवाहरलाल नेहरू, सरोजिनी नायडू, पटेल और चार या पाँच अन्य महत्वपूर्ण कांग्रेस सदस्यों को गांधी से मिलने और इस बात पर चर्चा करने के लिए जेलों से ले जाया गया कि क्या ब्रिटिश सरकार के साथ कोई कामकाजी समझौता होने की कोई उम्मीद है। दरअसल, गांधीजी का उनकी मुश्किलों से बाहर निकलने में कोई इरादा नहीं था। कांग्रेस नेताओं ने सम्मेलन के समापन पर घोषणा की कि ब्रिटिश स्थिति से उन्हें एक "अपूरणीय खाई" ने अलग कर दिया था और जब तक भारत को साम्राज्य से अपनी इच्छा से अलग होने का अधिकार नहीं दिया जाता और वित्त एवं रक्षा पर पूर्ण नियंत्रण के साथ जनता के प्रति उत्तरदायी सरकार बनाने का अधिकार नहीं दिया जाता, तब तक कोई संतोषजनक समाधान नहीं हो सकता। यह मामला वर्ष 1930 के अंत तक अटका रहा।

रैमजे मैकडोनाल्ड ने जनवरी 1931 में प्रथम गोलमेज-सम्मेलन के अन्तिम अधिवेशन में, अपने विदाई-भाषण में यह आशा प्रकट की कि कांग्रेस दूसरे गोलमेज-सम्मेलन में भाग लेगी। वाइसराय ने उनके अभिप्राय को समझ कर 19 जनवरी को गांधीजी और कांग्रेस के सभी सदस्यों को तुरन्त और बिना किसी शर्त के छोड़ने का हुक्म दे दिया। नौ महीने तक जेल में रखने के बाद स्वाधीनता दिवस के ठीक एक दिन पहले 25 जनवरी 1931 को गाँधीजी को वायसराय के साथ इस समझौते के तहत जेल से रिहा किया गया। गांधीजी के साथ जवाहरलाल नेहरू, मोतीलाल नेहरू और अन्य बीस से अधिक कार्यकारी समिति के  दूसरे सदस्यों को भी रिहा कर दिया गया था। इस सद्भावना-प्रदर्शन की यह प्रतिक्रिया हुई कि गांधीजी वायसराय से मिलने को राजी हो गए। लेकिन कार्यसमिति के सदस्यों की बिना शर्त रिहाई से ही सरकार और कांग्रेस के बीच की खाई पट नहीं गई।

भारत सरकार के गृह विभाग ने गांधीजी और अन्य लोगों को रिहा करने के निर्णय को प्रभावी बनाने के लिए बॉम्बे के गृह विभाग को पत्र लिखा। बॉम्बे सरकार ने उसी दिन जेल महानिरीक्षक को आदेश भेज दिया, साथ ही इस बात पर ज़ोर दिया कि कैदियों को रिहा किया जाना चाहिए "26 जनवरी की शाम के बाद, लेकिन उससे पहले नहीं", ताकि कैदियों को रिहा होने के बाद स्वतंत्रता दिवस के समारोहों में भाग लेने से रोका जा सके। 26 जनवरी को, महानिरीक्षक कारागार ने गृह विभाग, बॉम्बे को गांधीजी की रिहाई के लिए की गई व्यवस्थाओं की जानकारी दी। उन्होंने बताया कि एक बैठक में, सेना, पुलिस और जेल अधिकारियों ने यह निर्णय लिया था कि गांधीजी, श्रीमती नायडू और प्यारेलाल को रात 11.15 बजे पूना से रवाना होने वाली ट्रेन से बॉम्बे ले जाया जाए। उन्हें किरकी से ट्रेन में चढ़ाया जाता था, या अगर प्रदर्शन होते थे, तो चिंचवड़ से। और हुआ यूँ कि उन्हें चिंचवड़ ले जाना ही पडा।

चिंचवड़ स्टेशन पर गांधीजी से प्रेस ने मुलाकात की और उनसे संदेश माँगा। गांधीजी अपनी रिहाई पर दिए गए साक्षात्कार में कहा: "मैं जेल से बिल्कुल खुले मन से, शत्रुता से मुक्त, निष्पक्ष तर्क के साथ बाहर आया हूँ ...।"

एक प्रश्न का उत्तर देते हुए उन्होंने कहा कि उनका सच्चा मानना ​​है कि सविनय अवज्ञा आंदोलन से जुड़े होने के कारण जेल में बंद प्रत्येक राजनीतिक कैदी को तुरंत रिहा किया जाना चाहिए।

बंबई में पत्रकारों से बात करते हुए, गांधीजी ने अपनी स्थिति स्पष्ट की: "मैं व्यक्तिगत रूप से महसूस करता हूँ कि कांग्रेस कार्यकारिणी समिति के सदस्यों की रिहाई मात्र से कठिन परिस्थिति और भी कठिन हो जाती है, और सदस्यों की ओर से कोई भी कार्रवाई लगभग, यदि पूरी तरह से नहीं, तो असंभव हो जाती है। अधिकारियों ने स्पष्ट रूप से यह नहीं समझा है कि आंदोलन ने जनमानस को इतना प्रभावित किया है कि नेता, चाहे कितने भी प्रमुख क्यों न हों, उन्हें कोई विशेष कार्रवाई का निर्देश देने में पूरी तरह असमर्थ होंगे।"

"अपनी बात कहूँ तो, मैं शांति की कामना करता हूँ, बशर्ते वह सम्मान के साथ मिल सके।"

26 जनवरी, 1931 को स्वतंत्रता दिवस की पहली वर्षगांठ बड़े उत्साह के साथ मनाई गई। उस दिन गांधीजी और कार्यकारिणी समिति के सदस्यों की रिहाई ने लोगों के उत्साह को और बढ़ा दिया।

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मनोज कुमार

 

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संदर्भ : यहाँ पर

 

रविवार, 31 अगस्त 2025

331. मौलाना मुहम्मद अली की मृत्यु

 

राष्ट्रीय आन्दोलन

331. मौलाना मुहम्मद अली की मृत्यु

1931



स्वतंत्रता सेनानी, पत्रकार और शिक्षाविद मोहम्मद अली का जन्म 10 दिसम्बर, 1878 ई. में ब्रिटिश भारत के रामपुरउत्तर प्रदेश में हुआ था। वह मौलाना शौकत अली के भाई थे। मोहम्मद अली और मौलाना शौकत अली भारतीय राजनीति में 'अली बन्धुओं' के नाम से प्रसिद्ध थे। वे रूहेला जनजाति के पठान थे। उनके पिता का नाम अब्दुल अली खान और माता का नाम आबादी बानो बेगम (1852 - 1924) था, जिन्हें प्यार से 'बी अम्मा' के नाम से जाना जाता था।  वे पाँच भाई-बहनों में सबसे छोटे थे।  जब मोहम्मद अली 5 वर्ष के थे तभी उनके पिता की मृत्यु हो गई। पिता की मृत्यु के बाद सारी जिम्मेदारी उनकी माता को निभानी पड़ी। उनकी माता ने ही उनका पालन पोषण किया। उन्होंने अपने बेटों को ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन से आजादी के संघर्ष का बीड़ा उठाने के लिए प्रेरित किया। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए, वह इस बात पर अड़ी रहीं कि उनके बेटे उचित शिक्षा प्राप्त करें।

उर्दू और फ़ारसी की प्रारंभिक शिक्षा मोहम्मद अली को घर से ही प्राप्त हुई। मोहम्मद अली ने बरेलीआगरा में आरंभिक शिक्षा प्राप्त की। उन्होंने हाई स्कूल की परीक्षा परीक्षा बरेली से पास की।  बाद में उन्होंने अलीगढ़ के एमएओ कॉलेज में शिक्षा प्राप्त की, जो उस समय इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संबद्ध था। बीए की परीक्षा में विश्वविद्यालय और राज्य स्तर पर सफल उम्मीदवारों की सूची में प्रथम स्थान प्राप्त करके, उन्होंने अपने मातृ संस्थान और गृह नगर का नाम रोशन किया। सन 1896 ई. में इन्होंने बी.ए. की डिग्री इलाहाबाद से प्राप्त की थी। उन्होंने 1986 में ढाका में हुई 'अखिल भारतीय मुस्लिम लीग' की बैठक में भाग लिया। बड़े भाई शौकत अली की इच्छा थी कि मोहम्मद अली आईसीएस (इंडियन सिविल सर्विसेज) की परीक्षा पास करें। इसके लिए उन्हें ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में भेजा गया। 1897 में इंग्लैंड चले गए, और लिंकन कॉलेज, ऑक्सफोर्ड में उन्होंने आधुनिक इतिहास का अध्ययन किया।  उन्होंने 1898 में आधुनिक इतिहास में एमए किया।

उन्होंने 1902 में अमजदी बानो बेगम (1886-1947) से शादी की।  उनकी बेगम भी सक्रिय रूप से राष्ट्रीय और खिलाफत आंदोलन में शामिल थीं। लंदन से भारत लौटने के बाद उन्होंने  रामपुर राज्य में मुख्य शिक्षा अधिकारी के रूप में कार्य शुरू किया। वहां पर उन्होंने बड़ौदा राज्य में सिविल सेवा में भी नौकरी की। सन 1911 में कलकत्ता में 'कामरेड' नामक अंग्रेजी में साप्ताहिक समाचार पत्र निकाला था। 1912 में वह दिल्ली आ गए। 1913 में उन्होंने अपना दूसरा अखबार उर्दू दैनिक ‘हमदर्द’ नाम से शुरू किया। मोहम्मद अली ब्रिटिश नीतियों के प्रबल आलोचक थे। उन्होंने ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के खिलाफ किए जा रहे प्रयासों में एक बड़ी भूमिका निभायी थी। वह टाइम्स, लंदन, द मैनचेस्टर गार्डियन और द ऑब्जर्वर जैसे प्रमुख समाचार पत्रों में लेख लिखते रहे। उन्होंने 'खिलाफत आंदोलन' का समर्थन किया और आंदोलन में अपनी अहम भूमिका निभाई। 1913 में 'तुर्कों की पसंद' लेख प्रकाशित करने के कारण अंग्रेज़ सरकार द्वारा 1914 में उनके समाचार पत्र पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था तथा मोहम्मद अली को चार साल की सज़ा दी गई। मोहम्मद अली ने 'खिलाफत आन्दोलन' में भी भाग लिया और अलीगढ़ में 'जामिया मिलिया विश्वविद्यालय' की स्थापना की, जो बाद में दिल्ली लाया गया। उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, जिसे तब मोहम्मडन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज के रूप में जाना जाता था, के विस्तार के लिए कड़ी मेहनत की। जामिया मिलिया इस्लामिया के सह-संस्थापक मोहम्मद अली जौहर ने 1920 से 1923 तक इसके कुलपति के रूप में कार्य किया। 1920 में   खिलाफत आंदोलन के दौरान वे 'खिलाफ समिति' के अध्यक्ष चुने गए तथा 1919 में इस आंदोलन के क्रम में इंग्लैंड तथा मुस्लिम नेताओं के दल का प्रतिनिधित्व किया। उन्होंने 'नेहरू रिपोर्ट' का विरोध किया तथा 1930-3में संपन्न गोलमेज सम्मेलन में मुस्लिम लीग के प्रतिनिधि के रूप में भाग लिया।

मोहम्मद अली ने 1906 में मुस्लिम लीग के सदस्य के रूप में अपना राजनीतिक जीवन शुरू किया। उन्होंने 1906 में ढाका में अखिल भारतीय मुस्लिम लीग की स्थापना बैठक में भाग लिया था।  वह 1928 तक लीग में सक्रिय रहे। 1917 में, जब वे नज़रबंदी में ही थे, तब उन्हें सर्वसम्मति से मुस्लिम लीग का अध्यक्ष चुना गया।  इस तरह वह 1918 में 'अखिल भारतीय मुस्लिम लीग' के अध्यक्ष बने। उन्होंने मुस्लिम लीग के प्रतिनिधिमंडल का प्रतिनिधित्व किया, जिसने 1919 में ब्रिटिश सरकार को तुर्की राष्ट्रवादी मुस्तफा कमाल को तुर्की के सुल्तान को पदच्युत न करने के लिए प्रभावित करने के लिए इंग्लैंड की यात्रा की, जो इस्लाम के खलीफा और उस समय के सभी इस्लामी राष्ट्रों के प्रकल्पित नेता थे। ब्रिटिश सरकार द्वारा उनकी मांगों को अस्वीकार करने के परिणामस्वरूप खिलाफत समिति का गठन हुआजिसने पूरे भारत में मुसलमानों को ब्रिटिश सरकार का विरोध और बहिष्कार करने का निर्देश दिया।  1921 में, जौहर ने शौकत अली , अबुल कलाम आज़ाद , हकीम अजमल खान , मुख्तार अहमद अंसारी , सैयद अता उल्लाह शाह बुखारी और महात्मा गांधी जैसे राष्ट्रवादी नेताओं के साथ एक व्यापक गठबंधन बनाया, जिन्होंने तब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस  का समर्थन हासिल किया , जो ब्रिटिश सरकार के खिलाफ एकता के प्रदर्शन में मुसलमानों के साथ शामिल हुए। 1919 में वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हुए। मौलाना मुहम्मद अली जौहर का मानना था: ‘’जहां तक ख़ुदा के एहकाम का तआल्लुक़ है, मैं पहले मुसलमान हूं, बाद में मुसलमान हूं, आख़िर में मुसलमान हूं– लेकिन जब हिंदुस्तान की आज़ादी का मसला आता है, तो मैं पहले हिंदुस्तानी हूं, बाद में हिंदुस्तानी हूं, आख़िर में हिंदुस्तानी हूं। इसके अलावा कुछ नहीं।‘’ 1923 में वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष निर्वाचित हुए। उन्होंने गांधीजी के राष्ट्रीय नागरिक प्रतिरोध आंदोलन के आह्वान का तहे दिल से समर्थन किया और पूरे भारत में सैकड़ों विरोध प्रदर्शनों और हड़तालों को प्रेरित किया। मोहम्मद अली जौहर उन दिग्गजों में से हैं, जिन्होंने विभिन्न मोर्चों पर आजादी के लिए अंग्रेजों के खिलाफ जोरदार लड़ाई लड़ी। वह बहुत बड़े शायर थे।  उनकी शायरी भी लोगों को काफी पसंद आती थी। मोहम्मद अली जौहर ने अपनी शायरी के ज़रिये ब्रिटिश सरकार पर  कई बार निशाना साधा। क्रांति भरे अपने अल्फ़ाज़ और जज़्बात को उन्होंने कभी खामोश होने नहीं दिया।

खिलाफत सम्मेलन की बैठक में एक भाषण देने के कारण उन्हें ब्रिटिश अधिकारियों ने गिरफ्तार कर लिया और दो साल के लिए जेल में डाल दिया। वह चौरी-चौरा की घटना के कारण गांधीजी द्वारा असहयोग आंदोलन स्थगित करने से निराश थे। उन्होंने अपना दैनिक हमदर्द फिर से शुरू किया और कांग्रेस पार्टी छोड़ दी। उन्होंने नेहरू रिपोर्ट का विरोध किया, जो संवैधानिक सुधारों और ब्रिटिश साम्राज्य के भीतर एक स्वतंत्र राष्ट्र के प्रभुत्व का प्रस्ताव करने वाला एक दस्तावेज था।  'हमदर्द' में ब्रिटिश-विरोधी लेखों के प्रकाशन के कारण इसके संपादक मोहम्मद अली को बार-बार जेल जाना पड़ा। मोहम्मद अली की बार-बार की जेल की सज़ा, मधुमेह और जेल में उचित पोषण की कमी ने उन्हें बहुत बीमार कर दिया। अपने गिरते स्वास्थ्य के बावजूद, वह 1930 में लंदन में आयोजित पहले गोलमेज सम्मेलन में भाग लेना चाहते थे।  सन 1930 में मोहम्मद अली लन्दन में प्रथम गोलमेज सम्मेलन में उपस्थित हुए। वे भारत की स्वतंत्रता के प्रबल समर्थक और खिलाफत आंदोलन के अग्रदूत थे।  1930 में, उन्होंने अपने खराब स्वास्थ्य के बावजूद गोलमेज सम्मेलन में भाग लिया, जहाँ उन्होंने अपना प्रसिद्ध वक्तव्य दिया, "या तो मुझे आज़ादी दो या मेरी कब्र के लिए दो गज जगह दो; मैं गुलाम देश वापस नहीं जाना चाहता।" ये शब्द सत्य सिद्ध हुए और 4 जनवरी 1931 को लंदन में उनका निधन हो गया। उन्होंने लंदन के हाइड पार्क होटल में अंतिम सांस ली। उनके पार्थिव शरीर को बैतुल-मुकदस ले जाया गया और 23 जनवरी 1931 को वहीं दफना दिया गया। उन्हें मुस्लिम जगत के सबसे गतिशील और बहुमुखी नेताओं में से एक के रूप में जाना जाता है। 

उनकी मृत्यु के अगले दिन शाम 6 बजे पैडिंगटन टाउन हॉल में जनाज़ा पढ़ने का कार्यक्रम था। हॉल के बाहर ब्रिटिश लोगों की भारी भीड़ थी, और सभी दलों के ब्रिटिश प्रतिनिधि भी हॉल के अंदर मौजूद थे। हर कोई चाहता था कि जौहर को उनके शहर में ही दफ़नाया जाए। लंदन के लोगों का मानना ​​था कि उन्हें वहीं दफ़नाया जाना चाहिए, लेकिन उनका परिवार इसके ख़िलाफ़ था। उनकी विधवा, अमजदी बानो बेगम, उन्हें भारत ले जाना चाहती थीं, और भारत से सैकड़ों टेलीग्राम आए जिनमें उन्हें स्वदेश ले जाने का आह्वान किया गया था।

फ़िलिस्तीन के ग्रैंड मुफ़्ती, अमीन अल-हुसैनी ने अनुरोध किया था कि मोहम्मद अली जौहर को यरुशलम के बैतुल मुक़द्दस में दफ़नाया जाए। शौकत अली ने ग्रैंड मुफ़्ती के अनुरोध को स्वीकार कर लिया। शव को पाँच दिनों तक लंदन में रखा गया, फिर उसे जहाज़ से मिस्र भेजा गया। मोहम्मद अली जौहर को यरुशलम की अल-अक्सा मस्जिद से कुछ ही दूरी पर एक कब्र में दफनाया गया था।

 


यरूशलम में मुहम्मद अली जौहर की कब्र

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मनोज कुमार

 

पिछली कड़ियां-  राष्ट्रीय आन्दोलन

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