सोमवार, 3 फ़रवरी 2025

प्रेरक प्रसंग : स्वाद इंद्रियों पर विजय

प्रेरक प्रसंग : स्वाद इंद्रियों पर विजय



बात 1918 की है। बापू को हिंदी साहित्य सम्मेलन ने इन्दौर अधिवेशन के लिए सभापति चुन लिया। चंपारण से बापू इन्दौर पहुंचे। साथ में राजेन्द्र प्रसाद और अन्य लोग भी थे। सभी लोग राज्य के अतिथि थे। इसलिए वहां खातिरदारी का पूरा इंतज़ाम था। जितने बरतन उनके काम के लिए वहां रखे गए थे, यहां तक कि स्नान के लिए पानी रखने के बरतन भी, चांदी के ही थे। राज्य के कर्मचारी दिन-रात खातिरदारी में लगे रहते थे।

बापू ने अपना सादा मूंगफली आदि का भोजन अलग कर लिया। अन्य लोगों के लिए विभिन्न प्रकार के पकवान आदि चांदी के बड़े थालों और अनेक कटोरियों में परसा गया। सबने खूब आनंद से भोजन किया। भोजन के बाद बापू से उनकी मुलाक़ात हुई। बापू ने पूछा, तुम लोगों ने क्या खाया?

जो कुछ उन लोगों ने खाया था, महादेव देसाई ने वर्णन कर दिया।

कुछ देर बाद जब राज्य कर्मचारी आए तब बापू ने उनसे कहा, आप इन लोगों को जैसा भोजन दे रहे हैं, वैसे भोजन की इनकी आदत नहीं है। ये लोग तो यहां अस्वस्थ हो जाएंगे। आप इनके लिए मामूली सादा फुलका और सब्जी का प्रबंध कर दीजिए, थोड़ा दूध भी दे दीजिए। इनके लिए यही स्वास्थ्यकर और अच्छा भोजन होगा।

उसके बाद से चांदी के थालों में उन लोगों को वही सादा भोजन मिलने लगा।

बापू इस बात को मानते थे कि स्वाद-इंद्रिय पर विजय पाना बहुत कठिन है। हम लोग जो भोजन करते हैं, वह शरीर को सुरक्षित और पुष्ट बनाने के लिए नहीं, केवल स्वाद के लिए। भोजन का प्रभाव तो स्वास्थ्य पर पड़ता ही है; इसलिए हममें से जिनके पास पैसे होते हैं, वे अधिक और अस्वास्थ्यकर पर मज़ेदार खाना खाकर बीमार पड़ते रहते हैं। पर जिनके पास पैसे नहीं होते, वे यथेष्ट और स्वास्थ्यकर भोजन न मिलने के कारण कमज़ोर और बीमार हो जाते हैं। इसीलिए वे सभी को सादे भोजन और स्वाद पर विजय का उदाहरण स्वयं सिखाते रहते थे।

बापू का खाने में नियम था। चाहे फल हो या रसोई, किसी में पांच चीज़ों से अधिक कुछ न होना चाहिए। इन पांच चीज़ों में नमक-मिर्च जैसी चीज़ें भी एक-एक अलग समझी जाती थीं। इस तरह, यदि कोई चीज़ मसालेदार बनाई जाती तो वह बापू के लिए अखाद्य हो जाती, क्योंकि मसाले में ही पांच-छह चीज़ें हो जातीं। नियम के अलावे भी बापू मसाला जैसी चीज़ों का इस्तेमाल बुरा समझते थे। कारण यह था कि एक तो ये चीज़ें बहुत करके गरम होती और उत्तेजक होती हैं, दूसरे स्वाद को भी बदल देती हैं; इसलिए स्वाद के कारण आदमी अधिक खा लेता है। साथ ही ऐसी चीज़ें भी खा लेता है जो हानिकर होती हैं।

उन दिनों चंपारण में) सामान्यतया बापू जब अन्न खाते थे तो वे न तो नमक खाते थे और न दूध या दाल ही; सिर्फ़ चावल और उबाली हुई सब्जी ही खाया करते थे। उबाली हुई चीज़ों में भी विशेष करके करैला, जो कुछ अधिक पानी देकर उबाल दिया जाता औए उसी पानी के साथ भात मिलाकर बहुत स्वाद से वे खा लिया करते। करैला बहुत कड़ुआ होता है। उसका उबला हुआ पानी तो और भी कड़ुवा होता है। पर वे उसी को आनंद और स्वाद के साथ खा लेते थे।

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मनोज कुमार

 

पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद

संदर्भ : यहाँ पर

 

मोंटफोर्ड सुधार

राष्ट्रीय आन्दोलन

मोंटफोर्ड सुधार



1918

भारत-सचिव मांटेग्यू की घोषणा

जुलाई, 1917 में एडविन मोंटेग्यू को भारतीय मामलों का मंत्री बनाया गया। 20 अगस्त 1917 को हाउस ऑफ कॉमंस में भारत-सचिव मांटेग्यू ने घोषणा की कि अब से भारत में ब्रिटिश नीति का संपूर्ण लक्ष्य स्वशासी संस्थाओं का क्रमशः विकास होगा ताकि ब्रिटिश साम्राज्य के अभिन्न अंग के रूप में भारत में क्रमशः उत्तरदायी सरकार की स्थापना हो सके। भारतीय नेताओं की उम्मीदें बढी। सेना में हिन्दुस्तानियों के कमीशन पद प्राप्त करने के लिए लगी रंगभेदी रोक वापस ले ली गयी। एनी बेसंट को रिहा कर दिया गया।

जून में मोंटफोर्ड सुधार घोषित हुआ। भारतीय मामलों के मंत्री एडविन मोंटेग्यू और तत्कालीन वायसराय चेम्सफोर्ड द्वारा प्रस्तावित होने के कारण इसे यह नाम दिया गया था। इसके तहत यह व्यवस्था की गयी थी कि प्रान्तों में आंशिक शासन होगा, जो चुनी गयी विधानसभा और भारतीय मंत्रियों के माध्यम से चलेगा, लेकिन महत्त्वपूर्ण विषय गवर्नर के लिए सुरक्षित रहेंगे जो मनोनीत एक्ज़ीक्यूटिव काउन्सिल की मदद से शासन करेंगे। केंद्र में सत्ता में कोई हिस्सेदारी नहीं रहेगी। मोंटेग्यू ने इसे बड़ी छलांग बताया था। लेकिन बाद में भारतीय मामलों के नए मंत्री एवं पूर्व वायसराय लॉर्ड कर्ज़न ने इसे अविवेकपूर्ण और प्रतिक्रियावादी कहा था। भारतीय नेता इसके प्रति कोई मन नहीं बना पाए।

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जिन्ना का राजनीतिक क्षितिज पर ऊपर आना

1918 में देश के वायसराय लॉर्ड चेम्सफोर्ड थे और मुंबई के गवर्नर थे लॉर्ड विलिंगडन। जिन्ना होमरूल लीग नामक राजनैतिक संगठन का सदस्य था। इस लीग के अध्यक्ष एनी बेसेंट और तिलक थे। जून 1918 में एक सार्वजनिक सभा, जिसमें जिन्ना भी मौजूद था, में लॉर्ड विलिंगडन ने कहा  था, कुछ प्रभावशाली लोगों द्वारा जो होमरूल लीग के सदस्य हैं, युद्ध के प्रयासों पर खुले आम शक जाहिर किया जा रहा है। जिन्ना ने यह सुनकर खुद को अपमानित महसूस किया। उसने इसका उचित जवाब देने की सोची। साल के अंत में जब विलिंगडन अपना पद छोड़ रहा था, उसकी सेवाओं की सराहना के लिए मुंबई के नागरिकों की एक सार्वजनिक सभा हुई। जिन्ना अपने समर्थकों की फौज लेकर इसका विरोध करने के लिए टाउन हॉल पहुंचा। जमकर हंगामा हुआ। पुलिस द्वारा बल-प्रयोग से हॉल खाली कराया गया। हॉल के बाहर अपने समर्थकों के सामने जिन्ना ने भाषण देते हुए कहा, आप मुंबई के नागरिक हैं। आज लोकतंत्र के लिए एक बड़ी जीत का दिन है। आज 11 दिसंबर का दिन मुंबई के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण दिन के रूप में दर्ज हो गया है। घर जाइए और आनंद मनाइए। जिन्ना हीरो बन गया था। टाउन हॉल की दीवार पर एक तख्ती टंगी है जिस पर लिखा है, मुहम्मद अली जिन्ना के दिलेर और शानदार नेतृत्व में मुंबई के नागरिकों की ऐतिहासिक जीत के उपलक्ष्य में!

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मनोज कुमार

 

पिछली कड़ियां-  राष्ट्रीय आन्दोलन

संदर्भ : यहाँ पर

 

लेबल्स

स्वतंत्रता संग्राम, राष्ट्रीय आन्दोलन, गांधीजी का जनाकर्षण, रॉलेट सत्याग्रह, UPSC

263. जालियांवाला बाग ह्त्या-कांड

राष्ट्रीय आन्दोलन

263. जालियांवाला बाग ह्त्या-कांड



1919

प्रवेश :

भारतीय इतिहास में कुछ ऐसी तारीखें हैं, जिसमें घटित घटना को कभी नहीं भुलाया जा सकता। 13 अप्रैल 1919 उन तारीखों में से एक है जो अंग्रेजों के अमानवीय और क्रूर चेहरे को सामने ला देती है। इस घटना के बाद भारतीयों और अंग्रेजों के बीच संबंध कभी भी पहले जैसे नहीं रहे। पंजाब में सिखों का पवित्र नगर अमृतसर उन घटनाओं का रंगमंच था। यह ऐसी घिनौनी घटना थी जिसके बारे में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर को कहना पडा, मैं उन सभी विशिष्टताओं का परित्याग करके अपने उन देशवासियों के साथ खड़ा हूँ जिन्हें तुच्छ समझकर ऐसे अपमानों द्वारा पीड़ित किया गया जो मनुष्य के लिए नहीं है।इस घटना ने यह प्रमाणित किया कि जब कोई महान साम्राज्यवादी शक्ति निहत्थे लोगों पर आतंक फैलाने के उद्देश्य से गोली चलाती है, तो वह अपनी कमजोरी को स्वीकार करती है। साम्राज्यवादी अधिकार एक अमूर्तता का आभास देने लगा; वास्तविकता सड़कों पर पड़ी लाशों में छिपी थी।

पृष्ठभूमि :

1919 में ब्रिटिश हुकूमत द्वारा जस्टिस रॉलेट की अध्यक्षता में देशद्रोह के बारे में क़ानून बनाने के लिए एक समिति गठित की गई। इंपीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल में बिल (रॉलेट विधेयक) पेश किया गया था जो भारत की रक्षा विनियम अधिनियम 1915 का विस्तार था और थोड़ी औपचारिकता के बाद उसे पारित कर दिया गया। इस विधेयक द्वारा सरकार का उद्देश्य युद्धकालीन भारत रक्षा अधिनियम (1915) के दमनकारी प्रावधानों को स्थायी कानून द्वारा प्रतिस्थापित करना था। 22 मार्च, 1919 को वायसराय के हस्ताक्षर हो जाने बाद यह क़ानून बन गया जिसका नाम था Anarchical & Revolutionary Crime Act, 1919 (अराजक और क्रांतिकारी अपराध अधिनियम 1919)

इस विधेयक के तहत अपराधी को उसके खिलाफ मुक़दमा दर्ज करने वाले का नाम जानने का अधिकार नहीं था। मुकदमे के फैसले के बाद किसी उच्च न्यायालय में  अपराधी को अपील करने का भी अधिकार नहीं था।  जजों को बिना जूरी की सहायता से सुनवाई करने का अधिकार दिया गया। इन केसों को बंद कोर्टों में चलाने का प्रावधान था, ताकि किसी को इसका पता भी न चले। ग़ुलामी की बेड़ियां और सख़्त करने की यह चाल थी। उन दिनों इस बिल का वर्णन आम तौर पर इन शब्दों में किया जाता था, न वकील, न अपील, न दलीलअभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे मौलिक अधिकारों पर अंकुश लगाया गया और प्रेस की स्वतन्त्रता का दमन करने का प्रावधान था।

उस समय सारे देश में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ सभी स्तरों पर गहरा आक्रोश था। गांधीजी के आह्वान पर इस क़ानून के विरोध में रॉलेट सत्याग्रह आन्दोलन आरंभ हुआ। रविवार 6 अप्रैल 1919 को सारे देश में सत्याग्रह दिवस मनाया गया। उत्तरी और पश्चिमी भारत के कस्बों में चारों तरफ़ बंद के समर्थन में दुकानों और स्कूलों के बंद होने के कारण जीवन लगभग ठहर सा गया था। पंजाब में, विशेष रूप से कड़ा विरोध हुआ, जहाँ के बहुत से लोगों ने युद्ध में अंग्रेजों के पक्ष में सेवा की थी और अब अपनी सेवा के बदले वे इनाम की अपेक्षा कर रहे थे। लेकिन इसकी जगह उन्हें रॉलेट एक्ट दिया गया। सारे उत्तर भारत में जबरदस्त हड़ताल हुई। लाहौर, अमृतसर, अंबाला, जलंधर में आन्दोलन की आग तेज़ हो गई। 9 अप्रैल को रामनवमी का त्यौहार बड़े पैमाने पर जुलूस और हिंदुओं और मुसलमानों के बीच भाईचारे के साथ शांतिपूर्वक मनाया गया।



13 अप्रैल को जालियांवाला बाग ह्त्या-कांड

रॉलेट सत्याग्रह आंदोलन पंजाब के अमृतसर में जोर पकड़ रहा था। शुरुआत में प्रदर्शनकारियों ने कोई हिंसा नहीं की। भारतीयों ने अपनी दुकानें और सामान्य व्यापार बंद कर दिया और वीरान और सुनसान सड़कों ने अंग्रेजों की चालबाजियों के ख़िलाफ़ भारतीयों की नाराजगी को दिखाया। 9 अप्रैल को, दो राष्ट्रवादी नेताओं, सैफुद्दीन किचलू और डॉ सत्यपाल को ब्रिटिश अधिकारियों ने, उनके द्वारा किए गए बिना किसी उकसावे के, रॉलेट एक्ट के तहत गिरफ्तार कर लिया, सिवाय इसके कि उन्होंने विरोध सभाओं को संबोधित किया था, और उन्हें किसी अज्ञात स्थान पर ले जाया गया था। भारत रक्षा अधिनियम के तहत उनके निर्वासन और नजरबंदी का आदेश दिया गया था। इसके कारण अमृतसर के साथ सारे पंजाब के लोगों में भयंकर रोष फैल गया था। 10 अप्रैल को दोपहर के समय अमृतसर शहर में नेताओं की गिरफ़्तारी की ख़बर फैल गई। अमृतसर के लोगों द्वारा सरकार से उनकी रिहाई की मांग के लिए प्रदर्शन किया गया। किन्तु जनता और प्रदर्शनकारियों की मांग को नकार दिया गया। जल्द ही विरोध हिंसक हो गया क्योंकि पुलिस ने फायरिंग का सहारा लिया था, जिसमें कुछ प्रदर्शनकारियों की मौत हो गई थी। इसके कारण गुस्साये लोगों ने रेलवे स्टेशन, टाउन हॉल सहित कई बैंकों और अन्य सरकारी इमारतों पर हमले किये और आग लगा दी। इससे ब्रिटिश अधिकारियों का संचार माध्यम बंद हो गया और रेलवे लाइन्स भी क्षतिग्रस्त हो गई थी। दफ़्तरों में बैठे पाँच-छह अँग्रेज़ों को मारकर और उनके बैंक भवनों को जलाकर अपना बदला लिया। हालाँकि इसके साथ ही कुछ भारतीयों को भी अपनी जान गवानी पड़ी थी। स्थिति इतनी विस्फोटक हो गई कि सेना को बुलाना पड़ा और शांति बहाल हुई

दो दिन पहले ब्रिगेडियर जनरल रेजिनाल्ड एडवर्ड हैरी डायर, जो शिमला में जन्मा आयरिश था और अपने बेहतरीन युद्ध रिकॉर्ड के लिए जाना जाता था - उसने उत्तर-पश्चिमी सीमांत क्षेत्र, बर्मा और फारस में लड़ाई लड़ी थी और उसने चित्राल की राहत में हिस्सा लिया था - गैरीसन बल की कमान संभालने के लिए अमृतसर पहुंचा। डायर वरिष्ठ ब्रिटिश अधिकारी था जिसके पास मार्शल लॉ लागू करने और व्यवस्था बहाल करने की जिम्मेदारी थी।

11 अप्रैल को उसका पहला आदेश अगली सूचना तक सभी सार्वजनिक बैठकों पर रोक लगाने का था, ब्रिगेडियर-जनरल ने जो पहला निषेधाज्ञा जारी किया वह था लोगों को बिना पास के शहर छोड़ने और प्रदर्शनों या जुलूसों के आयोजन, या तीन से अधिक के समूहों में इकट्ठा होने से मनाही थी। इस आदेश की घोषणा पुलिस ने शहर के अलग-अलग इलाकों में की। इसे दीवारों पर नहीं चिपकाया गया था; इसके बजाय, शहर के ढोल बजाने वालों को उनके ड्रम के साथ भेजा गया था, जो घोषणा के साथ-साथ ढोल बजा रहे थे। जब पुलिस ने बाद में एक नक्शा बनाया जिसमें दिखाया गया था कि सार्वजनिक घोषणाएँ कहाँ की गई थीं, तो यह स्पष्ट हो गया कि ढोल बजाने वालों को केवल उन जगहों पर आदेश पढ़ने के निर्देश दिए गए थे जहाँ कोई इसे सुनने की संभावना नहीं थी। इसलिए पुलिस ने इसके बाद हुई त्रासदी के लिए भारी जिम्मेदारी ली।

अमृतसर में ‘हड़ताल’ में शामिल होने वाले कुछ नेताओं ने 12 अप्रैल 1919 को रॉलेट एक्ट के खिलाफ प्रस्ताव पारित करने और गिरफ्तार किये गये दोनों नेताओं को जेल से रिहा करवाने के लिए बैठक की। इसमें उन्होंने यह निर्णय लिया कि अगले दिन जलियांवाला बाग में एक सार्वजनिक विरोध सभा आयोजित की जाएगी। 13 अप्रैल सन 1919 का दिन बैसाखी का पारंपरिक त्यौहार का दिन था। अमृतसर में इस दिन सुबह के समय सभी लोग गुरूद्वारे में बैसाखी का त्यौहार मनाने के लिए इकठ्ठा हुए थे। इस गुरूद्वारे के पास में ही एक बगीचा था जिसका नाम था जलियांवाला बाग़। गाँव के लोग अपने परिवार वालों के साथ, तो कुछ अपने दोस्तों के साथ घूमने के लिए गए थे। उन लोगों ने किसी तरह की गड़बड़ी मचाने की कोशिश नहीं की। उनमें से बहुत औरतें और बच्चे भी थे। स्थानीय नेताओं द्वारा विरोध प्रदर्शन के लिए वहाँ एक सभा भी आयोजित की गयी थी। इस भीड़ को यह पता भी नहीं था कि सभाओं पर निषेधाज्ञा लागू है।

दोपहर एक बजे जनरल डायर को पता चला कि जालियांवाला बाग में साढ़े चार बजे एक जनसभा बुलाई गई है। वह इस बात से नाराज़ था कि यह सैन्य आदेश की जानबूझकर अवहेलना थी और उसने कठोर दंड देने का निश्चय किया। साढ़े चार बजे तक प्रतीक्षा करने के बाद, वह गोरखा और बलूची सैनिकों की एक टुकड़ी के साथ बख्तरबंद गाड़ी में जलियाँवाला बाग की ओर दौड़ा। इस जनसभा की जनरल डायर से मुखबिरी हंसराज नामक भारतीय ने  किया था और उसके सहयोग से इस हत्याकांड की साज़िश रची गयी थी। उसी ने जनरल डायर को खबर की थी कि जालियांवाला बाग़ में कुछ लोग विरोध प्रदर्शन करने के लिए इकट्ठा हो रहे हैं।

उपलब्ध आंकड़ों से यह स्पष्ट नहीं है कि 20,000 उपस्थित लोगों में से कितने राजनीतिक प्रदर्शनकारी थे, लेकिन उनमें से अधिकांश वे थे, जो उत्सव के लिए एकत्र हुए थे। इस बीच, बैठक शांतिपूर्ण ढंग से चली थी, और दो प्रस्ताव पारित किए गए थे, एक रॉलेट एक्ट को निरस्त करने के लिए और दूसरा 10 अप्रैल को हुई गोलीबारी की निंदा करने के लिए। तब जनरल डायर ने करीब शाम 5:30 बजे अपने सैनिकों के साथ जालियांवाला बाग के पास गाड़ियों में पहुंचा। 'जालियांवाला बाग पहुंचने पर, डायर इस बल के साथ एक संकीर्ण प्रवेश द्वार से घुसा, जो गाड़ियों के गुजरने के लिए पर्याप्त चौड़ा नहीं था, इसलिए गाड़ियों को बाहर सड़क पर छोड़ दिया गया। वहां से बाहर जाने वाले रास्ते को उसने बंद कर दिया था, और वहाँ उपस्थित लोगों पर तब तक गोलियाँ चलाने का आदेश दिया जब तक कि उनका सारा गोला-बारूद खत्म न हो जाए। उपस्थित लोगों को किसी प्रकार की चेतावनी भी नहीं दी गई।

लगातार दस मिनट तक गोरखा और बलूची राइफलमैन, ने लगभग 10 मिनिट तक भीड़ पर गोलियां दागी, जिससे वहां भगदड़ मच गई। दस मिनट में 1650 चक्र गोलियां चलायी गई। अभी भाषण चल ही रहे थे कि सभा की जगह नरमेध की जगह बन गई। वहां न सिर्फ युवा एवं बुजुर्ग उपस्थित थे बल्कि वहां बच्चे एवं महिलाएं भी त्यौहार मनाने के लिए गये हुए थे। वहां से निकलने का कोई रास्ता नहीं था। इस बाग का केवल एक दरवाज़ा था और वह भी काफी संकरा था। उस द्वार पर जनरल डायर ने अपने सैनिकों और को तैनात कर रखा था, जिनके हाथों में बंदूकें थीं। पार्क छह फीट ऊंची दीवार से घिरा था। इस दीवार पर लोग चढ़ नहीं सकते थे। लोगों की स्थिति चूहेदानी में फंसे चूहे के समान हो गई थी। मौत के फंदे में फंस कर करीब डेढ़ हज़ार से ज़्यादा व्यक्ति मरे और चार हज़ार घायल हुए। जो क़त्ले-आम हुआ उसके कारण अमृतसर शब्द ही नरसंहार का पर्यायवाची बन गया। किन्तु ब्रिटिश सरकार ने अधिकारिक रूप से मरने वालों का आंकड़ा 379 का बताया था। घायलों को वहीं छोड़ दिया गया जहाँ वे गिरे थे। जनरल डायर ने निर्देश दिया कि उनके घावों की देखभाल के लिए कुछ भी नहीं किया जाना चाहिए। ह ऐसा खून-खराबा करना चाहता था जिसे आने वाले कई सालों तक याद रखा जाएगा। अपने सैनिकों को बधाई देने के बाद, वह उन्हें संकरी गली से होते हुए शहर के दूसरे छोर पर स्थित सैन्य छावनी की ओर ले गया।

इस बाग़ में एक कुआं भी मौजूद था। कुछ लोगों ने कुएं में कूद कर अपने प्राण बचाने की सोची। किन्तु कुएं में कूदने के बाद भी उनकी मृत्यु हो गई। पंजाब के कई जिलों में सैनिक शासन लागू कर दिया गया। सारे पंजाब में दमन और क्रूरता का नंगा नाच हुआ। अंधाधुंध गिरफ़्तारियां की गईं। लोगों को यातनाएं दी गईं। सार्वजनिक रूप से कोड़े लगाए गए।

अमृतसर में कमांडर जनरल डायर ने लोगढ़ गली से गुज़रने वालों को पेट से रेंगने के लिए बाध्य किया। लोगों को नंगा कर कोड़ों से पीटा गया। एक पूरी शादी की पार्टी को कोड़े मारे गए। छात्रों को तपती धूप में सोलह मील की पैदल यात्रा करने का आदेश दिया गया और स्कूली बच्चों को स्कूल से तुरंत छुट्टी दे दी गई ताकि वे झंडे को सलामी दे सकें और ब्रिटिश शासन की उदारता पर भाषण सुन सकें। कमांडर जनरल डायर का स्पष्ट संकेत था कि भारत की जनता को ऐसा डरा दिया जाए कि दुबारा विरोध या हड़ताल करने की कोई हिम्मत न करे। पंजाब को चारों तरफ़ से सील कर दिया गया। वहां सख्त सेंसर लगा दिया गया। पंजाब शेष भारत से बिलकुल कट गया। न वहां से कोई ख़बर बाहर जाती थी न ही वहां जाना आसान था। वहां सैनिक क़ानून बहाल कर दिया गया। वहां के लोगों को लगभग एक महीना यातनापूर्ण जीवन जीना पड़ा। उसके बाद जब कुछ सैनिक शासन में ढील दी गई तो वहां की बातों का पता लगा।

ब्रिटिश प्रशासन ने इस हत्याकांड की खबरों को दबाने की पूरी कोशिश की। किन्तु यह खबर पूरे देश में फ़ैल गई और इससे पूरे देश में व्यापक रूप से आक्रोश फ़ैल गया। इस घटना की जानकारी दिसंबर 1919 में ब्रिटेन तक पहुँच गई। कुछ ब्रिटिश अधिकारियों ने यह माना कि जालियांवाला बाग में जो हुआ, वह बिलकुल सही हुआ। किन्तु कुछ लोगों द्वारा इसकी निंदा की गयी। डायर पर केस चला और वे दोषी ठहराये गये, उन्हें उनके पद से सस्पेंड कर दिया गया। साथ ही उन्हें भारत में सभी कर्तव्यों से छुटकारा दे दिया गया।

अप्रैल 1919 में 1857 के बाद से सबसे बड़ा और सबसे हिंसक ब्रिटिश विरोधी विद्रोह देखा गया। पंजाब के ब्रिटिश कार्यवाहक गवर्नर सर माइकल ओ'डायर ने डायर की कार्रवाई को मंजूरी दी और इस गड़बड़ी को 'विद्रोह' कहा।  कहा जाता है कि पंजाब के उपराज्यपाल सर माइकल ओ'डायर ने हिंसक प्रदर्शनकारियों के खिलाफ विमानों का इस्तेमाल किया था। निर्दोष लोगों पर बम बरसाए गए। पंजाब के गवर्नर सर माइकेल ओ डायर और उनके सलाहकारों के मन में यह भय समा गया था कि अंग्रेजी शासन को उखाड़ फेंकने का षड्यंत्र रचा गया है और इसके पीछे गांधीजी का हाथ है। पंजाब के लोग गांधीजी को आने का निमंत्रण देते, पर सरकार गांधीजी को वहां जाने की अनुमति नहीं देती। गांधीजी आश्रम से बाहर ही नहीं निकल सकते थे। भारत सरकार का मानना था कि देश में जो कुछ भी हो रहा है, वह गांधीजी की अपील का नतीजा है। सरकार ने उनके कहीं आने-जाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। सरकार यह समझती थी कि वे जहाँ भी जाएंगे वहां शांति को खतरा उत्पन्न होगा। उधर दूसरी तरफ़ कुछ पंजाबी युवक गांधीजी को दोष देते कि उनके कारण ही पंजाब पर मार्शल लॉ लाद दिया गया है। अगर गांधीजी पंजाब गए तो उन्हें जान से मार दिया जाएगा। गांधीजी के जीवनीकार विन्सेंट शीन कहते हैं, जिस व्यक्ति ने शांति के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया हो, उसे ही सार्वजनिक व्यवस्था का दुश्मन और हिंसा का हिमायती या हवा देने वाला करार किया गया।

अमृतसर हत्याकांड पर जांच की हंटर समिति

जालियांवाला बाग में हुए नरसंहार ने भारतीयों और कई अंग्रेजों को भी झकझोर कर रख दिया। इन दंगों और क़त्लेआम के कारणों की जांच के लिए भारत के राज्य सचिव, एडविन मोंटेगु ने स्कॉटलैंड के कॉलेज ऑफ जस्टिस के पूर्व सॉलिसिटर-जनरल लॉर्ड विलियम हंटर की अध्यक्षता में समिति नियुक्ति की। आयोग का उद्देश्य "बॉम्बे, दिल्ली और पंजाब में हाल की गड़बड़ी की जांच करना, उनके कारणों और उनसे निपटने के लिए किए गए उपायों की जांच करना" था। इस समिति के सदस्यों में तीन भारतीय थे, सर चिमनलाल हरिलाल सीतलवाड़, बॉम्बे विश्वविद्यालय के कुलपति और बॉम्बे उच्च न्यायालय के वकील; पंडित जगत नारायण, वकील और संयुक्त प्रांत की विधान परिषद के सदस्य; और ग्वालियर राज्य के वकील सरदार साहिबजादा सुल्तान अहमद खान।

डायर को कमेटी के सामने बुलाया गया। उसे विश्वास था कि उसने जो किया है वह केवल उसका कर्तव्य था। हंटर आयोग के सामने डायर ने कहा, "यह एक भयानक कर्तव्य था जिसे मुझे निभाना था। मुझे लगता है कि यह एक दयालुता थी। मैंने सोचा कि मुझे अच्छी तरह से और मजबूती से गोली चलानी चाहिए, ताकि मुझे या किसी और को फिर से गोली न चलानी पड़े। मुझे लगता है कि यह काफी संभव है कि मैं बिना गोली चलाए भीड़ को तितर-बितर कर सकता था, लेकिन वे फिर से वापस आ जाते और हँसते।

मुझे केवल इस बात का दुख है कि मेरा गोला-बारूद ख़त्म हो गया था और संकरी गलियों के कारण बाग में बख्तरबंद गाड़ी नहीं लाई जा सकी थी – क्योंकि सवाल केवल भीड़ को तितर-बितर  करने का नहीं रह गया था, बल्कि लोगों में असर कायम करना और एक नैतिक प्रभाव डालना था ताकि वे विद्रोह का झंडा बुलंद न कर सकें। उसने यह भी कहा कि उसने शूटिंग के बाद घायलों की देखभाल करने का कोई प्रयास नहीं किया क्योंकि वह इसे अपना काम नहीं मानता था।

मार्च 1920 में जारी अंतिम रिपोर्ट ने सर्वसम्मति से डायर के कार्यों की निंदा की। रिपोर्ट में कहा गया, हमें रत्ती भर भी संदेह नहीं है कि वे असर कायम करने और भारी नैतिक प्रभाव डालने में सफल हो गए थे, लेकिन इसका स्वरूप उस रसूख व प्रभाव से एकदम विपरीत था, जो कि उसने सोचा था।  रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि शुरुआत में लोगों को बाग से तितर-बितर होने की सूचना नहीं देना डायर की तरफ से एक त्रुटि थी; फायरिंग की लंबाई भी एक गंभीर त्रुटि दिखाती है; पर्याप्त नैतिक प्रभाव पैदा करने के डायर के मकसद की निंदा की गयी थी; डायर ने अपने अधिकार की सीमा लांघ दी थी; पंजाब में ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंकने की कोई साजिश नहीं थी। हंटर कमेटी ने कोई दंडात्मक या अनुशासनात्मक कार्रवाई नहीं की क्योंकि डायर के कार्यों को विभिन्न वरिष्ठों द्वारा माफ कर दिया गया था। गांधीजी ने भी अमृतसर की इस नृशंस हत्याकांड में शामिल अधिकारियों की निन्दा करते हुए भी उनको दंड देने की मांग नहीं की। उनमें बदला लेने की इच्छा नहीं थी, कोई विद्वेष भी नहीं था। उन्होंने कहा, पागल से ईर्ष्या करने से क्या लाभ है? लेकिन इस बात का ध्यान तो रखना होगा वह बिगाड़ न कर सके।हंटर रिपोर्ट के अनुसार, 'ऐसा प्रतीत होता है कि 10 अप्रैल का विस्फोट कुछ ही घंटों में शांत हो गया, उसके बाद उस दिन या उसके बाद की तारीखों में कोई गंभीर घटना नहीं हुई। और 10 तारीख की घटनाओं के संबंध में भी ... अगर प्रभारी अधिकारी ने अपना कर्तव्य निभाया होता, तो सबसे भयानक अपराध, जैसे बैंक अधिकारियों की हत्या ... को पूरी संभावना से रोका जा सकता था।'

लन्दन में स्पष्ट शब्दों में कहा गया, हम उन सिद्धांतों का खंडन करते हैं जिनके आधार पर डायर ने कार्रवाई की थी और यह घोषणा करते हैं कि भारतीयों के घुटनों पर चलने को विवश करने वाला आदेश किसी भी सभ्य सरकार के सिद्धांतों के ख़िलाफ़ है। हाउस ऑफ कॉमन्स में, उस समय युद्ध के राज्य सचिव चर्चिल ने अमृतसर में जो कुछ हुआ उसकी निंदा की। उसने इसे "राक्षसी" कहा। चर्चिल के साथ कैबिनेट ने सहमति व्यक्त की कि डायर एक खतरनाक व्यक्ति था और उसे अपने पद पर बने रहने की अनुमति नहीं दी जा सकती थी। डायर को बर्खास्त करने के निर्णय से सेना परिषद को अवगत करा दिया गया था। ड़ायर को इस्तीफ़ा देने के लिए कहा गया। उसे इंगलैंड भेज दिया गया। उसके खिलाफ कोई कानूनी कार्रवाई नहीं की गई; उसने आधा वेतन लिया और अपनी सेना पेंशन प्राप्त की। भारत के लिए ब्रिटिश सचिव एडविन एस. मोंटेगू ने 26 मई, 1920 को वायसराय लॉर्ड चेम्सफोर्ड को एक आधिकारिक प्रेषण में कहा था कि रेंगने वाला आदेश 'सभ्य सरकार के हर सिद्धांत का उल्लंघन करता है।' असंख्य अंग्रेज डायर के कृत्य से शर्मिंदा थे, फिर भी उसके कई समर्थक थे।

गैर सरकारी समिति बनाई गई

पंजाब के लगभग सभी नेता जेल में थे। इसलिए मालवीयजी के नेतृत्व में पंजाब को मदद करने का काम देश के अन्य नेताओं ने उठाया। सबसे पहले दीनबंधु एण्ड्र्यूज पंजाब पहुंचे। दीनबंधु से गांधीजी को पता चला कि समाचार पत्र में जो बातें आ रहीं हैं, उससे कहीं ज़्यादा वीभत्स अत्याचार हुए हैं। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने हंटर समिति का बहिष्कार करने का निश्चय किया। अमृतसर हत्याकांड की जाँच के लिए महामना मालवीयजी, मोतीलाल नेहरू, सी.आर.दास, एम.आर. जयकर, अब्बास तैयबजी और गांधीजी जैसे प्रसिद्ध वकीलों की गैर सरकारी समिति कांग्रेस पंजाब जांच समिति बनाई गई। इस समिति के सदस्य की हैसियत से अक्टूबर 1919 में गांधीजी अमृतसर पहुंचे। स्टेशन पर और उसके बाहर लाखों की भीड़ इकट्ठी थी। मालवीयजी, मोतीलाल नेहरू और स्वामी श्रद्धानंद भी अमृतसर पहुंचे। जांच के लिए गांधीजी ने पंजाब के विभिन्न भागों का दौरा किया। सभी वर्ग के लोगों से मिले। गांधीजी को पंजाब में चलाए गए सैनिक शासन के बारे में सत्य का पता लगा। गांधीजी ने रिपोर्ट ख़ुद लिखी। कर्तव्यनिष्ठ और ईमानदारी से छानबीन के बाद जनता पर किए गए भयंकर अत्याचारों के बारे में जो अकाट्य तथ्य गांधीजी के हाथ में आये, वे दिल को दहला देने वाले थे। रिपोर्ट में अनेक हृदयद्रावक घटनाओं का वर्णन था। सरकार की कड़े शब्दों में निंदा की गई थी। उस रिपोर्ट की एक भी तथ्य का किसी ने खंडन नहीं किया।

परिणाम और उपसंहार

पंजाब के इस जालियांवाला बाग कांड ने लोगों में स्वराज पाने की मंशा को और अधिक बलवती किया। गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर ने इस कांड से व्यथित होकर 30 मई 1919 को अपने विख्यात पत्र द्वारा ‘नाइटहुड’ का ख़िताब ब्रिटिश सरकार को लौटाते हुए  देश की व्यथा और आक्रोश की अभिव्यक्ति दी। गांधीजी ने बोअर युद्ध के दौरान अपने काम के लिए अंग्रेजों द्वारा दी गई कैसर-ए-हिंद की उपाधि को त्याग दिया और कहा, कोई भी सरकार सम्मान की पात्र नहीं है जो अपनी प्रजा की स्वतंत्रता को सस्ता रखती है।

अमृतसर का नरसंहार एक दुखद, परन्तु निर्णायक घटना थी। इस घटना ने महात्मा गाँधी को बहुत ऊंचे आसन पर प्रतिष्ठित कर दिया। बहुत से नरमपंथी राष्ट्रवादियों ने गांधीजी के साथ कंधे से कंधा मिला लियाइस घटना ने यह भी स्थापित कर दिया कि अँग्रेज़ कतई भी भरोसे के लायक नहीं हैं। जब हण्टर समिति की रिपोर्ट प्रकाशित हुई तो गांधीजी को लगा कि वह लीपापोती करने की कोशिश से अधिक कुछ न थी। ब्रिटिश संसद में पंजाब पर हुई बहस सुनने के बाद एक भारतीय संवाददाता ने गांधीजी को लिखा था : हमारे मित्रों ने अपना अज्ञान प्रकट किया, हमारे शत्रुओं ने अपनी तिरस्कारपूर्ण ढिठाई। 1919 की घटना, रॉलेट एक्ट, जालियांवाला बाग कांड और पंजाब में मार्शल लॉ ने यह जता दिया कि अंग्रेज़ी हुकूमत से सिवा दमन के और कुछ नहीं मिलने वाला है।

पंजाब के अत्याचारों के बाद भूल-सुधार के बजाय ब्रिटिश सरकार अपने अफसरों की करतूतों पर पर्दा डालने में लगी थी। ब्रिटिश संसद ने डायर के कारनामों को उचित करार दिया था। ‘मॉर्निन्ग पोस्ट’ ने जनरल डायर को अच्छी-खासी रकम भेंट देने के लिए 30 हज़ार पौंड का कोष जुटाया था, चंदा देने वालों में से एक था रुडयार्ड किपलिंग। यह सब देखकर गांधीजी की ब्रिटिश शासन में रही-सही आस्था भी चूर-चूर हो गई। उनका अब मानना था कि ऐसे ‘शैतानी’ शासन से असहयोग करना प्रत्येक भारतीय का कर्तव्य था। गांधीजी ने देशवासियों को आश्वासन दिया था, केवल एक हज़ार नहीं, हज़ारों-हज़ार असहाय शिशुओं और नारियों के हत्याकांड की संभावना में भी हम धैर्यपूर्वक तैयार रहें – तब तक तैयार रहें, जब तक सारी दुनिया के बीच भारत उस आसन पर न बैठ जाये, जिससे आगे कोई कभी न जा सके। फांसी को हमें जीवन को एक अत्यंत साधारण घटना मान लेना पड़ेगा।

13 अप्रैल,1919 को घटित जालियांवाला बाग हत्याकांड के बाद, रॉलेट विरोधी सत्याग्रह ने अपनी गति खो दी इसके अलावा पंजाब,बंगाल और गुजरात में हुई हिंसा ने गांधी जी को आहत किया| गांधीजी ने जब देखा था कि पूरा माहौल हिंसा की चपेट में है, तो 18 अप्रैल 1919 को उन्होंने सत्याग्रह आन्दोलन वापस ले लिया था। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं था कि गांधीजी का अहिंसक आंदोलन से विश्वास उठ गया था। इसका यह भी मतलब नहीं था कि वे अंग्रेज़ों के कहर से डर गए थे। इसका यह भी मतलब नहीं था कि वे भारतीय जनता से निराश हो गए थे। इतिहासकार एपीजे टेलर के अनुसार, जालियांवाला बाग हत्याकांड निर्णायक क्षण था जब भारतीय ब्रिटिश शासन से अलग हो गए थे" गांधीजी के जीवनीकार लुइ फिशर कहते हैं, जलियांवाला बाग ने भारत के राजनीतिक जीवन को गति दी और गांधीजी को राजनीति में खींच लिया। अमृतसर में जो हुआ उससे गांधीजी ने घोषणा कर दी कि ऐसे 'शैतानी शासन' के साथ सहयोग अब असंभव था। इस घटना के बाद गांधीजी ने भारत से अंग्रेज़ों को जड़ से उखाड़ फेंकने का दृढ़ संकल्प लिया और एक साल बाद उन्होंने फिर एक राष्ट्रव्यापी आंदोलन छेड़ा, जो रॉलेट सत्याग्रह से भी अधिक व्यापक था! अब असहयोग आंदोलन का रास्ता तैयार था। वस्तुपरक दृष्टि से देखा जाए तो डायर ने ब्रिटिश राज के अंत की शुरुआत सुनिश्चित की।

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मनोज कुमार

 

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