गुरुवार, 1 मई 2025

326. सत्याग्रह आश्रम वर्धा

राष्ट्रीय आन्दोलन

326. सत्याग्रह आश्रम वर्धा



1930

जेल से छूटकर गांधीजी थोड़े दिनों के लिए साबरमती आश्रम आए। उन्होंने आश्रम की बहनों को सभा बुलाई। उनसे जेल जाने का आह्वान किया। आश्रम के बच्चों को हरिजन कन्या-छात्रालय में अनसूया बहन के कहने पर रखा गया। 1930 में गांधी जी ने साबरमती आश्रम छोड़ दिया और उन्होंने प्रतीज्ञा की, जब तक देश विदेशी दासता से मुक्त नहीं होता, मैं साबरमती आश्रम में प्रवेश नहीं करूंगा। इसके बाद वे सत्याग्रह आश्रम वर्धा चले आए।

जमनालाल बजाज अपने परिवार के साथ शुरुआती दिनों में कुछ समय साबरमती आश्रम में रहे थे ताकि उनके बच्चे गांधीजी की शिक्षाओं से प्रभावित हो सकें। साबरमती में ही उनकी सबसे बड़ी बेटी कमला की शादी साधारण आश्रम शैली में हुई थी। जमनालाल ने गांधीजी से वर्धा में आश्रम स्थापित करने के लिए विनोबा की सेवाएँ माँगीं। लेकिन साबरमती आश्रम के प्रबंधक मगनलाल ने कहा कि वे विनोबा को नहीं छोड़ सकते। विनोबा को बाद में गुजरात विद्यापीठ में शिक्षक के रूप में भेजा गया। जमनालाल ने कुछ समय बाद गांधीजी से अपना अनुरोध दोहराया और गांधीजी ने विनोबा को वर्धा भेजा जहाँ विनोबा ने आश्रम विकसित करने में जमनालाल की मदद की। गांधीजी अब विनोबा के साथ रहने और उनके काम को स्वयं देखने के लिए वर्धा गए थे। वे बहुत प्रसन्न थे और वहाँ रहते हुए उन्हें बहुत शांति महसूस हुई।

वर्धा में सेवाग्राम आश्रम बनाया जाने लगा। यह वर्धा से पांच मील की दूरी पर था। बहुत सारे लोग इस आश्रम के बनवाने में सहयोग करने लगे। गांधीजी सेवाग्राम स्थल पर ही झोपड़ी बनाकर रह रहे थे। बाक़ी लोग शाम को वर्धा लौट जाते। वर्धा से अश्रम स्थल का रास्ता बेहद ख़राब था। सड़क उबड़-खाबड़, ऊंची-नीची थी। लोगों को आने-जाने में काफ़ी परेशानी का सामना करना पड़ रहा था।

कुछ लोगों ने बापू को सलाह दी कि यदि वे प्रशासन को पत्र लिखें तो वह रास्ता प्रशासन के सहयोग से जल्दी बन जाएगा और लोगों को आने-जाने में सुविधा होगी। गांधी जी ने मुस्कुराते हुए कहा, प्रशासन को लिखे बग़ैर भी यह रास्ता ठीक हो सकता है।

गांधी जी का कहा लोग समझ नहीं पाए। गांधी जी ने उन्हें समझाते हुए कहा, यदि हर कोई वर्धा से आते-जाते समय इधर-उधर पड़े पत्थरों को रास्ते में बिछाता जाय, तो रास्ता ठीक हो सकता है।

अगले दिन से ही लोग आते-जाते समय पत्थरों को रास्ते के लिए डालते जाते और उसे समतल करते जाते। गांधीजी के एक प्रशंसक बृजकृष्ण चांदीवाल, जो शरीर से मोटे भी थे, एक दिन पांच मील के उस ख़राब रास्ते को बड़ी कठिनाई से तय कर हांफते हुए आश्रम पहुंचे और पसीना पोंछते हुए गांधीजी से बोले, क्या दो-दो पत्थर इधर से उधर कर देने से यह रास्ता बन जाएगा? यदि आप रास्ते का काम प्रशासन से नहीं करवा सकते तो बताइए कितना पैसा लगेगा इसके मरम्मत में, इस रास्ते के निर्माण पर आने वाला ख़र्च मैं वहन करूंगा।

गांधीजी मुस्कुराते हुए बोले, आपके दान से हमें लाभ होगा। सही है। लेकिन धन दान नहीं हमें श्रमदान चाहिए। बूंद-बूंद से घड़ा भरता है! यदि आप भी हमारे इस श्रमदान यज्ञ में जुड़ेंगे तो इसके तीन फ़ायदे होंगे। एक हमारा आश्रम ठीक होगा। दो आपका धन बचेगा और तीन आपका मोटापा भी कम होगा। आप निरोगी होंगे।

गांधीजी आश्रम का निर्माण सहयोग, सेवा और समर्पण से ही पूरा परवाना चाहते थे।

मुन्नालाल शाह के अनुरोध पर गांधी जी ने सेवाग्राम की स्थापना के दौरान मीरा बहन को भी बुला लिया। मीरा बहन आ गईं। उन्होंने मीरा बहन को पास के एक गांव में रहने को राज़ी किया। गांधीजी अस्वस्थ रहते थे। उनका रक्तचाप बिगड़ गया। डॉक्टरों ने उन्हें तन्हा वार्ड में रखने की सलाह दी।

विनोबा भावे वर्धा आश्रम के प्रबंधक थे। आश्रम का औसत मासिक व्यय 3,000 रुपये था, जो मित्रों द्वारा वहन किया जाता था। आश्रम के पास 132 एकड़ 38 गुंठा क्षेत्रफल वाली भूमि थी, जिसका मूल्य रु. 26,972-5-6, और इमारतें रु. 2,95,121-15-6, जो निम्नलिखित न्यासी बोर्ड के पास थी, 1. शेठ जमनलाल बजाज, 2. सार्जेंट. रेवाशंकर जगजीवन झावेरी, 3. महादेव हरिभाई देसाई, 4. इमाम अब्दुल कादिर बावज़ीर और 5. छगनलाल खुशालचंद गांधी। आश्रम में 55 कर्मचारी, ए.आई.एस.ए. तकनीकी स्कूल के 43 शिक्षक और छात्र, 5 पेशेवर बुनकर, 30 कृषि मजदूर मिलाकर कुल 130 पुरुष थे। आश्रम में 49 बहनें, 10 पेशेवर मज़दूर, 7 बुनकर मिलाकर कुल 66 महिलाएँ थीं। 78 बच्चे मिलाकर आश्रम के सदस्यों का कुल योग 277 था।

सितंबर 1933 में गांधीजी वर्धा के सत्याग्रह आश्रम में चले गए। 30 सितंबर को उन्होंने साबरमती आश्रम को हरिजन हित के लिए सर्वेंट्स ऑफ अनटचेबल्स सोसाइटी को दे दिया। उन्होंने लिखा: "जब अगस्त 1932 में संपत्ति को छोड़ दिया गया था, तो निश्चित रूप से यह उम्मीद थी कि किसी दिन, चाहे सम्मानजनक समझौते के माध्यम से या भारत के अपने अधिकार में आने के बाद, ट्रस्टी फिर से कब्जा कर लेंगे। लेकिन नए प्रस्ताव के तहत, ट्रस्टी खुद को पूरी तरह से संपत्ति से अलग कर लेते हैं।"

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मनोज कुमार

 

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संदर्भ : यहाँ पर

 

शनिवार, 26 अप्रैल 2025

325. पहला गोल मेज सम्मेलन

राष्ट्रीय आन्दोलन

325. पहला गोल मेज सम्मेलन



1930

अहमदाबाद में कांग्रेस महासमिति की बैठक

 15 मई को अहमदाबाद में कांग्रेस महासमिति की एक बैठक की गई। इसमें नमक सत्याग्रह ज़ारी रखने, विदेशी कपड़ों का पूर्ण बहिष्कार करने और शराब की दुकानों पर धरना देने का प्रस्ताव पारित किया गया। यह भी सुझाव दिया कि राजस्व का भुगतान नहीं किया जाएगा।

दांडी यात्रा एक ऐसी चिंगारी थी जिसने स्वतंत्रता आंदोलन की लौ को प्रज्ज्वलित किया व सविनय अवज्ञा आंदोलन की जड़ों को पूरे देश में व्यापक रूप से फैलाने में निर्णायक भूमिका अदा की।  नमक यात्रा के कारण ही अंग्रेजों को यह अहसास हुआ था कि अब उनका राज बहुत दिन नहीं टिक सकेगा और उन्हें भारतीयों को भी सत्ता में हिस्सा देना पड़ेगा। इस लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए ब्रिटिश सरकार ने लंदन में गोल मेज सम्मेलनों का आयोजन शुरू किया।

1929 में, रैमसे मैकडोनाल्ड के नेतृत्व में लेबर सरकार ने ब्रिटेन में सत्ता संभाली और वायसराय लॉर्ड इरविन को परामर्श के लिए लंदन बुलाया गया। 1930 के दौरान सरकार का रवैया दुविधापूर्ण रहा। इस बीच, साइमन कमीशन की रिपोर्ट का प्रकाशन, जिसमें डोमिनियन स्टेटस का कोई उल्लेख नहीं था और जो अन्य तरीकों से एक प्रतिगामी दस्तावेज भी था, दमनकारी नीति के साथ मिलकर उदारवादी राजनीतिक राय को और भी परेशान कर दिया। घटनाक्रम तेजी से आगे बढ़ रहा था। ब्रिटिश सरकार ने एक कदम आगे बढ़ाया और वायसराय लॉर्ड इरविन ने अक्टूबर में इंग्लैंड से लौटने के तुरंत बाद एक गोलमेज सम्मेलन की घोषणा की, जिसमें ब्रिटिश और भारतीय राजनेता शामिल थे, जिसका उद्देश्य संसद में प्रस्तुत किए जाने वाले अंतिम प्रस्तावों पर सहमति प्राप्त करना था। 31 अक्टूबर को लॉर्ड इरविन द्वारा दिए गए बयान में उन्होंने कहा: "ब्रिटेन और भारत दोनों में 1919 के क़ानून को लागू करने में ब्रिटिश सरकार के इरादों पर की जाने वाली व्याख्या के बारे में व्यक्त की गई शंकाओं को देखते हुए, मैं महामहिम की सरकार की ओर से स्पष्ट रूप से यह कहने के लिए अधिकृत हूं कि उनके निर्णय में, 1917 की घोषणा में यह निहित है कि भारत की संवैधानिक प्रगति का स्वाभाविक मुद्दा, जैसा कि वहां परिकल्पित है, डोमिनियन स्थिति की प्राप्ति है।" लॉर्ड इरविन ने पहली बार एक बाध्यकारी आधिकारिक कथन में जादुई शब्द "डोमिनियन" का इस्तेमाल किया। यह वादा अनिर्धारित और अपरिभाषित था, लेकिन फिर भी इसने भारतीय नेताओं पर अपनी छाप छोड़ी, क्योंकि इसके साथ ही दो समान राष्ट्रों के नेताओं के बीच एक गोलमेज सम्मेलन की पेशकश भी हुई, जिसकी भारतीयों ने लंबे समय से व्यर्थ मांग की थी।

वायसराय द्वारा यह घोषणा अभी की ही गई थी कि दिल्ली में अध्यक्ष पटेल के निवास पर नेताओं का सम्मेलन बुलाया गया। सम्मेलन तीन घंटे से अधिक समय तक चला और इसमें गांधीजी के मसौदे पर कुछ संशोधनों के साथ विचार किया गया, जिसमें सप्रू द्वारा दिए गए कुछ सुझाव भी शामिल थे। सहमति वाला बयान इस प्रकार था: "हम घोषणाओं में निहित ईमानदारी की सराहना करते हैं, साथ ही ब्रिटिश सरकार की भारतीय जनमत को खुश करने की इच्छा की भी। हमें उम्मीद है कि हम भारत की जरूरतों के लिए उपयुक्त डोमिनियन स्टेटस संविधान की योजना विकसित करने के उनके प्रयास में महामहिम की सरकार को अपना सहयोग देने में सक्षम होंगे, लेकिन हम यह आवश्यक समझते हैं कि कुछ कार्य किए जाने चाहिए और कुछ बिंदुओं को स्पष्ट किया जाना चाहिए, ताकि विश्वास को प्रेरित किया जा सके और देश में प्रमुख राजनीतिक संगठनों का सहयोग सुनिश्चित किया जा सके।" शर्तें थीं: प्रस्तावित सम्मेलन में सभी चर्चाएं भारत के लिए पूर्ण डोमिनियन स्टेटस के आधार पर होनी चाहिए; सम्मेलन में कांग्रेसियों का प्रमुख प्रतिनिधित्व होना चाहिए; सभी राजनीतिक कैदियों को आम माफी दी जानी चाहिए; भारत सरकार अब से, जहां तक ​​संभव हो, मौजूदा परिस्थितियों में, एक डोमिनियन सरकार की तर्ज पर चलेगी।

घोषणापत्र पर गांधी, मालवीय, मोतीलाल नेहरू, सप्रू, श्रीमती बेसेंट और डॉ. अंसारी सहित अन्य लोगों ने हस्ताक्षर किए थे। जवाहरलाल नेहरू पहले असहमत दिखे, लेकिन बाद में उन्होंने इस पर हस्ताक्षर करने पर सहमति जताई। सुभाष बोस, डॉ. किचलू और अब्दुल बारी ने घोषणापत्र का समर्थन करने से इनकार कर दिया।

वायसराय के बयान ने इंग्लैंड में तूफान खड़ा कर दिया। प्रधानमंत्री मैकडोनाल्ड को यह स्पष्ट करना पड़ा कि इसका मतलब नीति में कोई बदलाव या डोमिनियन स्टेटस में कोई तेज़ी नहीं है।

पहला गोल मेज सम्मेलन 12 नवम्बर 1930 में आयोजित किया गया। जब हजारों भारतीय जेल जा रहे थे या लाठियों और गोलियों का सामना कर रहे थे, और संपत्ति का नुकसान हो रहा था, तब एक गैर-प्रतिनिधित्व वाला मुट्ठी भर व्यक्ति बहुदलीय ब्रिटिश प्रतिनिधिमंडल के साथ संवैधानिक वार्ता के लिए लंदन गया था। इसमें 112 प्रतिनिधियों ने भाग लिया था। कांग्रेस ने खुद को दूर रखा था।

देश में आंदोलन अपने चरम पर था। हज़ारों भारतवासी जेल जा रहे थे। भारत के सपूत लाठी या गोली खा रहे थे। लोग अपनी संपत्ति से वंचित हो रहे थे। ऐसे में बहुदलीय ब्रिटिश शिष्टमंडल के साथ संवैधानिक वार्ताएं करने के लिए न तो उसमें महात्मा गांधी और न ही कांग्रेस का कोई प्रमुख नेता शामिल हुए। इसी कारण अंततः  यह बैठक निरर्थक साबित हुई। उदावादी प्रतिनिधियों ने गोलमेज सम्मेलन को भारत के लिए एक उपलब्धि बताया। सप्रू और जयकर ने इस समेलन में भाग लिया था। होमी मोदी को छोड़कर व्यापारियों के किसी नेता ने भी भाग नहीं लिया। मुहम्मद अली, मुहम्मद शफ़ी, आग़ाख़ान, फ़ज़लुल-हक़, जिन्ना, फ़ज़्ले हुसैन आदि मुसलमान नेता बड़ी संख्या में उपस्थित थे। रजवाड़ों का एक बड़ा जत्था भी मौज़ूद था। नेता भीमराव अंबेडकर इसमें सम्मिलित हुए और वहां उन्होंने अलग निर्वाचक मंडल बनाए जाने की मांग प्रस्तुत की। जो भी लोग इस सम्मेलन में भाग लेने के लिए आए थे उनके सामने ब्रिटिशों द्वारा केन्द्र में किसी प्रकार के परिवर्तन का वादा करना आवश्यक हो गया था। ऐसी स्थिति में रजवाड़ों द्वारा एक संघीय विधायिका का प्रस्ताव आया जिसके बहुत से सदस्य राजाओं द्वारा मनोनीत हों और वह कार्यपालिका के प्रति उत्तरदायी हो। प्राधानमंत्री रैमजे मैकडोनल्ड ने इसे मानने की घोषणा कर दी। भारतीय राजा तो चाहते थे कि केन्द्र में कमज़ोर सरकार रहे, जिसमें उनकी उपस्थिति उसे लोकतांत्रिक बनाए रखने में सहायक होगी। खास तौर से ऐसे समय में जन-आंदोलन के दबाव के कारण कम-से-कम डोमिनियन स्टेटस मिलने का खतरा दिखाई दे रहा था, जिसमें केन्द्र में कांग्रेसी वर्चस्ववाली सरकार तो आ ही जाती। मुसलमान भी केन्द्र में कमज़ोर सरकार चाहते थे। ब्रिटिशों के लिए भी यह लाभप्रद प्रस्ताव था ताकि उत्तरदायी सरकार के मुखौटे के पीछे वास्तव में ब्रिटिश नियंत्रण बनाए रखा जा सकता। अंग्रेज़ों के पक्ष में एक और बात यह हुई कि सम्मेलन की अल्पसंख्यक समिति किसी समझौते पर पहुंचने में असफल रही। जिन्ना, शफ़ी और आग़ाख़ान उदारवादियों के सप्रू गुट के साथ समझौते की स्थिति तक लगभग पहुंच ही गए थे। इसका आधार संयुक्त निर्वाचक मंडल होते और मुसलमानों के लिए आरक्षित सीटें होतीं। लेकिन हिंदू महासभा ने पंजाब और बंगाल में मुसलमानों के आरक्षण का विरोध किया। उसपर से सिखों ने पंजाब में सिखों के लिए 30% प्रतिनिधित्व की मांग रख दी। इस तरह एकता का अवसर हाथ से जाता रहा। सम्मलेन असफल रहा। निराश जिन्ना ने मन में यह भाव लिए कि कांग्रेस ने खुद को पूरी तरह गांधी के हाथों में सौंप दिया है, सीधे भारत न आने का फैसला किया। उसने लन्दन में ही वकालत करने की सोची।

19 जनवरी, 1931 को सम्मेलन के समापन सत्र में ब्रिटिश प्रधान मंत्री रैमजे मैक्डोनल्ड ने अपने विदाई भाषण में यह आशा व्यक्त की कि कांग्रेस अपने प्रतिनिधि द्वितीय गोलमेज सम्मेलन के लिए ज़रूर भेजेगी। प्रधान मंत्री ने घोषणा की कि, एक संघीय विधानसभा जिसमें एक बड़ा हिस्सा राजकुमारों द्वारा मनोनीत किया जाएगा, एक सुरक्षित निकाय साबित होगी। यह विचार औपचारिक रूप से राजकुमारों, विशेष रूप से हैदराबाद (अकबर हैदरी) और मैसूर (मिर्जा इस्माइल) के दीवानों से आया था, लेकिन हैदरी को शुरू में ब्रिटिश निवासी लेफ्टिनेंट कर्नल टेरेंस एच. कीज़ द्वारा राजी किया गया था, और इस सुझाव को मैल्कम हैली जैसे ब्रिटिश अधिकारियों और रीडिंग, होरे, ज़ेटलैंड जैसे ब्रिटिश राजनेताओं और बहुत उदार लेबराइट राज्य सचिव वेजवुड-बेन ने उत्सुकता से लिया था। भारतीय राजाओं की रुचि एक कमजोर केंद्र में थी, जिसे उनके प्रवेश से अलोकतांत्रिक बनाए रखने में भी मदद मिलेगी, खासकर ऐसे समय में जब जन दबाव के कारण डोमिनियन स्टेटस लाने की धमकी दी जा रही थी, कम से कम कांग्रेस के प्रभुत्व वाली केंद्रीय सरकार के साथ-और यहां हिंदू बहुमत वाले शासन की संभावना से चिंतित राजकुमारों और मुस्लिम राजनेताओं के बीच हितों की एक वस्तुगत समानता भी थी।

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मनोज कुमार

 

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संदर्भ : यहाँ पर

 

मंगलवार, 22 अप्रैल 2025

324. नमक सत्याग्रह, दांडी मार्च-6

राष्ट्रीय आन्दोलन

324. नमक सत्याग्रह, दांडी मार्च-6



1930

प्रभाव और उपसंहार

नमक सत्याग्रह का नाम सुन गांधीजी का बहुत से आलोचकों ने मज़ाक़ उड़ाया था। कई ने तो यहां तक कह डाला, सविनय अवज्ञा का अत्यंत सीमित और प्रभावहीन रूप देखने को मिला, जिससे जनसाधारण को बहुत ही मामूली आर्थिक लाभ मिलादेशव्यापी स्वतंत्रता संग्राम की योजना में नमक आन्दोलन का महत्व लोगों की समझ में नहीं आ रहा था। अधिकांश लोग इस बात का उपहास करने लगे कि नमक भी कोई सत्याग्रह की चीज़ है! आने वाली घटनाओं ने दिखा दिया कि नमक और स्वराज्य के बीच पारस्परिक सम्बन्ध है। इस सत्याग्रह से भारतीय जनता को सामूहिक आन्दोलन के लिए संगठित करने की गांधीजी की कुशलता उभर कर सामने आई। गांधीजी ने नमक के द्वारा जहां एक तरफ़ ग्रामीण लोगों को स्वराज्य के मुद्दे से जोड़ा वहीं दूसरी तरफ़ शहरी लोगों का भी इसके प्रति समर्थन प्राप्त किया। नमक के मुद्दे ने स्वराज्य के आदर्श को गांवों के ग़रीबों की शिकायत से जोड़ दिया। इसने किसानों को एक अवसर दिया कि वे अपनी सहायता ख़ुद करते हुए कुछ अतिरिक्त आय कर सकें। गांधीजी के नगरीय समर्थकों को इसका मौक़ा मिला कि वे प्रतीक के रूप में जनता के व्यापक कष्टों से स्वयं को एकाकार कर सकें।

नमक सत्याग्रह की सफलता को देखकर जिन लोगों ने गांधीजी पर संदेकिया था और उनका उपहास किया था, लज्जित थे। नेहरू जी लिखते हैं, हमें इस बात पर लज्जा आई कि जब गांधीजी ने पहले-पहल नमक बनाकर नमक-क़ानून को भंग करने का प्रस्ताव रखा था तो हमने उनकी कार्य-क्षमता पर शंका प्रकट की थी। आज हम उनके जनता को प्रभावित करने और उससे संगठित रूप से काम कराने के आश्चर्यजनक कौशल को देखकर स्तंभित रह गए।  

नमक यात्रा को दुनिया भर में प्रचार मिला प्रेस की सुर्ख़ियों में जगह मिली और उसकी तस्वीरें प्रकाशित की गईं नमक यात्रा के कारण महात्मा गाँधी दुनिया की नजर में आए। इस यात्रा को यूरोप और अमेरिकी प्रेस ने व्यापक कवरेज दी। ‘न्यूफ़्रीमैन’ का अमरीकी संवाददाता वैब मिलर ने नृशंस लाठीचार्ज का आंखों देखा वर्णन इस तरह किया था, अठारह वर्ष़ों से मैं दुनिया के बाइस देशों में संवाददाता का काम कर चुका हूं, लेकिन जैसा हृदय-विदारक दृश्य मैंने धरसाना में देखा, वैसा और कहर देखने को नहीं मिला। घायलों की चिकित्सा का कोई प्रबंध नहीं था। कई लोगों की मौत हो गई। कभी-कभी तो दृश्य इतना लोमहर्षक और दर्दनाक हो जाता कि मैं देख भी नहीं पाता और मुझे कुछ क्षणों के लिए आंखें बन्द कर लेनी पड़ती थी। स्वयंसेवकों का अनुशासन कमाल का था। गांधीजी की अहिंसा को उन्होंने रोम-रोम में बसा लिया था मिलर की रिपोर्ट युनाइटेड प्रेस के तहत जब विश्वभर के 1350 से अधिक समाचार पत्रों में प्रकाशित हुई, तो सनसनी फैल गई।

ब्रिटिश सरकार के लिए यह एक बड़ा राजनीतिक संघर्ष था। लेकिन एक बात तो तय है कि इस आंदोलन ने जनसाधारण के मन में क़ानून और व्यवस्था के प्रति भयंकर उपेक्षा का भाव पैदा किया। लोगों के दोल में साम्राज्यविरोधी भावना मज़बूत हुई। यह एक अनोखा अहिंसक संघर्ष था, जिसमें पुलिस और कांग्रेस के स्वयंसेवकों के बीच एक प्रतिद्वन्दिता चल रही थी कि वह कितनी चोट पहुंचा सकती है और वे कितना सहन कर सकते हैं। इस अहिंसक आंदोलन के बाद देश में अंग्रेज़ी शासन के ख़िलाफ़ सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरु हुआ था। इस सत्याग्रह ने ब्रिटिश वर्चस्व तोड़ने के लिए भावनात्मक और नैतिक बल दिया था। ह कांग्रेस की रणनीति की भारी जीत साबित हुईब्रिटिश सरकार नमक सत्याग्रह की रणनीति का महत्त्व आंकने में बुरी तरह विफल रही। नमक राष्ट्रीयता का प्रतीक बन गया। लोग नमक बनाने के लिए संघर्ष नहीं कर रहे थे बल्कि उसके जरिए वे यह साबित कर रहे थे कि सरकारी दमन बहुत दिनों तक नहीं चल सकता। भारत पर ब्रिटेन की लंबे समय तक चली हुक़ूमत कई मायने में चाय, कपड़ा और यहां तक कि नमक जैसी वस्तुओं पर एकाधिकार क़ायम करने से हुई थी। नमक अपने आप में कोई बहुत बड़ी चीज़ नहीं थी, लेकिन वह राष्ट्रीयता का प्रतीक बन गया। लोग नमक के ज़रिए यह साबित कर रहे थे कि सरकारी दमन बहुत दिनों तक नहीं चल सकता। सरकार का दमन ज़ारी रहा। कांग्रेसी नेता लगातार गिरफ़्तार किए जाते रहे। जेल से छूटने पर सरदार पटेल ने बारडोली में सत्याग्रह शुरू किया। सरकार की दमनात्मक कार्यवाही असहनीय हो गई। नमक यात्रा के कारण ही अंग्रेजों को यह अहसास हुआ था कि अब उनका राज बहुत दिन नहीं टिक सकेगा और उन्हें भारतीयों को भी सत्ता में हिस्सा देना पड़ेगा। लार्ड इरविन ने दमन की व्यर्थता महसूस की। उसने दिसम्बर में कलकत्ता में कहा, हालाकि मैं सविनय अवज्ञा की ज़ोरदार ढंग से निन्दा करता हूं, फिरभी यह हमारी भयंकर भूल होगी कि राष्ट्रवाद के शक्तिशाली आशय को कम करके आंके। सरकार के कठोर कदमों से न तो कोई पूर्ण व स्थायी हल निकाला जा सका है और न शायद कभी निकाला जा सकेगा।

यह एक ऐसा सफल आंदोलन था जिसने न सिर्फ ब्रिटेन को बल्कि सारे विश्‍व को स्तब्ध कर दिया था। पनामा के भारतीय व्यापारियों ने 24 घंटे के लिए अपना काम ठप्प कर दिया। सुमात्रा में भी ऐसा ही हुआ। नैरोबी में भारतीयों ने दुकानें बन्द कर दी। अमेरिका से 102 पादरियों ने ब्रिटिश प्रधानमंत्री को एक तार भेजा कि गांधीजी और भारतीयों के साथ मैत्रीपूर्ण फैसला कर लेना चाहिए।

संगठनात्मक अनुशासन ने इसे अधिक प्रभावी बनाया। इस आंदोलन ने यह साबित कर दिया कि सत्य, अहिंसा और सविनय अवज्ञा में एक छिपी हुई ताक़त है, जो हिंसात्मक कार्रवाई को भी झुका सकती है। इस आंदोलन ने यह भी दिखा दिया कि क़ुर्बानी के लिए देश की जनता तैयार है और आज़ादी के लिए कुछ भी कर गुज़रना हर देशवासी का धर्म है। सबसे बड़ी बात थी, नमक आन्दोलन का अनुशासित ढंग से संपन्न होना, जो सम्पूर्ण सत्याग्रह की एक महान सफलता थी। अंग्रेज़ी शासन के ख़िलाफ़ सविनय अवज्ञा सत्याग्रह ने ब्रिटिश वर्चस्व तोड़ने के लिए भावनात्मक और नैतिक बल दिया था। जैसे-जैसे सत्याग्रहियों का दल आगे बढ़ता गया, वैसे-वैसे देश में उत्तेजना फैलती गई।

गांधी जी का नमक आंदोलन और दांडी पदयात्रा आधुनिक काल के शांतिपूर्ण संघर्ष का सबसे अनूठा उदाहरण है। सुभाषचंद्र बोस ने गांधीजी की इस यात्रा की तुलना नेपोलियन के पेरिस मार्च और मुसोलिनी के रोम मार्च से की थीअमेरिका की प्रतिष्ठित टाइम पत्रिका ने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान 1930 में महात्मा गांधी की अगुआई में दांडी यात्रा के दौरान किए गए ‘नमक सत्याग्रह’ को दुनिया में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने वाले सर्वाधिक प्रभावशाली दस आंदोलनों में की सूची में अमेरिकी स्वतंत्रता आंदोलन में निर्णायक भूमिका निभाने वाली ‘बोस्टन चाय पार्टी’ के बाद दूसरे स्थान पर रखा है।

नमक यात्रा की प्रगति को एक और बात से भी समझा जा सकता है। अमेरिकी समाचार पत्रिका टाइम को गाँधीजी की कदकाठी पर हँसी आती थी। पत्रिका ने उनके तकुए जैसे शरीर और मकड़ी जैसे पैरो का खूब मजाक उड़ाया था। इस यात्रा के बारे में अपनी पहली रिपोर्ट में ही टाइम ने नमक यात्रा के मंजिल तक पहुँचने पर अपनी गहरी शंका व्यक्त कर दी थी। लेकिन एक रात में ही पत्रिका की सोच बदल गई। टाइम ने लिखा कि इस यात्रा को जो भारी जन समर्थन मिल रहा है उसने अंग्रेज शासकों को  बेचैन कर दिया है। अब वे भी गाँधी जी को ऐसा साधु और जन नेता कह कर सलामी देने लगे हैं जो ईसाई धर्मावलंबियों के खिलाफ़ ईसाई तरीकों का ही हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रहा है। उसी टाइम पत्रिका ने गांधी जो को 1930 का सर्वश्रेष्‍ठ मानव घोषित किया।

नमक सत्याग्रह के कारण सारे देश में, बड़े शहरों के निम्न मध्यमवर्ग के लोगों में, उत्साह की एक तीव्र लहर दौड़ गई। गिरफ़्तारियों के दौर के बाद नाम वाले नेताओं के नेतृत्व के रंगमंच से हट जाने के बाद नीचे से होने वाले जुझारू आंदोलनों को भी उभरने का मौक़ा मिला। व्यापारी वर्ग और किसानों का भारी समर्थन इस आन्दोलन को मिला। पुलिस के जासूसों ने अपनी रिपोर्ट में लिखा था कि गाँधीजी की सभाओं में तमाम जातियों के औरत-मर्द शामिल हो रहे हैं। हजारों वॉलंटियर राष्ट्रवादी उद्देश्य के लिए सामने आ रहे थे। उनमें से बहुत सारे ऐसे सरकारी अफ़सर थे जिन्होंने औपनिवेशिक शासन में अपने पदों से इस्तीफ़ा दे दिए थे। गांधीजी जिस-जिस राह से गुजरते, वहां के ग्राम अधिकारी अपने पदों से त्यागपत्र देने लगे थे। असहयोग आन्दोलन की तरह अधिकृत रूप से स्वीकृत राष्ट्रीय अभियान के अलावा भी विरोध की असंख्य धाराएँ थीं। देश के विशाल भाग में किसानों ने दमनकारी औपनिवेशिक वन कानूनों का उल्लंघन किया जिसके कारण वे और उनके मवेशी उन्हीं जंगलों में नहीं जा सकते थे जहाँ एक जमाने में वे बेरोकटोक घूमते थे। कुछ कस्बों में फैक्ट्री कामगार हड़ताल पर चले गए, वकीलों ने ब्रिटिश अदालतों का बहिष्कार कर दिया और विद्यार्थियों ने सरकारी शिक्षा संस्थानों में पढ़ने से इनकार कर दिया।

इस सत्याग्रह ने ब्रिटिश वर्चस्व तोड़ने के लिए भावनात्मक और नैतिक बल दिया था। गांधीजी की जनता में प्रेरणा भरने की इस विस्मयकारी शक्ति को बहुत पहले ही श्री गोखले जी ने भांप लिया था और कहा था, इनमें मिट्टी के घोंघे से बड़े-बड़े बहादुरों का निर्माण करने की शक्ति है। अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ नमक जैसे इस प्रतीकात्मक विरोध मार्च ने भारत में विदेशी हुक़ूमत के पतन का भावनात्मक और नैतिक आधार दिया। राष्ट्रीय उद्देश्य को पाने के लिए एक कार्य-प्रणाली के रूप में शांतिपूर्ण सविनय अवज्ञा आंदोलन की उपयोगिता पर अब किसी को संदेह नहीं रह गया था। यह गांधीजी के ही नेतृत्व और प्रशिक्षण का चमत्कार था कि लोग अंग्रेजी हुकूमत की लाठियों के प्रहार को अहिंसात्‍मक सत्‍याग्रह से नाकाम बना गए। लोगों में यह विश्वास जड़ जमा चुका था कि वे विजय की ओर कदम बढ़ा चुके हैं। क़रीब एक लाख सत्याग्रही, जिनमें 17,000 महिलाएं थीं, जेल में थे। स्कूलों और कालेजों का बहिष्कार कर छात्र भी स्वतंत्रता के आन्दोलन में हिस्सा लेने लगे थे। प्रशासन करीब-क़रीब ठप्प पड़ गया था। जिस वायसराय ने गांधीजी की चुटकी भर नमक से सरकार को परेशान कर देने की योजना की हंसी उड़ाई थी, अब महसूस करने लगे थे कि स्थिति पर उनका नियंत्रण खो चुका है। फरवरी 1931 में इरविन ने गांधीजी के सामने स्वीकार किया था, आपने तो नमक के मुद्दे को लेकर अच्छी रणनीति तैयार की है। उधर देश के लोगों के मन में यह आशा बंध चली थी कि अहिंसात्मक मार्ग ही हमें स्वराज्य की ओर ले जाएगा।

सारे देश में, बड़े शहरों के निम्न मध्यम वर्ग के लोगों में, उत्साह की एक तीव्र लहर दौड़ गई। इसकी एक अभिव्यक्ति था नागरिक अवज्ञा आंदोलन में स्त्रियों का प्रवेश। हालाकि सिविल नाफ़रमानी के इस पूरे  आंदोलन में मुसलमानों की भागीदारी कम रही लेकिन स्त्रियों और किशोरों का शामिल होना इसकी एक बड़ी विशेषता थी। मुसलमानों की कम भागीदारी का कुछ विद्वानों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि पिछले असहयोग आन्दोअन और इस सविनय अवज्ञा आन्दोलन के बीच के एक दशक में कई साम्प्रदायिक संगठन सक्रिय हो चुके थे। व्यापारी वर्ग और किसानों का भारी समर्थन इस आन्दोलन को मिला। संगठनात्मक अनुशासन ने इसे अधिक प्रभावी बनाया। गिरफ़्तारियों के दौर के बाद नाम वाले नेताओं के नेतृत्व के रंगमंच से हट जाने के बाद नीचे से होने वाले जुझारू आंदोलनों को भी उभरने का मौक़ा मिला। ऐसे आंदोलनों पर जून की कांग्रेस की कार्यकारी समिति की बैठक में मुहर लगा दी गई।

यह पहली राष्ट्रवादी गतिविधि थी जिसमें औरतों ने भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। वे धरना देतीं, जुलूसों और प्रदर्शनों में शामिल होतीं, क़ानून तोड़तीं और जेल जातीं। समाजवादी कार्यकर्ता कमलादेवी चटोपाध्याय ने गाँधी जी को समझाया कि वे अपने आंदोलनों को पुरुषों तक ही सीमित न रखें। कमलादेवी खुद उन असंख्य औरतों में से एक थीं जिन्होंने नमक या शराब कानूनों का उल्लंघन करते हुए सामूहिक गिरफ़तारी दी थी। नागरिक अवज्ञा आंदोलन से और किसी उद्देश्य की पूर्ति हुई हो या नहीं, उसने बड़े पैमाने पर भारतीय स्त्रियों को सामाजिक मुक्ति दिलाने का महान कार्य किया। आंदोलन का यह एक सकारात्मक पहलू था। 75 वर्षों के सामाजिक सुधार के आंदोलन को भारतीय स्त्रियों को मुक्त करा पाने में जो सफलता नहीं मिली थी, वह इस आंदोलन ने हफ़्तों में प्राप्त कर ली।

वायसराय ने इस गतिविधियों को प्रभावहीन करने के लिए कठोर अध्यादेश ज़ारी किए। उसने दमन का खुला परवाना दे दिया था। लेकिन आंदोलन धीमा नहीं पड़ा। उद्योगपति वर्ग ने स्पष्ट रूप से साम्राज्यवादी नीतियों के प्रति आक्रोश प्रकट किया और सविनय अवज्ञा आन्दोलन को प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से मदद पहुंचाई। बंबई की धारासभा से बहिर्गमन करते हुए घनश्यामदास बिड़ला ने घोषणा की थी भविष्य में किसी भी संरक्षण की अपेक्षा करना पत्थर की दीवार से टकराना होगा। उन्होंने आंदोलन के लिए पांच लाख रुपयों का चंदा दिया। ठाकुरदास ने कलकत्ता के व्यापारियों को राज़ी कर लिया कि विदेशी कपड़ों का आयात नहीं किया जाएगा। जमनालाल बजाज ने बंबई  और अहमादाबाद के कपड़ा मिलों से कपड़ा खरीदे जाने के प्रयासों को बल दिया। डी.पी. खेतान ने कलकत्ता में घोषणा की, जब तक भारत स्वायत्त शासन प्राप्त नहीं कर लेता, उसकी आर्थिक स्थिति में सुधार नहीं हो सकता। इन सब प्रयासों से विदेशी कपड़ों के आयात में भारी कमी आई। विदेशी वस्त्रों और ब्रिटिश सामानों का बहिष्कार किया गया। अनेकों लोग आंदोलन से जुड़ते जा रहे थे।  अधिकतर भारतीय दुकानदारों ने भी सहयोग किया और विदेशी वस्त्रों का व्यापार पूरी तरह बंद कर दिया। परिणामस्वरूप कपास से निर्मित कपड़ों के आयात में भारी गिरावट आई। बंबई के ब्रिटिश स्वामित्व वाली 16 मिलों का कारोबार बंद हो गया। भारतीय स्वामित्व वाली कंपनी के कारोबार में दुगुनी वृद्धि हुई। खद्दर के उत्पादन में 63 लाख गज से 113 लाख गज की बढोत्तरी हुई। 1929 में 384 खादी भंडारों की तुलना में 1930 में यह संख्या 600 हो गई। इस प्रकार स्वदेशी आन्दोलन ने भारतीय उद्योग की सहायता की।

असल में जनता के सुसंगठित और व्यवस्थित आंदोलन को चलाने की गांधीजी के सामर्थ्य का लोगों को ज्ञान ही नहीं था।  इस आंदोलन ने यह साबित कर दिया कि सत्य, अहिंसा और सविनय अवज्ञा में एक छिपी हुई ताक़त है, जो हिंसात्मक कार्रवाई को भी झुका सकती है। इस आंदोलन ने यह भी दिखा दिया कि क़ुर्बानी के लिए देश की जनता तैयार है और आज़ादी के लिए कुछ भी कर गुज़रना हर देशवासी का धर्म है। दांडी यात्रा से एक चिंगारी भड़की जो सविनय अवज्ञा आंदोलन में बदल गई। इसने भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष और स्वयं गांधीजी को परिभाषित किया। इस यात्रा ने देश की चेतना को झकझोर दिया इस यात्रा के दौरान बड़ी संख्या में बापू के समर्थक उनके साथ जुड़ गए। गांधी जी की दांडी-यात्रा के साथ-साथ देशवासियों में आमतौर पर राष्ट्रीय चेतना की एक बिजली दौड़ गई। इस आंदोलन ने जनसाधारण के मन में क़ानून और व्यवस्था के प्रति भयंकर उपेक्षा का भाव पैदा किया। लोगों के दिल में साम्राज्यविरोधी भावना मज़बूत हुई।

नमक सत्याग्रह एक सफल सविनय अवज्ञा आन्दोलन था। लेकिन इसकी सफलता में साम्राज्यवादियों की हुई आर्थिक नुकसान का आंकलन किए बिना कई विचारकों ने तो यहां तक कह डाला, सविनय अवज्ञा का अत्यंत सीमित और प्रभावहीन रूप देखने को मिला, जिससे जनसाधारण को बहुत ही मामूली आर्थिक लाभ मिला। दक्षिण अफ़्रीका से लेकर भारत तक में विदेशी शासन के ख़िलाफ़ महात्मा गांधी के नेतृत्व में हुए सभी सत्याग्रह आंदोलनों में नमक सत्याग्रह, राजनीतिक, आर्थिक एवं सामाजिक दमन, शोषण व अन्याय के ख़िलाफ़ अहिंसक प्रतिरोध का सबसे दमदार व सटीक उदाहरण है। गांधीजी की अद्भुत कार्यशैली ने साबित किया कि नमक के ख़िलाफ़ सविनय अवज्ञा अकेले ही समूचे राष्ट्र को आंदोलित व स्पंदित कर उसे ‘पूर्ण स्वराज’ की प्राप्ति के रास्ते पर अग्रसर कर सकता है। सविनय अवज्ञा का पहला दौर अप्रैल से अक्तूबर तक चला। शहर ही नहीं गावों तक भी यह फैला। धरना और बहिष्कार इसके प्रमुख अंग थे। पूरी शालीनता और अहिंसा के साथ लोग अनुशासित कतारों में बैठ जाते और सरकारी आदेशों के बावज़ूद टस से मस नहीं होते। घुड़सवार पुलिस घोड़ा दौड़ाते हुए आती और लोग घुटनों में सिर रख कर हमले का इंतज़ार करते। भीड़ को बिखेर पाने में पुलिस असमर्थ हो जाती। पुलिस जब भी हिंसा का प्रयोग करती, सत्याग्रहियों का जन समर्थन और बढ़ जाता। पुलिस हमले से सैकड़ों यदि घायल होते, तो धरने में शामिल होने के लिए हज़ारो नए लोग आ जाते। भारत पर ब्रिटेन की लंबे समय तक चली हुक़ूमत कई मायने में चाय, कपड़ा और यहां तक कि नमक जैसी वस्तुओं पर एकाधिकार क़ायम करने से हुई बहिष्कार के कारण कलकत्ता, भागलपुर, दिल्ली, अमृतसर और बंबई की विदेशी कपड़ों की मंडियां लगभग ठप्प हो गई थीं। परिणामस्वरूप ब्रिटिश कपड़ों का आयात, जो 1929 में 2 करोड़ 60 लाख पौंड का था, घट कर 1930 में 1 करोड़ 37 लाख पौंड का रह गया। विदेशी कपड़ों के बहिष्कार का प्रभाव इंग्लैंड का कपड़ा उद्योग पर साफ दिखने लगा था। क़रीब न के बराबर कपड़ा भारत में बिक रहा था। लंकाशायर की कई मिलें बन्द पड़ी थीं। अब जब ये मिलें बंद पडी थीं तो लोग कहाँ का वस्त्र और सूतों का उपयोग करते थे? निश्चित रूप से स्थानीय मज़दूरों और कृषकों के द्वारा बनाए गए वस्त्र और उगाए गए कपास का। इसका लाभ देश के मज़दूरों, किसानों और व्यापारियों को हो रहा था।

सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि यह थी कि नमक यात्रा के कारण ही अंग्रेजों को यह अहसास हुआ था कि अब उनका राज बहुत दिन नहीं टिक सकेगा और उन्हें भारतीयों को भी सत्ता में हिस्सा देना पड़ेगा। इस लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए ब्रिटिश सरकार ने लंदन में गोल मेज सम्मेलनों का आयोजन शुरू किया। पहला गोल मेज सम्मेलन नवम्बर 1930 में आयोजित किया गया जिसमें देश के प्रमुख नेता शामिल नहीं हुए। इसी कारण अंततः यह बैठक निरर्थक साबित हुई।

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मनोज कुमार

 

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