राष्ट्रीय आन्दोलन
332. 25 जनवरी को गांधीजी की रिहाई
1931
नमक सत्याग्रह अपने चरम पर था। सरकार
का जुल्म भी। भारतीय
राष्ट्रवादियों
पर
अब
तक
हुआ
यह
सबसे
निर्दयतापूर्ण
अत्याचार
वायसराय
लॉर्ड
इरविन
के
आदेशानुसार
हो
रहा
था, लेकिन
उन्हें
यह
काम
पसन्द
नहीं
था।
नरमदल के नेता असमंजस की स्थिति में थे। वह सत्याग्रह में शरीक़ हो नहीं सकते थे।
इसलिए सरकार पर दवाब बनाने लगे कि शान्ति की दिशा में सरकार कोई कदम उठाए। सरकार
को भी सत्याग्रह के कारण काफी परेशानी का सामना करना पड़
रहा था। अंग्रेज अधिकारी और व्यापारी-वर्ग दमन-चक्र और भी कठोरता से चलाना चाहते थे।
सत्याग्रहियों के ऊपर बढ़ते जुल्म के कारण संसार का लोकमत भी सरकार के विरोध में
तेज़ी से बढ़ रहा था। प्रधानमंत्री रैमजे मैकडोनाल्ड और भारत सचिव वैन शान्ति
स्थापित करना चाहते थे, बशर्ते कि मजदूर सरकार की स्थिति को कमजोर बनाये
बिना ऐसा हो सके। इस परिप्रेक्ष्य में सरकार द्वारा यह निश्चय किया गया कि अंग्रेज
शासक भारत की आज़ादी की मांग पर समझौता के लिए लंदन में गोल मेज सम्मेलन करेंगे और उसमें कांग्रेस प्रतिनिधि भाग
लेंगे।
प्रधानमंत्री रैमजे मैकडोनाल्ड गोलमेज-सम्मेलन सफल
बनाने को उत्सुक थे, लेकिन उन्हें यह भी पता था कि गांधीजी और कांग्रेस
प्रतिनिधियों की उपस्थिति के बिना इस सम्मेलन का कुछ खास असर नहीं होगा। जब नवंबर
1930 में लन्दन में पहला गोलमेज सम्मलेन हुआ तो लेबर सरकार को इस उलझन भरी स्थिति
का सामना करना पड़ा कि वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की गैर-मौजूदगी में भारत के ‘प्रतिनिधियों’ के
साथ भारत की भावी संवैधानिक व्यवस्था पर विचार-विमर्श कर रही थी। अनेक निहित
स्वार्थों को तो आवश्यकता से अधिक प्रतिनिधित्व दिया गया था, मगर
जनता की राष्ट्रीय आकांक्षाओं की बातें करने वाला वहाँ कोई नहीं था। वह विसंगति
इतनी स्पष्ट थी कि इसकी ओर से आँखें बंद नहीं की जा सकती थी।
देश के तमाम बड़े नेताओं की गिरफ्तारी हो चुकी थी। कांग्रेस
के अध्यक्ष जवाहर लाल नेहरू और उनके पिता मोतीलाल नेहरू भी गिरफ्तार हुए। कांग्रेस
की वयोवृद्ध पीढ़ी से लेकर युवाओं तक चार पीढ़ियों के नेताओं की पूरे देश में बड़े पैमाने पर गिरफ्तारी हुई। इन गिरफ़्तारियों
के साथ सरकार खुद को बधाई दे सकती थी कि कांग्रेस की कार्यकारिणी अब काम नहीं कर
सकती। सरकार ग़लत थी। कांग्रेस अभी भी काम कर रही थी, समाचार
पत्र प्रकाशित कर रही थी, हालाँकि अब वे साइक्लोस्टाइल में छपते थे,
और
बंबई पर उसका नियंत्रण था। महिलाओं और बाहर रहने वाले नेताओं ने शराबबंदी आदि के रचनात्मक
कार्यक्रम को जारी रखा। लोगों के अंदर एक बार फिर से जोश का ज्वार उमड पडा और बड़ी संख्या
में लोग अपना सब कुछ त्याग कर देश सेवा के काम में जुट गए थे। सरकार के दमन चक्र
के बाद भी लोगों के उत्साह में कमी नहीं आ रही थी इसलिए सरकार को भी अंततः गांधीजी
के अहिंसक आंदोलन का लोहा मानना पडा और समझौते के लिए तैयार होना पडा।
गतिरोध को तोड़ने के लिए कठोर रणनीति की ज़रूरत थी।
कई ब्रिटिश लेबर मंत्री और उनके समर्थक भारतीय स्वतंत्रता के पक्षधर थे। गांधीजी
और हजारों भारतीय राष्ट्रवादियों को जेल में रखना लेबर पार्टी के लिए शर्मनाक था। वायसराय
लॉर्ड इरविन के लिए, गांधीजी की कैद शर्मिंदगी से कहीं अधिक थी;
इसने
उनके प्रशासन को पंगु बना दिया। मैकडोनाल्ड और इरविन के लिए स्थिति राजनीतिक रूप
से असहनीय थी। पूना की यरवदा-जेल में, जिसे
वह यरवदा-मंदिर कहते थे, गांधीजी एक तरह से आराम ही करते रहे। देश की राजनैतिक
स्थिति और अपने शुरू किए हुए सविनय अवज्ञा आंदोलन की चिन्ता उन्होंने जेल में आते
ही छोड दी थी। ब्रिटिश पत्रकार जॉर्ज स्लोकोम्बे ने 19 मई को जेल में गांधीजी का
साक्षात्कार लिया। उन्होंने लिखा, "कैद में बंद महात्मा अब भारत की
आत्मा का अवतार हैं।" स्लोकोम्बे ने व्यर्थ ही विनती की कि सरकार कांग्रेस के
साथ बातचीत करे। गांधीजी विचलित नहीं हुए। वायसराय को ज्यादा सख्ती पसंद नहीं थी। वह
समझौता चाहते थे। उन्होंने विट्ठलभाई पटेल को एक पत्र में लिखा था—“आप तो मेरी इस उत्कट अभिलाषा से परिचित ही हैं कि
भारत में फिर से शांति और सद्भावना का वातावरण पैदा हो सके।” इसलिए वायसराय की मंज़ूरी से दो मध्यस्थों,
सर
तेज बहादुर सप्रू और जे. एम. जयकर ने जेल में गांधीजी से बात की। गांधीजी कह रहे
थे कि शांति तभी हो सकती है जब ब्रिटिश सरकार परिदृश्य से गायब हो जाए। मोतीलाल और
जवाहरलाल नेहरू, सरोजिनी नायडू, पटेल
और चार या पाँच अन्य महत्वपूर्ण कांग्रेस सदस्यों को गांधी से मिलने और इस बात पर
चर्चा करने के लिए जेलों से ले जाया गया कि क्या ब्रिटिश सरकार के साथ कोई कामकाजी
समझौता होने की कोई उम्मीद है। दरअसल, गांधीजी
का उनकी मुश्किलों से बाहर निकलने में कोई इरादा नहीं था। कांग्रेस नेताओं ने
सम्मेलन के समापन पर घोषणा की कि ब्रिटिश स्थिति से उन्हें एक "अपूरणीय
खाई" ने अलग कर दिया था और जब तक भारत को साम्राज्य से अपनी इच्छा से अलग
होने का अधिकार नहीं दिया जाता और वित्त एवं रक्षा पर पूर्ण नियंत्रण के साथ जनता
के प्रति उत्तरदायी सरकार बनाने का अधिकार नहीं दिया जाता, तब तक
कोई संतोषजनक समाधान नहीं हो सकता। यह मामला वर्ष 1930 के अंत तक अटका रहा।
रैमजे मैकडोनाल्ड ने जनवरी 1931
में
प्रथम गोलमेज-सम्मेलन के अन्तिम अधिवेशन में, अपने
विदाई-भाषण में यह आशा प्रकट की कि कांग्रेस दूसरे गोलमेज-सम्मेलन में भाग लेगी।
वाइसराय ने उनके अभिप्राय को समझ कर 19 जनवरी
को गांधीजी और कांग्रेस के सभी सदस्यों को तुरन्त और बिना किसी शर्त के छोड़ने का
हुक्म दे दिया। नौ महीने तक जेल में रखने के बाद स्वाधीनता
दिवस के ठीक एक दिन पहले 25 जनवरी
1931 को
गाँधीजी को वायसराय के
साथ इस समझौते के तहत जेल से रिहा किया गया। गांधीजी के साथ जवाहरलाल
नेहरू, मोतीलाल नेहरू और अन्य बीस से अधिक कार्यकारी समिति के दूसरे सदस्यों को भी रिहा कर दिया गया था। इस
सद्भावना-प्रदर्शन की यह प्रतिक्रिया हुई कि गांधीजी वायसराय से मिलने को राजी हो
गए। लेकिन कार्यसमिति के सदस्यों की बिना शर्त रिहाई से ही सरकार और कांग्रेस के
बीच की खाई पट नहीं गई।
भारत सरकार के गृह विभाग ने गांधीजी और अन्य लोगों
को रिहा करने के निर्णय को प्रभावी बनाने के लिए बॉम्बे के गृह विभाग को पत्र
लिखा। बॉम्बे सरकार ने उसी दिन जेल महानिरीक्षक को आदेश भेज दिया,
साथ
ही इस बात पर ज़ोर दिया कि कैदियों को रिहा किया जाना चाहिए "26 जनवरी की शाम
के बाद, लेकिन उससे पहले नहीं",
ताकि
कैदियों को रिहा होने के बाद स्वतंत्रता दिवस के समारोहों में भाग लेने से रोका जा
सके। 26 जनवरी को, महानिरीक्षक कारागार ने गृह विभाग,
बॉम्बे
को गांधीजी की रिहाई के लिए की गई व्यवस्थाओं की जानकारी दी। उन्होंने बताया कि एक
बैठक में, सेना, पुलिस
और जेल अधिकारियों ने यह निर्णय लिया था कि गांधीजी, श्रीमती
नायडू और प्यारेलाल को रात 11.15 बजे पूना से रवाना होने वाली ट्रेन से बॉम्बे ले
जाया जाए। उन्हें किरकी से ट्रेन में चढ़ाया जाता था, या अगर
प्रदर्शन होते थे, तो चिंचवड़ से। और हुआ यूँ कि उन्हें चिंचवड़ ले
जाना ही पडा।
चिंचवड़ स्टेशन पर गांधीजी से प्रेस ने मुलाकात की
और उनसे संदेश माँगा। गांधीजी अपनी रिहाई पर दिए गए साक्षात्कार में कहा:
"मैं जेल से बिल्कुल खुले मन से, शत्रुता
से मुक्त, निष्पक्ष तर्क के साथ बाहर आया हूँ ...।"
एक प्रश्न का उत्तर देते हुए उन्होंने कहा कि उनका
सच्चा मानना है कि सविनय अवज्ञा आंदोलन से जुड़े होने के कारण जेल में बंद
प्रत्येक राजनीतिक कैदी को तुरंत रिहा किया जाना चाहिए।
बंबई में पत्रकारों से बात करते हुए,
गांधीजी
ने अपनी स्थिति स्पष्ट की: "मैं व्यक्तिगत रूप से महसूस करता हूँ कि कांग्रेस
कार्यकारिणी समिति के सदस्यों की रिहाई मात्र से कठिन परिस्थिति और भी कठिन हो
जाती है, और सदस्यों की ओर से कोई भी कार्रवाई लगभग,
यदि
पूरी तरह से नहीं, तो असंभव हो जाती है। अधिकारियों ने स्पष्ट रूप से
यह नहीं समझा है कि आंदोलन ने जनमानस को इतना प्रभावित किया है कि नेता,
चाहे
कितने भी प्रमुख क्यों न हों, उन्हें कोई विशेष कार्रवाई का निर्देश देने में
पूरी तरह असमर्थ होंगे।"
"अपनी बात कहूँ तो, मैं
शांति की कामना करता हूँ, बशर्ते वह सम्मान के साथ मिल सके।"
26 जनवरी, 1931
को स्वतंत्रता दिवस की पहली वर्षगांठ बड़े उत्साह के साथ मनाई गई। उस दिन गांधीजी
और कार्यकारिणी समिति के सदस्यों की रिहाई ने लोगों के उत्साह को और बढ़ा दिया।
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मनोज कुमार
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