राष्ट्रीय आन्दोलन
338. दूसरा गोल मेज सम्मेलन-1
1931
प्रवेश
:
1931 में इंग्लैंड में मजदूर दल की सरकार के स्थान पर राष्ट्रीय सरकार सत्ता में आ चुकी थी, जिसमें मजदूर, अनुदार तथा उदार तीनों दल सम्मिलित हुए। विश्व में आर्थिक संकट गहराया हुआ था। नई सरकार
के लिए ब्रिटिश व्यापारियों के हितों की रक्षा करना पहला लक्ष्य था। भारत-सचिव सैमुएल
होर था, जो पक्का अनुदारवादी था। अप्रैल में लॉर्ड इरविन वायसराय के पद
से मुक्त हो चुके थे। नए वायसराय के रूप में लॉर्ड विलिंगडन ने पद ग्रहण
किया। उसका मानना था कि ‘गांधीजी ख़ुराफ़ाती जीव हैं’, ‘उन्हें तो
कालापानी भिजवा दिया जाना चाहिए’, ‘गांधीजी का जड़-मूल से विनाश होगा तभी सल्तनत
बच पाएगी’। मई में यह दिशा-निर्देश दे दिए गए थे कि
‘जहां कहीं भी समझौता
टूटे, एकदम प्रहार किया जाए और प्रहार कड़ा हो’। अंग्रेज़ सरकार ने सारे
देश में भयंकर सख़्ती लगानी शुरू कर दी। देश में आतंक का वातावरण व्याप्त हो गया। आर्थिक
दबावों के कारण देश में नीचे से भी दबाव उत्पन्न हो रहा था, जिसके कारण गाँधी-इरविन समझौता
खटाई में पड़ने लगा। दोनों पक्ष एक दूसरे को समझौता भंग
करने का आरोप लगाने लगे। ऐसी परिस्थिति में इंग्लैंड में दूसरे गोलमेज
सम्मेलन का आयोजन होना तय हुआ। अंग्रेज़ सरकार चाहती थी कि कांग्रेस इस सम्मेलन में
शामिल हो। कांग्रेस के बगैर गोलमेज सम्मेलन निरर्थक हो जाता। भारतीय राष्ट्रीय
कांग्रेस ने गांधीजी को दूसरे गोल मेज सम्मेलन के लिए अपना प्रतिनिधि चुना। हालाकि सरोजिनी नायडू भी इस
सम्मेलन में गई थीं, लेकिन वह सरकार की ओर से भारतीय महिलाओं का प्रतिनिधित्व कर
रही थीं।
गोलमेज
सम्मेलन के लिए रवाना
दक्षिणपंथी नेता विंस्टन चर्चिल तो वहां
की हुक़ूमत से इसलिए नाराज़ था कि वह ‘देशद्रोही फ़क़ीर’ को बराबरी का दर्ज़ा
देकर उससे बात कर रही है। गांधीजी शिमला से कालका आए और वहां से उन्होंने
वह गाड़ी पकड़ी जो उन्हें 29 अगस्त, 1931 को रवाना होने वाले एस.एस. राजपूताना नामक जहाज पर
सवार करा सके। उन्हें समय पर पहुंचाने के लिए रास्ते में और सब गाड़ियां रोक दी
गईं।
29 अगस्त, 1931 को द्वितीय गोलमेज-सम्मेलन में भाग लेने
के लिए गांधीजी ने मार्सिले जाने वाले ‘एस.एस. राजपूताना’ नामक समुद्री जहाज से इंग्लैंड के लिए प्रस्थान किया। वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस
के एक मात्र प्रतिनिधि के रूप में गए थे। उसी जहाज से गोलमेज सम्मेलन के कुछ अन्य प्रतिनिधि भी
यात्रा कर रहे थे: सर प्रभाशंकर पट्टानी, मदन मोहन मालवीय और भोपाल के नवाब। गांधीजी
ने ज़ोर देकर कहा कि उनके साथ आने वाले लोग कम से कम सामान ले जाएँ। जब उन्हें पता
चला कि ज़रूरत से ज़्यादा सामान ले जाया जा रहा है, तो उन्होंने अपने लोगों से सख्ती से कहा कि वे
जितना हो सके, उतना सामान इकट्ठा कर लें।
नतीजतन, जब जहाज अदन बंदरगाह पर
पहुँचा, तो उसे भारत वापस भेजने के
लिए चौदह ट्रंक और सामान के डिब्बे उतारने पड़े।
इस गोलमेज सम्मेलन से कुछ खास हासिल होने की
उम्मीद कांग्रेस को नहीं थी। ब्रिटेन कोई भी आर्थिक या राजनीतिक रियायत देने के
पक्ष में नहीं था। उन्हें डर था कि रियायतों के देने से कहीं भारत हाथ से न
निकल जाए। जाने के पहले गांधीजी ने
कहा था, “हो सकता है मैं ख़ाली हाथ लौटूं। जैसे हाथी चींटी
की तरह नहीं सोच सकता, अच्छे इरादों के बावज़ूद अंग्रेज़ भी भारतीयों के लिए ऐसा
सोचने के लिए असहाय हैं।” साम्राज्यवादी राजनीतिक और वित्तीय ताकतें, जिन्होंने अंततः लंदन में ब्रिटिश सरकार को
नियंत्रित किया था, भारत को दी जाने वाली किसी भी राजनीतिक या आर्थिक रियायत के खिलाफ थीं जिससे
भारत उनके नियंत्रण से मुक्त हो सके। उग्र दक्षिणपंथी नेता विंस्टन चर्चिल
ने ब्रिटिश सरकार द्वारा 'देशद्रोही फकीर' के साथ समानता की शर्तों पर
बातचीत करने पर कड़ी आपत्ति जताई थी और भारत में एक मजबूत सरकार की मांग की थी। कंजर्वेटिव
डेली मेल ने घोषणा की कि 'भारत के बिना, ब्रिटिश राष्ट्रमंडल टुकड़े-टुकड़े हो जाएगा। व्यावसायिक, आर्थिक, राजनीतिक और भौगोलिक रूप से
यह हमारी सबसे बड़ी शाही संपत्ति है। इस पर हमारी पकड़ को खतरे में डालना किसी भी
ब्रिटिश द्वारा किया जाने वाला सबसे बड़ा देशद्रोह होगा।'
गांधीजी लगभग उल्लास के मूड में लंदन के लिए
रवाना हुए, इस विचार से प्रसन्न थे कि
जहाज पर उन्हें कोई गंभीर समस्या नहीं होगी। जहाज़ों में ज़्यादा शांत वातावरण
मिलता था, और वे वहाँ हमेशा खुश रहते
थे। गांधीजी के साथ मदन
मोहन मालवीय, सरोजिनी नायडू, घनश्यामदास बिड़ला, गांधीजी का छोटा लड़का
देवदास गांधी, उनकी अंग्रेज़ शिष्या मैडलिन स्लेड (मीरा बेन), और उनके सेक्रेटरी
प्यारे लाल भी थे। सरोजिनी नायडू और पंडित मालवीय, आधिकारिक प्रतिनिधि थे। गांधीजी ने निचली श्रेणी
में डेक यात्रियों के साथ यात्रा की। जहाज पर अधिक समय वे सूत कातते, लिखते,
प्रार्थना करते और अन्य यात्रियों और बच्चों के साथ बातें करते। अंग्रेज़ परिवार के
बच्चे उनसे काफी हिल-मिल गए थे। जब अरब सागर में उनका सामना तूफ़ान से हुआ, तो ऐसा लग रहा था कि वह अकेला व्यक्ति थे जो
इससे अप्रभावित था; और जब वे लाल सागर से
गुज़रे, तो गर्मी से बेखबर, डेक पर अपना चरखा बगल में रखे बैठे थे।
पहला पड़ाव अदन था जहाँ
जहाज 3 सितंबर को पहुँचा। अदन के प्रवासी भारतीयों ने उन्हें एक मानपत्र भेंट किया
और 328 गिन्नी की एक थैली भी दी। गांधीजी ने कांग्रेस का संदेश देते हुए
अरबों से कहा: "यह महान प्रायद्वीप, मुहम्मद और इस्लाम का जन्मस्थान, हिंदू-मुस्लिम समस्या को हल
करने में मदद कर सकता है।" अदन के बाद 6 सितम्बर को स्वेज और फिर पोर्ट
सईद आया। मिस्र के जगलूल पाशा की पत्नी और वहां की वफ़्द पार्टी ने भी उन्हें
शुभकामनाएं भेजीं। गांधीजी का जहाज शुक्रवार 11 सितम्बर की सुबह मार्सिले पहुंचा। मार्सेलीज़
में महान फ़्रांसिसी साहित्यकार रोमा रोलां की बहन मदलेन रोलां उनका स्वागत करने और
मिलने आईं। वह अपने बीमार भाई, रोमा रोलाँ की ओर से एक हार्दिक स्वागत संदेश लेकर आई थीं: "आप
हमारे मान्य और सिद्ध जनरल हैं, जो आगे आने वाली लड़ाइयों के लिए हैं। जब आप
लंदन में हों, तो न केवल भारत के, बल्कि यूरोप के लोगों की
ताकत में खुद को मजबूत महसूस करें, जिनके लिए आप सर्वोच्च अंतरात्मा की आवाज हैं।
बेहतर यूरोप आपके साथ है।" फ़्रांसीसी विद्यार्थियों ने भी ‘भारत के
आध्यात्मिक राजदूत’ की पदवी से विभूषित कर उत्साह से उनका स्वागत किया। महादेव
देसाई ने लिखा है कि “राजपूताना जहाज के सबसे अच्छे यात्री का चुनाव किया जाता तो शायद गांधीजी ही सर्वप्रथम आते।"
मार्सिले से गांधीजी ट्रेन से बोलोग्ने गए और
वहाँ से इंग्लिश चैनल पार करके फोल्कस्टोन पहुँचे। वह दिन 12 सितंबर का था। फोल्कस्टोन
से गांधीजी को कार से लंदन ले जाया गया, जबकि बाकी दल ट्रेन से उनके पीछे-पीछे गया। 12 सितम्बर को जब गांधीजी लन्दन
पहुंचे (और 5 दिसंबर तक इंग्लैंड में रहे), तो वहां के लोग खादी वस्त्र धारण किए,
हाथ में डंडा लिए अधनंगे फकीर को देख आश्चर्यचकित थे कि ऐसा फकीर-सा व्यक्ति उनके
प्रधान मंत्री से बात करने आया है। लन्दन में गांधीजी अपनी शिष्या कुमारी म्यूरियल
लेस्टर के अतिथि के रूप में इस्ट एंड के किंग्सले हाल में ठहरे, जो 1926 में
उनसे मिलने आई थीं। ईस्ट एंड एक मज़दूर बस्ती थी, जहां ग़रीब लोग रहते थे। यह स्थान सेंट
जेम्स पैलेस, जहां गोल मेज सम्मेलन होना था, से 8
किलोमीटर दूर था। ज़्यादा पैसा ख़र्च करके सभा-स्थल के पास होटल में ठहरने के बजाए
गांधीजी ने ग़रीब लोगों के बीच रहना ज़्यादा पसंद किया। कुछ मित्रों ने आपत्ति की
कि ईस्ट एंड में रहने से परिषद के दूसरे प्रतिनिधियों को असुविधा होगी, तो 88 नाइट्स ब्रिज में अपना एक कार्यालय
खोलने को गांधीजी राज़ी हो गए। गांधीजी को सात या आठ फीट गहरा एक छोटा कमरा दिया
गया, जिसमें एक मेज़, एक कुर्सी और एक पतली चटाई थी। फर्श पत्थर का था
और दीवारें नंगी थीं। जेल की कोठरी जैसे इस कमरे में उन्हें घर जैसा महसूस हुआ। उनकी
अनौपचारिकता, दयालुता और हास्य प्रेम ने राष्ट्रीय और नस्लीय पूर्वाग्रहों की
दीवारें तोड़ डालीं। "मैं अपने देश, भारत के मूक, अर्ध-भूखे लाखों लोगों का
प्रतिनिधित्व करता हूं," उन्होंने घोषणा की। इंग्लैंड
पहुँचने से कुछ दिन पहले उन्होंने एक संवाददाता से कहा: "मैं एक ऐसे
संविधान के लिए प्रयास करूँगा जो भारत को सभी प्रकार की गुलामी और संरक्षण से
मुक्त करेगा और ज़रूरत पड़ने पर उसे पाप करने का अधिकार देगा।" लेकिन यह
पाप करने का अधिकार ही था जो अंग्रेजों ने अपने लिए सुरक्षित रखा था।
मज़दूरों
से मुलाक़ात
इस दौरे पर गांधीजी समझौते
का कोई अवसर अपने हाथ से जाने नहीं देना चाह रहे थे। वे चाहते थे कि अपनी तरफ़ से
समस्या को सुलझाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ना चाहिए। सरकार ने भारत और कांग्रेस के बारे में जो भ्रम
फैला रखा था, उसे दूर करने के लिए गांधीजी ने
परिषद के बाद का सारा समय वहां के लोगों को भारत की और कांग्रेस की बात समझाने और
उनकी शंकाओं का निवारण करने में बिताया। ब्रिटिश अधिकारियों को भारी
आशंका में डालकर उन्होंने लंकाशायर का दौरा करने पर ज़ोर दिया। लंकाशायर के सूती मिल मजदूर जिस प्रेम और
नम्रता से गांधीजी से मिले, वह इस लंदन-यात्रा की सबसे अधिक सुखद बात थी। कांग्रेस
के विदेशी वस्त्र बहिष्कार-आन्दोलन की सीधी चोट इन्हीं लोगों पर पड़ी थी। कई लाख
बेकार हो गए थे, लेकिन किसी ने भी गांधीजी के प्रति क्रोध, उत्तेजना या नाराज़गी का
प्रदर्शन नहीं किया था। बेकार हो जाने वाले लोगों की बातें गांधीजी ने बड़े ध्यान
से और सहानुभूति पूर्वक सुनी। जब गांधीजी ने उनसे कहा कि, “आपके यहां तीस लाख बेकार
हैं, लेकिन हमारे यहां साल में छः
महीने बीस करोड़ लोग बेकार रहते हैं। आप लोगों को औसत सत्तर शिलिंग बेकारी-भत्ता
मिलता है, हमारी औसत मासिक आमदनी सिर्फ साढ़े सात शिलिंग है”, तो भारत
में विदेशी वस्त्रों के बहिष्कार की पृष्ठभूमि और आवश्यकता उन मजदूरों की समझ में
बहुत अच्छी तरह आ गई।
उच्च और
मध्यम वर्ग से मुलाक़ात
भारत के राजनैतिक भविष्य का निर्धारण करने वाले उच्च
और मध्यम वर्ग के लोगों से भी मिलना ज़रूरी था। गांधीजी राजनैतिक, धार्मिक,
वैज्ञानिक और साहित्यिक क्षेत्र के श्रेष्ठ लोगों से भी मिले। वे जॉर्ज
बर्नार्ड शा से मिले। जब वे जॉर्ज बर्नार्ड शा से मिले तो उन्हें ‘समानशील
व्यक्ति’ पाया। पार्लियामेंट के सदस्यों
के समक्ष भाषण दिया। ईसाई सम्प्रदाय के धर्माध्यक्षों और बिशपों से भी मिले। ईटन
के छात्रों और लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के विद्यार्थियों को संबोधित किया। डॉ.
लिंडसे के निमंत्रण पर वह ऑक्सफोर्ड गए और वहां डॉ. गिलबर्ट मरे, गिल्बर्ट साल्टर,
प्रोफ़ेसर कूपलैंड, एडवर्ड टाम्सन आदि विद्वानों से मिले और चर्चाएं की। वहां के
छात्रों के समक्ष भाषण भी दिया। वह युद्धकालीन प्रधानमंत्री लायड जार्ज से भी
मिले। सुप्रसिद्ध अभिनेता चार्ली चैपलिन स्वयं उनसे मिलने आए। उनका नाम
गांधीजी ने पहले नहीं सुना था। गांधीजी के भारत से चलने के पहले ही लॉर्ड इरविन
का तबादला हो चुका था। उसकी जगह लॉर्ड विलिंगडन ने ली थी। गांधीजी उससे भी मिले।
इन गैर-राजनीतिक धुरंधरों
से मुलाक़ातों का लोगों पर कितना असर हुआ इसका आंकलन करना मुश्किल ही है लेकिन यह
तो साफ है कि कांग्रेस के उद्देश्यों और अंग्रेज़ों की दृष्टिकोण में पूरब-पश्चिम
का अंतर था। इस अंतर को मिटाया भी नहीं
जा सकता था। लेकिन जिससे भी वह मिले उस पर गांधीजी की ईमानदारी, सहज व्यवहार और
स्पष्टवादिता ने अच्छा-खासा प्रभाव डाला। जिन लोगों के सम्पर्क में गांधीजी आए, उनमें से कुछ पर तो उनके
सीधे-सादे तर्क और स्पष्ट निष्कपटता की अमिट छाप पड़ी।
1 नवंबर, 1931 को कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी के पेम्ब्रोक कॉलेज में गांधीजी ने भाषण दिया। गांधीजी
को यहां सुनने वाले प्रमुख लोगों में ब्रिटिश इतिहासकार जेम्स एलिस बार्कर,
ब्रिटिश राजनीति-विज्ञानी और दार्शनिक गोल्ड्सवर्दी लाविज़ डिकिन्सन,
प्रसिद्ध स्कॉटिश धर्मशास्त्री डॉ. जॉन मरे और ब्रिटिश लेखक एवलिन
रेंच इत्यादि शामिल थे। उसी दिन दोपहर को कैम्ब्रिज में ही 'इंडियन मजलिस' की एक सभा में भाषण दिया। गांधीजी की यह वार्ता अपने
तय समय से कई घंटे अधिक समय तक चली थी। इस बैठक में गांधी खुलकर बोले। बोलते-बोलते
एक स्थान पर उन्होंने कहा, "मैं यह जानता हूं कि हर ईमानदार अंग्रेज़ भारत को स्वतंत्र
देखना चाहता है, लेकिन उनका ऐसा मानना क्या दुःख की बात नहीं है कि ब्रिटिश
सेना के वहां से हटते ही दूसरे देश उसपर टूट पड़ेंगे और देश के अंदर आपस में भी
भारी मार-काट मच जाएगी? …आपके बिना हमारा क्या होगा, इसकी इतनी अधिक चिंता आप
लोगों को क्यों हो रही है? आप अंग्रेज़ों के आने से
पहले के इतिहास को देखें, उसमें आपको हिंदू-मुस्लिम
दंगों के आज से ज्यादा उदाहरण नहीं मिलेंगे।" 'इंडियन मजलिस' की एक सभा में गांधीजी ने
और स्पष्ट तरीके से कहा- 'जब भारत में ब्रिटिश शासन नहीं था, जब वहां कोई अंग्रेज़ दिखाई
नहीं देता था, तब क्या हिंदू, मुसलमान और सिख आपस में
बराबर लड़ ही रहे थे? तब हम अपेक्षाकृत अधिक शांतिपूर्वक रह रहते थे।
ग्रामवासी हिंदुओं और मुसलमानों में तो आज भी कोई झगड़ा नहीं है। उन दिनों तो उनके
बीच झगड़े का नामो-निशान तक नहीं था। भारत का इतिहास लिखने में तत्कालीन विदेशी
इतिहासकारों ने दुर्भावना और राजनीति से काम लिया है। अंग्रेज़ों के शासनकाल में
भारतीय मानसिक रूप से ग़ुलाम हो गए और उनकी निर्भीकता और रचनात्मकता जाती रही। यह
स्वीकार करना बेहद अपमानजनक है कि हम एक ऐसा घराना हैं जो आपस में ही बँटा हुआ है, कि हम हिंदू और मुसलमान
एक-दूसरे पर हमला कर रहे हैं। यह और भी ज़्यादा अपमानजनक है कि हम हिंदू अपने ही
लाखों रिश्तेदारों को इतना नीच समझते हैं कि उन्हें छूना भी मुश्किल है।'
जब गांधीजी लन्दन पहुंचे थे तो इंग्लैंड के
लोकप्रिय अखबार उनकी वेश-भूषा को लेकर उनका मजाक उड़ा रहे थे। उनकी लुंगी और बकरी
के दूध के किस्से छाप कर, लोगों का
मनोरंजन कर रहे थे। गांधीजी के लिए “बकवास” उपाधि का
प्रयोग कर ‘ट्रूथ’ अखबार ने उनके इंग्लैंड पहुंचने का समाचार छापा था।
विभिन्न वर्गों के लोगों से मुलाक़ात करने का फ़ायदा यह हुआ कि जिस आदमी की लुंगी और बकरी
के दूध के किस्से उछाल कर, इंग्लैंड के लोकप्रिय अखबार लोगों को मनोरंजन कर रहे थे, कम-से-कम उसकी एक सही
तस्वीर तो मिलने वालों के सामने अवश्य आ गई। गांधीजी के विचार उनको अव्यावहारिक या
क्रान्तिकारी लग सकते थे, लेकिन भेंट कर चुकने के बाद उनको “बकवास” कह कर कोई उनकी अवहेलना
नहीं कर सकता था। इसका उदाहरण इसमें मिलता
है कि जब सम्राट जार्ज पंचम के बकिंघम पैलेस में गोलमेज सम्मेलन प्रतिनिधियों
लिए स्वागत-समारोह आयोजित किया गया तो उसमें गांधीजी को भी निमंत्रण मिला और वे सदा
की तरह खादी की धोती और शाल में बकिंघम पैलेस गए।
सम्राट जार्ज पंचम का निमंत्रण
सम्राट जार्ज पंचम को
गोलमेज सम्मेलन के प्रतिनिधियों को दिए जाने वाले बकिंघम पैलेस में आयोजित
स्वागत-समारोह में गांधीजी को निमंत्रित करने में आपत्ति थी। उसका कहना था, क्या
ऐसे विद्रोही फ़क़ीर को महल में बुलाऊं जो मेरे वफ़ादार अफ़सरों पर हुए सारे आक्रमणों
के पीछे रहा है? हम एक ऐसे आदमी को राजमहल में आमंत्रित नहीं कर सकते जो ठीक से
कपड़े भी नहीं पहनता है। भारत के सेक्रेटरी ऑफ स्टेट सेम्युल होर ने सम्राट को
समझाया कि उसे न बुलाना भारी ग़लती होगी। शेष भारतीय प्रतिनिधिमंडल के साथ उन्हें
किंग जॉर्ज पंचम और क्वीन मैरी के साथ बकिंघम पैलेस में चाय पर आमंत्रित किया गया
था। यह सुझाव दिया गया था कि इस अवसर पर उन्हें अधिक औपचारिक कपड़े पहनने के लिए
प्रेरित किया जा सकता है; निमंत्रण स्वीकार करते हुए
लॉर्ड चेम्बरलेन को लिखे एक विनम्र पत्र में उन्होंने उत्तर दिया कि वे अपनी
सामान्य पोशाक पहनेंगे। जब गांधीजी को निमंत्रण मिला तो वे खादी की धोती और शाल
में बकिंघम पैलेस गए। लंदन के मौसम की वजह से वह शॉल कुछ-कुछ मैली हो गई थी, इसलिए उन्होंने उसे उल्टा पहना। महादेव देसाई, बेदाग सफेद खादी पहने हुए, और सरोजिनी नायडू, कढ़ाई वाली सफेद रेशमी साड़ी पहने हुए, उनके साथ थे। महाराजा अपनी रत्नजड़ित पगड़ियों
में, पदकों की कतारों के साथ आए
थे, लेकिन गांधीजी अनिवार्य रूप
से ध्यान का केंद्र थे।
जब
गांधीजी बकिंघम पैलेस जाने
के लिए तैयार हुए, तो उन्हें लेने कार आई थी। बकिंघम पैलेस का प्रोटोकॉल ऐसा था कि
वहां तीन जगह कार रोकने की व्यवस्था थी। पहले गेट तक उनकी कारें जा सकती थीं जो
कहीं किसी देश के राजा हों। दूसरा दरवाज़ा, उनके लिए था जो किसी सरकार के
मुखिया, प्रधानमंत्री
या ऐसे ही किसी दीगर ओहदे पर हों। तीसरा दरवाज़ा उन लोगों के लिए था जो महत्वपूर्ण
लोग थे, लेकिन उनके पास कोई पद नहीं था। प्रोटोकॉल के मुताबिक़, गांधीजी
की कार तीसरे दरवाज़े पर रुकनी थी। कार की रफ़्तार जैसे धीमी होनी शुरू हुई, गांधीजी
को शायद प्रोटोकॉल मालूम था, उन्होंने ड्राइवर से सिर्फ़ दो शब्द कहे और बहुत सख़्ती
से, "ड्राइव
ऑन।" ड्राइवर की हिम्मत नहीं हुई कि वो तीसरे दरवाज़े पर कार रोके, वो
सीधा पहले गेट तक चला गया।
राजा
जॉर्ज पंचम एक रूखे स्वभाव के व्यक्ति थे, उनका मिजाज भी अच्छा नहीं था। कई
वर्षों से वे अपने वायसराय के निजी पत्रों को पढ़ रहे थे, जिसमें
उस "छोटे से नवागंतुक" के व्यवहार के बारे में लिखा था, जो
भारत में इतना हंगामा मचा रहा था। उन्होंने तय किया कि उसे सबक सिखाने का समय आ
गया है। एक प्रधानाध्यापक की तरह, जो किसी दुर्दांत छात्र को संबोधित करता है, उन्होंने
गांधी से कहा कि उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में और 1918 तक अच्छा व्यवहार किया था, लेकिन
उसके बाद उन्होंने असाधारण रूप से विचारहीनता से काम लिया। राजा को विशेष रूप से
इस बात का दुःख था कि गांधी ने प्रिंस ऑफ वेल्स का बहिष्कार आयोजित किया था। "आपने
मेरे बेटे का बहिष्कार क्यों किया?" उन्होंने सख्ती से पूछा। "आपके
बेटे का नहीं, महाराज, बल्कि
ब्रिटिश क्राउन के आधिकारिक प्रतिनिधि का," गांधीजी ने उत्तर दिया। इसके
बाद गांधीजी के हाल के दिनों के व्यवहार के बारे में एक लंबा प्रवचन हुआ। राजा ने
कहा, "मैं
तुम्हें अपने साम्राज्य में उपद्रव मचाने नहीं दूँगा। मेरी सरकार इसे बर्दाश्त
नहीं करेगी।" प्रलोभन के बावजूद, गांधीजी ने गरिमापूर्ण मौन बनाए
रखा। "महाराज, मुझसे इस मुद्दे पर बहस करने की
उम्मीद न करें", गांधीजी
ने थोड़ी देर बाद, एक
वकील की तरह जज से बात करते हुए कहा। फिर, चूँकि उनके बीच आगे कोई संवाद संभव
नहीं था, राजा
ने उन्हें अचानक विदा कर दिया।
सर सैमुअल होरे से
मुलाक़ात
सर
सैमुअल होरे ने उन्हें व्हाइटहॉल स्थित भारत कार्यालय में आमंत्रित किया। यह उन
ठंडे, बरसाती
और तेज़ हवाओं वाले दिनों में से एक था, जब काली धुंध छा रही थी। गांधीजी
अपनी सामान्य पोशाक पहने हुए थे और ठंड में कांप रहे थे। वे भारत कार्यालय की
सीढ़ियाँ चढ़े और उन्हें भारत सचिव के कार्यालय में ले जाया गया। "अच्छा, चलो
आग के पास बैठते हैं," सर सैमुअल होरे ने कहा, और गांधीजी को गर्मी का आनंद लेते
हुए देखा। उन्होंने ग्रामीण जीवन और खेती के बारे में बात की, क्योंकि
विदेश मंत्री खुद को एक कुशल किसान मानते थे, और फिर उन्होंने कहा: "मैं
भी आपकी तरह ही पूर्ण स्वशासन के लिए उत्सुक हूँ; लेकिन
मैं आपको बताता हूँ, हम
इसे एक झटके में पूरा नहीं कर सकते।"
उन्होंने डोमिनियन स्टेटस के बारे में बात की। "आप मुझ पर भरोसा कर सकते
हैं कि मैं इसे जितनी जल्दी हो सके आगे बढ़ाऊँगा।" पहली बार गांधीजी को
लगा कि विदेश मंत्री की बात का मतलब वही था जो उन्होंने कहा था। यह पूरी बात तो
नहीं थी, लेकिन
कुछ न होने से तो बेहतर ही था।
(क्रमशः) अभी जारी है ...
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- राष्ट्रीय आन्दोलन
संदर्भ : यहाँ पर