गुरुवार, 4 सितंबर 2025

334. गांधी-इरविन समझौता-1

राष्ट्रीय आन्दोलन

334. गांधी-इरविन समझौता-1


1931

प्रवेश

नमक सत्याग्रह अपने चरम पर था, सरकार का  जुल्म भी। भारतीय राष्ट्रवादियों पर अब तक हुआ यह सबसे निर्दयतापूर्ण अत्याचार उस वायसराय लॉर्ड इरविन के शासनकाल में हो रहा था, जिसे यह काम पसन्द नहीं था। नरम दल के नेता असमंजस की स्थिति में थे। वह सत्याग्रह में शरीक़ हो नहीं सकते थे। इसलिए सरकार पर दवाब बनाने लगे कि शान्ति की दिशा में सरकार कोई कदम उठाए। सरकार को भी सत्याग्रह के कारण काफी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा था। अंग्रेज अधिकारी और व्यापारी-वर्ग दमन-चक्र और भी कठोरता से चलाना चाहते थे। सत्याग्रहियों के ऊपर बढ़ते जुल्म के कारण संसार का लोकमत भी सरकार के विरोध में तेज़ी से बढ़ रहा था। प्रधानमंत्री रैमजे मैकडोनाल्ड शान्ति स्थापित करना चाहते थे, बशर्ते कि मजदूर सरकार की स्थिति को कमजोर बनाये बिना ऐसा हो सके। इस परिप्रेक्ष्य में सरकार द्वारा यह निश्चय किया गया कि अंग्रेज़ शासक भारत की आज़ादी की मांग पर समझौता के लिए लंदन में दूसरा गोल मेज  सम्मेलन करेंगे। प्रधानमंत्री गोलमेज-सम्मेलन सफल बनाने को उत्सुक थे, लेकिन उन्हें यह भी पता था कि गांधीजी और कांग्रेस प्रतिनिधियों की उपस्थिति के बिना इस सम्मेलन का कुछ खास असर नहीं होगा। रैमजे मैकडोनाल्ड ने 19 जनवरी, 1931 को प्रथम गोलमेज-सम्मेलन के अन्तिम अधिवेशन में, अपने विदाई-भाषण में यह आशा प्रकट की कि कांग्रेस दूसरे गोलमेज-सम्मेलन में भाग लेगी। लॉर्ड इरविन ने अगले कदम पर ध्यानपूर्वक विचार किया था। हालाँकि उन्हें भारत की समस्याओं की सीमित समझ थी, फिर भी उन्होंने यह महसूस किया कि इस रहस्य की कुंजी केवल गांधीजी के पास थी। वायसराय इरविन ने उनके प्रधानमंत्री रैमजे मैकडोनाल्ड के अभिप्राय को समझ कर गांधीजी और कांग्रेस कार्यकारिणी के सभी सदस्यों को तुरन्त और बिना किसी शर्त के छोड़ने का हुक्म दे दिया। नौ महीने तक जेल में रखने के बाद स्वाधीनता दिवस के ठीक एक दिन पहले 25 जनवरी, 1931 को गाँधीजी को जेल से रिहा किया गया। गांधीजी के साथ जवाहरलाल नेहरू, मोतीलाल नेहरू और अन्य बीस से अधिक कार्यकारी समिति के  दूसरे सदस्यों को भी रिहा कर दिया गया था। इस सद्भावना-प्रदर्शन की यह प्रतिक्रिया हुई कि गांधीजी वायसराय से मिलने को राजी हो गए। सिविल नाफ़रमानी आंदोलन की परिणति गांधीजी एवं उस समय के वायसराय के बीच एक समझौते के द्वारा हुआ। इसे गांधी-इरविन समझौता के नाम से जाना जाता है।

गोलमेज सम्मेलन के बाद

उस समय की तात्कालिक राजनीतिक स्थिति ने गांधीजी को दुःख से कोई राहत नहीं दी। गांधीजी ने शिकायत की, "ब्रिटेन की आधिकारिक शांति प्रस्ताव के बावजूद, निर्दोष लोगों पर अकारण हमले अभी भी जारी हैं। सम्मानित लोगों को बिना किसी स्पष्ट कारण के, केवल कार्यकारी कार्रवाई द्वारा उनकी अचल और चल संपत्ति से वंचित कर दिया जाता है। महिलाओं के एक जुलूस को जबरन तितर-बितर कर दिया गया। उनके बाल पकड़ लिए गए और उन्हें जूतों से पीटा गया। इस तरह के दमन के जारी रहने से, कांग्रेस का सहयोग असंभव हो जाएगा, भले ही अन्य कठिनाइयाँ दूर हो जाएँ।" उन्होंने प्रेस से कहा: "मुझे समझ नहीं आता कि जब दमन घंटे-दर-घंटे माहौल को दूषित कर रहा हो, तो शांति के लिए बातचीत कैसे संभव है। वर्तमान में चल रहे जनांदोलन को अचानक और बिना किसी उचित समाधान की उम्मीद के रोका नहीं जा सकता और न ही इसे तब तक समाप्त किया जा सकता है जब तक विशाल जनसमूह में समझौते की उम्मीद न हो और यह तब तक कभी नहीं हो सकता जब तक दमन अपने उग्र रूप में जारी रहेगा।" और एक अन्य बयान में उन्होंने कहा: "मैं शांति प्राप्त करने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ूँगा। मुझ पर बच्चों जैसा विश्वास रखने वाले हज़ारों लोगों को कष्ट सहने के लिए मजबूर करना मेरे लिए कोई खुशी की बात नहीं है।" निर्देश जारी किए गए कि आंदोलन चलते रहना चाहिए, लेकिन कोई नया अभियान नहीं चलाया जाना चाहिए या नई परिस्थितियाँ नहीं बनाई जानी चाहिए। कार्यकारी समिति के निर्णय सप्रू, जयकर और शास्त्री के आने तक स्थगित कर दिए गए। 11 फरवरी तक गांधीजी सार्वजनिक बयानों और निजी पत्राचार, दोनों में किसी भी समझौते की संभावना के बारे में गहरी निराशा व्यक्त करते रहे।

कांग्रेस की कार्यसमिति के सदस्यों रिहा तो कर दिया गया लेकिन कार्यसमिति के सदस्यों की बिना शर्त रिहाई से ही सरकार और कांग्रेस के बीच की खाई पट नहीं गई। कांग्रेस अब भी सविनय अवज्ञा को बंद करने के पक्ष में नहीं थी। मोतीलाल नेहरू की जिस समय मृत्यु हुई थी, ठीक उसी दिन गोलमेज सम्मेलन से भारतीय दल बम्बई लौटा था। उदारवादी प्रतिनिधियों ने गोलमेज सम्मेलन को एक महत्वपूर्ण उपलब्धि बताया। श्रीनिवास शास्त्री, सर तेज बहादुर सप्रू के साथ कुछ और लोग सीधे इलाहाबाद आए। गांधीजी और कांग्रेस कार्यसमिति के कुछ सदस्य पहले से वहीं थे। नेहरूजी के घर पर बैठकें हुईं। इसमें गोलमेज सम्मेलन में हुई बातों का ब्योरा दिया गया। गोलमेज सम्मेलन से लौटे भारतीय दल द्वारा यह सुझाव दिया गया कि गांधीजी वायसराय को पत्र लिखकर मुलाक़ात का समय मांगें। 14 फरवरी को गांधीजी ने वायसराय को पत्र लिखा और मुलाक़ात करने के लिए समय मांगा। गांधीजी का कहना था कि वायसराय ने कार्यसमिति के सदस्यों को जेल से छोडकर सद्भावना का परिचय दिया है तो एक सत्याग्रही के नाते जाकर उन्हें धन्यवाद देना उनका भी कर्तव्य हो जाता है। लॉर्ड इरविन मुलाक़ात के लिए सहमत हो गया। इससे विंस्टन चर्चिल को बड़ी चिढ़ हुई।

गांधी-इरविन वार्ता

सविनय अवज्ञा आंदोलन चल ही रहा था। चूंकि सरकार से बातचीत होने जा रही थी, तो उसकी उग्रता थोड़ी कम हो गई थी। लॉर्ड इरविन ने समय दिया और गांधीजी यह कहकर 16 फरवरी को दिल्ली के लिए रवाना हुए कि अगर अस्थायी समझौते के लायक कोई गंभीर बातचीत हुई, तो कार्यसमिति के सदस्यों को बुला लेंगे गांधीजी उससे मिलने कोई खास उम्मीद लेकर नहीं गए थे। गांधीजी, वायसराय के ज़्यादातर आगंतुकों की तरह, कोई कृपा मांगने नहीं आए थे। वे एक राष्ट्र के नेता के रूप में दूसरे राष्ट्र के नेता के साथ 'समान शर्तों' पर बातचीत करने आए थे। नमक सत्याग्रह और उसके बाद की घटनाओं ने साबित कर दिया था कि इंग्लैंड गांधीजी के बिना भारत पर शासन नहीं कर सकता। इरविन और गांधीजी के बीच पहली मुलाकात 17 फरवरी को दोपहर 2:30 बजे शुरू हुई और शाम 6:10 बजे तक चली। इरविन के जीवनी लेखक लिखते हैं, 'इस तरह ब्रिटिश राज के पूरे इतिहास में एक वायसराय और एक भारतीय नेता के बीच सबसे नाटकीय व्यक्तिगत मुलाकात का मंच तैयार हो गया।'

17 फ़रवरी, 1931 को, चर्चाओं का एक लंबा सिलसिला शुरू हुआ, जिससे इरविन-गांधी समझौता हुआ। इरविन और गांधी के बीच बातचीत वायसराय के नए महल में हुई, जिसे प्रतिभाशाली ब्रिटिश वास्तुकार सर एडविन लुटियंस ने डिज़ाइन किया था। यह महल ब्रिटिश राज की विशाल शक्ति का प्रतीक था। लेकिन इसके प्रांगणों में लगभग पहली घटना ही उस शक्ति के अंत की शुरुआत थी। दोपहर ढाई बजे, गांधीजी शाही दिल्ली के केंद्र में स्थित वायसराय भवन की सीढ़ियों पर चढ़े और उन्हें वायसराय के अध्ययन कक्ष में ले जाया गया। ठंड का दिन था, अध्ययन कक्ष में आग जल रही थी, और गांधीजी एक लंबे ऊनी शाल में लिपटे हुए, एक सोफे पर बैठे, खुद को गर्म कर रहे थे। इस मिलन का ऐतिहासिक महत्त्व थादोनों बराबरी के तौर पर मिले, न कि शासक और प्रजा की तरह। राष्ट्रीय आंदोलन ने सविनय अवज्ञा आंदोलन के माध्यम से जो संघर्ष किया था वह रंग दिखा रहा था। उसका ही परिणाम था कि ब गांधी-इरविन वार्ता के रूप में उसने समानता की स्थिति प्राप्त कर ली है। इस दिन के बाद से कांग्रेस संगठन की प्रगति और मज़बूती अब स्पष्ट तौर पर दिखने लगी थी। यह ऐसा था कि एक राष्ट्र का प्रतिनिधि दूसरे राष्ट्र के प्रतिनिधि से मिल रहा हो।

दोनों आठ बार मिले और पूरी वार्ता में 24 घंटे का समय लगा। गांधीजी इरविन की सच्चाई और सद्भावना से बहुत प्रभावित हुए। गांधीजी ने बाद में कहा, "उनका संचालन मैत्रीपूर्ण और बहुत मधुरता से किया जा रहा है।" लॉर्ड इरविन ने किंग जॉर्ज पंचम को लिखे एक पत्र में अपने आगंतुक (गांधीजी) का वर्णन इस प्रकार किया: "मुझे लगता है कि उनसे मिलने वाले अधिकांश लोग, जैसा कि मैं भी था, एक अत्यंत शक्तिशाली व्यक्तित्व के प्रति सचेत होंगे, और यह शारीरिक क्षमता से स्वतंत्र है, जो वास्तव में प्रतिकूल है। छोटा, झुर्रीदार, बल्कि दुर्बल, बिना आगे के दाँतों वाला, यह एक ऐसा व्यक्तित्व है जो इस दुनिया की सजावट से बहुत ही कम अलंकृत है। और फिर भी आप उसकी तीखी छोटी आँखों और अत्यंत सक्रिय और तीव्रता से काम करने वाले दिमाग के पीछे छिपे चरित्र की शक्ति को महसूस करने से खुद को नहीं रोक सकते।" कुल मिलाकर, यह गांधीजी का एक ऐसे व्यक्ति द्वारा किया गया उचित वर्णन था, जिसके पास उनके प्रति मित्रतापूर्ण भावना रखने का कोई विशेष कारण नहीं था। एक धर्मनिष्ठ एंग्लिकन, एक विशाल संपत्ति के उत्तराधिकारी, मोज़े पहने छह फुट पाँच इंच लंबे, लॉर्ड इरविन उन लोगों में से एक थे जो शाही वस्त्र ऐसे पहनते हैं मानो वे इसके लिए ही जन्मे हों। वह झुक सकते थे, लेकिन बहुत दूर तक नहीं। वह पीछे हट सकते थे, लेकिन केवल आगे बढ़ने के लिए। उन दोनों में जो समानता थी वह थी उनकी ईमानदारी, यह ज्ञान कि कुछ निश्चित सीमाओं के भीतर वे एक-दूसरे पर भरोसा कर सकते हैं, और ईश्वर में उनका विश्वास। सरोजिनी नायडू ने दो महात्माओं के बीच एक सम्मेलन की बात की थी, और यह सच्चाई के ज़्यादा करीब था।

कुदिनों बाद कार्यसमिति के सदस्यों को दिल्ली बुला लिया गया। नेहरूजी और अन्य लोग वहां तीन हफ़्ते रहे। कुल आठ बैठकें हुईं। रोज़ बैठक होती रही। काफ़ी विस्तार से विचार-विमर्श हुआ। भारत की सरकार लंदन स्थित इंडिया ऑफिस से लगातार संपर्क में थी। छोटी-छोटी बातों पर भी परामर्श लिया जाता रहा। इरविन छह हज़ार मील दूर लंदन में अपने वरिष्ठ अधिकारियों को तार भेज रहे थे, जबकि गांधीजी नई दिल्ली में कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्यों के साथ लंबी बैठकें कर रहे थे।

शांति वार्ता के लिए गांधीजी की छह शर्तें थीं,

1.    आम रिहाई,

2.    दमन पर तत्काल विराम,

3.    सभी जब्त संपत्तियों की वापसी,

4.    राजनीतिक आधार पर सज़ा पाए सभी सरकारी कर्मचारियों की बहाली,

5.    नमक बनाने तथा शराब व विदेशी वस्त्रों की दुकानों पर धरना देने की आज़ादी और

6.    पुलिस की ज़्यादतियों की जांच।

गांधी-इरविन वार्ता चर्चिल की सहनशक्ति के बाहर थी। उसे बड़ी चिढ हुई। वह यह ‘उबकाई लाने वाला और अपमानजनक दृश्य देखकर जल-भुन रहा था। उसने टिप्पणी की थी, "यह चिंताजनक और घिनौना है कि मध्यकालीन राजघराने के एक विद्रोही वकील, श्री गांधी, जो अब पूर्व में प्रसिद्ध एक फकीर का रूप धारण कर रहे हैं, वायसराय के महल की सीढ़ियों पर अर्धनग्न होकर चढ़ रहे हैं, जबकि वे अभी भी सविनय अवज्ञा का एक विद्रोही अभियान चला रहे हैं और राजा-सम्राट के प्रतिनिधि के साथ बराबरी की बातचीत कर रहे हैं।"’

पहली वार्ता 17 फरवरी को हुई जो चार घंटे चली। 18 तारीख़ को एक दिन के लिए वार्ता स्थगित कर दिया गया। 19 फरवरी को फिर गांधीजी को बुलाया गया। कुछ दिनों तक रोज़ वार्ताओं का दौर चलता रहा, फिर मुश्किलें खड़ी हो गईं और एक सप्ताह तक वार्ताओं को स्थगित कर दिया गया। 27 फरवरी को फिर गांधीजी को बुलाया गया। कई दिनों तक वार्ता के कई दौर और कई लंबी बैठकें हुईं।

1 मार्च को परिस्थितियां बहुत ही निराशाजनक हो गईं। वायसराय, जो अंतहीन बहस से थक चुके थे और धीरे-धीरे इस निष्कर्ष पर पहुँच रहे थे कि बातचीत कहीं नहीं जा रही हैगांधीजी दोपहर 2.30 बजे इरविन के घर पहुँचे। उनके खाने के समय तक बातचीत जारी रही, इसलिए मिस स्लेड (मीरा बहन) उनके लिए रात का खाना—चालीस खजूर और एक पाइंट बकरी का दूध—महल ले आईं और गांधीजी ने उसे वायसराय की मौजूदगी में खाया। शाम 5.50 बजे गांधीजी वायसराय के घर से चले गए, लेकिन उसी शाम वे बिना किसी के साथ डॉ. अंसारी के घर से, जहाँ वे ठहरे हुए थे, पाँच मील की दूरी पर महल तक पैदल गए, और आधी रात के बाद तक इरविन के साथ बंद कमरे में रहे। लॉर्ड इरविन इस बात को लेकर बेहद चिंतित थे कि बातचीत न टूटे। इरविन अपने आगंतुक के साथ दरवाजे तक गए और कहा: "शुभ रात्रि, श्री गांधी, अंधेरे में अकेले घर जाने के लिए और मेरी प्रार्थनाएँ आपके साथ हैं।" गांधीजी, हाथ में लाठी लिए, डॉ. अंसारी के घर की पाँच मील की यात्रा के लिए पैदल निकल पड़े। गांधीजी दो बजे घर पहुँचे। कार्यसमिति उनका इंतज़ार कर रही थी।

पुलिस ज्यादतियों की जाँच के लिए सरकार किसी भी तरह राज़ी न हुई, दोनों पक्ष इस मुद्दे पर अड गए थे और लगता था कि समझौता-वार्ता भंग ही हो जाएगी। 2 मार्च की मध्यरात्रि में कार्यकारिणी द्वारा उठाए गए मुद्दों पर टिप्पणियों के आदान-प्रदान के लिए फिर से वायसराय से मिले। वायसराय ने बडी चतुराई से काम लिया। उन्होंने गांधीजी से कहा कि जाँच की माँग करने का आपको पूरा अधिकार है, लेकिन अब गडे मुरदे उखाडने से क्या लाभ होगा ? केवल आपसी कटुता ही बढेगी। तो फिर गांधीजी ने इस बात पर ज्यादा ज़ोर नहीं दिया। 2 मार्च की वार्ता में कुछ सहमतियां बनीं। जो स्थिति इतनी निराशाजनक लग रही थी, वह अब कुछ हद तक सुधर गई थी। रात एक बजे गांधीजी वापस आए। गांधीजी ने तुरंत कार्यकारिणी के सदस्यों को बुलाया और वायसराय के साथ हुई पूरी बातचीत के बारे में बताया। उन्होंने अपना प्रतिदिन का कोटा 220 गज सूत कातना शुरू कर दिया। यह सोमवार का दिन था। उन्होंने मौन व्रत धारण किया हुआ था। वे केवल डेढ़ घंटे सोए और सुबह की प्रार्थना करने के लिए चार बजे उठ गए।

3 मार्च को गांधीजी नमक पर रियायत पाने में सफल हुए। लेकिन बारडोली के किसानों की ज़मीन की वापसी को लेकर समस्या खड़ी हो गई। धरने को लेकर एक फार्मूले पर सहमति बनी। राजनीतिक क़ैदियों को छोड़ने का वादा किया गया। गांधीजी इस बात पर सहमत हुए कि गोलमेज सम्मेलन में होने वाली भविष्य की वार्ता भारत की संवैधानिक सरकार की योजना को ध्यान में रखते हुए होनी चाहिए। जिस बात के लिए सबसे अधिक आपत्ति थी वह यह कि सविनय अवज्ञा आंदोलन को रोक दिया जाए। गांधीजी हमेशा यह स्पष्ट रूप से कहते आए थे कि सविनय अवज्ञा आंदोलन सदा के लिए बंद या छोड़ा नहीं  जा सकता। उनके अनुसार जनता के हाथ में यही तो एकमात्र शस्त्र है। हां स्थगित करने के लिए वे ज़रूर तैयार हो गए थे। लॉर्ड इरविन को ‘स्थगित करने’ शब्द पर आपत्ति थी। वह इसे एक निश्चित रूप देना चाहता था। गांधीजी इसे हटाने के लिए तैयार नहीं थे। अंत में ‘सिलसिला बंद कर देना’ शब्द का प्रयोग हुआ। यह भी स्पष्ट कर दिया गया कि सविनय अवज्ञा आंदोलन को अंतिम रूप से वापस नहीं लिया जा सकता क्योंकि यह जनता के संघर्ष का एकमात्र हथियार है।

कांग्रेस की कार्यकारी समिति में जब इसकी चर्चा हुई, तो सदस्य असंतुष्ट दिखे। पटेल ने ज़ब्त संपत्ति पर घोषित किए गए फार्मूले पर आपत्ति जताई। नेहरू पूर्ण स्वतंत्रता पर बिना किसी ठोस चर्चा के वार्ता की स्वीकृति पर रोष प्रकट किया। विधान-संबंधी विषयों में भारत के हित की दृष्टि से रक्षा ( सेना ), वैदेशिक मामले, अल्पसंख्यकों का प्रश्न और वित्त आदि मामलों में प्रतिबंध या संरक्षण" को स्वीकार कर लिया गया था। समझौते की इस धारा से पं. जवाहरलाल नेहरु को ‘भारी आघात’ पहुँचा था और यह धारा कांग्रेस की पूर्ण स्वाधीनता की घोषणा के प्रतिकूल भी थी। समझौते में औपनिवेशिक स्वराज्य का भी कोई आश्वासन नहीं था। सदस्यों ने इस समझौते की आलोचना की क्योंकि गाँधीजी वायसराय से भारतीयों के लिए राजनीतिक स्वतंत्रता का आश्वासन हासिल नहीं कर पाए थे। सदस्यों ने कहा वार्ता तोड़ देनी चाहिए क्योंकि वायसराय से भारतीयों के लिए राजनीतिक स्वतंत्रता का आश्वासन नहीं मिला था। गाँधीजी को इस संभावित लक्ष्य की प्राप्ति के लिए केवल वार्ताओं का आश्वासन मिला था। किसी ने भी क़ैदियों की रिहाई के वचन को यथेष्ट नहीं माना। गांधीजी ने समिति के एक-एक सदस्य से लगातार चर्चा की। उन्होंने प्रश्न उठाया, आखिर किस सवाल पर उन्हें वार्ता तोड़ देनी चाहिए – क़ैदियों की रिहाई के मुद्दे पर? भूमि ज़ब्ती के मुद्दे पर? धरने के मुद्दे पर? या और किसी मुद्दे पर? अनिच्छापूर्वक समिति ने समझौते को स्वीकार कर लिया।

गांधी-इरविन समझौते पर हस्ताक्षर

समझौते का पलड़ा आशा-निराशा के बीच झूलते-झूलते अंत में 4 मार्च को समझौता हो ही गया। यह सिविल नाफ़रमानी आंदोलन की परिणति थी। इसे गांधी-इरविन समझौता के नाम से जाना जाता है। नमक सत्याग्रह की परिणति सविनय अवज्ञा आंदोलन के रूप में एक ऐसे विराट जनांदोलन में हुई, जिसमें ब्रिटिश सरकार की नैतिक सत्ता मटियामेट  हो गई। अहिंसा के सिपाही लाठियों की मार सहते, फिर भी अपनी जगह पर अडिग रहते। सरकार परेशान थी कि अहिंसक संघर्ष का सामना कैसे करें। हर संभव तरीक़े से इसके दमन का प्रयास किया गया। तमाम तरह के काले क़ानून बनाए गए। फिर काम न चला। सविनय अवज्ञा आंदोलन में लाखों लोगों ने भाग लिया था। इन लोगों को न तो इस बात की कोई समझ थी, न ही इसमें कोई रुचि थी भी, कि वार्ताओं और चर्चाओं में किन संवैधानिक गुत्थियों को सुलझाने के लिए बहस हो रही है। लेकिन जो परिणाम आया उससे यह तो स्पष्ट है कि यह उन्हीं का दबाव और शौर्यपूर्ण आत्म-बलिदान था जिसने इरविन को गांधीजी के साथ समझौता करने के लिए विवश किया था।

4 मार्च को कार्यसमिति के सदस्य आधी रात तक गांधीजी के वायसराय भवन से लौटने की प्रतीक्षा करते रहे। वे दो बजे लौटे। लोगों को जगाकर बताया कि समझौता हो गया है। सबने समझौते का मसविदा देखा। गांधीजी और लॉर्ड इरविन के बीच तीन सप्ताह से अधिक तक बातचीत चलते रहने के कारण देश में यह उम्मीद जगी थी कि समझौता होने ही वाला है। इस स्थिति में अगर समझौते की वार्ता टूट जाता तो लोगों में बहुत ही निराशा का वातावरण तैयार हो जाता। इसलिए कार्यसमिति के अधिकांश सदस्य एक अस्थायी समझौते के लिए तैयार थे।

5 मार्च को दोपहर में वायसराय भवन में इरविन और गांधीजी द्वारा समझौते पर हस्ताक्षर किए गए। यह समझौता एक पखवाड़े तक चली बातचीत का नतीजा था, जिसके दौरान गांधीजी वायसरीगल लॉज में आठ बार गए और कुल मिलाकर चौबीस घंटे वहाँ बिताए। दो राष्ट्रीय राजनेताओं ने एक समझौते, एक संधि, एक सहमत पाठ पर हस्ताक्षर किए थे; जिसके प्रत्येक वाक्यांश और शर्त को कठिन सौदेबाजी में तय किया गया था। इसे गांधी-इरविन समझौता या दिल्ली पैक्ट के नाम से जाना जाता है। इरविन ने कहा, हमें इस मौक़े पर चाय पीकर एक दूसरे को बधाई देनी चाहिए। गांधीजी ने अपनी शाल से एक काग़ज़ की थैली निकालते हुए कहा, शुक्रिया, मैं नमक की कुछ मात्रा अपनी चाय में मिलाना चाहूंगा ताकि हमें प्रसिद्ध बोस्टन टी पार्टी का स्मरण हो जाए। इस पर दोनों हंस पड़े। उन्होंने खुलकर मज़ाक किया और चर्चिल के "अर्ध-नग्न फकीर" वाले भड़काऊ वृत्तांतों पर खुशी मनाई। लंबी बातचीत के बाद गांधीजी शॉल भूल गए थे। लॉर्ड इरविन ने तुरंत उसे उठाया और एक सौम्य मुस्कान के साथ कहा, "मि. गांधी, आपके पास इतना कुछ नहीं है, आप जानते हैं, कि आप इसे पीछे छोड़ सकें।"

समझौते के अनुसार सरकार ने सभी राजनीतिक कैदियों को रिहा करने का आश्वासन दिया था। आन्दोलन के दौरान ज़ब्त संपत्ति को लौटाने, दमनचक्र बंद करने, सभी अध्यादेश और मुक़दमे वापस लेने पर सरकार ने सहमति जताई थी। भारतीयों को नमक बनाने की छूट मिल गयी। आन्दोलन के दौरान जिन लोगों ने नौकरी से त्यागपत्र दिया था उन्हें फिर से सरकारी नौकरी में वापस लेने की व्यवस्था की गई। गांधीजी ने सविनय अवज्ञा आन्दोलन वापस लेने, बहिष्कार की नीति त्यागने और द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने पर सहमती दी। समझौता भारत के गजट में गृह विभाग की एक विज्ञप्ति के रूप में प्रकाशित हुआ। विज्ञप्ति में कहा गया था, सविनय अवज्ञा प्रभावी रूप से बंद किया जाएगा और इसके उत्तर में सरकार की तरफ़ से भी यथोचित क़दम उठाया जाएगा। कांग्रेस कार्यकारी समिति ने समझौते की शर्तों का समर्थन करते हुए एक प्रस्ताव पारित किया, समिति आशा करती है कि राष्ट्र समझौते की शर्तों का पालन करेगा क्योंकि यह कांग्रेस की विभिन्न गतिविधियों और इस मत से मेल खाती है कि कांग्रेस की तरफ़ से किए वादों के पूरे अनुपालन से ही भारत के पूर्ण स्वराज्य का मार्ग प्रशस्त हो सकेगा।

ब्रिटिश प्रवक्ताओं का कहना था कि इरविन ने लड़ाई जीत ली है, और इस विवाद के लिए एक अच्छा मामला बनाया जा सकता है। लेकिन प्रेस के साथ एक साक्षात्कार में गांधीजी ने कहा था, इस तरह के समझौते में किसी एक पक्ष को विजयी मानना संभव नहीं है। अगर इस तरह की कोई विजय हुई है तो दोनों पक्षों की हुई है। महात्मा के दीर्घकालिक विचारों में, भारत और इंग्लैंड के बीच सैद्धांतिक रूप से स्थापित समानता किसी भी व्यावहारिक रियायत से अधिक महत्वपूर्ण थी जो वे अनिच्छुक साम्राज्य से प्राप्त कर सकते थे। एक राजनेता को और अधिक सार की तलाश होती। गांधीजी सार से संतुष्ट थे: एक नए रिश्ते का आधार। अमेरिकी और भारतीय पत्रकारों को संबोधित करते हुए, गांधीजी ने कहा कि यह समझौता 'अस्थायी' और 'सशर्त; एक 'युद्धविराम' था। लक्ष्य बना रहा: 'पूर्ण स्वतंत्रता... भारत इससे कम पर संतुष्ट नहीं हो सकता... कांग्रेस भारत को एक बीमार बच्चा नहीं मानती जिसे पालने, बाहरी मदद और अन्य सहारे की ज़रूरत हो।'

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मनोज कुमार

 

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संदर्भ : यहाँ पर

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