सोमवार, 31 मई 2010

पशु

-- सत्येन्द्र झा
किसी साहित्यिक दिवस पर लेख प्रतियोगिता का आयोजन किया गया था। लेख का विषय था 'पशु की उपयोगिता'
पुरस्कृत लेखक ने लिखा था, "पशु की उपयोगिता मनुष्य से अधिक होती है, क्यूंकि प्रत्येक मनुष्य के अन्दर एक पशु रहता है। जब यह पशु बाहर आ कर मनुष्य को परास्त कर देता है तो शहर की सडकों से लेकर गाँव की पगडण्डी तक रक्त से लाल हो जाते हैं। बाहर निकला पशु सत्ता तक को आंदोलित कर देता है। हमलोग अपना अस्तित्व दूसरे पशु को समर्पित कर देते हैं।"
मूल कथा 'अहींकें कहै छी में संकलितपशु' से हिंदी में केशव कर्ण द्वारा अनुदित।

रविवार, 30 मई 2010

काव्य शास्त्र-17 :: आचार्य मम्मट

आचार्य मम्मट

- आचार्य परशुराम राय

भारतीय काव्यशास्त्र में आचार्य मम्मट का योगदान अद्वितीय है। इन्हें विद्वत्समाज 'वाग्देवतावतार' मानता है। इनका काल महाराजा भोजदेव के बाद आता है। इनके जीवन के विषय में प्रामाणिक तथ्य बहुत कम मिलते हैं। इसमें संशय नहीं कि ये कश्मीर निवासी थे। इनके एकमात्र ग्रंथ'काव्यप्रकाश' पर 'सुधासागर' नामक टीका के टीकाकार भीमसेन के अनुसार आचार्य मम्मट के पिता जैयट थे। 'अष्टाध्यायी' नामक व्याकरण ग्रंथ पर महर्षि पंतञ्जलि द्वारा प्रणीत 'महाभाष्य' के टीकाकार कैयट और यजुर्वेद के भाष्यकार उव्वट (कहीं-कहीं पर औव्वट) दोनों आचार्य मम्मट के अनुज थे। ये पुन: लिखिते हैं कि आचार्य मम्मट ने शिवपुर (वाराणसी) जाकर अध्ययन किया।

उव्वट ने अपने वाजसनेयसंहिता के भाष्य में अपना परिचय देते हुए लिखा है:-

आनन्दपुरवास्तव्यवज्रटाख्यस्य सूनुना।

मंत्रभाष्यमिदं क्लृप्तं भोजे पृथ्वीं प्रषासति॥

इस विवरण के अनुसार उव्वट के पिता वज्रट हैं और यह भाष्य (वेदभाष्य) महाराज भोज के शासन-काल में उनके द्वारा लिखा गया। इस प्रकार उव्वट महाराज भोज के समकालीन और आचार्य मम्मट के पूर्ववर्ती है। अतएव सुधासागर टीकाकार द्वारा दिया गया उपर्युक्त तथ्य सत्य नहीं प्रतीत होता।

इसके अतिरिक्त आचार्य भीमसेन का यह वक्तव्य कि आचार्य मम्मट ने वाराणसी जाकर अध्ययन किया, सत्य नहीं माना जा सकता। क्योंकि कश्मीर अपने आप में काव्य एवं काव्यशास्त्र अध्ययन का बहुत बड़ा केन्द्र था। उसके लिए इन्हें काशी जाकर अध्ययन करने की आवश्यकता नहीं थी। वैसे भी कुछ काव्यशास्त्रियों को छोड़कर सभी कश्मीरी थे। इन्हीं स्रोतों से आचार्य मम्मट के व्यक्तिगत जीवन के कुछ अंश देखने को मिलते हैं।

अब देखते हैं काव्यशास्त्र जगत को आचार्य मम्मट की देन को। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है कि इनके द्वारा रचित एक मात्र ग्रंथ काव्यप्रकाश हैं। वैसे काव्यप्रकाश के लेखक को लेकर विद्वानों में काफी मतभेद हैं। कुछ विद्वान मानते हैं कि इस ग्रंथ का का आरम्भ आचार्य मम्मट ने किया। किन्तु कुछ कारणों से वे उसे पूरा नहीं कर पाये और शेष अन्य विद्वान द्वारा यह पूरा किया गया। दूसरे रचनाकार के नाम पर भी मतैक्य नहीं है। काव्य प्रकाश पर 'काव्यप्रकाशनिदर्शना' नामक टीका के लेखक राजानक आनन्द ने 1685 में लिखा है कि परिकर अलंकार तक की रचना आचार्य मम्मट की है और शेष भाग अल्लट सूरि नामक विद्वान द्वारा लिखा गया हैः-

कृत: श्रीमम्मटाचार्यवर्यै: परिकरावधि:।

ग्रंथः सम्पूरित: शेषं विधायाल्लटसूरिणा॥


कुछ विद्वान उक्त मत से अलग विचार रखते हैं। इनके अनुसार आचार्य मम्मट और आचार्य अल्लटसूरि दोनों ने मिलकर सम्मिलित रूप से पूरे ग्रंथ की रचना की। इस मत का भी राजनक आनन्द ने उल्लेख किया हैः-

अन्येनाप्युक्तम्-

काव्यप्रकाशदशकेऽपि निबन्धकृद्भ्यां

द्वाभ्यां कृतेऽपि कृतिनां रसवत्वलाभ:।

'अमरूकशतक' की टीका लिखते समय अर्जुन वर्मनदेव ने भी इस मत की पुष्टि की है:-

'यथोदाहृत दोषनिर्णये मम्मटाल्लटाभ्याम्'

कुछ विद्वान इसे दो की नहीं, बल्कि तीन की सम्मिलित रचना मानते हैं और आधार के रूप में आचार्य रूचक (रूय्यक) द्वारा काव्य प्रकाश पर लिखी अपनी 'संकेत' टीका में उल्लास की समाप्ति पर दी गई पुष्पिकाओं को लेते हैं। इसके अनुसार आचार्य मम्मट, अलट (अलक) और रूचक तीनों ने मिलकर काव्यप्रकाश की रचना की थी -

'इति श्रीमद्राजानकमल्लमम्मट रूचक विरचिते

निजग्रंथ काव्य प्रकाश संकेते प्रथम उल्लास:।’

यहाँ आचार्य रूचक ने अपने 'संकेत' टीका को सम्मिलित करके पुष्पिकाएँ दी हैं, न कि केवल 'काव्यप्रकाष' के लिए। अतएव रूचक को काव्यप्रकाश के रचनाकारों की सूची में जोड़ना उचित नहीं है।

एक और मत प्रचलित है कि 'काव्यप्रकाष' की कारिकाएँ आचार्य भरत की हैं तथा वृत्ति भाग के लेखक आचार्य मम्मट हैं। इस मत को पुष्ट करने वाले 'काव्य प्रकाश' पर 'आदर्श' नामक टीका के लेखक आचार्य महेश्वर हैं। इसी प्रकार 'साहित्यकौमुदी' नामक ग्रंथ के प्रणेता आचार्य विद्याभूषण भी इसी मत की पुष्टि करते हैं।

वैसे उक्त सभी मतों के विरूध्द इतने तथ्य हैं जो सिध्द करते हैं कि पूरे 'काव्यप्रकाष' के लेखक केवल आचार्य मम्मट हीं हैं। लेकिन उदाहरण भाग और अपने मत की पुष्टि में उध्दृत किए गए अंशों को छोड़कर।

'काव्यप्रकाष' दस उल्लासों में विभक्त है। प्रथम उल्लास में काव्य के प्रयोजन, कारण आदि का उल्लेख है। दूसरे में शब्दार्थों के स्वरूप का विवेचन है। तीसरे में अभिव्यंजकता का विश्लेषण है। चौथे में ध्वनि का निरूपण किया गया है। पाँचवे उल्लास में गुणीभूतव्यंग्य के भेदोपभेद का विवरण है। छठे में शब्दचित्र और अर्थ चित्र का निरूपण है। सातवें में काव्य-दोषों का विवेचन मिलता है। आठवें उल्लास में काव्य के गुणों का विश्लेषण है। नौवें में शब्दालंकारों और दसवें उल्लास में अर्थालंकारों का विवेचन किया गया है।

'काव्यप्रकाष' पर अब तक संस्कृत में लगभग 75 टीकाएँ मिलती हैं और हिन्दी में तीन टीकाएँ। किसी ग्रंथ की इतनी टीकाएँ दो बातों की ओर संकेत करती है। एक तो ग्रंथ की लोकप्रियता और दूसरी उसकी दुरूहता। आचार्य मम्मट ने काव्यशास्त्र से सम्बन्धित सारे तत्वों का'काव्यप्रकाष' में समावेश किया है। यही कारण है कि यह ग्रंथ सबसे अधिक आदर का पात्र बना।

*** ***

पिछले अंक

|| 1. भूमिका ||, ||2 नाट्यशास्त्र प्रणेता भरतमुनि||, ||3. काव्यशास्त्र के मेधाविरुद्र या मेधावी||, ||4. आचार्य भामह ||, || 5. आचार्य दण्डी ||, || 6. काल–विभाजन ||, ||7.आचार्य भट्टोद्भट||, || 8. आचार्य वामन ||, || 9. आचार्य रुद्रट और आचार्य रुद्रभट्ट ||, || 10. आचार्य आनन्दवर्धन ||, || 11. आचार्य भट्टनायक ||, || 12. आचार्य मुकुलभट्ट और आचार्य धनञ्जय ||, || 13. आचार्य अभिनव गुप्त ||, || 14. आचार्य राजशेखर ||, || 15. आचार्य कुन्‍तक और आचार्य महिमभट्ट ||, ||16. आचार्य क्षेमेन्द्र और आचार्य भोजराज ||

गंगावतरण (भाग-१)

--- मनोज कुमार
सर्वत्र पावनी गंगा त्रिषु स्थानेषु दुर्लभा।
गंगा द्वारे, प्रयागे च गंगासागर संगमे॥

imageगंगासागर की यात्रा की चर्चा के क्रम में हमने आपका सागर द्वीप से परिचय कराया था। हमारे लिये गंगा मात्र एक नदी ही नहीं, हमारे देश की आत्मा है। हमारे देश की सभ्यता और संस्कृति का प्रतीक है। हम तो उसे अपने देश की अस्मिता के साथ जोड़कर देखते हैं। भारत की राष्ट्र-नदी गंगा जीवन ही नहीं, अपितु मानवीय चेतना को भी प्रवाहित करती है। ग्रंथों में गंगा का वर्णन अनेक रूपों में मिलता है। भगीरथनंदिनी, विष्णुपदसरोजजा और जाह्न्वी के रूप में गंगा नर-नागों, देवताओं और ऋषिओं मुनियों के लिए वंदनीय है। गंगा के उद्भव (विष्णुपद), वास (ब्रह्म कमण्डल), विकास (भगीरथ नंदिनी), प्रवाह(जाह्न्वी) एवं प्रभाव (कल्पथालिका) का वर्णन है।

गंगा नदी के महत्व को सभी स्वीकार करते हैं; क्योंकि गंगा किसी में कोई भेद नहीं करती है। सभी को एक सूत्र में पिरोती है और एक सूत्र में बाँधे रखने का संकल्प प्रदान करती है गंगा।

हम उसे मां कहते हैं – गंगा मैय्या! गंगा जीवन तत्त्व है, जीवन प्रदायिनी है, इसीलिए माँ है। तभी तो उसे पवित्रतम नदी की संज्ञा देते हैं। गंगा को पुण्य सलिला, पाप-नाशिनी, मोक्ष प्रदायिनी, सरित् श्रेष्ठा एवं महानदी कहा गया है। आज उस नदी की जीवन्तता पर प्रदूषण से बहुत बड़ा खतरा मंडरा रहा है। हम उसके विनाश का कारण न बनें। कितनी मुश्किलों से हमारे पूर्वजों ने गंगा को पृथ्वी पर लाया।

imageगंगा का पृथ्वी पर अवतरण की अनेक कथाएं प्रचलित हैं। ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार गंगा को लक्ष्मी और सरस्वती के साथ विष्णु की पत्नी मना गया है। ऐसा बताया गया है कि आपसी कलह और शत्रुता के कारण ये तीनों मृत्युलोक में नदी के रूप में चली आईं। ये तीन नदियां हैं – गंगा, पद्मा और सरस्वती।

एक अन्य कहानी के अनुसार गंगा के पृथ्वी पर अवतरण में नारद जी का हाथ है। कहा गया है कि महर्षि नारद को अपने संगीत के ज्ञान पर काफ़ी घमंड था। उनको लगता था कि उनके जैसा पहुंचा हुआ संगीतज्ञ कोई और नहीं है। घमंड में चूर वो संगीत का उलटा-पुलटा अभ्यास करते थे। न राग का ख़्याल था उन्हें न रागिनियों का। पूरा संगीत शास्त्र ही उन्होंने विकृत कर रखा था।

उनके इस व्यवहार से राग-रागिनियां अत्यंत दुखी हो गयीं। उन्होंने अपने विचार नारद मुनि को बताया। पर नारद तो घमंड में चूर थे। उन्हें लगता कि वे जो भी कर रहे हैं सब ठीक है। अपनी ग़लती वो पकड़ ही नहीं पा रहे थे। संगीत का समान्य ज्ञान था नारद के पास। पर उतने पर ही वे अहंकारी हो गये थे। अपने अल्प ज्ञान पर किसी को अहंकारी नहीं होना चाहिए। बल्कि उसे तो और अधिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए सतत प्रयत्नशील रहना चाहिए। संगीत साधना कोई छोटी-मोटी साधना नहीं है। इसे नादब्रह्म कहा गया है। संगीत साधना हो या अन्य कोई साधना – हमें सदैव अहंकार से दूर रहना चाहिए। सधना में जितनी विनम्रता होगी हम उतना ही अधिक ज्ञान प्राप्त कर सकेंगे। अहंकार से तो नाश ही होता है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं नारद, जिनके जैसे साधक को भी पतन का सामना करना पड़ा।

imageइधर राग-रागिनियां नारद के अहंकारी स्वभाव के चलते विकलांग होती गयी थीं। यह ख़बर देवताओं तक पहुंची। तब यह निश्चय हुआ कि यदि देवाधिदेव महादेव संगीताभ्यास करें तो राग-रागिनियां सामान्य हो सकेंगी। महादेव राज़ी हो गये। वो देवसभा में राग-रागिनियों के कल्याण हेतु गा रहे थे। पर उनके संगीत का स्तर काफ़ी शास्त्रीय था, उच्च था। उनके इस रस-गांभीर्य को समझने की क्षमता किसमें थी?! कुछ हद तक विष्णु की समझ में आ रहा था। पुराण में यह वर्णित है कि महादेव के गायन से जो संगीत-लहरी उठी उससे विष्णु भगवान के पैर का अंगुठा गल कर जल बन गया। और उस जल से पूरा देवलोक प्लावित हो गया। इस द्रव को ब्रह्मा जी ने अत्यंत सावधानी के साथ, अपने कमंडल में भरकर रख लिया। इसी जल को, जो ब्रह्मा के कमंडल में था, भगीरथ अपनी अथक तपस्या के बल पर पृथ्वी पर लाए ताकि सगर के पुत्रों का कल्याण हो सके। चूंकि यह जल विष्णु के पैर के विगलित होने से बना था, इसी कारण से गंगा का एक नाम विष्णुपदी भी है। विष्णुपदी गंगे सभी लोकों को पवित्र करने वाली, अघ ओघ की बेड़ियों को काटने वाली, पतितों का उद्धार करने वाली तथा दुःखों को विदीर्ण करने वाली है।

शुक्रवार, 28 मई 2010

त्यागपत्र : भाग 31

पिछली किश्तों में आप पढ़ चुके हैं, 'कैसे रामदुलारी तमाम विरोध और विषमताओं के बावजूद पटना आकर स्नातकोत्तर तक पढाई करती है। बिहार के साहित्यिक गलियारे में उसका दखल शुरू ही होता है कि वह गाँव लौट जाती है। फिर सी.पी.डब्ल्यू.डी. के अभियंता बांके बिहारी से परिणय सूत्र में बंध पुनः पटना आ जाती है। अब पढ़िए आगे॥ -- करण समस्तीपुरी
पटना शहर रामदुलारी के लिए नया नहीं था। इसी शहर की गोद में उसकी तरुनाई बीती थी। पिछले सात सालों से वह पटना में ही रह रही थी। हाँ अब क्षेत्र में थोडा अंतर आ गया था। कभी क्लास, नोट्स, किताबें, ट्यूशन और नारी उत्थान आन्दोलन में अशोक राज पथ, एनी-बेसेंट रोड, महेन्द्रू नया टोला और गोविन्द मित्र रोड की ख़ाक छान चुकी रामदुलारी अब अनीसाबाद के वातानुकूलित बंगले की शोभा थी। बांके की दिनचर्या बहुत ही व्यस्त है। सुबह जब तक तैयार हों बैठक-खाने में प्रांत के नामी-गिरामी ठेकदारों की भीड़ लगी रहती है। शाम ढले घर वापिस आते तो हैं पर फोन की खनकती घंटियाँ रामदुलारी की सौत की तरह वक़्त छीन लेती है। अब तो आर-ब्लोक और न्यू मार्केट भी किसी दूर शहर की तरह दीखते हैं। हाँ सासू माँ का मन हो गया तो मंगलवार की शाम महावीर मंदिर में माथा टेकने का मौका जरूर मिल जाता है।
परिवर्तन सिर्फ निवास-क्षेत्र में ही नहीं हुआ है। कभी अध्यन, वाद-विवाद, पत्र-पत्रिका और किताबों में डूबी रहने वाली रामदुलारी का समय इस विशाल घर में अपने लिए छोटे-छोटे काम के भी अवसर तलाशते बीतता है। कभी वह विद्रोह कर के पटना आयी थी। फिर पटना शहर ने उसे अपना लिया, उसने पटना शहर को अपना लिया। वर्षों में इतनी शिद्दत से कभी उसे अपने गाँव की याद नहीं आयी थी। लेकिन अब तो उसकी आँखों में हमेशा राघोपुर के कच्चे-पक्के रास्ते ही चक्कर काटते हैं। अब उसका मन करता है, काश कुछ दिन के लिए राघोपुर चले जाते.... !
हालांकि अब तक बाबू विदाई के लिए तीन बार आग्रह कर चुके थे लेकिन कभी बांके की व्यस्तता, कभी अतिथियों का आगमन और कभी सासू माँ की अस्वस्थता के कारण उनके निवेदन को निरस्त कर दिया गया था। रामदुलारी ने एक बार बांके से कहा भी था, "आप भी एक बार ससुराल का आनंद ले लेते, मेरा भी जी बहल जाता... !" लेकिन कितनी रुखाई से ताल गया था बांके, "ओह नो... डियर ! लोड्स ऑफ़ वर्क नावअडेज़। फिर अभी-अभी तो तुम आयी ही हो.... ! बात करनी है तो कॉल योर परेंट्स नो... ! घर में दो-दो टेलीफोन लगे हैं। इवेन योर फॅमिली हैस गोट अ टेलीफोन कनेक्शन नाव।" अभियंता बांके ने मशीन के उपयोग के बारे में खूब सीखा था। रामदुलारी मनमसोस कर रह गयी।
ऐसे में उस दिन रुचिरा का आना उसे बड़ा ही शुकून दिया था। उसे ऐसा महसूस हुआ था मानो जेठ की तपती दुपहरी में शीतल बतास मिल गया हो। पहले तो रुचिरा और रामदुलारी दोनों के मन में शंका थी किन्तु सासू माँ ने जिस उल्लास के साथ रुचिरा का स्वागत किया उस से सब शंकाएं निर्मूल हो गयी। बांके की माँ ने रुचिरा से बड़े स्नेह से कहा था, "अच्छा किया बेटी। घर में कोई रहता नहीं है... अकेली इस बेचारी का जी अकुलाता है... ! अब तुम दोनों बातें करो.... ! शर्मा जी के बहु के घर से फ्रीज़ आया है, मैं जरा देख के आती हूँ।"
सासू माँ के जाने के बाद दोनों सहेलियों ने खूब सारी बातें की। लगता था जैसे छः महीने से बंधी हुई गाँठ खुल गयी हो। बातो का सिलसिला था कि बढ़ता ही जा रहा था। अतीत की मधुर स्मृतियों के प्राचीर से जो चर्चा शुरू हुई तो वर्तमान की सब हदों को पार करती हुई भविष्य की योजनाओं तक पहुँच गयी। रामदुलारी ने जब समीर और समीर से उसके रिश्ते के बारे में पूछा तो रुचिरा की आँखों में शरारत तैर गयी थी। फिर रुचिरा ने बताया था कि अभी जल्दी भी क्या है... ? दोनों राजी हैं, मिलने-जुलने पर भी कोई पाबंदी नहीं है..... सिर्फ फेरे ही लेने हैं तो कभी भी ले लेंगे। फिलहाल तो समीर पटना से एक साप्ताहिक हिंदी पत्र निकालने की सोच रहा है।
रामदुलारी ने जानना चाहा था कि सेठ दीं दयाल को तो कोई आपत्ति नहीं होगी ? रुचिरा बहुत आश्वस्त थी। उसने कहा, 'नहीं! ऐसा होना तो नहीं चाहिए। सेठ जी आधुनिक विचारों के हैं और आज तक उन्होंने हमारी दोस्ती पर कोई आपत्ति नहीं जताई है उलटे हमारा सम्मान ही बढाया है। अब तो मैं उनके महाविद्यालय में हिंदी की विभाग की अध्यक्ष हो गयी हूँ। वैसे भी इतनी परवाह कौन करता है ? मैं और समीर स्वावलंबी हैं और एक-दुसरे को पसंद करते हैं तो किसी के विरोध करने से अपना लक्ष्य थोड़े बदल सकते हैं। तुम तो जानती ही हो कि परम्परा के नाम पर समाज की घिसी-पीती लकीरों पर मैं कितना विश्वास करती हूँ...!" रुचिरा की चुटीली हंसी पर रामदुलारी भी खुद को मुस्कराने से नहीं रोक पायी।
बहुत सारी बातों के बाद रुचिरा रामदुलारी को कंधो से मार कर पूछी, 'ये तो थी मेरी राम-कहानी। तू भी अपनी कुछ बतायेगी ? कैसे कट रहे हैं मस्ती भरे दिन ?" जवाब में रामदुलारी झेंप गयी थी। 'हाँ ! सब ठीक है।' के अलावे कुछ कह नहीं पायी थी वह। रुचिरा ने ही दूसरा सवाल दगा, "तो बता अभी तक कहाँ-कहाँ ले गए हैं तेरे बांके बिहारी ?" 'कहाँ जाउंगी ? उन्हें तो फुर्सत ही नहीं मिलती है.... जरा सी भी !" फिर दोनों में कुछ चुहलबाजियाँ भी हुई थी और मंद-मंद जुडुवा हंसी से कमरा चहक उठा था।
रुचिरा ने उसके 'शोध-प्रबंध' के विषय में पूछा। रामदुलारी ने बताया था कि विवाह से पहले जो बक्से में बाँध कर रखा सो अभी तक खोने का मौका नहीं लगा है। फिर रुचिरा ने कहा था कि उसकी रचना 'धर्मयुग' और 'सारिका' में छपी है। साप्ताहिक हिंदुस्तान से 'भाषा-विज्ञानं' पर नियमित कालम लिखने का निमंत्रण मिला है। उसने रामदुलारी को भी कुरेदा था, "क्यूँ चहारदीवारी में कैद कर अपनी रचनात्मक क्षमता को भी मार रही है ? तुम्हारे तो शोध के विषय से ही साहित्य और नारी विमर्श पर अनेक रचनाये निकल सकती हैं। तुम्हारी भाषा और दृष्टिकोण भी कितनी गहरी पैठ रखती है... और न जाने क्या-क्या कहा था रुचिरा ने। रामदुलारी सिर्फ हाँ-हूँ करती रही थी।
संध्या के धुंधले आँचल पर विद्युत् का धवल प्रकाश बिखरने लगा तो रुचिरा बोली, 'चल अब मुझे इजाजत दे। लगता है आज तेरे बांके-बिहारी किसी कुञ्ज गली में रास रचा रहे हैं। उन्हें देर लगेगी। उन से फिर कभी मिल लूंगी। अच्छा तू अपने घर का फोन नंबर दे दे। मैं कॉल-वाल करती रहूंगी। फिर अपने थैले से डायरी निकाल कर नंबर लिखने के बाद जब वह चलने को हुई तब तक सासू माँ वापस आ चुकी थी। रुचिरा ने उनके पैर छू कर विदाई की आज्ञा माँगी तो उन्होंने उसे गले से लगा कर फिर आते रहने के लिए कह कर उसका हाथ पकर कर सड़क तक छोड़ने आ गयी। रामदुलारी मुख्य-द्वार से हाथ हिला-हिला कर रुचिरा को जाते हुए देखती रही।
रुचिरा तो मिल कर चली गयी। लेकिन रामदुलारी के लिए छोड़ गयी कई प्रश्न। क्या रामदुलारी को मिल पता है उन प्रश्नों का उत्तर ? पढ़िए अगले हफ्ते ! इसी ब्लॉग पर !!

गुरुवार, 27 मई 2010

आँच 18 : 'बौराए हैं बाज फिरंगी'

आँ

- आचार्य परशुराम राय

आँच के इस अंक में श्री रावेन्द्र कुमार रवि द्वारा विरचित 'बौराए हैं बाज फिरंगी' नामक कविता (गीत) को समीक्षा के लिए चुना गया है।

कविता में आज की आतंकवाद और नक्सलवाद की समस्याजनित भावभूमि पर अच्छे और आकर्षक बिम्बों से कविता को सजाने का कवि ने अच्छा प्रयास किया है। यद्यपि कि बिम्ब पुराने हैं, लेकिन जिस तरह शब्द-योजना में उन्हें पिरोया गया है, नये-से प्रतीत होते हैं और इसीलिए भाषा में ताजगी आ गई है।

कविता में तीन बन्द हैं। पहले बंद में विदेशी आतंकवादी गतिविधि और उससे उत्पन्न परिस्थिति को कवि ने बड़े ही शब्द-संयम के साथ व्यंजित किया है। दूसरे बन्द में आंतरिक सुरक्षा के ध्वंसक नक्सलवादी गतिविधियों और उससे निकली अव्यवस्था की ओर संकेत किया गया है। तीसरे बन्द में उपर्युक्त दोनों समस्याओं के परिणामस्वरूप सामाजिक ताने-बाने का भंग होना और उससे जुड़े़ असमंजस भाव को व्यक्त करते हुए एक तरह से उपसंहार किया है।

प्रथम बन्द में 'बौराए हैं बाज फिरंगी' पंक्ति में बड़ी ही अभिव्यंजक शब्द-योजना है। वैसे जो भी हिंसक पशु-पक्षी हैं, वे हिंसा का मार्ग केवल अपने उदर की पूर्ति के लिए करते हैं। भूख शान्त होने पर वे पुन: किसी भक्ष्य की तब तक हत्या नहीं करते जब तक उन्हें पुन: उदर-पूर्ति की आवश्यकता न हो। लेकिन जब वे बौरा जाएं अर्थात् मानसिक संतुलन खो जाने की स्थिति में उपर्युक्त संयम के अभाव में ध्वंसक हो जाते हैं, अनावश्यक भक्ष्य पशु-पक्षियों को मार डालते हैं। यहाँ प्रयुक्त 'फिरंगी' शब्द का लक्षणा शक्ति से 'विदेशी' अर्थ लेना अभिप्रेत है। वैसे 'फिरंगी' शब्द अंग्रेजों या यूरोपवासियों के अर्थ में रूढ़ हैं, जो यहाँ अपना लक्ष्यार्थ 'विदेशी' इंगित कर रहा है। अतएव यहाँ पूरी शब्द-योजना विदेशी आतंकवाद की ओर संकेत करती हैं, जिसने पक्षियों के प्रात:काल के स्वागत में आह्लादित कलरव पर प्रश्नचिह्न लगा रखा है। यहाँ 'चिड़िया' शब्द से 'निर्दोष जनता' को व्यंजित किया गया है। 'रागिनी' का चिर निद्रा में 'जाना' इस शब्द योजना से 'आतंकी माहौल के सुधरने की आशा दिखाई न देना' रेखांकित किया गया है। वैसे यदि इस बन्द में आयी अन्तिम दो पंक्तियों को पहले रखा जाता तो अर्थक्रम का प्रवाह बाधित नहीं होता।

दूसरे बन्द में 'कौए' में समाज के वे तत्व हो सकते हैं जो 'कांव-कांव' करके अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए विकास का आरम्भ होने से पहले ही उस पर विराम लगा दते हैं। न तो उन्हें स्वाभाविक विकास की सभ्यता की जानकारी होती है और यदि होती भी है तो मात्र अपने अस्वाभाविक विकास की। दूसरे वे तत्व हैं जो इन कौवों की भाषा सीख कर केवल विरोध के स्वर में जिन्दगी खोजते हैं और हथियार उठाकर व्यक्ति, बच्चे, महिलाओं आदि की निर्मम हत्या करते हैं। 'तितली' यहाँ उन्हीं निर्दोष लोगों का प्रतिनिधित्व करती है। यथार्थ में इसका दूसरा काम है वनस्पतियों में परागण की क्रिया को अंजाम देना। इस संदर्भ में आइंस्टीन की पंक्ति याद आ रही है कि जिस दिन मधुमक्खियाँ नष्ट हो जाएंगी, उस दिन सम्पूर्ण सृष्टि का विनाश हो जाएगा। इसका तात्पर्य यही है कि परागण में सर्वाधिक कार्य इन्हीं जंतुओं का होता है। इनके जीवन के अभाव में परागण क्रिया रुक जाएगी। परिणामस्वरूप वनस्पति जगत समाप्त हो जाएगा जिससे प्राकृतिक संतुलन बिगड़ेगा और महाप्रलय का होना अवश्यम्भावी है। इस प्रकार ये पंक्तियाँ दोनों ओर संकेत करती हैं।

अन्तिम बन्द में कवि ने उपर्युक्त परिस्थितियों का आकलन करते हुए 'नाली' का अर्थ बन्दूक की नली से लिया है जो निर्दोष लोगों की हत्या कर सामाजिक समरसता को तोड़ रही है। जो इस्पात दहशत फैलाने के लिए बंदूक बनाने में खप रहा है, वह बाँसुरी बनाने का समय आते-आते चुक जाएगा अर्थात् लोगों में इतना वैमनस्य हो जाएगा कि लोग प्यार का संगीत समझने का विवेक खो देंगे।

कविता में प्रांजलता पूरी तरह बनी हुई है, केवल एक स्थान को छोड़कर- 'फूलों से आ सुमुखी तितली' पंक्ति में। पहले बंद को छोड़कर पूरी कविता में अर्थ प्रवाह का वृत्त पूरी तरह सशक्त है।

*****

बुधवार, 26 मई 2010

देसिल बयना - 31 : बूरे वंश कबीर के उपजे पूत कमाल

-- करण समस्तीपुरी

गाँव-घर में एगो फकरा बड़ा प्रचलित है, 'कबीर दास के उलटे वाणी ! आँगन सूखा, भर घर पानी !!' लेकिन जो कहिये कबीर दास का सब बाते अजगुत (अद्भुत ) होता था। जो बोल दिए उका अर्थ अद्भुत ही होगा। एक बात था, कबीर दास फाकमस्ती में जीए मगर कौनो राजा-रजवारा का दरबारी नहीं खटे। केकरो ठाकुरसुहाती नहीं किये। जो कहे सो खरे-खरे। कबीर दास और उनका बेटा कमाल का एगो किस्सा सुनिए। हमको स्थल पर वाला ढकरू महंथ कहे रहे थे।


एक दिन कबीर दास का बेटा कमाल संत जी के पास बैठा। बार-बार उ कुछ पूछे का हिम्मत करे, मगर बात हलक से निकले नहीं। काबीर दास तो साधे जोगी थे। तुरत भांप गए। पूछे, "का बात है बेटा कमाल ? लगता है तुम्हारे मन में कौनो चक्करघिरनी चल रहा है ?" कमाल कुछ हरबराया। कबीर दास उको समझाए, "अरे ! हरबराओ नहीं। हम तो तुम्हारे बापे हैं। कहो-कहो...! आखिर बात का है ?"


कमाल लाजे मुरी घुमा कर बोला, "बाबू जी ! उ का है कि हम ब्याह करना चाहते हैं !" कबीर दास बोले, "धत तोरी के... ! ई कौन बड़का बात हुआ... ? कौनो लड़की-लुगाई देखा है का... ? नहीं देखा है तो देखो लो... जो जांचे-रुचे उस कर लो। इहाँ कोनो तिलक-दहेज़ आ जात-पांत का झंझट थोड़े है कि तुम हम से कहते हुए इतना घबरा रहे थे।"


कमाल फिर सामने में मुरी झुकाए बोला, "उ सब तो ठीक है बाबू जी ! मगर ब्याह करें किस से ?" कबीर दास बोले, "काहे ई धरती बालिका-बिहीन हो गयी है का... ?"


कमाल बोला, "उ बात नहीं है न... ?" कबीर दास बोले, "ई बात नहीं है... उ बात नहीं है... तो बात है का ?


कमाल बोला, "बाबूजी ! आप भी कभी-कभी जड़ खोदियाने लगते हैं... ! अरे... शास्त्र-पुराण में कहा है नहीं... और आप भी तो कहते हैं, 'औरत-औरत एक है.... सब माँ समान है।' अब आप ही बताइये कि सब माँए समान है तो ब्याह किस से करें?"


कबीर दास ठठा कर हँसे और कहे, "धर बुरबक... ! तुम तो कौनो करम का नहीं निकला... !" और फिर एगो दोहा गढ़ दिए,


"बूरे वंश कबीर का उपजे पूत कमाल !


आधा तो कबीरा हुआ, आधा हुआ कमाल !!"


ढकरू महंथ ई किस्सा तो कह दिएसब कुछ समझे मगर ई दोहा काहे कहे ई हमरे पल्ले नहीं पड़ा। फिर हम पूछे। तब महंथ जी कहिन, "अरे कबीर दास जी की वाणी बड़ी गूढ़ होती है। अब देखो उ में का मर्म छुपा है। सतगुरु साहेब कहते हैं, 'आधा तो कबीरा हुआ... आधा हुआ कमाल !' आधा कबीरा... मतलब उस मे कबीर का संस्कार है... तभिये तो उ सभी औरत को माँ समान समझता है। मगर उसकी सांसारिक तृष्णा मरी नहीं है... सो बेचारा ब्याहो करना चाहता है। इसीलिए बेटा कमाल कौनो करम का नहीं रहा... ! उस में तृष्णा है... सो उ कबीर के आध्यात्मिक विरासत को भी नहीं बढ़ा सकता और संस्कारवश ब्याह करने में दुविधा है तो आनुवंशिक विरासत भी नहीं बढ़ा सकता.... ! तो हुआ न, "बूरे वंश कबीर का उपजे पूत कमाल !'


हम कहे, "हूँ।" तब फिर महंथ जी बोले, कि तभिये से कबीर दास का ई वाणी कहावते बन गया। जब भी कोई दुविधा में होता है और उस दुविधा में न इधर का रह पता है न उधर का... तो लोग बरबस कह बैठते हैं,


"बूरे वंश कबीर का उपजे पूत कमाल !
आधा तो कबीरा हुआ, आधा हुआ कमाल !!"


तो यही था आज का देसिल बयना। अब आपको कैसा लगा ई तो टिपियाने से ही पता चलेगा। दोहाई सतगुरु की।

मंगलवार, 25 मई 2010

ग्रीष्म और पर्वताँचल की नदियाँ

ग्रीष्म और पर्वताँचल की नदियाँ

-- मनोज कुमार


गर्मी की ऋतु आते ही
पर्वताँचल की
अधिकांश नदियाँ
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छोड़ देती हैं,
कल-कल, छल-छल
चंचल निश्छल धाराओं को
गुफाओं में,
ताप इतना
कि जल भी जल जाए।

चारों ओर रेत ही रेत
और काई पुते-पर्वतों की देह
आकर्षण के नाम पर
सघन आबादी के थल दिखते
ज्यों
हड़ताल की आवाज पर,
तप्त धूप में
तृण-तृण, कण-कण,
जनगण
सजल दृगों से
देख रहा पावस की राह।

सूखे सरिता के प्राण
यौवन छिने उद्यान
क्रूर, कठोर और निर्मम
सी लगती प्रकृति
लाती सम्मुख जीवन के जब
परिवर्तन की नाव
तृष्णा के वंध्या आँचल में
मृगमरीचिका का विस्तार
जहाँ मचलती थी हरियाली
आज पड़ा है वहॉ झुलसता
अंगारों-सा रेत अम्बार
मृग-शावक आते होंगे
कल-कल ध्वनि से
हो आकर्षित
लगती होंगी जहाँ सभाएँ
वन्य जन्तुओं की
प्रत्याशित
पर अब सब गायब हैं
जल जीवन की खोज में
वयोवृध्दा सी लगतीं वादियाँ
कभी जो दिखती होंगी
यौवन भरी शरारत सी।

देख जहाँ तक पाते दृग
नदियों की धारा से निर्मित
बने रेत के टीले हैं
नौकाएं और पतवारें
पड़ी रेत पर
करती अपनी रखवाली।


फिर भी आते हैं सैलानी
मैदानी श्रम को सहलाने
जीवन का उल्लास खोजने
जब सूख जाती है
पर्वतांचल की नदियाँ।

****

सोमवार, 24 मई 2010

विभेद

 

image विभेद

-- सत्येन्द्र झा

 

image

image 

दो लाश एक साथ जलाए जा रहे थे। उन में से एक खूब ताम-झाम के साथ.... लोगों की भारी भीड़ लगी थी उसके इर्द-गिर्द। दूसरी उदास कर्म की उदास प्रक्रिया के साथ। अमीर की लाश के पास खड़ी भीड़ मृतक का प्रशस्ति गान कर रही थी, "ओह... जब तक जीए शान से जीए। इस इलाके में ऐसा कौन होगा जो इनके दारु से स्नान नहीं किया... ? अरे.... दारु भी हर कोई पी सकता है क्या... ? खानदानी लोग ही मदिरा का प्रसाद ग्रहण करते हैं। और उधर देखो उसे..... ! ससुर.... सारी जीन्दगी घटिया दारु पी कर आंत सड़ा लिया और आज जीभ निकाल के मर गया.... !"

image मैं चुपचाप सुन रहा था। यह समझने में दिक्कत नहीं हुई कि घटिया शराब होती है या गरीबी.... ? वर्ना दो शराबियों में क्या विभेद किया जा सकता है ??


मूल-कथा मैथिली में 'अहीं कें कहै छी' में संकलित 'विभेद' से केशव कर्ण द्वारा हिंदी  में अनुदित।

रविवार, 23 मई 2010

काव्य शास्त्र - 16

काव्यशास्त्र –१६

- आचार्य परशुराम राय

आचार्य क्षेमेन्द्र

आचार्य क्षेमेन्द्र कश्मीर वासी थे। इनका काल ग्यारहवीं शताब्दी है। कश्मीर नरेश अनन्तराज के शासन काल में इनका समय आता है। इसके अतिरिक्त अनन्त राज के बाद उनके पुत्र कलश के शासन काल में भी आचार्य क्षेमेन्द्र की उपस्थिति रही। कश्मीराधिपति अनन्तराज का शासनकाल 1028 से 1063 ई. तक माना जाता है और तदुपरान्त महाराज कलश का शासनकाल आता है।

आचार्य क्षेमेन्द्र के पिता प्रकाशेन्द्र एवं पितामह सिन्धु थे। इन्होंने आचार्य अभिनवगुप्त को अपना साहित्यशास्त्र या गुरू कहा है:-

श्रुत्वाभिनंवगुप्ताख्यात् साहित्यं बोधवारिधे: (वृहत्कथामंजरी)।

ये काव्यशास्त्र के इतिहास में 'औचित्यवाद' के प्रवर्तक हैं और औचित्यविचारचर्चा काव्यशास्त्र को इनकी अनुपम देन है।

इन्होंने लगभग 40 ग्रंथों का प्रणयन किया है लेकिन वे सभी उपलब्ध नहीं हैं। इनमें से भारतमञ्जरी, वृहत्कथामञ्जरी, औचित्यविचारचर्चा, कविकण्ठाभरण, सुवृत्ततिलक, समयमातृका आदि कुछ ही ग्रंथ मिलते हैं। अवसरसार, अमृततरंगकाव्य, कनकजानकी, कविकर्णिका, चतुर्वर्गसंग्रह, चित्रभारतनाटक, देशोपदेश, नीतिलता, पद्यकादम्बरी, बौद्धावदानकल्पलता, मुक्तावलीकाव्य, मुनिमतमीमांसा, ललितरत्नमाला, लावण्यवतीकाव्य, वात्स्यायनसूत्रसार, विनयवती और शशिवंश इन सत्रह ग्रंथों के केवल नाम यत्र-तत्र मिलते हैं।

सुवृत्ततिलक छंदशास्त्र पर लिखा गया ग्रंथ है। इस ग्रंथ में आचार्य ने छंदविशेष में कविविशेष के अधिकार की चर्चा की है, जैसे अनुष्टुप छंद में अभिनन्द का, उपजाति में पाणिनि का, वंशस्थ में भारवि का, मन्दाक्रान्ता में कालिदास, वसन्ततिलका में रत्नाकर, शिखरिणी में भवभूति, शार्दूलविक्रीडित में राजशेखर का। कविकण्ठाभरण को कविशिक्षापरक ग्रंथ मानना चाहिए।

'औचित्यविचारचर्चा' ग्रंथ काव्यशास्त्र से सम्बन्धित है। आचार्य क्षेमेन्द्र औचित्य को ही रस का प्राण मानते हैं। औचित्य को परिभाषित करते हुए वे लिखते हैं।:-

    उचितं प्राहुराचार्या: सदृशं किल यस्य यत्। (औचित्य विचार चर्चा)

उचितस्य च यो भावस्तदौचित्य प्रचक्षते॥

आचार्य क्षेमेन्द्र अनौचित्य को रसभंग का सबसे बड़ा कारण मानते हैं या यों कहना चाहिए कि अनौचित्य को ही एक मात्र रसभंग का कारण कहा हैं:-

अनौचित्यादृते नान्यद् रसभङ्गञंस्य कारणम्।

- अर्थात अनौचित्य के अतिरिक्त रसभंग का दूसरा कोई कारण नहीं है।

आचार्य अभिनवगुप्त के एक और शिष्य क्षेमराज का नाम आता है जिन्होंने शैवदर्शन पर कई रचनाएं लिखी हैं। आचार्य अभिनवगुप्त के परमार्थसार नामक ग्रंथ पर टीका भी लिखी है। कुछ विद्वान क्षेमेन्द्र और क्षेमराज को एक ही व्यक्ति मानते हैं, जबकि कुछ इन दोनों को भिन्न व्यक्ति मानते हैं। भिन्न व्यक्ति मानने वाले विद्वान यह तर्क देते हैं कि क्षेमराज शैव थे और क्षेमेन्द्र वैष्णव क्योंकि आचार्य क्षेमेन्द्र ने भगवान विष्णु के विषय में दशावतारचरितम् लिखा है। जो दोनों को एक ही व्यक्ति मानते हैं, उनका तर्क है कि आचार्य क्षेमेन्द्र पहले शैव थे और बाद में आचार्य सोम से वैष्णव सम्प्रदाय में दीक्षा लिये। वैसे आचार्य क्षेमेन्द्र ने अपने ग्रंथ दशावतारचरितम में अपना एक नाम व्यासदास भी बताया है।

इत्येष विष्णोरवतारमूर्तें: काव्यामृतास्वादविशेषभक्या।

श्रीव्यासदासात्यतमाभिधेन क्षेमेन्द्रनाम्ना विहित: प्रबन्ध:॥

भारतीय काव्यशास्त्र को आचार्य क्षेमेन्द्र की देन सदा याद रखी जाएगी। इनके ग्रंथों में इनकी विद्वत्ता हर जगह मुखरित होती हुई देखी जा सकती है।

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आचार्य भोजराज

धारा राज्याधिपति महाराज भोज का काल ग्यारहवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध है। भारतीय इतिहास इन्हें विद्वानों के आश्रयदाता, उदार और दानशील राजा के रूप में प्रकाशित करता है। कश्मीर नरेश अनन्तराज और धारा नरेश भोजराज दोनों समकालीन थे। दोनों ही समान रूप से अपनी विद्वत्प्रियता के लिए प्रसिद्ध थे। कश्मीर राज्य के इतिहास ‘राजतरङ्गिणी’ में इस प्रकार उल्लेख मिलता है:-

स च भोजनरेन्द्रश्च दानोत्कर्षेण विश्रुतौ।

सूरी तस्मिन् क्षणे तुल्यंद्वावास्तां कविबान्धवौ॥

यहाँ 'स' सर्वनाम कश्मीरनरेश अनन्तराज के लिए प्रयोग किया गया है।

महाराज भोज विद्वानों का आदर करने के साथ-साथ स्वयं एक उद्भट विद्वान भी थे। ‘सरस्वतीकण्ठाभरण’ और ‘शृंगारप्रकाश’ दोनों ही काव्यशास्त्र के उत्कृष्ट ग्रंथ हैं। ‘सरस्वतीकण्ठाभरण’ में पाँच परिच्छेद हैं। प्रथम परिच्छेद में काव्य के गुण-दोषों का विवेचन करते हुए पद, वाक्य और व्याक्यार्थ के 16-16 दोष तथा शब्द और अर्थ के 24-24 गुण बताए गए हैं। द्वितीय परिच्छेद में शब्दालंकारों, तृतीय में अर्थालंकारों और चतुर्थ में उभयालंकारों का निरूपण किया गया है। पंचम परिच्छेद में रस, भाव, पञ्चसन्धि तथा वृत्तियों (शैलियों) की विवेचना मिलती है। चौदहवीं शताब्दी में महामहोपाध्याय रत्नेश्वर जी ने रत्नदर्पण नामक इस पर टीका लिखी।

‘शृंगारप्रकाश’ काव्यशास्त्र का शायद सबसे बड़ा ग्रंथ है। इसमें कुल 36 प्रकाश हैं। इनमें से प्रथम आठ प्रकाशों में शब्द और अर्थ पर अनेक वैयाकरणों के मतों का उल्लेख है। नवम और दशम प्रकाशों में गुण और दोषों का निरूपण है। ग्यारहवें और बारहवें प्रकाश में महाकाव्य और नाटक का विवेचन किया गया है। शेष प्रकाशों में उदाहरण सहित विस्तार से रसों का निरूपण मिलता है।

महाराज भोज द्वारा वर्णित शृंगार सामान्य शृंगार नहीं है। वह अपने में चारों पुरूषार्थों को समाविष्ट किए हुए है। इन्होंने श्रृंगार रस को ही रसराज कहा है। इसके अतिरिक्त इनके अन्य ग्रंथ भी हैं, यथा ‘मन्दारमरन्दचम्पू’ आदि।

*** ***

पिछले अंक

|| 1. भूमिका ||, ||2 नाट्यशास्त्र प्रणेता भरतमुनि||, ||3. काव्यशास्त्र के मेधाविरुद्र या मेधावी||, ||4. आचार्य भामह ||, || 5. आचार्य दण्डी ||, || 6. काल–विभाजन ||, ||7.आचार्य भट्टोद्भट||, || 8. आचार्य वामन ||, || 9. आचार्य रुद्रट और आचार्य रुद्रभट्ट ||, || 10. आचार्य आनन्दवर्धन ||, || 11. आचार्य भट्टनायक ||, || 12. आचार्य मुकुलभट्ट और आचार्य धनञ्जय ||, || 13. आचार्य अभिनव गुप्त ||, || 14. आचार्य राजशेखर ||, || 15. आचार्य कुन्‍तक और आचार्य महिमभट्ट ||

शनिवार, 22 मई 2010

सारे तीर्थ बार-बार गंगासागर एक बार .......भाग -चार - कर्दम ऋषि

गंगा सागर यात्रा की चर्चा के दौरान हमने पिछली बार चर्चा की थी सांख्य दर्शन के बारे में। कर्दम ऋषि को ब्रह्माजी का मानसपुत्र माना जाता है। ब्रह्मा जी के अंश से कर्दम मुनि हुए। वे प्रजापतियों में गिने जाते हैं। उन्‍हें ब्रह्माजी ने आदेश दिया था कि तुम प्रजा की सृष्टि करो। योग्‍य संतान प्राप्‍त हो इसके लिए उन्‍होंने कठोर तपस्‍या की। गुजरात अहमदाबाद के निकट प्रसिद्ध तीर्थ स्‍थल है बिन्‍दुसार। यही ऋषि कर्दम की तपोभूमि है। इस तप से प्रसन्‍न हो शब्‍दब्रतरूप स्‍वयं नारायण अवतरित हुए। कर्दम ऋषि की तपस्‍या और साधना को देखकर भगवान की आंखों से आनन्‍द के आंसू गिरे। उससे बिन्‍दु सरोवर पवित्र हो गया।

भगवान ने कर्दम ऋषि से कहा “चक्रवर्ती सम्राट मनु, पत्‍नी शपरूपा के साथ अपनी पुत्री देवहूति को लेकर तुम्‍हारे ज्ञान आश्रम में आएंगे। उसका पाणिग्रहण कर लेना। ”

कालान्‍तर में वैसा ही हुआ। सबसे पहले मनु ( स्वयंभू मनु ) और उनकी पत्नी शतरूपा ब्रह्मा जी के अलग अलग दो भागो से प्रगट हुए। इनकी तीन बेटिया हुई। आकूति , प्रसूति और देवहूति। आकूति का विवाह रुचि प्रजापति से हुआ और प्रसूति का विवाह दक्ष प्रजापति से हुआ। ये वही दक्ष हैं जो माता पार्वती के पूर्वजन्म में उनके पिता थे और भगवान् शिव के पार्षद वीरभद्र ने जिनका यज्ञ विध्वंश किया था।

कर्दम मुनि का विवाह मनु जी की तीसरी बेटी देवहूति से हुआ। राजकुमारी देवहूति ने कर्दम ऋषि के साथ उस तपोवन में रहकर पति की सेवा करती रही। राजपुत्री होने का जरा भी उन्‍हें अभिमान नहीं था। कर्दम ऋषि काफी प्रसन्‍न एवं संतुष्‍ट हुए। उन्‍होंने पत्‍नी देवहूति को देवदुर्लभ सुख प्रदान किया।

परम तेजस्वी दम्पति के गृहस्‍थ धर्म में पहले नौ कन्याओं का जन्म हुआ। इन नौ कन्याओं का विवाह ब्रह्मा जी के अंश से उत्पन्न नौ ऋषिओं से हुआ ।

(1) कला - मरीचि ऋषि के साथ विवाहित

(2) अनुसूया - अत्रि ऋषि के साथ विवाहित

(3) श्रद्धा - अड्गिंरा ऋषि के साथ विवाहित

(4) हविर्भू - पुलस्‍त ऋषि के साथ विवाहित

(5) गति - पुलह ऋषि के साथ विवाहित

(6) क्रिया - क्रत्तु ऋषि के साथ विवाहित

(7) ख्‍याति - भृगु ऋषि के साथ विवाहित

(8) अरूंधति - वशिष्‍ठ ऋषि के साथ विवाहित

(9) शान्ति देवी - अथर्वा ऋषि के साथ विवाहित

कर्दम ऋषि ने सन्‍यास लेना चाहा तो ब्रह्माजी ने उन्‍हें समझाया कि अब तुम्‍हारे पुत्र के रूप में स्‍वयं मधुकैटभ भगवान कपिलमुनि पधारने वाले हैं। प्रतीक्षा करो।

कर्दम एवं देवहूति की तपस्‍या के फलस्‍वरूप भगवान श्री कपिलमुनि उनके गर्भ से प्रकट हुए।

बाद में पिता के वन चले जाने के पश्‍चात कपिलमुनि ने अपनी माता देवहूति को सांख्‍यशास्‍त्र के बारे में जानकारी दी और उन्‍हें मोक्षपद की अधिकारिणी बनाया।

शुक्रवार, 21 मई 2010

त्याग पत्र भाग ---30--- मनोज कुमार

त्याग पत्र भाग

---28---

--- बचन सिंह के

मित्र का प्रसंग ---

माधोपुर में दो-तीन सप्ताह बिताने के बाद ठाकुर बचन सिंह का पूरा परिवार पटना आ गया। अनीसाबाद में उनका फ्लैट था। रामदुलारी भी साथ में ही थी। यह शहर उसके लिए अब तक अपना शहर बन चुका था। इसके हर अच्छे-बुरे पक्ष उसको अपने लगते थे। और नव विवाहिता रामदुलारी को उन दिनों दुनियां इंद्रधनुष की तरह सात रंगों वाली लगती थी। कुछ अपने संकोच कुछ बांके की व्यस्तता के कारण बांके दम्पत्ति हनीमून के नाम पर बस राजगीर-नालंदा घूम आए। इच्छा तो थी कश्मीर या गोवा जाने की पर सब इच्छानुसार तो नहीं होता न!

उसकी ससुराल का घर काफी सलीके से बना हुआ था। ड्राइंग रूम, डायनिंग रूम, किचन और तीन बेड रूम नीचे वाले तल पर। ऊपर में भी दो बेड-रूम बने थे। ऊपर के दो बेड-रूम में एक छोटा था, एक बड़ा। बड़ा वाला बेड रूम बांके और रामदुलारी को दे दिया गया था। उसका एक दरवाजा बाहर के बरामदे में खुलता था, एक बगल के गलियारे में। एक छोटे बेड रूम से जोड़ता था। बाथ रूम साथ लगा था। नीचे के एक कमरे में बचन सिंह और उनकी श्रीमती सुनीता देवी रहते थे। एक में बांके का छोटा भाई कृष्ण बिहारी। एक गेस्ट रूम के रूप में व्यवहृत होता था। हां जब कभी बांकी की व्याहता बहन सुजाता अपने परिवार के साथ बरौनी से आती तो उसी निचले तले वाले रूम में रहती। उसके पति राकेश बरौनी रिफायनरी में अभियंता थे।

रामदुलारी का दैनिक जीवन चलता रहा। सुबह उठने की उसकी पुरानी आदत थी। बाबा के साथ उसे पराती गाने का नियम जो था। चार बजे उठ कर साढ़े जार तक तैयार हो जाती थी। बाबा के साथ गंडक नदी के तट तक टहलने चल देती थी। रास्ता प्रायः सुनसान होता। पर बाबा के साथ डर कैसा ? दो-ढ़ाई मील की दूरी तय कर जब वे नदी तट पर पहुँचते तो कुछ-कुछ उजाला हो जाता। बचपन के दिनों से ही नदियां उसे लुभाती, आमंत्रित करती। प्रातः काल नदी में स्नान करना उसे अच्छा लगता। बाबा पता नहीं क्या-क्या मंत्रोच्चारण करते रहते? स्नान भी करते रहते। भजन भी गाते रहते। बाबा को देखते रहने में ही उसे परम सुख की अनुभूति होती। मानों उसकी पूजा पूरी हो रही हो और उचित फल भी उसे मिल ही जाएगा। ऐसा उसका विश्वास था। एक बार तो बाबा उसे प्रयाग ले जाकर संगम स्नान भी करा आए थे। गंडक से स्नानादि कर घर लौटते-लौटते सूर्योदय हो जाता था।

... यहां ससुराल में तो वह उठ चार बजे ही जाती और नित्कर्मों से निवृत हो साढ़े चार तक तैयार भी हो जाती। पर उसके बाद उसका समय काटे नहीं कटता। क्या करे ? स्नानादि से निवृत्त हो दैनिक कामों में लग जाती। घर के अन्य सदस्य अलसाते हुए छह बजे तक उठते। अख़बार आ जाता तो सब अख़बार पढ़ने में लग जाते। रामदुलारी सबके लिए चाय बनाती। चाय के साथ कुछ गप-शप हो जाता। आठृ साढ़े-आठ तक नाश्ते से सब निवृत्त हो जाते। फिर अकेले में बैठी रामदुलारी सोचती कोई सार्थक काम तो किया नहीं --- लिखने पढ़ने का। कभी सोचती घर के काम भी तो सार्थक ही हैं। अब शादी के बाद सास-ससुर की देख-भाल, पति-देवर की सेवा भी तो मेरा ही काम है। मन में भी तो चिंतन मनन चलता ही रहता है।

कुछ महीने यूं ही बीत गए। एक दिन ठाकुर बचन सिंह के एक अंतरंग मित्र राधेश्याम पोद्दार पधारे। दोनों की मैत्री वर्षों पुरानी थी। सरकारी नौकरी से सेवानिवृत्त हुए पांच वर्ष बीत चुका था।

शरीर से दुबले-पतले, कद में नाटे, रंग में सांवले, बड़ी-बड़ी आँखें, चौड़ा ललाट, चौड़ी नाक, फैला मुँह, छोटी सी ठोढ़ी। ओठ के किनार से मुंह के पान के पीक की निशानी के रूप में लाल दाग लिए राधेश्याम पोद्दार जी का स्वागत ठाकुर बचन सिंह ने बड़े ही गर्मजोशी के साथ किया।

“अरे! पोद्दार बाबू! आप? वाह मज़ा आ गया, आप आ ही गए!”

पोद्दार बाबू बचन सिंह के गले मिलते हुए बोले,

“आप बोलाइएगा, तो आएंगे नहीं!”

“हां, लेकिन बांके की शादी में तो नहीं आए थे न।”

“हां सिंघ जी ! आपकी शिकायत वाजिब है। का करें... घरेलू समस्या आज तक पीछा नहीं छोडी है। बाराती बन कर बांके के विवाह में तो नाहीये गए... लेकिन वह कमी आज पूरा कर लूंगा।”

उनको बिठाते हुए बचन सिंह बोले,

“आइए-आइए। बैठिए। रास्ते में कोनो तकलीफ़ तो नहीं हुआ?”

“नहीं-नहीं । एकदम मज़ा से पहुंचे। दुल्हिन कहां है? बुलाइए उसे।”

राधेश्याम जी के स्वर में गम्भीरता, संतुलन, निश्चितता एवं ठोसपन था। पर कहीं न कहीं एक रिक्तता का अनुभव कर रहे थे। बचन सिंह की पुत्रवधू को देख कर उसे आशीष देते हुए कहा,

“जुग जुग जिए। दूधो नहाओ पूतो फलो।”

राधेश्याम जी को रामदुलारी काफ़ी पसंद आई! वो कई क्षण मुंह बाये उसे ताक रहे थे फिर बचन सिंह से बोले,

“आप का किस्मत तो लहलहा रहा है सिंघ जी! इतना कद्दावर, सुंदर, सुशील बेटा और उस से भी बढ़ कर बहुत... ! और बाल बच्चा सहित भरा पूरा परिवार साथ में रहते हैं ! तकदीर तो इसको कहते हैं.... है कि नहीं..!”

अपनी प्रशंसा सुन रामदुलारी भी भीतर से खुश हुई। उसके चेहरे पर सलज्ज मुस्कान खेल गई। उसकी व्यावहारिक बुद्धि ने उसे वहां से चले जाने को प्रेरित किया।

रामदुलारी के चले जाने के बाद राधेश्याम बोले,

“चाह पिलवाइए।”

अभी उनके मुंह से बात खत्म भी नहीं हुई थी कि रामदुलारी चाय के साथ हाज़िर थी।

“वाह! दुल्हिन हो तो ऐसन।”

पोद्दार बाबू चाय का प्याला मुंह से लगाकर चाय सुरके। फिर बोले,

“चाह तो बहुत बढिया है, लेकिन कनिक चिन्नी कम है।”

रामदुलारी ने चिनी लाकर दिया।

सुरुक-सुरुक कर चाय पीते समय पोद्दार बाबू के गोले से मुंह पर परम तृप्ति के भाव थे। चाय खत्म कर बोले,

“पनबट्टा निकालिए। तनी पान खाया जाए।”

बचन सिंह द्वारा दिए गए पान को बांया कल्ला में दबा कर बोले,

“बेटा बुलाया था। उसी से मिलने शहर गए थे। इसीलिए नहीं आ सके बांके के बियाह में।”

“अच्छा। तभी तो, हम सोचे कि पोद्दार क्यों नहीं आया? कैसा रहा आपका वहां का प्रवास?।”

“कैसा रहेगा, खाक! अपना डेरा-डंडा ही बढिया है। बड़ा विषाक्त लगा वहां का वातावरण। लोगों का आपस में मिलना-जुलना नहीं। भरदिन फ़्लैट में काटना बड़ा ही मुश्किल था।”

बचन सिंह के कुछ बोलने के पहले ही पोद्दार बाबू बोले,

“कुच्छो हो सिंघ जी, मानिए चाहे नहीं मानिए , लेकिन यह सच है कि हम बिहारी जब किसी अनजान से भी पहली बार मिलते हैं तो हमारे चेहरे पर जिज्ञासा का नहीं स्वागत का भाव होता है, पर उस शहर में तो वर्षों से दोनों अगल-बगल में रहते हैं पर कोई जान-पहचान, आगत-स्वागत नहीं। आपसे मिलकर खुशी हुई वाली औपचारिकता से दुखी होकर हम त भाग आए। अरे! हम बिहारी तो गलबहिया डालकर बातें करते हैं।”

बचन सिंह बोले,

“हां पोद्दारजी, लोगों में परस्पर प्रेम तो होना ही चाहिए।”

ऐसे ही दोनों दोस्तों में बात-चीत होती रही, फिर यकायक पोद्दार बाबू बोले,

“सच्चा सुख तो आप ही को मिला है सिंघ जी !”

बचन सिंह यह सुन थोड़ा असहज हुए और उनकी प्रश्नवाचक दृष्टि राधेश्याम जी के चेहरे पर जा लगी।

बचन के प्रश्‍न को भांपते वो बोले,

अपने पुत्र-पुत्रवधु को अपनी वृद्धावस्था में अपने समीप देखने का सुख! … … आजकल तो विवाह के बाद पुत्र अपनी पत्नी को लेकर अलग घर बसाता है। … … फिर यदा-कदा ही अपने माता-पिता को देखने, हाल-चाल जानने आता है..। … … या फिर लिख भेजेगा … समय हो तो यहीं आ जाइए।”

उनके स्वर में शायद उनका दर्द छुपा हुआ था। स्वर ही नहीं आंख भी भींग रहे थे। नमी को रोकने की तमाम कोशिशें नाकाम हो रही थीं।

थोड़ी देर के लिए कमरे का वातावरण शांत हो गया और उनकी कही बातें सब पर असर करने लगी।

उस नीरवता को बचन सिंह ने भंग किया,

“सब बिध-बिधाता के खेल है पोद्दार बाबू !

कहानी अभी बांकी है मेरे दोस्त ! त्याग पत्र की अगली कड़ी पढ़िए अगले हफ्ते !! इसी ब्लॉग पर !!!

त्याग पत्र के पड़ाव

भाग ॥१॥, ॥२॥. ॥३॥, ॥४॥, ॥५॥, ॥६॥, ॥७॥, ॥८॥, ॥९॥, ॥१०॥, ॥११॥, ॥१२॥,॥१३॥, ॥१४॥, ॥१५॥, ॥१६॥, ॥१७॥, ॥१८॥, ॥१९॥, ॥२०॥, ॥२१॥, ॥२२॥, ॥२३॥, ॥२४॥, ॥२५॥, ॥२६॥, ॥२७॥, ॥२८॥, ॥२९॥, ॥३०॥, ॥३१॥, ॥३२॥, ॥३३॥, ॥३४॥, ॥३५॥, ||36||, ||37||, ॥ 38॥

गुरुवार, 20 मई 2010

आँच-१७ :: ‘कैसे मन मुस्काए?’

आँच :: ‘कैसे मन मुस्काए?’

- आचार्य परशुराम राय

रचनाकार के अन्दर धधकती संवेदना को पाठक के पास और पाठक की अनुभूति की गरमी को रचनाकार के पास पहुँचाना आँच का उद्धेश्य है। देखिये राय जी की आंच पर ‘कैसे मन मुस्काए?’ कैसे उतरता है।

Dog rose leaves covered with frost in Sweden.

संगीता स्वरूप जी की कविता ‘कैसे मन मुस्काए’ पर ऑंच का यह अंक पाठकों को समर्पित है। यह कविता सरल भाषा में मानव की बेबसी को चित्रित करती है। इसमें बेबसी के दो चित्र लिए गए हैं - गरीबी और आतंक। लेकिन इन दो के माध्यम से मानव-निर्मित जटिल परवशता के अन्य आयामों की ओर भी इसका संकेत जाता है।

image जीवन में मुस्कराने के लिए कम से कम न्यूनतम आवश्यकताओं का पोषण होना अनिवार्य हैं। इसमें हवा और पानी के बाद तीसरी न्यूनतम आवश्यकता है – ‘रोटी’ और इन सबसे बड़ी सर्वोपरि आवश्यकता है जीवन की सुरक्षा। सुरक्षा एक व्यापक परिवेश को इंगित करती है। जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति भी सुरक्षा है। इससे जुड़ा परिवेश हमें मानसिक सुरक्षा प्रदान करता है और प्रकारान्तर से आत्मविश्वास को सबल करता है। विकास की विषमता और कुप्रबन्धन अराजकता को जन्म देती है, जिससे भारतीय उपमहाद्वीप के साथ-साथ पूरा विश्व इस अराजक आतंकवाद से जूझ रहा है। इससे उत्पन्न असुरक्षा आधुनिक मानव-सभ्यता के लिए सबसे बड़ी दुश्चिन्ता है। ऐसे ही परिवेश को समेटती भावभूमि पर ‘कैसे मन मुस्काए?’ कविता लिखी गई है।


भुखमरी और आतंक दोनों ही कुप्रबन्धन की सन्तानें हैं। इनके रहते प्रजा की मुस्कान का लोप होना इस कविता में बहुत ही अच्छी तरह दर्शाया गया है। इन सबके बावजूद कविता में संतुलन का अभाव दिखता है। तीन बन्दों में रची गयी कविता के पहले बन्द में भुखमरी और गरीबी के कारण मुस्कान पर प्रश्नचिह्न लगा है। शेष दो बन्दों में आतंक के कारण। यदि तीनों बन्दों में अलग-अलग समस्याओं को उठाया गया होता तो कविता का संतुलन अच्छा रहता।

‘रोटी समझ चाँद को/बच्चा मन ही मन ललचाए’ पंक्तियाँ यह व्यंजित करती है कि जीविका चाँद को पाने जैसी कल्पना का विषय हो गया है। यह व्यंजना बहुत ही चमत्कृत करने वाली और हृदयस्पर्शी हैं। कविता की भाषा में ताजगी का लगभग अभाव है। शब्द योजनाएं वही पुरानी हैं।

Sheep under a tree near Dorset, England. *****