सोमवार, 30 सितंबर 2024

91. ब्रह्मचर्य का विचार

 गांधी और गांधीवाद

91. ब्रह्मचर्य का विचार

गांधी जी का जीवन उनका अपना चुना हुआ जीवन था। वे खुद के प्रति ईमानदार थे। वकालत तो वे करते थे, पर उनका यह मानना था कि एक वकील का कर्तव्य सिर्फ़ अपने क्लायण्ट को केस, चाहे सही हो या ग़लत, जिता भर देना नहीं होता। किसी भी केस के ब्रिफ़ को स्वीकार करने के पहले वे खुद को संतुष्ट कर लेना चाहते थे कि उसका केस नैतिक आधार पर खरा ठहरता है या नहीं। अपने मुवक्किल को वो भलि-भांति चेता देते थे कि यदि कार्रवाही के दौरान किसी भी समय उन्हें जानकारी मिली कि उसका केस किसी झूठे तथ्यों पर आधारित है तो वे उस केस को उसी स्तर पर छोड़ देंगे। इस व्यवहार के कारण भले ही उन्हें आर्थिक नुकसान उठाना पड़ता हो, फिर भी वे स्तरीय जीवन जी रहे थे। धीरे-धीरे वे एक ऐसी अवस्था में पहुंच रहे थे जहां उनका वकालत का पेशा उतना महत्वपूर्ण नहीं रह गया था। उनके जीवन के और भी कई महत्वपूर्ण उद्देश्य थे।

बेटे का प्रसव खुद कराया

1900 में जब कस्तूरबाई को सबसे छोटे बेटे देवदास, रामदास से तीन साल छोटा, का जन्म होने वाला था तब गांधी जी ने खुद ही नर्स का काम करने का निर्णय लिया। अचानक प्रसव पीड़ा शुरु हुई। डॉक्टर घर पर नहीं थे। दाई वहां दुर्लभ थी। गांधी जी खुद दाई बन गए। सारा काम खुद किया। नाल काटने से लेकर शिशु को नहलाने तक। देवदास के जन्म के बाद उन्होंने निश्चय किया कि अब कोई और संतान नहीं होनी चाहिए। किसी गर्भनिरोधक उपाय के वे सख़्त खिलाफ़ थे, उन्हें संयम के द्वारा इस लक्ष्य में सफलता चाहिए था।

ब्रह्मचर्य का विचार

गांधी जी के दिल में एकपत्नी व्रत का विचार तो शादी के समय से ही था। पत्नी के प्रति वफ़ादारी उनके सत्यव्रत का अंग था। दक्षिण अफ़्रीका के प्रवास के दौरान उन्हें इस बात का बोध हुआ कि पत्नी के साथ भी ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। गांधी जी को याद नहीं कि ब्रह्मचर्य का विचार उनके मन में किस किताब से आया। उनके इस विचार पर शायद रायचन्द्रभाई का प्रभाव रहा हो। उनसे गांधी जी की मुलाक़ात तब हुई थी जब रायचन्द्रभाई पच्चीस वर्ष के थे। स्वयं गांधी जी की आयु तब तक लगभग उतनी ही रही होगी। वे पेशे से जवाहरात के व्यापारी थे। हीरे-मोती के इस कारोबारी के अध्यात्म-ज्ञान ने गांधी जी को काफ़ी प्रभावित किया था। जब वह धर्म के बारे में चर्चा करते, तो गांधी जी मुग्ध भाव से उन्हें देखते रह जाते थे।

ऐसे ही किसी क्षण में गांधी जी ने रायचन्द्र भाई के सामने दंपति प्रेम पर चर्चा छेड़ दी। गांधी जी रायचन्द्र भाई को ग्लैडस्टन के प्रति मिसेज ग्लैडस्टन के प्रेम की प्रशंसा कर रहे थे। पार्लियामेंट की मीटिंग में भी मिसेज ग्लैडस्टन अपने पति को चाय बनाकर पिलाती थी।

यह सुनकर रायचन्द्रभाई बोले, “इसमें तुम्हें महत्व की कौन सी बात मालूम होती है? मिसेज ग्लैडस्टन का पत्नीत्व या उनका सेवाभाव? यदि वे ग्लैडस्टन की बहन होतीं तो? या उनकी वफ़ादार नौकरानी होतीं और उतने ही प्रेम से चाय देतीं तो? ऐसी बहनों, ऐसी नौकरानियों के दृष्टान्त क्या हमें आज नहीं मिलते? और, नारी-जाति के बदले ऐसा प्रेम यदि तुमने नर-जाति में देखा होता, तो क्या तुम्हें सानन्द आश्चर्य न होता? मेरे इस कथन पर विचार करना।

गांधी जी को यह वचन बहुत कठोर लगा। पर ये बातें उनके दिमाग में उथल-पुथल मचाती रहीं। उन्हें लगा कि पुरुष सेवक की ऐसी स्वामीभक्ति या मूल्य पत्नी की पति-निष्ठा के मूल्य से हजार गुना अधिक है। अगर पति-पत्नी एक हैं तो उनमें परस्पर प्रेम होने में अनोखापन क्या है? अगर प्रेम नहीं है, तो उसे विकसित किया जा सकता है। जैसे मालिक के प्रति कोई वफ़ादार नौकर प्रेम प्रयत्न-पूर्वक विकसित करता है। वैवाहिक प्रेम के बारे में उन्होंने गंभीरता से विचार करना शुरु किया। उन्होंने अपने-आप से पूछा कि उन्हें अपनी पत्नी के साथ कैसा संबंध रखना चाहिए। पत्नी को विषय-भोग का वाहन बनाने में उनके प्रति वफ़ादारी कहां रहती है? उन्होंने सोचा कि जब तक वे विषय-वासना के अधीन रहते हैं, तब तक तो उनकी वफ़ादारी का मूल्य साधारण ही माना जाएगा। गांधी जी बताते हैं कि शारीरिक संसर्ग की इच्छा के रूप में पत्नी की ओर से कभी आक्रमण नहीं हुआ था। यानी ब्रह्मचर्य के लिए इच्छा शक्ति जुटाने की ज़रूरत केवल उन्हें थी। उनकी खुद की आसक्ति ही उन्हें ब्रह्मचर्य का पालन करने से रोक रही थी।

ब्रह्मचर्य साधने का प्रयास

1901 में गांधी जी ने ब्रह्मचर्य साधने का भरसक प्रयास करना शुरु कर दिया था। इस व्रत के पालन में शुरु-शुरु में तो वे विफल रहे। प्रयत्न करते किन्तु गिर पड़ते। हालाकि इस प्रयत्न में उनका उद्देश्य ऊंचा नहीं था। मुख्य उद्देश्य तो था संतानोत्पत्ति को रोकना। कृत्रिम गर्भ निरोधक साधनों में गांधी जी का विश्वास नहीं था। उन्होंने कुछेक लेखकों के विचार पढ़ रखे थे। डॉ. एलिन्सन के उपायों का प्रभाव तो दीर्घकालिक न रह सका पर हिल्स के संयम और आन्तरिक साधन के बारे में जो विचार थे उसका प्रभाव गांधी जी पर बहुत पड़ा था। इसलिए संतानोत्पत्ति का ख्याल आते ही गांधी जी ने संयम-पालन का अभ्यास शुरु कर दिया। एक ही कमरे में अलग-अलग खाटें बिछने लग गईं। अपना ज़्यादा समय घर के बाहर ही बिताते। रात में पूरी तरह थक कर ही लौटते और अलग सोने का प्रयत्न करते। उनके इस संयम व्रत में कस्तूरबा कहीं नहीं थीं। इन सब प्रयत्नों का प्रभाव तुरत नहीं दिख सका। अंतिम निश्चय तो वे 1906 में ही ले सके।

ज़ुलू विद्रोह

बोअर-युद्ध के बाद नेटाल में ज़ुलू विद्रोह हुआ। उस समय गांधी जी जोहन्सबर्ग में वकालत करते थे। उस समय भी गांधी जी को लगा कि अपनी सेवा नेटाल सरकार को अर्पण करनी चाहिए। उन्होंने आवेदन किया जो स्वीकृत भी हो गया। इस सेवा के सिलसिले में गांधी जी के मन में संयम-पालन का तीव्र विचार उत्पन्न हुआ। उन्होंने साथियों से इसकी चर्चा की। उनका मानना था कि सन्तानोत्पत्ति और सन्तान का लालन-पालन सार्वजनिक सेवा के विरोधी हैं। इस विद्रोह में शामिल होने के लिए गांधी जी को जोहान्सबर्ग से अपनी गृहस्थी उजाड़ देनी पड़ी थी। इस जगह घर बसाए हुए मुश्किल से एक महीना ही हुआ था कि उन्होंने उसका त्याग कर दिया। पत्नी और बच्चों को फीनिक्स में छोड़कर खुद डोली उठानेवालों की टुकड़ी लेकर चल पड़े। कूच करते वक़्त उन्होंने महसूस किया कि लोकसेवा के लिए उन्हें पुत्रैषणा और वित्तैषणा का त्याग कर देना चाहिए और वानप्रस्थ-धर्म का पालन करना चाहिए।

ज़ुलू विद्रोह के दौरान बिताए गए छह हफ़्ते का समय उनके जीवन का अत्यंत मूल्यवान समय था। इस समय उन्होंने संयम-व्रत के महत्व को अधिक से अधिक समझा। उन्हें लगा कि यह व्रत बन्धन नहीं बल्कि स्वतंत्रता का द्वार है। इसके पहले वे इसलिए असफल हुए थे कि वे दृढनिश्चयी नहीं थे। उन्हें अपनी शक्ति पर भरोसा नहीं था। फलस्वरूप उनका मन अनेक तरंगों और अनेक विकारों में उलझा रहता था। उन्हें लगा कि व्रत-वद्ध न रहने पर मनुष्य मोह में पड़ा रहता है। व्रत में बंधना व्यभिचार से छुटकारा पाने के समान था।

ब्रह्मचर्य व्रत के पालन के लिए गांधी जी का मानना था कि स्वादेन्द्रिय पर प्रभुत्व प्राप्त करना ज़रूरी है। यदि स्वाद को जीत लिया जाय, तो ब्रह्मचर्य पालन बहुत सरल हो जाता है। इसलिए उनके आहार संबंधी प्रयोग केवल आहार की दृष्टि से नहीं, बल्कि ब्रह्मचर्य की दृष्टि से होने लगे। उन्होंने प्रयोग करके पाया कि आहार थोड़ा सादा, बिना मिर्च-मसाले का और प्राकृतिक स्थितिवाला होना चाहिए। वनपक्व फल सबसे अच्छा है। जब वे सूखे और हरे वनपक्व फलों पर रहते थे, तो उन्हें निर्विकार अवस्था का अनुभव होता था।

***         ***    ***

मनोज कुमार

 

पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद

संदर्भ : यहाँ पर

 

 

 


रविवार, 29 सितंबर 2024

90. बोअर-युद्ध-7 भारतीयों की दशा में कोई सुधार न हुआ

 गांधी और गांधीवाद

90. बोअर-युद्ध-7

भारतीयों की दशा में कोई सुधार न हुआ



1900

प्रिटोरिया पर यूनियन जैक फहराया

क्रोनजे के आत्मसमर्पण के बाद लेडीस्मिथ की राहत ने दक्षिण अफ्रीका में बोअर्स के खिलाफ़ युद्ध में अंग्रेजों के लिए मोड़ का संकेत दिया। दोहरी हार की खबर से स्तब्ध, अफ़्रीकनर्स घबराहट में उत्तरी पहाड़ियों की ओर चले गए। रॉबर्ट्स और किचनर आगे बढ़े। 11 मार्च, 1900 को, लॉर्ड सैलिसबरी ने दोनों गणराज्यों के राष्ट्रपतियों को सूचित किया कि ब्रिटिश सरकार उनकी स्वतंत्रता को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है। 13 मार्च 1900 को ब्रिटिश कमांडर-इन-चीफ फील्ड मार्शल रॉबर्ट्स ने फ़्री स्टेट की राजधानी ब्लोएमफ़ोटेंन पर एक आक्रामक अभियान पर ध्यान केंद्रित करने का फैसला कियायह युद्ध का महत्वपूर्ण मोड़ था। जनरल फ्रेंच के नेतृत्व में सैनिकों ने किम्बरली की घेराबंदी कर रहे बोअर्स को हटा दिया। मुख्य बल ने ब्लोमफोंटेन पर कब्जा कर लिया। कुछ समय वहाँ रुकने के बाद, लॉर्ड रॉबर्ट्स ने उत्तर की ओर अपना मार्च फिर से शुरू किया। दो सप्ताह बाद 28 मार्च को पिट जोबर्ट मारा गया। स्मट्स की सलाह पर क्रूगर ने लुई बोथा को उसका उत्तराधिकारी नियुक्त किया। 17 मई को ब्रिटिश सैनिकों ने अफ्रिकनेर रिंग को तोड़ दिया और 217 दिनों तक घेरे रहने के बाद माफ़ेकिंग को मुक्त करा लिया। 24 मई को महारानी का जन्म दिन था। इस दिन ब्रिटिश सेना ने ऑरेंज फ़्री स्टेट पर क़ब्ज़ा जमा लिया। अफ़्रीकनेर मोर्चे के पीछे, क्रूगर अपनी विशेष ट्रेन में तेज़ी से आगे बढ़ रहा था, अपने कोच में बाइबल पढ़ने में लंबा समय बिता रहा था। उसकी उपस्थिति ने कमांडो को नया जोश दिया, लेकिन अफ़्रीकनेर युद्ध मशीन टूट चुकी थी। 28 मई तक रोबर्ट की सेना जोहान्सबर्ग के निकट थी। 31 मई को, क्रूगर ने रीट्ज़ और बाकी सरकार के साथ मिलकर डेलागोआ रेलवे से माचाडोडॉर्प नामक गांव की ओर कूच किया, जो उसी लाइन पर सौ मील दूर था, जहां उन्होंने साइडिंग में कुछ वैगनों में सत्ता का एक नया केंद्र स्थापित किया। स्मट्स प्रिटोरिया में ही रहे। बोथा के साथ मिलकर स्मट्स ने सोने की खान को डायनामाइट से उड़ा देने का प्लान बनाया पर जोहान्सबर्ग के कमाडेंट के प्रयास से ऐसा हो न सका और जोहान्सबर्ग पर जून की शुरुआत में कब्जा कर लिया गया था। 4 जून को ब्रिटिश सेना ने राजधानी पर हल्ला बोल दिया। कुछ घंटों की ही लड़ाई में हारकर स्मट्स जल्दी-जल्दी में खजाने से रुपए-पैसे लेकर भाग खड़ा हुआ। इस धन ने बोअर्स को युद्ध के लिए शक्ति प्रदान की तथा उन्हें अगले दो वर्षों तक लड़ने में सक्षम बनाया।

5 जून को प्रिटोरिया पर यूनियन जैक फहरा रहा था।

1 सितंबर, 1900 को लॉर्ड रॉबर्ट्स ने एक घोषणा प्रकाशित की, जो 4 जुलाई को ही जारी कर दी गई थी, जिसमें ट्रांसवाल को ब्रिटिश क्राउन में शामिल कर लिया गया था। अक्टूबर तक दोनों गणराज्यों के सभी प्रमुख बिंदु ब्रिटिश कब्जे में थे। 11 सितंबर को निराश होकर क्रूगर सीमा पार करके पुर्तगाली पूर्वी अफ्रीका पहुंचे, जहां से वे हॉलैंड की रानी द्वारा भेजे गए डच युद्धपोत पर सवार होकर यूरोप के लिए रवाना हुए। वह स्विटजरलैंड के क्लेरेन्स चला गया, जहाँ 1904 में उसकी मृत्यु हो गई। लोग उसके शव को दक्षिण अफ्रीका वापस ले गए और प्रिटोरिया के चर्च स्ट्रीट कब्रिस्तान में उसे दफना दिया।

ट्रांसवालर्स पराजय के मूड में थे। कुछ समय के लिए बोथा को भी लगा कि अब अंग्रेजों के सामने आत्मसमर्पण करने और शांति स्थापित करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा है। लेकिन मार्टिनस स्टेन (स्वतंत्र राज्य के राष्ट्रपति) और डी वेट के नेतृत्व में फ्री स्टेटर्स इसके सख्त खिलाफ थे और बोथा को एहसास हुआ कि प्रतिरोध की भावना को जीवित रखना चाहिए; जब तक वे हार नहीं मानते तब तक उम्मीद बनी रहेगी। लुइस बोथा, डे वेट और डे ला रे ने रिपब्लिकन के बिखरे हुए अवशेषों से गुरिल्ला दल का गठन किया और लड़ाई जारी रखी। जान स्मट्स ने कमांडो के तौर पर काम करने की पेशकश की। बोथा ने उनके प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया और उन्हें डे ला रे के पास भेज दिया। जल्द ही वह 'हिट एंड रन' रणनीति में माहिर हो गए। इस तरह स्मट्स और बोथा काफ़ी दिनों तक गोरिल्ला युद्ध लड़ते रहे। उन्होंने गुरिल्ला युद्ध में अभूतपूर्व कारनामे दिखाए। उन्होंने धीमी गति से चलने वाली अंग्रेजी टुकड़ियों पर आश्चर्यजनक हमले किए और उन्हें अपमानजनक पराजय दी। अंग्रेजों को भारी नुकसान हुआ। गुरिल्ला लड़ाई डेढ़ साल तक चली और अंग्रेजों ने इसे युद्ध का एक बेहद कठिन दौर माना।

नवंबर 1900 के अंत में, लॉर्ड रॉबर्ट्स घर लौट आए। उन्होंने घोषणा की कि युद्ध समाप्त हो गया है। 29 नवंबर को, लॉर्ड किचनर को उनकी जगह कमांडर-इन-चीफ़ नियुक्त किया गया। बोअर प्रतिरोध को कुचलने के उद्देश्य से किचनर ने अंधाधुंध खेतों में आग लगाना, संपत्ति का बड़े पैमाने पर विनाश और भूमि का सामान्य विनाश शुरू कर दिया। हजारों की संख्या में मवेशी और भेड़ें पकड़ी गईं, अनाज को जब्त कर नष्ट कर दिया गया; खड़ी फसलें जला दी गईं; मिलों और खेतों की इमारतों को जला दिया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि हजारों महिलाएं और बच्चे बेघर होकर दलदली भूमि में चले गए।

अंग्रेजों ने इस स्थिति को दूर करने के लिए पूरी तरह से क्रूर तरीके अपनाए। गुरिल्ला कमांडो के बीच आतंक पैदा करने के लिए, हज़ारों महिलाओं और बच्चों को शरणार्थी शिविरों में जमा कर दिया गया। इन कन्सेन्ट्रेशन स्लेगर में खाद्यान्न की कमी और महामारी के प्रकोप के कारण कम से कम 18,000 मौतें हुईं। अंततः प्रतिरोध कम हो गया, तो बोअर नेताओं ने एक लंबी आंतरिक बहस के बाद 31 मई, 1902 को अपरिहार्य हार को स्वीकार कर लिया। फिर एक शान्ति संधि हुई।

इस युद्ध में बोअर की तरफ़ से 4,000 लोग मारे गए, और 20,000 घायल हुए जबकि ब्रिटिश की तरफ़ के 5,774 लोग मारे गए और 22,829 जख़्मी हुए। महामारी के फैलने और बमबारी में क़रीब 20,000 असैनिक लोग मारे गए। क़रीब 25 करोड़ पौंड का खर्च आया इस युद्ध में। 1904 में 80 वर्षीय क्रूगर देशनिष्कासन की अवस्था में मर गया।

15 मई, 1902 को 60 बर्गर प्रतिनिधि, जिनमें से तीस ट्रांसवाल से और तीस ऑरेंज फ्री स्टेट से थे, स्मट्स के साथ बोथा के कानूनी सलाहकार, शांति की शर्तों पर चर्चा करने के लिए वैलीनिगिंग में राष्ट्रीय सम्मेलन में मिले। ट्रांसवाल ने आत्मसमर्पण करने का फैसला किया था। फ्री स्टेट के लोग ‘कड़वे अंत तक युद्ध’ के पक्ष में थे। मिलनर बिना शर्त आत्मसमर्पण के पक्ष में थे। कई विचारशील अंग्रेजों का विपरीत दृष्टिकोण था, वे बोअर नेताओं द्वारा सहमत शर्तों पर आपसी समझौते और समझौते द्वारा शांति के पक्ष में थे। किचनर दक्षिण अफ्रीका से जल्द से जल्द बाहर निकलने के लिए उत्सुक था। वह किसी भी कीमत पर शांति चाहता था, बजाय इसके कि युद्ध को एक राजनीतिक समझौते के लिए एक घिनौने अंत तक जाने दिया जाए। बोअर नेताओं ने दो अंग्रेजों के बीच विचारों के टकराव का फायदा उठाने में देर नहीं लगाई और स्मट्स ने चालाकी से मिलनर के खिलाफ़ किचनर का पक्ष लिया। 31 मई, 1902 की रात ग्यारह बजे  किचनर के प्रिटोरिया स्थित घर में शांति समझौते पर हस्ताक्षर किए गए। किचनर ने बोथा से हाथ मिलाते हुए कहा, "हम अच्छे दोस्त हैं।" बोअर प्रतिनिधि चुपचाप अपने घरों के लिए रवाना हो गए, उनकी सबसे गौरवशाली विरासत उनकी आँखों के सामने मलबे का ढेर बन गया था। आत्मसमर्पण के बाद, लॉर्ड किचनर ने 20 जून, 1902 को दक्षिण अफ्रीकी कमान जनरल लिटलटन के हाथों में सौंप दी और भारत में उनकी प्रतीक्षा कर रही कमान संभालने से पहले इंग्लैंड में कुछ महीने आराम करने के लिए प्रिटोरिया छोड़ दिया। शांति के तीन सप्ताह के भीतर मिलनर ने सैन्य सरकार से छुटकारा पा लिया और खुद को पूरे दक्षिण अफ्रीका का शासक और लगभग निरंकुश शासक बना लिया, जिसके हाथों में वह सारी शक्ति थी जिसके लिए क्रूगर और रोड्स ने संघर्ष किया था। 21 जून, 1902 को, गवर्नर - अब विस्काउंट मिलनर - और उनकी कार्यकारी परिषद के शपथ ग्रहण द्वारा ट्रांसवाल की नई क्राउन कॉलोनी सरकार का औपचारिक रूप से उद्घाटन किया गया। 25 तारीख को यही समारोह ब्लूमफोंटेन में हुआ। वेरीनिगिंग की संधि पर हस्ताक्षर करने के छह सप्ताह से भी कम समय में, लॉर्ड सैलिसबरी, जो लंबे समय से बीमार थे, की मृत्यु हो गई और 12 जुलाई, 1902 को, लॉर्ड बालफोर को उनकी जगह इंग्लैंड का प्रधानमंत्री नियुक्त किया गया। इससे चेम्बरलेन पर राजनीतिक रूप से कोई असर नहीं पड़ा। वे उपनिवेशों के लिए राज्य सचिव के पद पर बने रहे, हालाँकि उनके पास अपने पुराने प्रमुख के अधीन प्राप्त शक्तियों जैसी कोई शक्ति नहीं थी।

दिग्गज मंच छोड़ चुके थे। देश युद्ध की तबाही से लहूलुहान और थका हुआ था। स्मट्स के अंदर भयंकर आक्रोश जल रहा था - अंग्रेजों के खिलाफ आक्रोश, लेकिन विशेष रूप से मिलनर और उसके अधिकारियों के खिलाफ, जो अब उसके देश पर शासन कर रहे थे। उसकी असहायता और पूरी तरह से हार की भावना ने उसे खा लिया। वेरीनिगिंग की संधि पर हस्ताक्षर करने के दो साल बाद 80 साल की उम्र में निर्वासन में क्रूगर की मृत्यु हो गई, वह एक टूटे हुए व्यक्ति थे, जो मृत्यु के बारे में सोचने से भी उदासीन थे क्योंकि उन्हें ब्रिटिश प्रिटोरिया में अपनी पत्नी की मृत्यु की खबर मिली थी, जिनसे मिलने के लिए उन्होंने एक बार अपनी जान जोखिम में डालकर एक उफनती नदी को पार किया था।

एंग्लो-बोअर युद्ध को समाप्त करने वाले दस्तावेज़ को ‘वेरीनिगिंग की संधि’ के नाम से जाना जाता है, लेकिन इस पर प्रिटोरिया में हस्ताक्षर किये गये थे। जो भी संधि हुई उसे मिलनर ने 'आत्मसमर्पण की शर्तें' कहा; किचनर ने 'शांति की शर्तें' बताया; बोथा ने इसे 'संधि' कहा। वास्तव में इसे कोई शीर्षक नहीं दिया गया था। बोथा को खुश करने के लिए बाद में अंग्रेजों ने इसे ‘वेरीनिगिंग की संधि’ कहना शुरू कर दिया। जनरल स्मट्स ने इस शांति को संपन्न करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बोअर उस साम्राज्य के नागरिक बन गए जिसके खिलाफ उन्होंने लड़ाई लड़ी थी। उन्हें उनकी स्वतंत्रता और संपत्ति और भाषा के अधिकारों की गारंटी दी गई थी। ब्रिटिश सरकार ने युद्ध के दौरान हुए विनाश के लिए प्रतिपूर्ति की मांग करने के बजाय, नगरवासियों के पुनर्वास के लिए ऋण के रूप में इतनी ही राशि के अलावा तीन मिलियन पाउंड की सहायता प्रदान करने का वचन दिया।

बोअर युद्ध से सबक

गांधीजी अंग्रेजों की ओर से मोर्चे पर गए थे। लेकिन वे उस दृढ़ संकल्प और साहस को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते थे जिसके साथ बोअर्स ने खुद को एक ऐसी शक्ति के खिलाफ़ लड़ा था जिसके पास बहुत ज़्यादा संसाधन थे। जिस चीज़ ने उन्हें ब्रिटिश चुनौती स्वीकार करने के लिए प्रेरित किया था, वह था उनका स्वतंत्रता के प्रति प्रेम। साथ ही, वे इस बात से भी उतने ही प्रभावित थे कि पहले चरण में बहादुर बोअर्स से कुछ ज़बरदस्त प्रहार झेलने के बाद अंग्रेज़ों ने किस दृढ़ता के साथ युद्ध लड़ा। दोनों पक्षों की सेनाओं द्वारा प्रदर्शित वीरता को ध्यान से देखने के बाद, वे सैनिकों के मानसिक दृष्टिकोण को एक अलग नज़रिए से देखने लगे थे। वे देख सकते थे कि यह धैर्य, इच्छा शक्ति, सहनशक्ति, दृढ़ता, समय की पाबंदी और सटीकता के गुण थे जो अच्छे योद्धा बनाते हैं। सैन्य अनुशासन और वीरता को नज़दीक से देखने पर उनमें आत्म-संयम और दृढ़ता के विचार भर गए।

युद्ध की परिस्थितियों में काम करने के अनुभव और विशेष रूप से विपरीत परिस्थितियों में सबसे अधिक तनाव और दबाव में अंग्रेजों के व्यवहार ने गांधीजी के मन पर एक अमिट छाप छोड़ी। पहली छाप थी अनुशासन और संगठन का मूल्य और महत्व। समय की पाबंदी, सटीकता और अचूक आज्ञाकारिता जैसे सैनिक गुणों को उन्होंने किसी भी उपक्रम में सफलता की कुंजी माना, चाहे वह शांति से संबंधित हो या युद्ध से। दूसरा था अंग्रेजी सैनिकों का अथक परिश्रम, विपरीत परिस्थितियों में उनका साहस और दृढ़ता, और उनके द्वारा देखे गए विशाल सैन्य शिविरों में हजारों लोगों की गतिविधियों का सहज मौन समन्वय। तीसरा, वह इस बात से बहुत प्रभावित हुए कि कैसे मानव स्वभाव परीक्षण के क्षणों में अपने सर्वश्रेष्ठ रूप में खुद को दिखाता है।

बोअर युद्ध से कुछ बातें काफ़ी उभर कर सामने आईं। इसमें प्रयुक्त समर-कौशल और राजनैतिक लड़ाई ध्यान देने योग्य हैं। बोअर युद्ध से पता चला है कि लोकप्रिय प्रतिरोध किया जा सकता है और यदि लोगों में विरोध करने की इच्छा-शक्ति शेष न हो, तो सैन्य विजय के लाभ निरर्थक ही समझा जाना चाहिए। हमने देखा कि जब शर्त-रहित समर्पण की बात चली तो बोअरों ने विजेताओं के साथ सहयोग करने से इंकार कर दिया। बोअर युद्ध के परिणामों ने गांधीजी को सोचने पर विवश कर दिया। उन्होंने ब्रिटिश के युद्ध करने के तरीक़ों को निकट से देखा। साथ ही यह भी देखा कि पराजित पक्ष के साथ उनका व्यवहार कैसा होता है? उन्होंने इस युद्ध के दौरान देखा कि ब्रिटिश अपने दुश्मनों को घुटने टेकने पर मज़बूर करने के लिए किसी हद तक जा सकते हैं। दुश्मनों को धूल चटाने में वे अपनी सारी शक्ति झोंक देते हैं, किसी भी साज़िश को अंजाम दे सकते हैं। लेकिन यदि शत्रु हानि रहित हुआ तो उसे पहचानने से भी कतरा जाएंगे, दोस्ती का हाथ भी उस तरफ़ नहीं बढ़ाएंगे। सबसे प्रमुख सबक उन्होंने इस युद्ध से यह लिया कि ब्रिटिश से शत्रुता मत लो, यदि ले ही लिया, तो उनसे अपने पूरे दम-खम से लड़ो। यदि शत्रु पक्ष कमज़ोर हुआ तो वे उनका निरादर करते हैं, और यदि वह दम-खम वाला है, तो चाहे पराजित ही क्यों न हो गया हो, वे उसे पूरा सम्मान देते हैं।

हार्ड टास्क मास्टर’

युद्ध के मैदान में गांधी का अनुभव, हालांकि थोड़े समय के लिए था, लेकिन इसने उनके व्यक्तित्व पर अपनी छाप छोड़ी। उन्होंने एक सैनिक की दृढ़ इच्छाशक्ति और दृढ़ता हासिल कर ली थी। एम्बुलेंस के काम के अलावे गांधीजी प्रोविजनिंग विभाग के भी इन्चार्ज थे। स्ट्रेचर ढोने वालों को वे उनका मेहनताना भी वितरित करते थे। खर्चों का हिसाब-किताब भी रखा करते थे। अपनी टुकड़ी के सभी सदस्यों की उचित देखभाल भी किया करते थे। कर्तव्य के निर्बहन में कोई कोताही भी नहीं बरतते थे। कहा जा सकता है कि वे ‘हार्ड टास्क मास्टर’ थे। अनुशासनहीनता उन्हें बिल्कुल भी बर्दाश्त नहीं थी। इस तरह से विभिन्न दायित्वों का निर्वाह वे पूरी तन्मयता से करते रहे। रात-दिन कि इन व्यस्ततम क्षणों में कई बार ऐसा भी हुआ कि वे बिना भोजन किए चौबीस घंटों तक काम करते रहे।

कुछ भी सुपरिणाम न हुआ

गांधीजी द्वारा उन अल्पसंख्यकों की एम्बुलेंस टुकड़ी का संगठन बड़ा ही प्रशंसनीय था, लेकिन इसका कुछ भी सुपरिणाम न हुआ। इस युद्ध में उन्होंने ब्रिटिश की तरफ़ से भाग लिया था। किन्तु जिस साहस और एकता से बोअरों ने लड़ाई लड़ी उससे भी गांधीजी प्रभावित हुए बिना नहीं रहे। इस युद्ध ने उन्हें एकता, शक्ति, संगठन, साहस, नियम बद्धता, समय का अनुपालन, आदि की शिक्षा दी, जो एक लड़ने वाले व्यक्ति के लिए बहुत ही ज़रूरी है। आखिर यह सबक उन्हें भविष्य में काम आने वाला था।

जब बोअर-युद्ध छिड़ा उस समय लॉर्ड लेंसड़ाउन, लॉर्ड सेल्बर्न और ब्रिटेन के अनेक अधिकारियों ने यह कहा था कि इस युद्ध का एक कारण बोअरों द्वारा हिन्दुस्तानियों के साथ किया जाने वाले बुरा व्यवहार भी है। प्रिटोरिया के ब्रिटिश एजेंट (राजदूत) ने कहा था कि यदि ट्रांसवाल ब्रिटिश उपनिवेश बन जाये, तो वहाँ के हिन्दुस्तानियों के सारे दुःख दूर हो जाएंगे। यह विश्वास था कि सत्ता बदल जाने पर ट्रांसवाल के पुराने (विरोधी) कानून हिन्दुस्तानियों पर किसी हालत में लागू नहीं किये जा सकते। लेकिन बोअर युद्ध का अन्त होने पर भी भारतीयों की दशा में कोई सुधार न हुआ। उनकी शिकायतें ज्यों की त्यों बनी रही। इसके विपरीत, भूतपूर्व बोअर-उपनिवेशों में उनके लिए नई जंजीरें गढ़ी गईं। 1997 के इमिग्रेशन एक्ट को नए रूप में फिर से लागू किया गया, जिससे भारत से आनेवाले लोगों को नेटाल में प्रवेश सहज न हो। गांधीजी ने जब नेटाल की सरकार से इस एक्ट में ढिलाई बरतने का निवेदन किया, तो उनकी मांग नहीं मानी गई।

गांधीजी ने दादाभाई नौरोजी को पत्र लिखकर वहां की हालात का जायजा देते हुए कहा कि पुरानी स्थिति बरकरार है। लोगों के मन में यह आशा जग गई थी कि युद्ध के बाद दक्षिण अफ़्रीका में भारतीयों की स्थिति में सुधार आएगा। कम-से-कम ट्रांसवाल और फ़्री स्टेट में कोई कठिनाई नहीं होगी। ब्रिटिश अधिकारियों ने आश्वासन दिया था। प्रिटोरिया में रहने वाले ब्रिटिश राजदूत ने तो यहां तक कह रखा था कि ट्रांसवाल यदि ब्रिटिश उपनिवेश हो जाए तो सारे भारतीयों के सभी संकट फौरन दूर हो जाएंगे। यह मानना स्वाभाविक था कि राज्य-व्यवस्था बदल जाने पर ट्रांसवाल के पुराने कानून भारतीयों पर लागू न हो सकेंगे। पर सब कुछ उल्टा ही हुआ।

तरह-तरह के प्रतिबंध

युद्ध के बाद नेटाल में जो क़ानून युद्ध के पहले बने थे उनमें तुरंत हेर-फेर किया गया। लड़ाई के पहले चाहे जो भारतीय चाहे जब ट्रांसवाल में दाखिल हो सकता था। युद्ध के बाद स्थिति वैसी नहीं रही। हालाकि जो रुकावटें लागू की गईं वे गोरे और भारतीय दोनों पर समान रूप से लागू होती थीं।, लेकिन गोरे को तो परवाना मांगते ही मिल जाता था, पर भारतीयों के लिए तो एक एशियाटिक विभाग ही स्थापित कर दिया गया, और तरह-तरह के प्रतिबंध लगाए गए। इस अलग स्थापित किए गए महकमे के अफ़सर के पास अर्जी भेजनी होती थी। महज भारतीयों को परेशान करने के लिए इस महकमा को कायम किया गया था। ट्रांसवाल की पुरानी बोअर सरकार ने जैसे कड़े क़ानून बनाए थे वैसे कड़ाई से उन पर अमल नहीं होता था। पर अब वह स्थिति नहीं रह गई थी। ब्रिटिश राज्य के स्थापित होते ही भारतीयों से संबंधित सभी क़ानूनों पर अधिक से अधिक कड़ाई से अमल होने लगा। इन क़ानूनों को कैसे रद्द कराया जाए, अगर वह न हो सके तो इनकी कठोरता में नरमी कैसे लाई जाए यह प्रमुख प्रश्न अब गांधीजी के सामने था।

बोअर-युद्ध के खत्म होने पर ब्रिटिश सरकार ने वहाँ के कायदे-कानून की जांच-पडताल के लिए एक समिति बैठा दी थी और उसे यह काम सौंपा गया था कि जो भी नियम-कानून ब्रिटिश विधान से मेल न खाते हों और महारानी विक्टोरिया की प्रजा के नागरिक अधिकारों में बाधक हों, उन्हें रद्द कर दिया जाए। समिति ने ‘महारानी विक्टोरिया की प्रजा’ का अर्थ सिर्फ ‘गोरी प्रजा' किया। ट्रांसवाल और औरेंज फ़्री स्टेट में ब्रिटिश पताका फहराते ही लॉर्ड मिलनर ने एक कमेटी नियुक्त कर भारत विरोधी राज्य के सभी पुराने क़ानूनों की एक पुस्तिका तैयार कराकर सभी अधिकारियों में वितरित कर दी, ताकि उन्हें इसके अनुपालन में आसानी हो। अधिकारियों को उन पर सख्ती से अमल करने की हिदायत दी गई। सारे क़ानून जहर भरे थे। एशियावासी चुनाव में मतदान नहीं दे सकते थे। सरकार ने जो मुहल्ले ठहरा दिए थे उनके बाहर न ज़मीन ख़रीद सकते थे, न रख सकते थे। ये सारे क़ानून एशियाटिक महकमे में आ गए। इस तरह से स्थिति यह बनी कि ब्रिटिश शासनाधिकारी यह चाहते थे कि ट्रांसवाल में नए आने वाले भारतीय को रोका जाए और जो पुराने बाशिंदे हैं उनकी स्थिति ऐसी कर दें कि वे ऊबकर ट्रांसवाल छोड़कर भाग जाएं और न भी छोड़े तो स्थिति ऐसी रहे कि वे मज़दूर बनकर ही रह सकें। जो लोग युद्ध के समय ट्रांसवाल छोड़कर बाहर चले आए थे, अब वापस लौटना चाह रहे थे, लेकिन उनके लिए वापस लौटना आसान नहीं रह गया था। उन्हें नया परवाना चाहिए था। यह सब रिफ़्यूजियों को ट्रांसवाल लौटने से रोकने के लिए किया गया था। जो परवाने निकाले गए थे, उनमें भारतीयों के हस्ताक्षर या अंगूठे के निशान लिए जाते थे। पुराने परवाने जमा कर नया परवाना लेना था। गांधीजी ने इन कठिनाइयों को दूर करने के लिए अधिकारियों से बातचीत की, पर कोई विशेष फ़ायदा न हुआ।

उपसंहार

बोअर-युद्ध में अंग्रेज़ों की जीत से नेटाल और ट्रांसवाल के गोरे उपनिवेशों की रंग-भेद की भारतीय-विरोधी नीतियां खत्म नहीं हुईं; उलटे और भी उग्र हो गई। भारतीयों को गोरों की बराबरी का दर्ज़ा पाने के ही लिए नहीं, छोटे-छोटे-से नागरिक अधिकारों को पाने और बरसों की मेहनत से पैदा की हुई संपत्ति के बचाव के लिए भी हर कदम पर लडना था। यह बराबरी की लडाई नहीं, कमज़ोर का ताकतवर से मुकाबला होने वाला था। इसका नेतृत्व गांधीजी करने वाले थे।

***         ***    ***

मनोज कुमार

 

पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद

संदर्भ : यहाँ पर

 

शनिवार, 28 सितंबर 2024

89. बोअर-युद्ध-6 “कैसर-ए-हिन्द” की उपाधि

 गांधी और गांधीवाद

89. बोअर-युद्ध-6

कैसर-ए-हिन्द” की उपाधि



फरवरी 1900

असिस्टैंट सुपरिन्टेन्डेन्ट

बोअर युद्ध के दौरान जनरल बुलर ने उन्हें असिस्टैंट सुपरिन्टेन्डेन्ट कहना शुरु कर दिया था। प्रिटोरिया न्यूज के सम्पादक विअर स्टेंट ने रणक्षेत्र में सेवा-कार्य में लगे गांधीजी का यह स्फूर्तिदायक शब्दचित्र अपने अखबार में छापा था,

सारी रात की कड़ी मेहनत के बादजिसने तगड़े जवानों को भी ढीला कर दिया थाबड़े सवेरे मेरी भेंट श्री गांधी से हुई। वह सड़क के किनारे बैठे हुए फौजी राशन में दिए गए बिस्कुट का कलेवा कर रहे थे। उस दिन जनरल बुलर की फौज का हर आदमी थका-मांदासुस्त और उदास था और सारी दुनिया को कोस रहा था। अकेले गांधीजी ही प्रस़न्नअविचलित और संतुलित थे। उनकी वाणी में आत्मविश्वास की झलक और नेत्रों में करुणा की ज्योति जगमगा रही थी।

अंततोगत्वा 28 फरवरी 1900 को जनरल बुलर की फ़ौज़ चार महीने की घेराबन्दी तोड़ लेडी स्मिथ में प्रवेश पाने में सफल हुई। शहर में चारों तरफ़ गन्दगी फैली थी। महामारी का खतरा उत्पन्न हो गया था। उसकी तुरत साफ़-सफ़ाई की ज़रूरत थी। गांधीजी से 200 लोगों की सहायता की मांग की गई। इस काम को भी भारतीय दस्ते ने पूरी दक्षता से अंजाम दिया। छह सप्ताह के बाद गांधीजी की टुकड़ी वापस लौट आई। गोरों के दस्ते को भी घर जाने की इजाज़त दे दी गई थी। लड़ाई तो इसके बाद भी बहुत दिनों तक चलती रही, पर दस्ते के विघटन के आदेश दे दिए गए। साथ ही यह भी कहा गया कि अगर फिर ऐसी जबर्दस्त जंगी कार्रवाई करनी पड़ी तो सरकार आपकी सेवा का उपयोग अवश्य करेगी।

चतुर्दिक प्रशंसा

भारतीय सैनिकों ने अंग्रेजों के साथ लड़ाई लड़ी थी, विनम्र भारतीयों ने लेडीस्मिथ की रक्षा में खुद को प्रतिष्ठित किया था, अमीर व्यापारियों ने युद्ध के संचालन के लिए धन के उपहार दिए थे और एक हजार स्वयंसेवकों ने स्ट्रेचर-वाहक के रूप में काम किया था। गांधीजी और उनके दस्ते के इस प्रयास की चतुर्दिक प्रशंसा हुई। इस काम से भारत की प्रतिष्ठा भी बढ़ी। जनरल बुलर ने भी गांधीजी के काम की काफ़ी तारीफ़ की। उनकी सेवाओं के लिए गांधीजी और सैंतीस अन्य भारतीय स्वयंसेवकों को युद्ध पदक से सम्मानित किया गया। गांधीजी की सेवाओं से प्रभावित होकर सरकार ने उन्हें कैसर-ए-हिन्दकी उपाधि से सम्मानित किया। जनरल बुलर ने इस टुकड़ी के सैंतीस मुखियों को तमगे दिए। गोरे अखबारों ने भारतीयों की प्रशंसा करते हुए उन्हें साम्राज्य सुपुत्र तक कहा। गांधीजी को व्यक्तिगत रूप से धन्यवाद देने वाले गोरों में तो जनवरी 1897 में डरबन में उनपर घातक हमला करनेवाले भारतीय-विरोधी प्रदर्शन के कई सरगना भी थे। उन भारतीयों की स्मृति में, जिन्होंने युद्ध के दौरान अपने प्राण गंवाए थे, जोहन्सबर्ग में एक भव्य स्मारक बनवाया गया। इस पर अंग्रेज़ी, उर्दू और हिंदी में लिखा है “Sacred to the memory of British Officers, Waaraant Officers, Native N.C.O’s and Men, Veterinary Assistants, Nalbands and Followers of the Indian Army, who died in South Africa. 1899-1902.’’

क़ुर्बानी में भी किसी से पीछे नहीं

सबसे बड़ी बात यह सिद्ध हुई कि गोरी सरकार को स्वीकार करना पड़ा कि भारतीय लोग क़ुर्बानी में भी किसी से पीछे नहीं हैं। इस प्रयास का एक और फ़ायदा यह हुआ कि भारतीय अब अधिक संगठित हुए। भारतीय अनुशासन और एकता के सूत्र में बंध गए। उनमें आत्मविश्वास पैदा हुआ। उनकी प्रतिष्ठा और गोरों के साथ मैत्री भी बढ़ी। गांधीजी स्वयं गिरमिटिया आन्दोलनकारियों के काफ़ी निकट सम्पर्क में आए। हिन्दुस्तानियों में अधिक जागृति आई। हिन्द, मुसलमान, ईसाई, मद्रासी, गुजराती, सिन्धी सब हिन्दुस्तानी है, इस भावना का विकास हुआ। सबने माना कि भारतीयों का दुख दूर होना चाहिए। गोरों से भी मित्रता बढ़ी। वे भी भारतीयों के साथ मित्रता का व्यवहार करने लगे। दुख के समय सब एक दूसरे का प्यार और मैत्री से साथ दे रहे थे। इन स्वयं-सेवकों के प्रभाव से गोरे सैनिकों के दिल से रंगभेद और काले लोगों के प्रति घृणा भाव मिट-सा गया। गोरे सैनिकों ने देखा कि डरपोक कहे जाने वाले भारतीयों ने अपनी जान का खतरा उठा कर भी सैनिकों की जान बचाई। वे गांधीजी के प्रति उपकृत थे। लड़ाई के मैदान में सब लोगों का साथ-साथ खाना-पीना, उठना-बैठना बिना भेदभाव के बढ़ने लगा था।

सैन्य अनुशासन और वीरता

गांधीजी अंग्रेजों की ओर से मोर्चे पर गए थे। लेकिन वे उस दृढ़ संकल्प और साहस को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते थे जिसके साथ बोअर्स ने खुद को एक ऐसी शक्ति के खिलाफ़ लड़ा था जिसके पास बहुत ज़्यादा संसाधन थे। जिस चीज़ ने उन्हें ब्रिटिश चुनौती स्वीकार करने के लिए प्रेरित किया था, वह था उनका स्वतंत्रता के प्रति प्रेम। साथ ही, वे इस बात से भी उतने ही प्रभावित थे कि पहले चरण में बहादुर बोअर्स से कुछ ज़बरदस्त प्रहार झेलने के बाद अंग्रेज़ों ने किस दृढ़ता के साथ युद्ध लड़ा। दोनों पक्षों की सेनाओं द्वारा प्रदर्शित वीरता को ध्यान से देखने के बाद, वे सैनिकों के मानसिक दृष्टिकोण को एक अलग नज़रिए से देखने लगे थे। वे देख सकते थे कि यह धैर्य, इच्छा शक्ति, सहनशक्ति, दृढ़ता, समय की पाबंदी और सटीकता के गुण थे जो अच्छे योद्धा बनाते हैं। सैन्य अनुशासन और वीरता को नज़दीक से देखने पर उनमें आत्म-संयम और दृढ़ता के विचार भर गए। वे यह देखकर चकित थे कि संकट के समय इंसान किस तरह खुद को बदल लेते हैं। भाईचारे की भावना युद्ध के मैदान में कहीं और की तुलना में ज़्यादा आम थी। दुःख के समय मनुष्य का स्वभाव किस तरह पिघलता है, इसका एक संस्मरण गांधीजी ने दिया है। वे चीवली छावनी की तरफ जा रहे थे। यह वही क्षेत्र था, जहाँ लॉर्ड रॉबर्ट्स के पुत्र को प्राण घातक चोट लगी थी। लेफ्टिनेंट रॉबर्ट्स के शव को ले जाने का सम्मान उनकी टुकड़ी को मिला था। अगले दिन धूप-ताप में कूच करते-करते गोरे सिपाही और भारतीय टुकड़ी के सदस्य दोनों समान रूप से प्यासे थे। रास्ते में एक छोटा-सा झरना दिखाई दिया। गोरो ने कहा, पहले भारतीय लोग पानी पीएंगे और भारतीय आग्रह करते थे कि पहले गोरे अपनी प्यास बुझाएंगे। सेवा और सहयोग से परस्पर शंका और वैमनस्य रखने वालों के बीच भी प्रीति पैदा हो जाती है।

गांधीजी पर गहरा असर

युद्ध का मुख्य भाग 1900 में पूरा हो गया। इंगलैण्ड से प्रशिक्षित यूनिट पहुंच गई। ब्रिटिश की क़िस्मत चमक गई। लेडीस्मिथ, किंबरली और मेफ़ेकिंग का छुटकारा हो गया। जनरल क्रोन्जे पारडीबर्ग में हार चुके थे। बोअरों ने ब्रिटिश उपनिवेशों का जितना भाग जीत लिया था वह सब ब्रिटिश सल्तनत को वापस मिल चुका था। लार्ड किचनर ने ट्रांसवाल और ऑरेंज फ़्री स्टेट को भी जीत लिया था। अब कुछ बाक़ी था तो केवल गुरीला युद्ध! बोअर्स, हालांकि पूरी तरह से पराजित हो चुके थे, लेकिन हार स्वीकार करना पसंद नहीं करते थे। मार्टिनस स्टेन (फ्री स्टेट के राष्ट्रपति) द्वारा उकसाए जाने पर, लुइस बोथा, डे वेट और डे ला रे ने गुरिल्ला दल का गठन किया और लड़ाई जारी रखी। जान स्मट्स भी उनके साथ शामिल हो गए और जल्द ही 'हिट एंड रन' रणनीति में माहिर हो गए। गुरिल्ला लड़ाई डेढ़ साल तक चली और अंग्रेजों ने इसे युद्ध का एक बेहद कठिन दौर माना। अंततोगत्वा अंग्रेजों ने विजय हासिल की विजयी अंग्रेजों ने जित हासिल करने के लिए पूरी तरह से क्रूर तरीके अपनाए।

युद्ध के मैदान में गांधीजी के अनुभव ने उनके व्यक्तित्व पर अपनी छाप छोड़ी। बन्दूकें, हिंसा, माराकाटी, जख़्मों से बहते ख़ून, ख़ाली मैदान, आकाश और वहां चमकते सितारे, हर चीज़ ने गांधीजी पर गहरा असर डाला। हजारों विचार उनके दिमाग को मथने लगे। कई बार उन्हें लगता कि ‘सत्य’ के ऊपर जो आवरण-सा पड़ा था, यह सब देखकर कुछ-कुछ हटने लगा था। उन्होंने देखा कि ज़िन्दगी और मौत का अटूट साथ है। ‘मौत’ नए जीवन की शुरुआत है। युद्ध का असली कारण मनुष्य की लालसा है। यदि मनुष्य की आत्मा को मुक्ति दिलानी है तो इस लालसा पर विजय प्राप्त करनी होगी। उन्होंने यह विचार करना शुरु किया कि वे अपने स्वयं की लालसा से कैसे मुक्ति पाएं जिससे वे निर्द्वन्द्व होकर मानव सेवा कर सकें।

बोअर युद्ध भारतीयों के लिए एक नया अनुभव था, उनके अन्दर यह भावना मजबूत हुई कि उन्होंने अपने देश के प्रति अपना कर्तव्य निभाया है। लेकिन जो खास बात थी वह यह कि बोअर, जो अंग्रेजों की तुलना में मुट्ठी भर लोग थे, ने एक बड़े साम्राज्य की ताकत को चुनौती दी थी और बहादुरी, दृढ़ संकल्प और आत्म-बलिदान का परिचय दिया था। इसके अलावा, यह भावना केवल पुरुषों द्वारा ही नहीं, बल्कि महिलाओं और बच्चों द्वारा भी प्रदर्शित की गई थी। बहादुर बोअर महिलाओं ने लड़ाई में भी हिस्सा लिया और जब वे ऐसा नहीं कर सकीं तो उन्होंने अपने पतियों और बेटों को अपने देश और अपनी स्वतंत्रता के लिए लड़ने और मरने के लिए प्रोत्साहित किया। महिलाओं और बच्चों ने कठिनाइयों का सामना किया, लेकिन अपने पुरुषों से संघर्ष बंद करने के लिए नहीं कहा। गांधीजी ब्रिटिश यातना शिविरों में बोअर स्त्रियों की सहनशक्ति से अन्दर तक हिल गए और ब्रिटिश जनता की प्रतिक्रिया से प्रभावित हुए। बाद में उन्होंने लिखा था, जब यह करूँ पुकार इंग्लैण्ड पहुंची तो अँग्रेज़ जनता को गहरा कष्ट हुआ। वह बोअरों की बहादुरी की सराहना कर रही थी। श्री स्टीड ने सार्वजनिक रूप से प्रार्थना की और दूसरों को भी ऐसी प्रार्थना करने के निमंत्रण दिया की ईश्वर युद्ध में अंग्रेजों को शिकस्त दे। यह एक अद्भुत दृश्य था। बहादुरी से सहे गए वास्तविक कष्ट पत्थर का दिल भी पिघला देते हैं। कष्ट या ताप में ऐसी ही शक्ति होती है। और यही सत्याग्रह का मूल मन्त्र है।

उपसंहार

बोअर युद्ध गांधीजी के लिए एक महान अनुभव था जिसने उन पर अपनी छाप छोड़ी और उनके चरित्र को आकार दिया। गांधीजी को उम्मीद थी कि युद्ध में भारतीयों की दृढ़ता दक्षिण अफ्रीका की निष्पक्षता की भावना को आकर्षित करेगी और रंगीन एशियाई लोगों के प्रति श्वेत शत्रुता को कम करने में मदद करेगी। शायद दोनों समुदाय धीरे-धीरे एक-दूसरे के करीब आ जाएंगे। गांधीजी के पास खुद कोई आक्रामकता नहीं थी और दक्षिण अफ्रीका में आगे न कोई योजना थी, न ही महत्वाकांक्षा। लेकिन फिर भी नेतृत्व और संघर्ष वहां उनका इंतजार कर रहा था।

***         ***    ***

मनोज कुमार

 

पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद

संदर्भ : यहाँ पर