गांधी और गांधीवाद
ईश्वर इतना निर्दयी व क्रूर नहीं है जो पुरुष-पुरुष और स्त्री-स्त्री के मध्य ऊंच-नीच का भेद करे। - महात्मा गांधी
61. हरी पुस्तिका
जुलाई-अगस्त 1896 … राजकोट में
प्रवेश
अपनी भावी रणनीति को अंजाम देने के लिए गांधीजी ने राजकोट को
मुख्यालय बनाया। सबसे प्रमुख काम उनके समक्ष था उस पुस्तिका का प्रकाशन, जिस पर
उन्होंने दक्षिण अफ्रीका से कलकत्ते की यात्रा के दौरान काम किया था। गांधीजी ने
दक्षिण अफ़्रीका के प्रवासी भारतीय की समस्या पर पुस्तिका को अंतिम रूप दिया। इस
काम में उन्हें लगभग एक महीने का वक़्त लग गया।
पुस्तिका प्रकाशित की
14 अगस्त 1896 को राजकोट में
अपने पैतृक निवास से उन्होंने यह पुस्तिका निकाली जिसका शीर्षक था “The Grievances of the British Indians in South Africa, An Appeal
to the Indian Public.’’ (दक्षिण अफ्रीका
में ब्रिटिश भारतीयों की शिकायतें, भारतीय जनता से
एक अपील)। इसमें प्रवासी भारतीयों की दुर्दशा
का विवरण था। उन्होंने दक्षिण अफ़्रीका में प्रवासी भारतीयों के साथ हो रहे
दुर्व्यवहार को देखा था एवं एक साम्राज्यवादी नीति का विरोध वे ज़रूरी मानते थे।
उन्होंने इस पुस्तिका में लिखा कि दक्षिण अफ़्रीका में हमारी क्रियाविधि है घृणा को
प्रेम से जीतने की। इस पुस्तिका में वही बातें थी जो गांधीजी ने नेटाल से प्रकाशित अपनी ही
पुस्तिकाओं में लिखी थी। नेटाल में उन्होंने ‘एन अपील टू एवरी ब्रिटेन इन साउथ अफ़्रीका’ (54. नया फ्रैंचाइज़ अधिनियम) और ‘दि इंडियन फ़्रेंचाइज़ : एन अपील’ लिखी थी। लेकिन राजकोट में लिखी गई इस पुस्तिका में बहुत ही
सावधानीपूर्वक लिखा गया विवरण था। इसमें न सिर्फ़ व्यापारी बुद्धिजीवी वर्ग का
बल्कि गिरमिटिया मज़दूरों की वस्तुस्थिति का भी खुलासा किया गया था। पुस्तिका में
दक्षिण अफ़्रीका के भारतीयों की स्थिति का चित्रण उन्होंने जान-बूझ कर नरम भाषा में
किया था, लेखन में कटुता और अतिशयोक्ति का लवलेश न था। उनके अनुसार छोटा सा
दुख भी दूर से देखने पर बड़ा मालूम होता है। इसलिए प्रवासी भारतीयों का दुख बढ़ा-चढ़ा
कर नहीं कुछ कम करके ही बताया गया था। गांधीजी ने कहा भी था, "इस पुस्तिका में दिए गए प्रत्येक कथन के प्रत्येक शब्द को
बिना किसी संदेह के स्थापित किया जा सकता है।"
बच्चों की मदद
आसानी से उपलब्ध उपायों द्वारा खर्च को कम करने तथा उपेक्षित
संसाधनों का प्रभावी उपयोग करने की गांधीजी की क्षमता बहुत काम आई। पुस्तिका तो प्रिंट हो गयी थी पर इसकी ज़िल्दसाज़ी एवं बंधाई के लिए
आवश्यक राशि न जुटा पाने के कारण उन्होंने बच्चों की मदद से इसकी सिलाई करा दी और
एक हरे काग़ज़ से इस पर कवर चढ़ा दिया। फलतः इसका नाम पड़ा “ग्रीन पम्फलेट” ! यह ब्रिटिश हुक़ूमत के ख़िलाफ़ गांधीजी की पहली आवाज़ थी। इसकी 10,000 प्रतियां
बनवाकर स्थानीय बच्चों के द्वारा वितरित किया गया। पहला संस्करण जल्द ही ख़त्म हो
गया, इसलिए दूसरा भी
छपवाना पड़ा। इस बीच पश्चिम के प्रेस में गांधीजी की इस पुस्तिका को लेकर काफी
विवाद सामने आया। इसकी चर्चा हम आगे करेंगे, लेकिन गांधीजी ने इन
बेबुनियाद दावों को चुनौती दिए बिना नहीं छोड़ा। उन्होंने "ग्रीन
पैम्फलेट" के दूसरे और विस्तृत संस्करण में एक जोरदार जवाब शामिल किया, जिसमें दक्षिण अफ्रीकी प्रेस और सरकारी रिपोर्टों के भरपूर अंश शामिल
किए गए।
पहली बार उन्होंने इस तरह के कामों के लिए बच्चों को लगाया था।
परिवार के बच्चों को गांधीजी बहुत अच्छे लगते थे। गांधीजी को भी बच्चों से काम
करवाना सहज लगता था। बाद में ऐसे कामों के लिए वे बच्चों पर बहुत निर्भर रहने लगे।
बच्चे बहुत उत्साही जो होते हैं। बच्चों को ऐसा काम करने में आनंद आता है। इस तरह
के काम मिलने पर वे सोचते हैं कि अब वे जिम्मेदार हो गए हैं। गांधीजी गोंद और डाक
टिकट ख़रीद लाए। उन्होंने बच्चों से कहा कि पत्रों को सफ़ाई से मोड़कर लिफ़ाफ़े पर डाक
टिकट लगाएं। बच्चों ने इस काम को लगन और उत्साह से किया। जब सब लिफ़ाफ़े तैयार हो गए
तो उन्होंने बड़े बच्चों से कहा, “अब आप लोग लिफ़ाफ़ों पर पते लिखिए और सारे पत्र डाक में डाल दें।” बच्चों ने जल्दी से सारे काम कर डाले। बच्चों को पारिश्रमिक के तौर पर
व्यवहृत डाक टिकट दिए गए, जो गांधीजी अपने पास रखते थे। बाद में वहां के बच्चों में डाक टिकट
संग्रह की रुचि जगी। यह तो बस शुरुआत थी। लड़के और लड़कियाँ स्वयंसेवक धीरे-धीरे
उनके बाद के अहिंसक संघर्षों और उनकी लड़ाकू शक्ति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन गए। जिस अहिंसक संघर्ष ने बीसवीं
सदी के दूसरे-तीसरे दशक में भारत के सार्वजनिक जीवन में क्रांति ला दी।
पुस्तिका खूब प्रसिद्ध हुई
इस पुस्तिका की प्रतियां भारत
और इंग्लैंड के समाचारपत्रों को, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सभी महत्वपूर्ण व्यक्तियों को, अधिकारियों को, और उन सभी व्यक्तियों को भिजवाई गई, जिनके बारे में समझा गया कि उन्हें
इस सम्बन्ध में रुचि होगी। दक्षिण अफ़्रीका में प्रवासी भारतीयों के विषय में इसके
प्रचार से लोगों को बहुत जानकारी मिली। यह पुस्तिका खूब प्रसिद्ध हुई और देश में लोग
गांधीजी और अफ्रीका के हिन्दुस्तानी समाज को जानने पहचानने लगे। इस किताब ने हलचल मचा दी। दोनों देशों के समाचार पत्रों ने सम्पादकीय
लिखे। ‘द पायोनियर’ पहला अखबार था जिसने इस विषय पर अपनी सम्पादकीय टिप्पणी ज़ारी की। पायोनियर ने
शिकायतों को स्वीकार करते हुए यह मत व्यक्त किया कि यह प्रश्न “स्वशासित उपनिवेश
के मामले में अत्यंत जटिल है।” इसने उच्च वर्ग के भारतीयों
को इन परिस्थितियों में दक्षिण अफ्रीका से दूर रहने की सलाह दी।
तोड़ी-मड़ोरी रिपोर्ट नेटाल पहुंची
गांधीजी के कार्यों और भाषणों
की तोड़ी-मड़ोरी रिपोर्ट नेटाल पहुंच गई। इस प्रकार यह विषय लोगों की नज़र में पूरी
तरह आ गया। रायटर ने इसका सारांश लंदन भेज दिया। उनके लंदन कार्यालय ने एक चार
पंक्तियों का तार नेटाल भेजा था। जो सारांश नेटाल पहुंचा, वह शब्द, शैली और संदर्भ में मूल से बहुत भिन्न हो गया थ। नेटाल के समाचारपत्रों ने इसे
प्रमुख स्थानों पर छापा। वह तार इस प्रकार था,
“14
Semptember. A pamphalet published in India declares that the Indians in Natal
are robbed and assaulted, and treated like beasts, and are unable to obtain
redress.’’ (14 सितम्बर। भारत में छपी एक
पुस्तिका में कहा गया है कि नेटाल में भारतीयों को लूटा जाता है,
उनपर हमले किए जाते हैं और उनके साथ जानवरों जैसा
बर्ताव होता है, जिसकी
कोई दाद-फ़रियाद नहीं।)
गांधीजी ने आरोपों का जवाब दिया
गांधीजी
ने अपने ऊपर लगाए गए आरोपों का जवाब दिया। टाइम्स ऑफ इंडिया को लिखे पत्र में
गांधीजी ने इस बात से इनकार किया कि उन्होंने कभी कहा था कि नेटाल में भारतीयों को
कभी भी कानूनी अदालतों में न्याय नहीं मिला। "मैंने कभी नहीं कहा कि भारतीयों
को कानूनी अदालतों में न्याय नहीं मिलता, न ही मैं यह मानने के लिए तैयार
हूं कि उन्हें हर समय और हर अदालत में न्याय मिलता है।"
उपसंहार
वास्तव में, "हरी पुस्तिका"
भारतीय स्थिति का एक शांत और तर्कपूर्ण बयान था,
जिसमें
विधान सभा को लिखे गए उनके खुले पत्र में वर्णित विषयों के समान ही बातें कही गई
थीं, तथा प्रायः उन्हीं शब्दों का प्रयोग किया गया था।
दुर्भाग्यवश, जब गांधीजी की बातों और विचारों में भारतीयों की दिलचस्पी अपने चरम
पर थी, रॉयटर ने उनके भाषण का एक अत्यंत भ्रामक सारांश इंग्लैंड को भेज दिया। गांधीजी के
जीवनीकार जोसेफ डोक कहते हैं, इस सारांश में कुछ सच्चाई थी, लेकिन यह पूरी
सच्चाई नहीं थी, और “जो झूठ आधा सच है वह हमेशा सबसे काला झूठ होता है।” रॉयटर ने ख़ास
मामलों के बयानों का सामान्यीकरण किया था। गांधीजी द्वारा उल्लिखित कुछ
घटनाओं को नेटाल में भारतीयों की सामान्य स्थिति के रूप में प्रस्तुत किया गया था। वक्ता, गांधीजी
को, एक उग्र
आंदोलनकारी बताया गया, जो साम्राज्य के लिए खतरा था। ‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ ने एक आलेख निकाला। इस अखबार ने एक सार्वजनिक जांच की मांग की। नेटाल
के गोरे गांधीजी की गतिविधि से जल-भुन गए। उन्हें सबसे ज़्यादा यह बात खली वह यह थी
कि ‘द
पायोनियर’ जैसा साम्राज्यवादी समाचार पत्र भी गांधीजी की बातों में आ गया था।
*** *** ***
मनोज
कुमार
संदर्भ :
1 |
सत्य के प्रयोग – मो.क. गाँधी |
2 |
बापू के साथ – कनु गांधी और आभा
गांधी |
3 |
Gandhi Ordained in South
Afrika – J.N. Uppal |
4 |
गांधीजी एक महात्मा की संक्षिप्त जीवनी – विंसेंट शीन |
5 |
महात्मा गांधीजीवन और दर्शन – रोमां रोलां |
6 |
M. K. GANDHI AN INDIAN PATRIOT
IN SOUTH AFRICA by JOSEPH J. DOKE |
7 |
गांधी एक जीवनी, कृष्ण कृपलानी |
8 |
गाांधी जीवन और विचार - आर.के . पालीवाल |
9 |
दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास,
मो.क. गाँधी |
10 |
The Life and Death
of MAHATMA GANDHI by Robert
Payne |
11 |
गांधी की कहानी - लुई फिशर |
12 |
महात्मा गाांधी: एक जीवनी - बी. आर. नंदा |
13 |
Mahatma
Gandhi – His Life & Times by:
Louis Fischer |
14 |
MAHATMA Life of
Mohandas Karamchand Gandhi By:
D. G. Tendulkar |
15 |
MAHATMA GANDHI
By PYARELAL |
16 |
Mohandas A True
Story of a Man, his People and an Empire – Rajmohan Gandhi |
17 |
Catching
up with Gandhi – Graham Turner |
18 |
Satyagraha – Savita Singh |
पिछली
कड़ियां- गांधी और गांधीवाद
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