गुरुवार, 31 दिसंबर 2009

आ गया है साल नूतन

मित्रों आज चौपाल का दिन है! किन्तु नव वर्ष के स्वागत में चौपाल का ये सर्व सम्मत निर्णय है कि हम सब मिल कर नव वर्ष के अभिनन्दन में दिल खोल दें ! तो आज से हम शुरू कर रहे हैं नव-वर्ष 2010 की अगवानी जो चलेगी आगामी कुछ दिनों तक ! लीजिये नए साल की पहली सलामी !!!


-- मनोज कुमार

आ गया है साल नूतन, ख़ुशियों की सौगात लेकर,

करें इसका मिलके स्वागत जोश और ज़ज़्बात लेकर।

याद मन में अपने कर लें, मुस्कुराते बीते कल को

उम्र-भर रोना नहीं, बिगड़े हुये हालात लेकर।

आओ नज्मों में मिला लें, सबसे मीठी प्रेम-भाषा,

हो ग़ज़ल कामिल हर शै, क़लम और दावात लेकर।

दुनिया में बस हो मोहब्बत, प्यार में विश्वास अपना,

स्नेह का आँचल लिए, आये घटा बरसात लेकर।

हो न मैली जग की चादर, मन-चमन ऐसे बुहारें,

साल का हर सुबह आये, चैन-ओ-अमन की रात लेकर।

हो न उनसे वास्ता, जिनकी फितरत हो दबी सी,

तिरछे-आड़े जो चलें, शतरंज की बिसात लेकर।

मिल-जुल रहें मनोज सब, हो प्यार का अहसास हरदम,

दो हज़ार दस है आया, उम्मीद की बारात लेकर।

*** ***

चौपाल के पाठकों को नव वर्ष 2010 की ढेर सारी शुभ कामनाएँ !

बुधवार, 30 दिसंबर 2009

देसिल बयना - 12 : लंक जरे तब कूप खुनाबा



-- करण समस्तीपुरी

हैलो जी ! पहिचाने नहीं...? हा..हा..हा... उ का है कि आज हमरा इस्टाइल थोड़ा बदल गया है न... । अब हमें भी जरा शहर की हवा लग गयी है। अब हम बात-बात पर खाली कहवाते कहने वाले छूछ देहाती ना रहे.. । का बताएं.... सब दिन तो गांवे में रहे। लेकिन ई दफे बड़ा दिन का छुट्टी मनाने आ गए बेंगलूर। इसको कौनो ऐसा-वैसा छुटभैय्या शहर नहीं बूझिये। बहुत बड़का शहर है... पटनो से बड़ा...। समझिये कि बम्बैय्ये के जोड़ का ... ! हे.... इन्ना बड़ा-बड़ा मकान सब है कि का बताएं ? हम तो जैसे ही टीसन से बाहर निकल के एगो मकान देखने के लिए गर्दन को उल्टा किये कि माथा का पगरिये गिर गया। इतना इस्पीड में गाड़ी सब चलता है कि आप तो देखते ही रह जाइएगा । उ तो हम थे जो कौनो दिक्कत नहीं हुआ। और दिक्कत होगा काहे... ? आपको न हम 'घर के जोगी जोगरा' लगते हैं लेकिन बेंगलूर में हमरा बहुत जान-पहचान है। बहुते आदमी चिन्हते हैं।
बड़ा दिन यहाँ सब में का बुझाएगा...। आप लोग तो खाली नामे सुनते होइएगा... कहियो बेंगलूर आइयेगा तब देखिएगा.. कैसा होता है बड़ा दिन... ! शहर-बाजार में इतना भीड़-भार रहता है.... उतना ही सजावट... और इतना बम- फटक्का सब छूटता है कि आपको दिवालीये बुझाएगा । लेकिन ई में 'शुभ दीपावली' नहीं बोलते हैं। पर्व के नाम पर भी खीचम-खींच किये रहते हैं। ई कहेगा 'मेरी क्रिसमस' तो उहो कहेगा 'मेरी क्रिसमस'। हम कहे कि ई में लड़ाई करे का क्या जरूरत है, 'न मेरी क्रिसमस... ना तेरी क्रिसमस... सबकी क्रिसमस'।


क्रिसमस के बिहाने पिलान बना सनीमा देखने का। का सनीमा-हाल सब है ... आप तो खाली लैट-हाउस, जवाहर और अप्सरा का नाम सुने होंगे । यहाँ तो मल्टीप्लेस होता है। एगो हाल में चार-चार सनीमा एक शो में चलता है। और हाल के बाहर जो भीड़ देखिएगा तो लगेगा कि सोन्ह्पुर मेला भी फेल है। और सनीमा भी लगा हुआ था बड़ा बेजोर। अमीर खान का नया सनीमा, "थ्री इडीअट्स"। बड़ी मजेदार सनीमा है। एकदम समझिये कि खान भाई और उसका दोस्त लोग हिला के रख दिहिस है। आप सोच रहे होंगे कि अंग्रेजी फिलिम में हमें क्या बुझाया होगा... ? है मरदे ! सनीमा का खाली नामे है अंग्रेजी में, बांकिये पूरा सनीमा तो हिंदिये में है। हा..हा... हा... !!

ई सनीमा में एगो अमीर खान रहता है और दू गो उका दोस्त। तीनो बड़का कमीना रहता है। लेकिन तिन्नो इंजीनियरी का पढाई करता है। उस इंजीनियरी कालेज का डायरेक्टर रहता है भारी खडूस। ई तीनो को देखना नहीं चाहता है। और अमीर खान ससुरा इतना खच्चर के गिरह कि डायरेक्टर के छोटकी बेटीए को पटा लेता है। एक बात है, ई तीनो लड़का ऊपर-झापर से शैतानी करता है लेकिन दिल का एकदम हीरा है, हीरा। और समझिये कि जरूरत पड़े तो किसी के मदद के लिए अपना जान भी दे दें।

तो सनीमा में का होता है कि वही डायरेक्टर की बड़की बेटी को प्रसव होने वाला रहता है। एकदम आखिरी टाइम। लेकिन वर्षा कहे कि हम आज छोड़ेंगे ही नहीं। आसमान फार के सो मुसलाधार बरसने लगा कि रोड सब पर भर-भर छाती पानी लग गया। और वही में डायरेक्टर की लड़किया को प्रसव पीड़ा शुरू हो गया। गाड़ी-घोड़ा कुछ नहीं। संयोग से डायरेक्टर की छोटकी बेटी डाक्टरनी थी लेकिन उहो संग में नहीं। अब डायरेक्टर साहेब परेशान। तभिये ई तिन्नो लड़का वहाँ पहुँच गया। वर्षा में उको लेके कहाँ जाए ? कालेजे में उठा-पुठा कर लाया। अब उकी डाक्टरनी बहिनिया फ़ोन और कम्पुटर पर बताये लगी... ऐसे करो। वैसे करो। इधर दबाओ। उधर से उठाओ। समझिये कि लड़का सब पढाई किहिस इंजीनियरी का और करे लगा डाक्टरी। सब कुछ किया लेकिन प्रसव नहीं हुआ। फेर उ डाक्टरनी कहिस कि 'वेकुम' देना पड़ेगा। अब अमीर खान पूछा कि "ई वेकुम का होता है जी ?" तब उ कहिस कि 'ई ऐसा-ऐसा मशीन होता है बच्चा को बाहर खीचे का।' आमीर खान कहिस, "धत तोरी के ! ई कौन बड़का बात है ? हम तो इंजीनियरी का विद्यार्थिये हैं। ई मशीन तो हम तुरते बना देंगे।"

और ससुर लगा मशीन बनाए। ये लाओ, वो लाओ। और उधर उ बेचारी दरद से अधमरी बेसुध छट-पटा रही है। हमरे तो इतना गुस्सा आया कि क्या बताएं। उधर उ बेचारी प्रसव-पीड़ा से मर रही है और ई कमीना सब मशीने बना रहा है। इसी को कहते हैं कि "लंक जले तब कूप खुनाबा"। भोज के वक्त में कहीं दही जमाया जाता है ? लेकिन एक बात है। अमीर खान का दिमाग साला रॉकेट से भी फास्ट चलता था। और था पकिया इंजिनियर। झटपट में मशीन बना कर तैयार कर दिया। इतना ही नहीं... ऐन मौका पर लाइन चला गया तो चट-पट में एगो 'इनवर्टर' भी बना लिया। फेर उ बेचारी का प्रसव करवाया। तब सब का मन प्रसन्न हुआ।

लेकिन हम सोचे लगे कि उ तो अमीर खान पहिले से कुछ जोगार कर के रक्खा हुआ था तब ऐन मौका पर मशीन बना लिया। लेकिन बड़का पंडित रावण ब्रहमज्ञानी। सोचा कि बगल मे समुद्र हैये है। पानी का काम चलिए जाएगा। काहे खा-म-खा सोना के लंका को खुदवा कर मिटटी निकलवाएँ। ससुर पूरा लंका में एक्को कुआं-तालाब नहीं खुदवाया। और जब हनुमान जी लंका में आग लगा दिए तो सब घड़ा-बाल्टी लेके इधर-उधर दौड़े लगा। सब घर द्वार धू-धू कर के जलने लगा तब जा के रावण जल्दी-जल्दी कुआं खोदने का आर्डर दिया। जब तक कुआं खुनाए तब तक तो लंका-दहन हो चुका था। तभी से ई कहावत बना कि "लंक जले तब कूप खुनाबा"। मतलब कि जरूरत एकदम सिर पर सवार हो गया हो तो चले उसके समाधान का रास्ता खोजने। ऐसा नहीं होना चाहिए। रास्ता पहिले खोज के रखिये नहीं तो जरूरत के समय 'ठन-ठन गोपाल' हो जाएगा। समझे !!! आप 'लंक जले तब कूप खुनाबे' नहीं जाइयेगा।

*** ***

आने वाले वर्ष की मंगल कामनाएँ !


मंगलवार, 29 दिसंबर 2009

अमरलता

अमरलता

--- --- मनोज कुमार


हे अमरलता !

हे अमरबेल !


दिखने में कोमल पर क्रूर,

चूसे पादप को भरपूर,

टहनी-टहनी, डाली-डाली,

छिछल रही है तू मतवाली,

री ! परजीवी

खेल रही तू,

शोषण का

व्यापक यह खेल।

हे अमरलता !

हे अमरबेल !


ना जड़ है, ना पत्र पुहुप,

वृष्टि शीत या गृष्म धूप,

फैली शाखाएँ चहूं ओर,

दिखे न तेरा ओर-छोर,

उसका ही

करती विनाश,

करती जिससे

तू हेल-मेल।

हे अमरलता !

हे अमरबेल !


ना औषधि है, कोई खाद्य,

तू प्रकृति विनाशनि शक्ति आद्य,

शोषक का जग में क्या उपयोग?

बस भोग, निरन्तर भोग, भोग,

बढ़ते हैं

जग मे वही आज,

जो देते

औरों को धकेल।

हे अमरलता !

हे अमरबेल !



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आने वाले नए वर्ष की मंगल कामनाएँ !

सोमवार, 28 दिसंबर 2009

शांति का दूत


लघुकथा शांति का दूत

--- --- मनोज कुमार

साइबेरिया के प्रदेशों में इस बार काफी बर्फ पड़ रही थी। उस नर सारस की कुछ ही दिनों पहले एक मादा सारस से दोस्ती हुई थी। दोस्ती क्या हुई, बात थोड़ी आगे भी बढ़ गई। इतनी बर्फ पड़ती देख नर सारस ने मादा सारस को अपनी चिंता जताई हमारी दोस्ती का अंकुर पल्लवित-पुष्पित होने का समय आया तो इतनी जोरों की बर्फबारी शुरू हो गई है यहां .. क्या करें ?” मादा सारस ने सुझाया सुना है ऋषि मुनियों का एक देश है भारत ! वहां पर चलें तो हम इस मुसीबत के मौसम को सुखचैन से पार कर जाएंगे।

दोनों हजारों मीलों की यात्रा तय कर भारत आ गए। यहां का खुशगवार मौसम उन्हें काफी रास आया। मादा सारस ने अपने नन्हें-मुन्नों को जन्म भी दिया। यहां के प्रवास के दौरान उनकी एक श्वेत-कपोत से मित्रता भी हो गई। श्वेत-कपोत हमेशा उनके साथ रहता, उन्हें भारत के पर्वत, वन-उपवन, वाटिका, सर-कूप आदि की सैर कराता।

धीरे-धीरे समय बीतता गया। सारस के अपने प्रदेश लौटने का समय निकट आता गया सारस-द्वय अपने नन्हें सारसों के साथ यहां काफी खुश थे, न केवल श्वेत-कपोत की मित्रता से बल्कि आने वाले पर्यटकों से भी। एक दिन सुबह-सुबह सारस-द्वय अपने स्थानीय मित्र श्वेत-कपोत के साथ झील की तट पर अपना प्रिय आहार प्राप्त करने गए। भोजन को मुंह में दबा पंख फैलाकर उड़ान भरने की कोशिश की, पर उड़ न पाए। परदेशी सारस के साथ स्थानीय श्वेत-कपोत भी शिकारी की जाल में फंस गए।

श्वेत-कपोत की आंखों से आंसू टपक पड़े। उसे स्वयं के जाल में फंस जाने का दुख नहीं था, उसके लिए यह तो आम बात थी। सारस-द्वय के लिए उसे दुख तो था, पर उतना नहीं जितना इस बात के लिए कि वे दोनो बच्चे जो बच गए हैं, अब लौट कर अपने वतन जाएंगे और वहां के लोगों से कहेंगे ऋषि-मुनियों का देश अब शांत नहीं रहा। हम कहीं और चलें। अब फिर वे यहां नहीं आएंगे।

.. .. पता नहीं अपने-अपने प्रदेश के लिए कौन शांति का दूत है .. ?

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आने वाले नए वर्ष की मंगल कामनाएँ !

रविवार, 27 दिसंबर 2009

है अमर कवि की वाणी

-- करण समस्तीपुरी
"कुछ रज कण ही छोड़ यहाँ से चल देते नरपति सेनानी !
सम्राटों के शासन की भी रह जाती संदिग्ध कहानी !!
रह जाती हैं जंग लगी, वीर-सूरमाओं की तलवारें !
पर है युगों-युगों तक, अमर कवि की वाणी !!"
इस सप्ताहांत में लम्बी छुट्टी मिली। सप्ताह के पाँच दिन तक कार्यालयी मशीन बने रहने के बाद दो दिन मनुष्य की तरह जीने का अवसर मिलता है। सुबह देर तक सोना... दो-तीन अखबारात की हर एक ख़बर के साथ दो-तीन कप चाय की चुस्कियां। फिर बुद्धू-बक्से के उबाऊ कार्य-क्रम भी बड़े चाव से देखना। स्नान में चिरपरिचित आलस्य.... कभी तो जल संरक्षण के नाम पर बिना नहाए ही दो-दिन काट लेना। दिन भर में दो-तीन बार छक कर तर माल पर हाथ फेरना। फिर बड़े गर्व से उदर पर हाथ फेरते हुए मुड़े-तुड़े बिछावन पर इस शान से बैठना....तुर्रा अकबर-ए-आजम तख़्त-ए-हिन्दुस्तान पर आसीन हो रहे हों। फिर कुछ नीन्द की झाप्पियों के बीच अपने पास फुर्सत ही फुर्सत होती है.... और इस फुर्सत में मेरे हमनसीब होते हैं, वर्षों पुरानी डायरी और गिफ्ट या किसी से टिप कर लिए क़लम, जिससे मैं उस पुरानी डायरी के सफेद पन्नो को उसके कवर की तरह ही काला किया करता हूँ।

यह सप्ताहांत भी अपने पुराने ढर्रे पर शुरू हुआ। क्रिसमस की छुट्टी मिला कर यह तीन दिनों का हो गया था। चाय- अखबार के बाद हस्बेमामूल छोटे परदे का परदा अपनी अँगुलियों के इशारे पर बदलने लगा। छोटे-बड़े नेताओं की क्रिसमस की बधाइयां, फिल्मी सितारों का फेवरिट क्रिसमस केक, फेवरिट क्रिसमस डेस्टिनेशन, क्रिसमस शौपिंग से लेकर हर रंग, साइज और डिजाईन के संता टीवी-स्क्रीन पर मंडरा रहे थे। जीसस के जन्म-दिन का मुबारक मौका था। २५ दिसंबर। इस दिन को शत-शत नमन। यह दिन एक और विभूति के जन्म का साक्षी है।

अटल बिहारी वाजपेयी। २५ दिसंबर १९२४ को ग्वालिअर में जन्मे अटल बिहारी वाजपेयी तीन बार भारत के प्रधान मंत्री बने। दशकों तक भारतीय राजनीति के एक ध्रुव के शिखर पर विराजमान रहे। देश और विदेशों में भी सम्मानित श्री वाजपेयी की उपलब्धियों की फेहरिस्त में 'पोखरण परमाणु परीक्षण', 'लाहौर घोषणा-पत्र, 'कारगिल विजय' की मुहर लगी है। लेकिन अधिकाँश चैनलों पर 'कवि अटल' को ही याद किया जा रहा था। लगभग हर खबरिया चैनल पर अटल जी की कवितायें गूंज रही थी। तो बरबस मुझे एक भूली-बिसरी कविता की पंक्तियाँ याद आने लगी, " है युगों-युगों तक अमर कवि की वाणी !" सच में अटल की विदेश-नीति से भले कोई इत्तेफ़ाक़ न रखे पर "आओ मन की गांठे खोलें...." पर किसी को ऐतराज नहीं। लाहौर-यात्रा भले किसी को ना जंची हो पर "अपने मन से ही कुछ बोलें...." तो सबको पसंद है। "कारगिल-युद्ध" की भले ही चाहे जितनी आलोचना हुई हो पर हर कोई गीत नया गुनगुना उठा था,
"हार नही मानूंगा ! रार नही ठानूंगा !!
काल के कपाल पर, लिखता हूँ ! मिटाता हूँ !!
गीत नया गाता हूँ !!"

आख़िर मेरा यकीन और पक्का हो गया। विश्व के विशालतम लोकतंत्र के शिखर पुरूष पर एक 'कवि' की छवि हावी थी। लेकिन आज यह कहने में मुझे कुछ संकोच हो रहा है। मित्रों ! आज है, २७ दिसंबर। शायर-ए-आजम ग़ालिब का जन्मदिन। बात-बात पर उर्दू व हिन्दी के अदीब जिस 'ग़ालिब' के अश'आर मिसाल में पेश करते हैं, उनके लिए आज उन्ही की एक शे'र मुफीद है,
"हम भूल गए उसकी विरासत को दोस्तों !
बड़ा बेगाना हुआ ग़ालिब अपने ही शहर में !!"

फिर भरोसा हुआ कि कौन कहता है कि ग़ालिब नही है ? आज हम उन्हें याद भी करते हैं तो उन्ही के अलफ़ाज़ में। सच में, "है युगों-युगों तक अमर कवि की वाणी !" यूँ तो अभी अपन फुर्सत में भी है और फुरक़त में भी। लेकिन एक 'आधुनिक सामजिक प्राणी' की तरह 'नव वर्ष' के अभिनन्दन की तैय्यारी भी करनी है। लेकिन पहले इस साल को विदाई भी तो देनी है। तो आईये हम 'कवि अटल' की कविता के साथ ही इस वर्ष को सबसे पहली विदाई दे दें !

झुलसाता जेठ मास !
शरद चाँदनी उदास !!
सिसकी भरते सावन का
अंतर्घट रीत गया !
एक बरस बीत गया !!

सींकचों में सिमटा जग !
किंतु विकल प्राण विहग !!
धरती से अम्बर तक,
गूँज मुक्ति गीत गया !!
एक बरस बीत गया !!

पथ निहारते नयन !
गिनते दिन, पल, छिन !!
लौट कभी आएगा,
मन का जो मीत गया !!
एक बरस बीत गया !!
-- अटल बिहारी वाजपेयी
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शनिवार, 26 दिसंबर 2009

दिल से लिखी गई रचना

-- मनोज कुमार
हम जैसे मध्यमवर्गीय परिवार में जीने वालों को और खासकर जिनका साहित्य से लगाव हो, विभिन्न प्रकार की समस्यायों का सामना करना पड़ता है। हम कई चीज़ों से तालमेल बिठाते हुए लेखन कार्य कर पाते हैं। दफ़्तर का कामकाज, उसका दवाब तो रहता ही है। सृजन करने की आकांक्षा में कई सोच-विचार भी मन में साथ-साथ चलते रहते है। पत्नी, बच्चे, घर की जिम्मेदारियां, इन सबसे लड़ते-उबरते जो समय बच पाता है, उसमें उतना लिख पाना संभव नहीं होता, जितना मन करता है। लिखने के लिए जो शांति चाहिए, जितना धैर्य चाहिए, उसे बटोरने में ही आधी ऊर्जा निकल जाती है। फलस्वरूप अंदर की छटपटाहट और बढ़ जाती है। हो सकता है घर के लोग हमारी इन आदतों से तालमेल बिठा चुके हों, पर अपनी तो लड़ाई ज़ारी ही रहती है, शायद अपने भीतर को तत्वों से।

कई पुस्तकें महीनों पड़ी रह जाती हैं। पढ़ने का समय ही नहीं मिलता। बिना पढ़े कुछ लिखने की प्रेरणा ही नहीं मिलती। कहीं मैंने पढ़ा था कि 10 पेज लिखने के लिए 1000 पेज पढ़ना चाहिए। सच भी है। अच्छा साहित्य दिल-दिमाग दोनों पर प्रभाव छोड़ता है। यह हमारे आचार-विचार दोनों को प्रभावित करता है।

पढ़ने के क्रम में मैं पाता हूँ कि साहित्य जगत में एक ही विषय पर कई तरह के विचार होते हैं। हर रचना में उसके रचनाकार का अपना दृष्टिकोण होता है। अब सबका दृष्टिकोण एक समान तो हो नहीं सकता। कई बार जो मान्य दृष्टिकोण बन गया है, उसमें भी बीतते समय के साथ बदलाव संभव है। इस परिवर्तित होते दृष्टिकोण के कारण विवाद होता है, तर्क-वितर्क होता है। यह भी एक स्वस्थ परंपरा है। इन बहसों से शायद अंतिम मूल्य-निर्धारण न हो, पर उस दिशा में कुछ क़दम तो बढ़ ही जाता है। अपनी-अपनी रचनाधर्मिता के प्रति प्रतिबद्धता का निर्बाह हर कोई करता है।

जब हम किसी रचना के सृजन में रत होते हैं तो कई ऐसे तत्व होते हैं जो हमारी सृजन प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं, कई तो उनके जन्म का कारण ही होते हैं। जैसे हमारा अध्ययन, हमारा अनुभव, हमारे आस पास का वातावरण (सामाजिक, रातनैतिक, आर्थिक, धार्मिक, आदि), हमारे संपर्क क्षेत्र, हमारे ईर्द-गिर्द के कुछ ज्वलंत प्रश्न या समस्यायें जिनसे हम रू-ब-रू हो रहे होते हैं। ये सब हमें झकझोड़ते हैं, उद्वेलित करते हैं। फिर हमारा एक दृष्टिकोण बनता है। हम लिखते हैं। रचते हैं। अब ये कारक सबके लिए एक समान हो, ज़रूरी तो नहीं। अलग-अलग भी हो सकते हैं। तो कई बार दृष्टिकोण भी मेल नहीं खाता।

हर किसी के जीवन में कुछ न कुछ प्रेरक शक्तियां होती हैं। कुछ के लिए माता-पिता, तो कुछ के लिए गुरु। वहीं किसी के लिए हालात तो दूसरे के लिए अग्रज। कहीं न कहीं से प्रेरणा तो मिल ही जाती है। फिर जीवन में कई वास्तविकताओं से भी पाला पड़ता है। अपने अच्छे-बुरे अनुभवों से भी हम बहुत कुछ सीखते हैं। जीवन में आगे बढ़ते हैं। इस बीच हम कल्पना का अपना एक संसार भी बनाते रहते हैं। कई बार, वास्तविकता एवं कल्पना दोनों मिलकर, कुछ सृजन के कारक बन जाते हैं। सिर्फ प्रेरणा से सृजन नहीं होता। सृजन के लिए प्रयास तो स्वयं करना पड़ता है। सृजन के लिए एक संतुलित दृष्टि भी आवश्यक है। बहुधा आधुनिक समाज की अतिशय संवेदनशीलता में थोड़ी सी भी नादानी कई भारी भूल बन जाती है।

मैं प्रयास करता हूँ कि मैं जो भी रचता हूँ लोगों को यह लगे कि हमने दिल से लिखा है। और यह सिर्फ मेरे साथ होता हो, ऐसा नहीं है। मुझे तो हर किसी की हर रचना दिल से लिखी लगती है। लगता है जैसे यह उनकी वर्षों की साधना है, जीवन भर का तप है।
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शुक्रवार, 25 दिसंबर 2009

त्याग-पत्र : भाग 10

सच में समय के पंख बहुत तेज़ चलते हैं। गाँव की गोरी रामदुलारी अब पटना विश्वविद्यालय की शान थी। देश के प्रसिद्द हिन्दी आलोचकों में से एक सहाय बाबू के निर्देशन में उसका पीएच. डी. भी पूरा होने वाला था। उधर रुचिरा के मार्गदर्शन में समीर ने भी स्नातकोत्तर प्रथम वर्ष में अच्छे अंक प्राप्त किए थे। अब पढ़िए आगे !!

वुमन'स कॉलेज, पटना के नेतृत्व में आयोजित किसमस एवं वर्षांत समारोह में रामदुलारी भी विशेष आमंत्रितों में शामिल थी। शहर के चुनिन्दा गण्य-मान्य नागरिक क्रिसमस नाईट की शोभा बढ़ा रहे थे। कड़ाके की ठण्ड के बावजूद विश्वविद्यालय के नए-पुराने छात्रों का जोश देखते ही बनता था। हालांकि पटना शहर इसाई बहुल नही है, लेकिन क्रिसमस का जोश यहाँ दुनिया के किसी हिस्से से कम भी नहीं है। शायद यही तो खासियत है, क्रिसमस की, जिसे सब मनाते हैं। आज न कोई हिंदू होता है, न कोई मुसलमान...., न सिक्ख, ना इसाई..... सभी बस प्रभु इशु का जन्मदिन मनाने में अपने हृदय का सारा उदगार निकाल कर रख देते हैं। शायद ये पटना शहर की भी खासियत है कि यह हर रंग को बड़ी ही स्वाभाविकता के साथ अपनाता है।

कोहरे से आच्छादित हो रही रात्री के प्रथम प्रहर की धुंध को चीरती हुई जैसे ही किसी गाड़ी की गरगराहट और रौशनी जैसे ही मद्धिम पड़ती थी, गेट पर तैनात रात्री-प्रहरी बैजनाथ के दस्तानों से ढके हाथ यंत्रवत आगे बढ़ते और आगंतुक के प्रवेश के साथ ही पुनः गेट के साथ अपने स्थान पर लौट आते। खून जमा देने वाली सर्दी ने उसे मुंह को गलेबंद से ढंकने को मजबूर जरूर कर दिया था लेकिन वह दायें हाथ को अपने माथे से लगा आगंतुकों का स्वागत करना नही भूलता। प्रवेश द्वार से थोड़ी दूर पर ही स्वागत द्वार पर तीन छात्राओं के साथ अंग्रेज़ी विभाग की अध्यक्षा रेणुका वर्मा सभी अतिथियों को गुलाब का फूल देने में तत्पर थीं।

ऑडिटोरियम को दुल्हन की तरह सजाया गया था। बिजली के छोटे-छोटे बल्ब की रंगीनियाँ कोहरे भरी रात में भी इन्द्रधनुष का भ्रम उत्पन्न कर रहे थे। मंच पर बने विशालकाय क्रिसमस ट्री पर बिजली की सजावट से लिखा था, 'मेरी क्रिसमस'। मद्धम रौशनी वाले बल्ब से गुलजार ऑडिटोरियम के मंच के ठीक नीचे लगा हुआ बड़ा सा अलाव प्रभु इशु के जन्म-समय को बिल्कुल जीवंत बना रहा था।

अलाव के पास ही पहली पंक्ति की कुर्सियों पर वुमन'स कॉलेज की प्रिंसिपल डॉ विमला महाजन के साथ ही विराजमान थे प्रफेसर गोविन्द मित्रा, प्रफेसर भृकुटीनाथ, डॉ अक्षरा तिवारी, प्रफेसर राधा बल्लभ सहाय, डॉ विनीत चन्द्र, पटना शहर के मेयर, सैंट कैथोलिक की सिस्टर अरोमा, कई उच्चाधिकारी और कई विशिष्ट नागरिक। प्रोफेसर सहाय के ठीक पीछे वाली कुर्सी पर बैठी थी रामदुलारी और उसके दायें प्रकाश एवं बायीं ओर डॉ. रुचिरा के बगल वाली कुर्सी समीर के लिए थी।

समारोह की शुरुआत संस्थान की प्राचार्या डॉ विमला के स्वागत भाषण से हुई। फिर सिस्टर अरोमा ने क्रिसमस के महत्व से सभा को रू-ब-रू कराया। आगे की कार्रवाई के लिए माइक डॉ रुचिरा ने थाम लिया। मेयर साहब ने जैसे ही क्रिसमस केक पर प्लास्टिक की छुरी चलाई, पूरा भवन करतल ध्वनि और 'हैप्पी क्रिसमस-मेरी क्रिसमस' के समवेत निनाद से गूंज उठा। तभी मंच के पीछे से अतिथियों पर चाकलेट, गुब्बारे और फूल बरसने लगे। सबकी नजरें स्टेज की ओर। अरे ये क्या.... सीक्रेट संता तो खुल कर उपहार बाँट रहा था। लाल लिबास पर चोटी वाली लाल टोपी के नीचे लम्बी सुनहली दाढी और आंखों पर गोल चश्मा लगाए, संता स्टेज से लेकर नीचे तक खूब कलाबाजी और करतब के साथ उछल कर लोगों को प्यार का तोहफा दे रहा था। लोग समझ नही पाये कि आख़िर यह है कौन ? फिर सीक्रेट संता ने जैसे ही रुचिरा के हाथ से माइक लेकर 'जिंगल बेल...' गाना शुरू किया तब रुचिरा की आँखें फटी की फटी रह गयी। वह अब समझी कि उसके बाजू वाली कुर्सी अभी तक खाली क्यूँ थी। फिर रुचिरा ने संता की टोपी जैसे ही खीचा, एक बार फिर जोरदार ताली। लेकिन सहसा उसे विश्वास नही हो रहा था कि अमूमन गंभीर सा दिखने वाला समीर इतना अच्छा स्वांग भी कर सकता है।

समारोह में प्रकाश ने मुकेश के गाने 'मुबारक हो सबको समां ये सुहाना' पर जम कर तालियाँ बटोरी। बाद में रामदुलारी ने भी 'दिल चीज क्या है आप मेरी जान लीजिये.....' गा कर महफ़िल चुराने में कोई कसर नही छोड़ी। फिर श्रोताओं की फरमाईश पर दोनों ने एक युगल गीत, 'कौने दिशा में लेके चला रे बटोहिया....' गा कर पुरी सभा को मंत्रमुग्ध कर दिया। फिर शुरू हुआ नृत्य का दौर। सब ने जम के ठुमके लगाए लेकिन 'झुमका गिरा रे...' पर रामदुलारी का सोलो परफार्मेंस ने एक बार फिर सावित कर दिया कि विधा जो भी हो वह सब पे मीर है।

देर रात तक चल रहे कार्य-क्रम की रंगीनियाँ पूरे शबाब पर थी। लोगों में केक बांटा जा रहा था कि तभी एक भद्र पुरूष पर मदिरा देवी ने कृपा दिखानी शुरू कर दी। डॉ रुचिरा पाण्डेय की वाक्-कला से बेचारे इतने अभिभूत हुए कि उन्हें अपने हाथों केक खिलाने पार आमदा हो गए। शिष्टाचारवश रुचिरा ने मुंह के बदले अपने हाथ आगे कर दिए लेकिन सज्जन तो एकदम पसीजे हुए थे। रुचिरा जब तक कुछ समझ पाती उसके गालों पर केक मले जा चुके थे। छिटकती हुई रुचिरा के मुंह से निकल पड़ा, 'इडिअट '। फिर तो उनकी रक्तिम आंखों में सुरा-शक्ति साक्षात उतर आयीं। वह तो समीर बीच में आ चुका था वरना उन्होंने तो रुचिरा को झपट ही लिया था। फिर प्रकाश कंधे से पकड़ कर अलग ले गया तभी स्थिति कुछ सामान्य हो पायी। विमला मैडम, प्रो सहाय और कुछ अन्य लोग भी वहाँ पहुँच गए। विमला मैडम ने घटना पर खेद प्रकट करते हुए रुचिरा से माफी माँगी। समीर ने अपना रुमाल देते हुए रुचिरा को चेहरा साफ करने का संकेत किया।

कड़ाके की ठण्ड में चेहरा एवं कपड़ों पर गिरे केक को साफ़ कर अधभींगे कपड़ों में ही रुचिरा समीर, रामदुलारी और प्रकाश के साथ रात्री-भोज से पहले ही वहाँ से रुखसत हो गयी। सब का मन कसैला हो गया था। फाटक खोलते हुए गेट पर तैनात सुरक्षा-प्रहरी ने पुकारा, "रामदुलारी बबुनी, कैसन हो ? अभी चौकीदार के चेहरे पर मफलर नही था। देखते ही रामदुलारी चहक कर बोली, "अरे बैजू काका...! आप ? आप यहाँ कब से ?" "पिछले हफ्ते ही ज्वाइन किया हूँ बबुनी। और सब तो ठीक है न.... ?" "हाँ काका। अभी चलती हूँ फिर कभी मिलूंगी।" कहते हुए रामदुलारी आगे बढ़ गयी। रुचिरा और समीर पहले ही गेट पार कर उसका इंतिजार कर रहे थे। हाँ, प्रकाश उसके साथ था। सभी समीर की कार होकर चल पड़े। लेकिन महिलाओं के समान अधिकार और सामाजिक सुरक्षा की लड़ाई लड़ने वाली 'युवा-मंडली' के मन में कौन से प्रश्न कौंध रहे थे, यह उनके चेहरे पर अक्षरसः दिख रहा था।
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आगे क्या हुआ ? पढ़िए अगले हफ्ते इसी ब्लॉग पर !! अभी, 'मेरी क्रिसमस ' !!!

त्याग पत्र के पड़ाव

भाग ॥१॥, ॥२॥. ॥३॥, ॥४॥, ॥५॥, ॥६॥, ॥७॥, ॥८॥, ॥९॥, ॥१०॥, ॥११॥, ॥१२॥,॥१३॥, ॥१४॥, ॥१५॥, ॥१६॥, ॥१७॥, ॥१८॥, ॥१९॥, ॥२०॥, ॥२१॥, ॥२२॥, ॥२३॥, ॥२४॥, ॥२५॥, ॥२६॥, ॥२७॥, ॥२८॥, ॥२९॥, ॥३०॥, ॥३१॥, ॥३२॥, ॥३३॥, ॥३४॥, ॥३५॥, ||36||, ||37||, ॥ 38॥



गुरुवार, 24 दिसंबर 2009

चौपाल में अतिथि गुप्त के नवगीत

मित्रों ! आज फिर गुरूवार है और हम आपका स्वागत कर रहे हैं, चौपाल में ! आज की चौपाल में हम जिस अतिथि कवि का आह्वान कर रहे हैं, उनका नाम आपके लिए जाना-पहचाना है ! पढ़िए उदीयमान साहित्यकार श्री हरीश प्रकाश गुप्त द्वारा रचित मनमोहक नवगीत !!

नव गीत

-- हरीश प्रकाश गुप्त


किससे पूछे

कहाँ सुनाएं

बीच धार में

खड़ी नाव सी

कभी सुबह को

सोने जाती

भरी दोपहर

पड़ी छाँव सी ।


रोज खूँटती

उग-उग आती

गर्म जेठ में

खड़ी ठूँठ सी

पी-पी पानी

प्यास अधूरी

उबड़-खाबड़

पीठ उँट सी ।


कोर-कोर से

फूल और आँसू

अथ इति में है

व्यस्त अस्त सी

कोना-कोना

धूप समेटे

हंसी खुशी और

मस्त मस्त सी ।


***

बुधवार, 23 दिसंबर 2009

देसिल बयना - 11 : बिना बुलाये कोहबर गए

-- करण समस्तीपुरी

हा...हा... हा... ! हा...हा...हा..हा... !! ...हा..हा...हा... हा......... !!! अरे बाप रे बाप ! हा...हा...हा... !!!! बुध का सांझ हो गया आप लोग भी देसिल बयना का इंतिजार कर रहे होंगे..... ! हा...हा... हा.... !! लेकिन का बताएं.... मारे हंसी के दम नहीं धरा जा रहा है। हा...हा...हा....!!! बड़का भैय्या कल्हे ससुराल से आये हैं सांझ में ऐसन किस्सा सुनाये कि हंसी रुकिए नहीं रहा है। हा...हा....हा....हा..... !!

पछिला हफ्ता बड़का भैय्या गए रहे ससुराल, अपने मझिला साला के बियाह में ..हा... हा.... भगवान सब का घर आवाद करें। भैय्या का साला बेचारा सोलहो सोमवारी का व्रत रखा था। तब जा के रिश्ता पक्का हुआ। फिर भी कौनो खोंखी-भांगठ पड़े... सो बेचारा लगन निकलते ही सत्यनारायण भगवान का पूजा कबूल दिया.... "हे भगवान ! भले-भली हमरी 'लीलावती-कलावती' मिल जाएँ तो मधु-यामिनी से पहले ही पान-फूल और पांच खंड नैवेद लेके आपका पूजा करेंगे।" अंदेशा के बावजूदो बेचारा था बड़ा खुश। उछल-उछल कर जोरा-जामा-जूता बनवाया। जयपुरिया पगरी का औडर दिया... आई-माई पौनी पसारी के साड़ी-धोती, न्योत-निमंत्रण से लेकर एंड-बैंड सब का जोगार.... बेचारा भूख प्यास भूल कर लगा रहा। जैसे-जैसे दिन नजदीक रहा था, बेचारे की ख़ुशी का पारावार उमरा जा रहा था। इसी ख़ुशी में गधा के सिंघ के तरह साला ऐसा गायब हुआ कि आज तक नजर नहीं आया।

खैर, भैय्या के मुंह से ही सही, बियाह का आँखों देखा हाल सुन कर हँसते-हँसते अभी भी पेट में बग्घा लग रहा है। भैय्या को तो पहिले अपना ससुराले खोजे में ढाई चक्कर लगाना पड़ा। ऊँह.... पचासनो आदमी लगा हुआ था पंडाल बांधे में। भैय्या झट से पाकिट से पुर्जी निकाल कर पता देखे... "अरे पता तो यही है। फिर हमरा ससुराल कहाँ चला गया... अगहन महीना कौन दुर्गा-पूजा के पंडाल में हम पहुँच गए...?" भैय्या अपने मन में बात कहिये रहे थे कि उधर से ससुरजी तम्बाकू पर चाटी मारते हुए निकले और व्यस्त हो गए मजदूरों को निर्देश देने में। भैय्या ससुरजी के पैर छुए तब जा कर उनकी नजर पड़ीं.... 'पाहून...!' फिर तो पाहून आये-पाहून आये का शोर मच गया। बड़का साला-छोटका साला... साली सभे तर-ऊपर बाहर निकल पड़े। बालकनी से सासूजी और खिड़की से सरहजें झाँकने लगी। एक खवास समान उठा कर अन्दर ले गया। पीछे भैय्या भी दरवाजे पर जा कर बैठे। चाह-पानी के साथ-साथ वर-बारात व्यवस्था-बात पर चर्चा चलने लगी।

लगन के घर में कहीं समय का पता चलता है। गीत-गाली, रंग-रहस करते-करते बियाहो का दिन गया। भैय्या का मझिला साला पीला धोती पहिने, कलाई पर आम का पत्ता बांधे दिन भर बेतार वाला फोन पर पता नहीं किस से कितना बतिया रहा था। बीच-बीच में ब्रेक लेकर उबटनों मलवा लेता था। दसे बजे दिन में बाजा वाला भी पहुँच गया। ढोलपुजाई हुआ और शुरू हो गया.... 'आज मेरे यार की शादी है....!' दिन भर विध, वो व्यवहार.... ये आये... वो निकले... सब व्यस्त। इधर घड़ी का कांटा दू पर गया और दूल्हा जी घुस गए बाथरूम में। पता नहीं.... नहा रहे थे कि दहा रहे थे। तो लोग-बाग़ बार-बार किवाड़ पीटे लगे तो बेचारा निकला। चारे बजे से जोरा-जामा पहन कर कुर्सी छेक लिया। सबको हरकाए लगा... जल्दी करो, सांझ हो गया, बारात निकलेगी। और बारात का... समझिये कि 'देखले कनिया देखले वर ! कोठी तर बिछौना कर !!' गली से निकल कर मोहल्ला में जाना था। लेकिन साले साहब को भरोसा कहाँ। खैर सुरुज ढलते ही बेचारे घोड़ी पर सवार हो गए। अब तो बारात निकलना मजबूरी ही था।

भैय्या बाराते तो एगो ऐसा मौका होता है कि जिसके पैर में जांता बंधा हो उहो दू बार कूद जरूर लेगा। सो दूल्हा लाख धर-फराए लेकिन बिना नाच के बारात कैसी। पांच मिनट के रास्ता नाच-गान के चक्कर में पांच कोस हो गया था। वो...... दूर से एगो और सजा सजाया पंडाल जैसे ही दिखा कि दूल्हा का बेगरता तो समझिये कि सौगुना बढ़ गया। अब शादी की घोड़ी तो अंग्रेजी बाजा के ताल पर ही चलेगी लेकिन दूल्हा का बेगरता इतना जोर कि लोग हाँ..हाँ... करते तो बेचारा उतर के दौर पड़ता। फिर बाजा वाला 'आगे बाराती पीछे बैंड बाजा ....' वाला धुन बदल कर, 'जिमी....जिमी....जिमी... ! आजा...आजा...आजा... !!' लगा दिया तब जा के घोड़ी का कुछ स्पीड बढ़ा और दुल्हे राजा की उम्मीद।

जल्दी-जल्दी गल-सेंकाई हुआ। फटाक से महाराजजी मंडप में पहुंचे। दूल्हा के दू-चार दोस्त और भैय्या लोगों के लिए मंडप के पास ही बैठने की ख़ास व्यवस्था थी। संयोग देखिये कि पंडितोजी किराए वाले ही थे। बस, फास्ट-फॉरवार्ड बटन दबा दिए। फटाफट सारा विध-व्यवहार होते हुए नौ से बारह के शो की तरह बियाहो कम्प्लीट हो गया। कनिया की सखी-सहेली गीत-नाद गाती हुई, उन्हें लेके कोहबर के तरफ बढ़ चली।

दूल्हा वहीं खड़े दोस्तों से दू-चार बात किये। फिर पता नहीं क्या याद आया.... बेचारे दौड़ पड़े कोहबर के तरफ। जैसे ही करीब पहुंचे.... हल्ला हो गया..... 'जा...जा.... दूल्हा गया.... कैसा धर-फरिया दूल्हा है.... अभी विध बांकिये है ! जा..जा... !! आनन-फानन में कनियाँ की माँ बीच में रास्ता रोकते हुए बोली, "पाहून !! यहाँ कहाँ गए ? अरे, अभी यहाँ पर विध हो रहा है। आपको बुलाया जाता, तब आना चाहिए था ... !" कनिया की माँ बेचारे दुल्हे की बेगरता क्या समझे... उनको तो विध की पड़ीं थी। लेकिन सखी-सहेलियां कहाँ चूकने वाली। हंसी का सो पटखा फूटा और लगी दुल्हे राजा से मजाक करने, "बिना बुलाये कोहबर (सुहाग-कक्ष) धाये ! कनिया की माँ पूछी, आप कहाँ आये ??" हा..हा...हा.... !! इतना कहते-कहते भैय्या की भी हंसी नहीं रुकी ! हा...हा...हा.... !! महराज अब क्या बताएं, हम तो कल्ह सांझे से हँसते-हँसते बेदम हैं। हा...हा...हा... !

लेकिन देखिये, हंसिये-मजाक में एगो कहावत बन गया... "बिना बुलाये कोहबर धाये ! कनिया की माँ पूछी, आप कहाँ आये ?" कहावत में अर्थ भी छुपा हुआ है बड़ी चमत्कारी। मतलब कि 'रिश्ता चाहे जैसा भी हो, जितना भी ख़ास हो, लेकिन बिना बुलाये नहीं जाना चाहिए। नहीं तो आपको भी खा--खा सुनना पड़ेगा, "बिना बुलाये कोहबर धाये ! कनिया की माँ पूछी, आप कहाँ आये ??" हा..हा...हा.... !! वैसे बिना पूछ-ताछ के अपने मन से सब जगह टपकने वाले भैय्या के साला की तरह सब तो सुनते ही रहते हैं। हा...हा...हा... !!