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रविवार, 15 सितंबर 2019

आओ हिंदी दिवस मनाऍं

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आओ हिंदी दिवस मनाऍं

- करण समस्तीपुरी


स्वाभिमान की भाषा हिंदी। 
जन मन की अभिलाषा हिंदी। 
सुंदर इसकी है अभिव्यक्ति। 
इसमें है सम्मोहन शक्ति। 
भारत के माथे की बिंदी। 
पुरस्कार देती है हिंदी। 
चलो कहीं भाषण कर आएँ। 
कविता दोहा गीत सुनाएं।  
आओ हिंदी दिवस मनाऍं।  

संविधान का कर लें आदर। 
मन अंग्रेजी हिंदी चादर।  
कोई मुश्किल बात नहीं है। 
न गुजरे वो रात नहीं है।  
इक दिन बस मैनेज करना है। 
कल से हमको क्या करना है। 
गौरव गान आज भर गाएँ।  
आओ हिंदी दिवस मनाऍं। 

हिंदी में रोजगार नहीं है। 
हिंदी का बाज़ार नहीं है।
जब हिंदी में "न्याय" नहीं है!
हिंदी से जब आय नहीं है। 
क्या होगा पढ़कर के हिंदी। 
फ्यूचर हो जायेगा चिंदी।  
अपने बच्चों को समझाएँ। 
आओ हिंदी दिवस मनाऍं। 
 
Hindi Diwas 2019 : Why is hindi diwas celebrated on 14th september, know history | क्या आप जानते हैं 14 सितंबर को ही क्यों मनाया जाता है हिन्दी दिवस?

गुरुवार, 26 अक्टूबर 2017

लेटर टू छट्ठी मैय्या !


हे छट्ठी मैय्या,
प्रणाम !





तब, सज गया सब घाट-बाट? कैसा लग रहा है इस बार हमारे बिना? हम भी आपही की तरह साल में एक ही बार आते थे। कभी-कभी तो कनफ़्युज हो जाते थे कि हमरे माता-पिता, सखा-संगी, अरिजन-परिजन आपकी प्रतीक्षा करते हैं या हमारी। वैसे बात तो एक्कहि है... हमारे आने पर आप आती थी या आपके आने पर हम। ई बार ममला गड़बड़ा गया। हम आ नहीं पाये। चलिये कम से कम आप आ गयीं, पर्व तो हो ही जायेगा। दरअसल उ का है कि हम परेशान हो गये...! पन्द्रह दिन पहिलैह से सब फोन-फान करके भुका दिया.. आ रहे हैं कि नहीं? कौन तारीख को आ रहे हैं? जब पता चल गया कि नहीं आ रहे हैं तैय्यो फोन... ई बार बड़ी मिस कर रहे हैं, आये काहे नहीं ब्ला... ब्ला... ब्ला। सब हमरे माथा भुका रहा है आपसे कौनो पूछा? आपके मर्जी के बिना तो कुच्छो होता नहीं है, फिर हमरे नहीं आने की जवाबदेही भी आपही उठाइये।
गाँव का लोग तो भावुक है। पूछेगा ही। मगर एक बात बताइये, आप हमको मिस नहीं कर रही हैं का? बचपन से ही आपसे गहरा नाता रहा है। जनम के छः दिन बादे छट्ठी पूजा हुआ था। उसके बाद से तो बस सिलसिला चलता ही रहा। जो उमर में केला का पत्ता हमरे लंबाई से ज़्यादा था तब भी पूरा का पूरा कदली-स्तम्भ कंधा पर चढ़ाकर ले जाते थे आपका घाट सजाने। आपके पैर में नरम घास तक भी ना चुभे, इ खातिर अपने नन्हे हाथों में खुरपी-कुदाली पकड़कर एकदम से दूभवंश-निकंदन कर देते थे। एकाध-बार तो आपके भोग लगने से पहले ही आपका ठेकुआ भी चुराकर खा लिये। और फिर दोनो गाल पर दादी का थप्पर! और सुबह में घाट पर कान-पकड़ कर उठक-बैठक। एक से एक संस्मरण जुड़ा है... लिखने बैठ जायें तो महापुराण बन जायेगा। लेकिन बताइये बीस बरस की वार्षिक सेवा के बदले हमको तीस सौ किलोमीटर दूर फेंक दिये। मगर हम हृदय में कौनो बात लगा नहीं रखते हैं। और संबंध भी माँ-बेटे का है। सब-कुछ भूल विसराकर हर साल एहि भरम में जाते रहे कि हमरे खातिर आप आती हैं। लेकिन ई बार इहो भरम जाता रहा। लेकिन इतना गरंटी के साथ कह सकते हैं कि अभी तक भले नहीं पता चला हो मगर कल सुबह तक आपको भी हमरी कमी जरूर खलेगी। देखियेगा न... ई बार पोखर के बदले अंगने-अंगने गड्ढा खुदाया है।  हम शहर क्या आ गये पूरा गाँवे में शहर ढुक गया है। सीडी पर शारदा सिन्हा का गीत बजेगा... केलबा के पात पर उगेला सुरुज मल झाँके-झुँके’। पता नहीं केला का थम असली है कि उहो पिलास्टिक वाला हो गया। जो भी हो माफ़ कर दीजियेगा। हमरे बाद सब बच्चे सब है। और हाँ, घबराइयेगा मत... लाइट और जनरेटर का दुरुस्त व्यवस्था है।
याद है, उ साल...! कई वर्षों के बाद से रेवाखंड के सोये हुए सांस्कृतिक विरासत को आपही के घाट पर फिर से जगाये थे। पृथ्वीराज चौहान नाटक खेल थे। "चार बांस चौबिस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण ! एते पर सुल्तान है मत चूको चौहान!!" आपके चक्कर में चंदबरदायी बनकर पृथ्वीराज के साथे-साथ मर भी गये थे। हाँ, आपके चक्कर में नहीं तो और क्या? अरे, सांझ में सब हाथ उठाने के बाद घरे जाकर घूरा तापे और फिर सुबह में किरिण फूटे के वक्त आये। कौनो सोचता ही नहीं था कि छट्ठी मैय्या घाट पर अकेले कैसे रात काटेगी। आपका अकेलापन दूर करने के लिये नाटक करवा दिये। सांझ से लेकर सुबह तक घाट रहे गुलजार। और आप हैं कि ई बार हमहि को अकेला छोड़ दिये, अयं? वर्षों बाद ई भार भी नाटक होगा, फिर से पृथ्वीराज चौहान। हम तो हैं नहीं। आपही देखकर बताइयेगा कि खेल कैसा बना। हाँ, चंदबरदायी के रोल पर जरूर ध्यान दीजियेगा। हम आयें चाहे नहीं आयें आप आ गयी हैं और सुरुजदेव तो रोजे उगते हैं, तो छठ व्रत भी पूरा हो ही जायेगा। हम नहीं आये, कौनो बात नहीं। हर साल की तरह सुबह का अर्घ्य लेकर आप श्रद्धावनत रेवाखंड पर अपना सारा अशीष उलीच दीजियेगा। और हाँ, एक विनती और है, अर्घ्य देते वक्त जब हमारी माँ की आँखों में आँसू आ जाये तो आप अपना कलेजा थाम लीजियेगा। अब और ज़्यादा नहीं लिखा जा रहा है।
आशा करते हैं अगले साल भेंट होगी। तब तक सूरुज महराज को हमारा प्रणाम कहियेगा और अगर गलती से कौनो भक्त मिलावट वाला मिठाई चढ़ा दिया हो तो अपना ध्यान रखियेगा।
आपका,
करण समस्तीपुरी

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सोमवार, 2 मार्च 2015

रंगारंग फ़ागुन में...

रंगारंग फ़ागुन में...

- करण समस्तीपुरी



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सूना मोरा देश रंगारंग फ़ागुन में।

पिया बसे परदेस रंगारंग फ़ागुन में॥
छत पर कुजरे काग, कबूतर, कोयलिया,
ले जाओ संदेश, रंगारंग फ़ागुन में॥



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फ़ूले सरसों गदराया महुआ का तन।
बौरी अमराई में भँवरों का गुंजन॥
पहिर चुनरिया धानी धरती अँगराई
ले दुल्हन का वेश, रंगारंग फ़ागुन में॥


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खन-खन चूरी, कंगन चुभे कलाई में।
अंग-अंग सिहरे सनन-सनन पुरबाई में॥
होंठों की लाली भी अब अंगार हुई,
यौवन करे क्लेश, रंगारंग फ़ागुन में॥

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गाए देवर फ़ाग, ननदिया ताने दे।
बैरी सास-ससुर पीहर न जाने दे॥
कटा टिकट तत्काल पकड़ लो ट्रेन सुबह,
राजधानी एक्स्प्रेस, रंगारंग फ़ागुन में॥

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(रंग लूटऽ... हो... लूटऽ ! आ गइल फ़गुआ बहार.... !!)  

बुधवार, 11 फ़रवरी 2015

कैसा विकास है...?


कैसा विकास है...?

-    करण समस्तीपुरी


कैसा विकास है, ये कैसा विकास है?
सूखा-सा सावन है, जलता मधुमास है।
कैसा विकास है, ये कैसा विकास है??



मंगल पर जा बैठे, मँगली को मारते।
सरेआम देवियों की इज्जत उतारते।
पाकेट में इंटरनेट, घर में उपवास है।
कैसा विकास है, ये कैसा विकास है??

मानवता गिरवी है धर्म की दुकानों में।
भारत माँ रोती है, खेत-खलिहानों में।
मिलती है बूँद नहीं, सागर की प्यास है।
कैसा विकास है, ये कैसा विकास है??

बिकता है न्याय यहाँ कानून दोगला है।
संसद से ऊँचा अंबानी का बँगला है।
गरीबों के रहने को इंदिरा आवास है।
कैसा विकास है, ये कैसा विकास है??





बचपन झुलसता है ईंटों की भट्ठी में।
यौवन सिसकता है गिद्धों की मुट्ठी में।
बेबस बुढ़ापे को वृद्धाश्रम-वास है।
कैसा विकास है, ये कैसा विकास है??

हरिया चलाता मिनिस्टर की कार है।
बाबा ने लिक्खा है, मैय्या बीमार है।
कल से बहुरिया की सूरत उदास है।
कैसा विकास है, ये कैसा विकास है??

मुफ़्त की मलाई से किसको परहेज है?
सस्ती है दुल्हन और महँगा दहेज है।
इंजिनियर बिटिया को वर की तलाश है।
कैसा विकास है, ये कैसा विकास है??



नफ़रत उपजती सियासत की मिट्टी में।
करते शिकार खूब धोखे की टट्टी में।
कारनामें काले हैं, उजला लिबास है।
कैसा विकास है, ये कैसा विकास है??

अच्छे दिन आएँगे, काल-धन लाएँगे।
सीमा पर दुश्मन के छक्के छुड़ाएँगे।
क्या अपनी बातों पे तुमको विश्वास है?
कैसा विकास है, ये कैसा विकास है??

आँखों की देखी जुबानी मैं कहता हूँ।
पानी को खून नहीं पानी मैं कहता हूँ।
फिर भी तुम कहते हो कविता बकवास है।
कैसा विकास है, ये कैसा विकास है??





मंगलवार, 2 सितंबर 2014

बादल








बादल
- करण समस्तीपुरी

१.
भर अंबर में
रोर मचाए
प्यासी वसुधा
को तरसाए
चमक-दमक के
आश जगाए
ना बरसाए जल
ओ छलिया बादल। 

२.
गई जेठ की
तप्त दुपहरी
सावन रीता
बिन हरियरी
काना, हस्ती
गए स्वाती
चले न अब तक हल
ओ बेसुध बादल।

३.
भादों भद्रा
गई किसानी
का वर्षा जब
कृषी सुखानी
फटा कलेजा
रोए धरती
खेत रहे हैं जल
आफ़त-1ओ निर्मम बादल।

४.
पूरबा डोले
पछुआ डोले
चमके बिजुरी
बदरा बोले
झिर-झिर झीसी
छम-छम बारिस
अवनी हुई सजल
ओ प्यारे बादल।
५.
बजी बैल के
गले में घंटी
कजरी गाए
रहीं कलकंठी
दादुर मोर
पपीहा बोले
विहँस पड़े शतदल
मतवाले बादल।

६.
ताल तलैय्या
भर गया पानी
भयी धरा की
आँचल धानी
अन्न-धन-जीवन
आएगा घर
आँगन रहा मचल
सुखदायी बादल।
७.
दामिनि दमक
रही नभ माहीं
घर में फूटी
कौड़ी नाहीं
सोच-सोच
बाबा के माथे
पड़े हुए हैं बल
बौराए बादल।

८.
थोड़े-बहुत
बचे हैं दाने
ढक आँचल
माँ चली भुनाने
गीली लकड़ी
फ़ू-फ़ू करके
आँख रही है मल
ओ निष्ठुर बादल।

९.
मूसलाधार
बरसता गर-गर
बिजली काँप
रही है थर-थर
माटी का घर
फूस का छप्पर
जाए कहीं न गल
प्रलयंकर बादल।

१०.
आँगन आँगन
पानी पानी
है कागज़ की
नाव चलानी
बच्चे बोलें
बरखा रानी
आ जाना फिर कल
बलिहारी बादल।
११.
घर-घर गूँजे
राग मल्हार
द्वारे-द्वारे
तीज त्यौहार
बिन प्रीतम
कैसा श्रृंगार
विरही मन घायल
ओ बैरी बादल।

१२.
शूल चुभाए
सावन राती
मैं जलती
दीपक बिन बाती
पहुँचा दो
प्रियतम को पाती
मौसम गया बदल
निर्मोही बादल।

१३.
बिन चंदा के
रात अमावस
बिन मितवा के
कैसा पावस?
वर्षा में वह
कैसे आएँ
रुक जाओ दो पल
हरजाई बादल।

१४.
तुम हो
जीवनदायी बादल
अति हो
आतातायी बादल
जग से तेरी
मिताई बादल
करो न कभी
ढिठाई बादल
इतना बरसो
कि मन हरसे
जीवन रहे सरल
ओ नीले बादल।