392. गाँधी बनाम जिन्ना
1937
1931 की गोलमेज परिषद के भारतीय प्रतिनिधि जब समस्या का कोई सर्वसम्मत
हल न निकाल पाए तो ब्रिटिश सरकार ने 1937 में सांप्रदायिक निर्णय का अपना हल उनपर थोप दिया। इसके द्वारा मुस्लिम नेताओं की सभी मुख्य माँगे स्वीकार कर
ली गईं। इसमें सांप्रदायिक मताधिकार (पृथक निर्वाचन) का समावेश था। अगले वर्षों की घटनाओं ने सिद्ध कर दिया कि इससे सांप्रदायिक विवाद अधिकाधिक
उग्र और विषम ही होता चला गया। हिन्दू-मुस्लिम समस्या और पाकिस्तान
के उद्भव को समझने के लिए जिन्ना के व्यक्तित्व और उसकी नीतियों के ठीक से समझना होगा।
हिन्दू-मुस्लिम विरोध का इस तरह उभरना शायद स्वाभाविक और अवश्यंभावी ही था। यह 'उत्तराधिकार की लडाई' थी। सांप्रदायिक समस्या ने भारतीय राजनीति को जैसा गलत मोड दिया और उसके जो अनिष्टकारी परिणाम हुए, उसका मुख्य कारण कायदे आजम जिन्ना ही था।
मुहम्मद अली जिन्ना गांधीजी से उम्र में छः साल छोटा था। गांधीजी की तरह उसने
भी विलायत में कानून का अध्ययन किया था। उसकी रुचि मुख्यतः राजनीति
में ही थी। वह दादाभाई नौरोजी के व्यक्तित्व से प्रभावित और प्रेरित होकर राजनीति में आया था। बंबई में वकालत और राजनैतिक कार्य करने लगा था। 1916 की लखनऊ कांग्रेस में लीग और कांग्रेस के बीच समझौता उसी के प्रयत्नों का सुफल था। उन दिनों
जिन्ना सारे देश में 'हिन्दू- मुस्लिम-एकता के मसीहा' के नाम से पुकारे जाता था।
असेंबली के सदस्य की हैसियत से और उसके बाहर भी जिन्ना सदैव राष्ट्रीयता का समर्थन करता था। वह होमरूल आंदोलन में भी शरीक हुआ था। 1919 में उसने रॉलेट बिल का विरोध किया था। पर वह गांधीजी के खिलाफत आंदोलन में शरीक
नहीं हुआ। असल में कांग्रेस में जैसे ही गांधीजी का वर्चस्व और प्रभाव बढा वह उससे अलग हो गया। जन-आंदोलन
से वह अपने को हमेशा दूर रखता था। जब गांधीजी ने जन-आंदोलन शुरू किया
और उसमें शहर और गाँवों के लाखों अनपढ़ लोग हिस्सा लेने लगे तो
जिन्ना ने कहा था, “मैं तो इसके नतीजे की बात सोचकर ही काँप उठता हूँ—तबाही में अब कसर
ही क्या रह गई है?”
जिन्ना को गांधीजी की राजनीति से ही नहीं, उनकी धार्मिकता, आत्म-निरीक्षण, विनम्रता, अपनी मर्जी से अपनाई हुई गरीबी, सत्य और अहिंसा से भी बडी चिढ थी। वह इस सबको गांधीजी की राजनैतिक चाल और पाखंड कहकर दुर-दुराया करता था। उसे गांधीजी
से यह शिकायत भी थी कि उन्होंने राजनीति में प्रवेश कर उसे (जिन्ना को) अनुचित उपायों से प्रमुख स्थान से परे ढकेल
दिया। 1916 में जो जिन्ना मुल्क की बडी हस्तियों में से एक था; 1920 तक, उसका प्रभाव एकदम खत्म हो गया। इसका प्रमुख कारण यह था कि गांधीजी के व्यक्तित्व और नीतियों के
कारण जन-सामान्य का प्रबल प्रवाह राजनीति में उमड पडा था और उसमें केवल जनता के सच्चे नेता ही टिक सकते
थे।
1920 के बाद के वर्षों में जिन्ना सेंट्रल असेंबली में एक स्वतंत्र
दल के नेता की हैसियत से सरकार और कांग्रेस के बीच संतुलनकारी शक्ति बन गया था। हिन्दू-मुस्लिम एकता की बातें वह ज़रूर करता था, लेकिन सरकार हो या कांग्रेस, जो भी उससे सहयोग
माँगता, उससे कडी कीमत वसूला करता था। नेहरू-रिपोर्ट में सांप्रदायिक
समस्या का जो हल सुझाया गया था, उसका उसने ज़बरदस्त विरोध किया। 1933-34 के गांधीजी के सविनय अवज्ञा आंदोलन की उसने मुखालफत की। गोलमेज परिषद् में वह भी एक सदस्य था, परंतु वहाँ भी वह अपनी ढपली अलग ही बजाते रहता था। गोलमेज परिषद् के बाद उसने भारतीय राजनीति को नमस्कार किया और इंग्लैंड
में ही बस गया। लेकिन जैसे ही नए विधान के अंतर्गत आम चुनाव का समय आया, वह भारत लौट आया और चुनाव में उसने मुस्लिम लीग का मार्ग-दर्शन किया। लीग को उस चुनाव में मुसलमानों के
पाँच प्रतिशत से ज्यादा मत नहीं मिले, लेकिन इस करारी हार के बावजूद जिन्ना ने अगले चार वर्षों में अपनी स्थिति को ऐसा मजबूत कर लिया कि भारत की संवैधानिक प्रगति की कोई
बात उनकी रज़ामंदी के बगैर की ही नहीं जा सकती थी।
1937 में कई प्रांतों में बहुमत से जीतने के बाद जब गांधीजी ने
कांग्रेस को पद-ग्रहण का आशीर्वाद दे दिया तो कांग्रेसजनों ने फैसला किया कि वह कहीं भी
संयुक्त मंत्रिमंडल नहीं बनाएंगे। कांग्रेस ने मुस्लिम कौंसिलरों को भी अपने मंत्रिमंडल में लिया, लेकिन तभी जब उन्होंने कांग्रेस के प्रतिज्ञापत्र पर दस्तखत
कर दिए। इसने मुस्लिम लीग और खासतौर पर जिन्ना को बहुत नाराज़ कर दिया। जिस पृथक निर्वाचन पर उसने इतनी आशाएं लगा रखी थीं, वह एक तरह से बेकार ही हुआ। न तो मुसलमान कांग्रेस में शरीक हो सके और न उन्हें शासन में मनचाहा हिस्सा
ही मिला। जिन्ना की झुंझलाहट का कोई पार न रहा। वह क्रोधावेश में एक के बाद एक ऐसे काम करता गया कि हिन्दू -मुस्लिम संकट
अपने चरम बिंदु को पहुँच गया। कांग्रेस के खिलाफ मुसलमानों की झूठी-सच्ची शिकायतों का उसने ढेर लगाना शुरू
कर दिया। गांधीजी को जिन्ना अपना दुश्मन मानने लगा। “गांधीजी डिक्टेटर हैं। कांग्रेस की नकेल गांधीजी के हाथ में है। “सेगांव में अभी उजाला ही नहीं हुआ।” “गांधी हिन्दू राज्य में मुसलमानों को गुलाम ही नहीं बना रहा, उनका खात्मा भी कर रहा है।” आदि-आदि वाक-बाण वह गाँधीजी पर चलाने लगा।
धीरे-धीरे कांग्रेस के मुकाबले लीग का रुख और भी सख्त होता गया। लखनऊ में हुई
मुस्लिम लीग कॉन्फ्रेंस में जिन्ना ने 15 अक्टूबर, 1937 को घोषणा की: कांग्रेस की मौजूदा लीडरशिप... भारत के मुसलमानों को ऐसी
पॉलिसी अपनाकर और ज़्यादा दूर करने के लिए ज़िम्मेदार रही है जो पूरी तरह से हिंदू
है, और चूंकि उन्होंने छह प्रांतों में सरकारें बनाई हैं जहाँ
वे बहुमत में हैं, उन्होंने अपने शब्दों, कामों और प्रोग्रामों से यह दिखा दिया है कि मुसलमान उनके
हाथों से किसी भी न्याय या निष्पक्षता की उम्मीद नहीं कर सकते। जहाँ भी वे बहुमत में
थे और जहाँ भी उन्हें सूट किया, उन्होंने मुस्लिम लीग पार्टियों के साथ सहयोग करने से इनकार
कर दिया और बिना शर्त आत्मसमर्पण और उनके वादों पर साइन करने की मांग की। ...
हिंदी भारत की राष्ट्रभाषा होगी और वंदे मातरम राष्ट्रगान होगा और इसे सभी पर थोपा
जाएगा। ... थोड़ी सी भी शक्ति और ज़िम्मेदारी मिलते ही, बहुसंख्यक समुदाय ने साफ दिखा दिया है कि हिंदुस्तान सिर्फ हिंदुओं के लिए है।
लखनऊ के समारोह के ठीक बाद गांधीजी ने जिन्ना को पत्र लिखा, “मैंने सावधानीपूर्वक आपका भाषण पढ़ा ... जैसा कि मैंने इसे पढ़ा, यह जंग के ऐलान की तरह लगा। मुझे उम्मीद थी कि आप हम दोनों
के बीच मुझे एक पुल की तरह इस्तेमाल करेंगे। मुझे लगता है कि आपको किसी पुल की
ज़रूरत नहीं है। मुझे अफ़सोस है।”
जिन्ना ने जवाब दिया कि हालांकि उन्हें पता था कि गांधीजी कांग्रेस के चार-आना
सदस्य भी नहीं थे, लेकिन "इन सभी महीनों" की उनकी पूरी चुप्पी ने
उन्हें कांग्रेस नेतृत्व के साथ जोड़ दिया था। जिन्ना ने जवाब देते हुए लिखा, “मुझे अफसोस है कि आप मेरी लखनऊ की तकरीर को जंग का ऐलान मानते हैं। यह तो
सिर्फ आत्मरक्षा है।”
गांधीजी ने जवाब दिया, “ऐसा लगता है कि
आप इस बात का खंडन कर रहे है कि आपका भाषण जंग का ऐलान नहीं था, लेकिन आपकी राष्ट्रवाद की घोषणाएँ भी इस पहली धारणा की
पुष्टि करते हैं। आपके भाषण में मुझे वह पुराना राष्ट्रवादी रूप नहीं दिखता ...
क्या अभी भी वही मिस्टर जिन्ना हैं?” जिन्ना ने अपनी भड़ास निकलते हुए जवाब दिया, “साफ लग रहा है, आपको पता नहीं है कि कांग्रेसी अखबार क्या कर रहे हैं ... रोज़ मेरे ख़िलाफ़ जितना
दुष्प्रचार, मेरा चरित्र हनन, मुझे ग़लत ढंग से उद्धृत किया जा रहा है उससे आप वाकिफ़ नहीं हैं ... अन्यथा
मैं निश्चित रूप से मनाता हूँ कि आप मुझे दोष नहीं देते। आप कहते हैं कि मेरे भाषण
में आपको मेरा पुराना राष्ट्रवादी रूप नहीं दिखता. ... मैं वह सब कहना पसंद नहीं
करूँगा कि लोग 1915 में आपके बारे में क्या कहते थे और आज भी वे क्या सोचते और
कहते हैं।”
इस पत्र-व्यवहार के बाद गांधीजी ने जिन्ना से व्यक्तिगत तौर पर मिलने की इच्छा
ज़ाहिर करते हुए कहा, क्या आप वर्धा आ सकते है? जिन्ना ने जवाब दिया मेरा वहां जाना सूट नहीं करेगा। गांधीजी ने कहा, ठीक है मैं आज़ाद के साथ मुंबई में आपसे मिलता हूँ। जिन्ना ने कहा मैं आपसे अकेले में मिलना पसंद करूँगा।
लेकिन गांधीजी कांग्रेस के किसी पदाधिकारी के साथ जिन्ना से मिलाना चाहते थे।
नेहरू की जगह अध्यक्ष बने सुभाष चन्द्र बोस के नाम पर जिन्ना सहमत हुआ। कांग्रेस
लीग के साथ गठबंधन करना चाहती थी, लेकिन बातचीत असफल रही। जिन्ना ने गांधीजी को पत्र लिख कर कहा, “हम इस स्थिति में पहुँच गए हैं जिसमें आपको यह मानने में संदेह नहीं होना
चाहिए कि मुस्लिम लीग हिन्दुस्तानी मुसलमानों की प्रतिनिधि है, जबकि आप खुद कांग्रेस और देश के दूसरे हिन्दुओं के
प्रतिनिधि हैं। हम सिर्फ इसी आधार पर आगे की ओर बढ़ सकते हैं ...” । जिन्ना की यह मांग अनुचित थी। लीग उस समय सारे मुसलमानों
का प्रतिनिधित्व नहीं करती थी। कांग्रेस को काफी मुसलमानों का समर्थन हासिल था।
भारतीयों के पदभार ग्रहण करने के नकारात्मक एवं परस्पर विरोधी पक्षों के प्रकट
होने में भी देर नहीं लगी। कांग्रेस के विरोधाभास स्पष्ट थे। 1935 के संविधान की कभी उसने कड़ी
आलोचना की थी, लेकिन आज उसी के अंतर्गत कार्य कर रही थी। जिसकी शक्तियां सरकारी
आरक्षणों एवं रक्षक उपायों के साथ ही सीमित संसाधनों के कारण सीमित थीं, और जिसे
ऐसी सिविल सेवा और पुलिस के माध्यम से अपने निर्णय लागू करने पड़ते थे जिनके साथ
उसके संबंध लंबे समय तक अत्यंत वैमनस्यपूर्ण रहे थे। इसके अलावा अचानक सत्ता और
संरक्षण हाथ में आ जाने से जुड़ी आम बुराइयां जैसे अवसरवादिता एवं गुटबंदी-जन्य
झगड़े, उत्पन्न होने लगे थे। सबसे गंभीर समस्या थी विभिन्न समुदायों और वर्गों के
हितों के बीच संतुलन स्थापित करने की। कांग्रेस के लिए यह असंभव था कि वह हिंदुओं
और मुसलमानों, जमींदारों और काश्तकारों और उद्योगपतियों और मज़दूरों को एक साथ ख़ुश
रख सके।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- राष्ट्रीय आन्दोलन
संदर्भ : यहाँ पर
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