राष्ट्रीय आन्दोलन
399. 1937 का चुनाव तथा मंत्रालयों का
गठन
प्रवेश
:
“1937 के चुनावों के बाद लीग से रिश्ता न रखने का
फैसला कांग्रेस हाई कमान द्वारा गांधीजी के सर्वश्रेष्ठ फैसले के विपरीत लिया गया
था। लीग के साथ सूझबूझ से नहीं निबटना ही पाकिस्तान बनने का मुख्य कारण बना।” इस कथन
की समालोचना करते वक़्त हमें कुछ तथ्यों की विवेचना करनी होगी। भारत सरकार अधिनियम,
1935 की संघीय व्यवस्था तो लागू न हो सकी, लेकिन प्रांतीय व्यवस्था लागू की गई। 1937 की शुरुआत में,
प्रांतीय विधानसभाओं के चुनावों की घोषणा की गई। चुनावों की घोषणा
होते ही राष्ट्रवादियों द्वारा अपनाई जाने वाली भविष्य की रणनीति पर बहस शुरू हो
गई। 1937 के चुनाव 1935 के क़ानून के अनुसार होने थे। इस क़ानून के अनुसार प्रांतीय
एसेम्बली को पर्याप्त अधिकार मिले थे। मुसलमानों, ईसाइयों और
सिखों के लिए अलग और अरक्षित चुनाव क्षेत्रों की व्यवस्था थी। ब्रिटिश शासन ने
साझा निर्वाचन क्षेत्र की कांग्रेस की मांग को ठुकरा दिया था। कांग्रेस और मुसलिम
लीग दोनों ने ही 1935 के अधिनियम का विरोध किया था, फिर भी अधिनियम की प्रांतीय व्यवस्था के तहत होने वाले चुनावों में भाग लेने
का मन बना लिया। कांग्रेस में इस बात पर पूरी सहमति थी कि उन्हें इन चुनावों को एक
विस्तृत राजनीतिक और आर्थिक कार्यक्रम के आधार पर लड़ना चाहिए, जिससे लोगों की
साम्राज्यवाद विरोधी चेतना को गहरा किया जा सके। अपने चुनाव घोषणा-पत्र में
कांग्रेस ने इस नए विधान को रद्द करने, सरकारी दमन को समाप्त करने, नागरिक स्वतंत्रता स्थापित करने, किसानों, मज़दूरों और दलितों की दशा में सुधार लाने, ग्रामीण उद्योगों को प्रश्रय देने और सांप्रदायिक एकता स्थापित करने की बात
रखी। अधिनियम का विरोध करने के बावजूद कांग्रेस का चुनाव लड़ने का मुख्य कारण यह था
कि वह काउन्सिल को राष्ट्र विरोधी तत्त्वों के हाथों में नहीं जाने देना चाहती थी।
इसके अलावा कांग्रेस के अन्दर एक ऐसा शक्तिशाली पक्ष भी था, जो नए विधान की सीमाओं
में भी प्रांतों में रचनात्मक कार्य करने की संभावनाएं देख रहा था। अभी तक गांधीजी
धारा सभाओं में भाग लेने के ख़िलाफ़ थे। लेकिन नए सुधारों के अनुसार मताधिकार व्यापक
हो गया था। अतः गांधीजी ने चुनावों में भाग लेकर धारा सभाओं में जाने की इजाज़त दे
दी। कांग्रेस और लीग दोनों ने अपने-अपने घोषणा पत्र में अँग्रेज़-परस्त क्षेत्रीय
दलों को अपना प्रतिद्वन्द्वी माना, एक दूसरे को नहीं। अनेक
निर्वाचन क्षेत्र में कांग्रेस ने लीग उम्मीदवार के खिलाफ अपने उम्मीदवार नहीं खड़े
किए। कांग्रेस ने सोचा कि चुनाव के बाद लीग से उसके मेल-मिलाप में यह क़दम काम आएंगे।
लेकिन जिन्ना तो जिन्ना ही था। जब चुनावों में नेहरूजी
ने यह कहा कि, “भारत को कांग्रेस और अंग्रेजी राज में से एक को
चुनना होगा।”, तो जिन्ना ने कहा था, “मैं यह मानने से इंकार करता हूँ। एक तीसरा पक्ष
भी है - मुसलमानों का। हम किसी आदमी के इशारों पर नहीं नाचने वाले हैं।” कांग्रेस और लीग के बीच दूरियों के बीज अंकुरित
हो रहे थे।
चुनाव में
कांग्रेस का विजयी होना
फरवरी 1937 में प्रांतीय विधानसभाओं का चुनाव होना
तय हुआ। चुनावों में काफी खर्च आने वाला था, लेकिन उद्योगपतियों और व्यापारियों से जो दान मिला वह
पर्याप्त नहीं था। इसलिए आन्दोलनकारियों के ऊपर ऐसे प्रत्याशियों को प्राथमिकता दी
गई जो धनवान थे। यह पहली बार था जब बड़ी संख्या में भारतीय जनता चुनावों में भाग
लेने का पात्र थी। 3 करोड़ 1 लाख व्यक्ति, जिसमें 42,50,000 महिलाएं शामिल थीं, को मताधिकार दिया गया था (कुल
जनसंख्या का 14 प्रतिशत)। इनमें से 1 करोड़ 55 लाख, जिनमें 9, 17,000 महिलाएं शामिल थीं, ने वास्तव में अपने
मताधिकार का प्रयोग किया। आम चुनाव के नतीजे फरवरी के अंत में आए। सिविल नाफ़रमानी
आंदोलन के कारण कांग्रेस को चुनाव में ज़बरदस्त सफ़लता मिली और वह देश की प्रमुख
राजनीतिक शक्ति के रूप में उभरी। उसे कुल 1585 असेंबली सीटों में 711 पर विजय
प्राप्त हुई। 11 में से 5 प्रांतों – मद्रास, संयुक्त प्रांत, बिहार,
मध्य प्रांत और उड़ीसा में कांग्रेस को पूर्ण बहुमत प्राप्त हुआ। बंबई में भी उसे
बहुमत के आसपास (175 में 86) स्थान
प्राप्त हुए, उसने लगभग आधे स्थानों पर क़ब्ज़ा कर लिया था। पश्चिमोत्तर प्रांत में
उसकी स्थिति अच्छी थी। वह सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी। आसाम में भी वह सबसे
बड़ी पार्टी थी। पंजाब और सिंध में कांग्रेस की स्थिति अच्छी नहीं थी।
लीग की
कमजोर स्थिति
चुनावों में मुस्लिम लीग की स्थिति अच्छी नहीं
रही। लीग को उस चुनाव में मुसलमानों के पांच प्रतिशत से ज़्यादा मत नहीं मिले। 482 सुरक्षित स्थानों (मुस्लिम
सीटों) में से सिर्फ़ 109 पर उसे सफलता मिली। 128 स्थान
निर्दलीय मुसलमानों ने जीते। मुस्लिम चुनाव क्षेत्रों में कांग्रेस केवल 58 स्थानों पर लड़ी और 26 स्थानों विजयी हुई।
पश्चिमोत्तर सीमाप्रांत में लीग को एक भी स्थान नहीं मिला, पंजाब में 84 में से केवल 2, सिंध में 33
में से 3 स्थान मिले। लेकिन लीग ने हिन्दू-बहुल प्रान्तों
में भी अनेक मुस्लिम सीटें जीतीं। खासकर संयुक्त प्रान्त और मुंबई में। अनुसूचित
जातियों की अधिकांश सीटें भी कांग्रेस ने जीत ली थीं, सिवा बंबई के जहां बी.आर. अंबेडकर
की इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी ने हरिजनों के लिए आरक्षित 15
सीटों में 13 जीती थीं। लेकिन रोचक बात यह है कि निर्णायक
मुस्लिम बहुमत वाले पंजाब और बंगाल में लीग, चुनाव में कांग्रेस से नहीं हारी थी,
बल्कि मुस्लिम प्रधान प्रादेशिक दलों कृषक प्रजा पार्टी और यूनियनिस्ट पार्टी से
हारी थी। पश्चिम पंजाब के बड़े ज़मींदार और मुसलिम नौकरशाह अर्द्ध-सांप्रदायिक और
ब्रिटिश हुक़ूमत के प्रति वफ़ादार यूनियनिस्ट पार्टी के समर्थक थे। पंजाब में यूनियनिस्ट
पार्टी ने मंत्रिमंडल बनाने के दावा पेश किया, लेकिन
प्रधानमंत्री का पद गया कृषक प्रजा पार्टी के फजलुल हक़ को। इस पार्टी ने चुनावों
में लीग के अनेक उम्मीदवारों को हराया था। उत्तर प्रदेश और बंगाल में लीग ने अच्छा
प्रदर्शन किया था। इस चुनाव ने यह साफ कर दिया था कि जनता ने उन्हीं प्रान्तों में
लीग को समर्थन दिया था जहाँ मुसलमानों की संख्या हिन्दुओं से अधिक थी।
सरकार
के गठन पर मतभेद
चुनावों में सफलता ने कांग्रेस की स्थिति मज़बूत
कर दी थी। निर्वाचन के बाद सरकार के गठन पर कांग्रेस में विवाद था। कांग्रेस के
घोषणा पत्र में इस बात का कहीं स्पष्ट उल्लेख नहीं था कि यदि कांग्रेस ने काउन्सिल
में बहुमत प्राप्त कर लिया तो उसे क्या करना चाहिए? राजाजी, वल्लभभाई पटेल और
राजेन्द्र बाबू चाहते थे कि बहुमत वाले प्रांतों में कांग्रेस की सरकार बने। लेकिन
वामपंथी मोर्चा के नेहरूजी और सुभाष चन्द्र बोस आदि उसका विरोध कर रहे थे। इसलिए
उन राज्यों में भी जहां कांग्रेस का बहुमत था, तत्काल सरकार नहीं बन सकी। जवाहरलाल
नेहरू और सुभाष चन्द्र बोस जैसे कांग्रेस के समाजवादियों का तर्क था कि यह
राष्ट्रवादियों द्वारा 1935 के अधिनियम की अस्वीकृति को नकार देगा। पदग्रहण के
विरोधी पक्ष का कहना था कि नए विधान में कुछ मिलना-जाना तो है नहीं। गवर्नर को
वीटो का अधिकार है, इसलिए लोगों को कुछ राहत भी नहीं दी जा सकती। यह शक्ति के बिना
जिम्मेदारी संभालने जैसा होगा। ख़ाली बदनामी सिर पड़ेगी। ऐसे पदग्रहण से क्या लाभ,
यदि हमारे सेवा-कार्य में गवर्नर अपने वीटो अधिकार द्वारा कदम-कदम पर रोक लगाता
रहे? कांग्रेस तब तक पदग्रहण नहीं करेगी, जब तक कि सरकार गवर्नर के इस विशेषाधिकार
को हटा नहीं लेती। उनका यह भी मानना था कि यह आंदोलन के क्रांतिकारी चरित्र को दूर ले
जाएगा क्योंकि राजकाज का संवैधानिक कार्य इसके मुख्य मुद्दों स्वतंत्रता, आर्थिक और सामाजिक न्याय और
गरीबी हटाने को दरकिनार कर देगा। दूसरी तरफ सरकार बनाने के समर्थकों का कहना था कि
वे भी 1935 के अधिनियम का विरोध करने के लिए समान रूप से प्रतिबद्ध थे, लेकिन विधायिका में काम
केवल एक अल्पकालिक रणनीति थी क्योंकि उस समय एक जन आंदोलन का विकल्प उपलब्ध नहीं
था, और सिर्फ जन संघर्ष द्वारा ही
आज़ादी प्राप्त की जा सकती थी। 1935 के अधिनियम में कमज़ोरियां ज़रूर हैं, लेकिन काउन्सिल
का नेतृत्व सरकार और उसके पिट्ठुओं को सौंप देने से तो बेहतर यही रहेगा कि जनता की
जितनी भी सेवा वे कर सकते थे, करें। उनका विश्वास था कि सीमा के बावजूद भी नए
विधान का उपयोग जनहित में किया जा सकता है।
अन्य प्रान्तों में कांग्रेस किन दलों के सहयोग
से सरकार बनाएगी यह भी तय नहीं हो पा रहा था। फलतः कान्ग्रेस को मिली भारी जीत के
बाद भी यह स्पष्ट नहीं था कि वह सरकार में जाएगी या नहीं। जिन्ना ने बी.जी. खेर के
द्वारा गांधीजी को सन्देश भिजवाया कि हिन्दू-मुस्लिम एकता के मामले में गांधीजी
अगुआई करें। जिन्ना चाहता था कि प्रान्तों में कांग्रेस और लीग के बीच सत्ता में
भागीदारी हो। गांधीजी ने जिन्ना को लिखित जवाब दिया, “खेर ने मुझे आपका सन्देश दिया। काश मैं इस मामले
में कुछ कर सकता। मैं एकदम असहाय हूँ। एकता में मेरी आस्था सदा की तरह है, हाँ मुझे अभी कोई उम्मीद की
किरण नहीं दिख रही।”
कांग्रेसी
सरकारों का गठन
गांधीजी से जब सलाह मांगी गई तो उन्होंने सत्याग्रह
और सविनय अवज्ञा के अहिंसक प्रयोग के विकास के अगले कदम के रूप में कांग्रेस को
पद-ग्रहण करने की सलाह दी। गांधीजी ने कहा था, “लोगों को यह बात समझनी चाहिए कि काउन्सिलों का
बहिष्कार सत्य-अहिंसा की तरह कोई शाश्वत सिद्धांत नहीं है। यह प्रश्न कार्य-नीति
संबंधी है और मैं तो केवल यही कह सकता हूं कि किसी खास अवसर पर क्या करना सबसे
ज़्यादा ज़रूरी है, यह देखा जाना चाहिए। लक्ष्य केवल विदेशी सरकार को हटा कर उसका
स्थान लेना ही नहीं है, परन्तु शासन के विदेशी तरीक़े को मिटा देना भी होगा।
कांग्रेस पुलिस तथा उसके पीछे रही सेना के बल पर शासन नहीं चलाएगी, बल्कि जनता की
अधिक से अधिक सद्भावना के आधार पर निर्भर अपनी नैतिक सत्ता द्वारा शासन चलाएगी।” उस समय गांधीजी के लिए रचनात्मक कार्य सबसे
ज़्यादा ज़रूरी था। उनका ख्याल था कि कांग्रेसी मंत्रिमंडल अपने-अपने प्रांतों में
रचनात्मक कार्यों को बढ़ावा दे सकता था। काउन्सिल में प्रवेश और पद-ग्रहण का
उद्देश्य जनता को राहत पहुंचाना होना चाहिए। वायसराय लिनलिथगो के आश्वासन के बाद
कि गवर्नर मंत्रिमंडलों के कार्यों में अनावश्यक हस्तक्षेप नहीं करेंगे, जुलाई में
कांग्रेस ने सरकार बनाने का निश्चय किया।
अस्थाई सरकारें
सरकार की कृपा से बंगाल में फजलुल हक़ के नेतृत्व
में और पंजाब में सिकन्दर हयात ख़ान के नेतृत्व में तथा अन्य जगहों में भी औपनिवेशिक
सरकार की मदद से अस्थाई सरकारें बनीं। कांग्रेस इनसे अलग रही।
जुलाई में कांग्रेस का पद ग्रहण
जुलाई 1937 में उत्तरप्रदेश, बिहार, उड़ीसा, मध्य प्रांत, बंबई और
मद्रास में तथा बाद में अन्य दलों के सहयोग से पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत, सितंबर 1938 में असम में भी कांग्रेस की सरकार बनी। कांग्रेस ने लीग का सहयोग नहीं
लिया। इन दोनों दलों में कटुता बढ़ती गई। एसेंब्लियों का कार्यारंभ ‘वंदे मातरम्’
गान के साथ हुआ। जिस राष्ट्रीय झंडे के लिए लाखों लोगों ने लाठी-गोलियां खाई थीं,
वह अब सार्वजनिक भवनों पर गर्व से लहरा रहा था।
कांग्रेसी सरकारों का काम-काज
कांग्रेस के प्रतिनिधि सत्ता में आए जो ब्रिटिश गवर्नर की देखरेख में काम करते
थे। वृहद बंबई प्रांत (गुजरात और महाराष्ट्र) के मुख्यमंत्री बने बालासाहब खेर।
वृहद मद्रास (तमिलनाडू और अधिकांश आन्ध्र प्रदेश) के मुख्यमंत्री हुए चक्रवर्ती
राजगोपालाचारी। संयुक्त विशाल बंगाल (बंगलादेश और पश्चिम बंगाल) का नेतृत्व
प्रफुल्ल चंद्र बोस ने संभाला। उत्कल (उड़ीसा) के मुख्यमंत्री बने हरेकृष्ण मेहताब।
बिहार के मुख्यमंत्री का दायित्व श्रीकृष्ण सिन्हा ने संभाला। संयुक्त प्रांत
(उत्तर प्रदेश) के मुख्यमंत्री बने गोविंद वल्लभ पंत। सीमा प्रांत के मुख्यमंत्री
बने डॉ. ख़ान साहब (सरहद गांधी के बड़े भाई)। इन मुख्यमंत्रियों ने बड़ी ईमानदारी से राजकाज
चलाया। अपनी सरकार बनने से लोगों में गजब का उत्साह था। कांग्रेस की प्रतिष्ठा में
वृद्धि हुई। उसने दिखाया था कि वह न केवल
लोगों का नेतृत्व कर सकती है, बल्कि उनके लाभ के लिए राज्य की शक्ति का भी सदुपयोग
कर सकती है। प्रान्तों में कांग्रेस के 28 महीनों के शासन में लोगों के कल्याण के
लिए कई प्रयास किए गए। आपातकालीन शक्तियां देने वाले कानूनों को निरस्त कर दिया
गया। हज़ारों राजनीतिक बंदियों को जेल से रिहा किया गया। प्रतिबंधित राजनीतिक
संस्थाओं पर से पाबंदी हटा ली गई। हिंदुस्तान सेवा दल और युवक संघ जैसे अवैध
संगठनों, कुछ पुस्तकों, पत्रिकाओं और समाचारपत्रों पर से पाबंदी हटा ली गई। विचार अभिव्यक्ति
की आज़ादी दी गई। मज़दूरों और किसानों की सुरक्षा के लिए क़ानून बनाए गए। क़र्ज़ माफ़
किया गया। लगान की दर कम की गई। हरिजनों की स्थिति सुधारने के प्रयास किए गए।
नशाखोरी बंद करने की दिशा में काम हुआ। जब्त किए गए शस्त्र और शस्त्र लाइसेंस बहाल
किए गए। पुलिस की शक्तियों पर अंकुश लगाया गया और सी.आई.डी. द्वारा राजनेताओं की
जासूसी बंद कर दिया गया।
जिन्ना की झुंझलाहट
जिस चुनाव पर जिन्ना ने इतनी आशाएं लगा रखी थीं,
वह एक तरह से बेकार ही साबित हुआ। न तो मुसलमान कांग्रेस में शरीक हो सके, और न
उन्हें शासन में मनचाहा हिस्सा मिला। जिन्ना की झुंझलाहट का कोई पार न रहा। मुंबई
और संयुक्त प्रान्त में साझीदारी के सवाल पर उसने कांग्रेस से बात-चीत भी की।
कांग्रेस की तरफ से यह प्रस्ताव आया था कि लीग के विधायक मंत्री बनने से पहले
कांग्रेस में आ जाएँ। जिन्ना सिर्फ साझेदारी के लिए दो पार्टियों के बीच गठबंधन
चाहता था। ‘गठबंधन बनाम विलय’ का मामला संयुक्त प्रान्त
में भी उठा। लेकिन बात नहीं बनी और लीग की मदद के बिना सरकारों का गठन हो गया।
कांग्रेस ने इसे जहां स्वशासन और स्वराज्य की तरफ प्रगति कहा, वहीँ कुछ ऐसे भी लोग थे
जिन्होंने इसे हिन्दू शासन कहा। एक वर्ग ऐसा भी था जो यह मानते थे कि कांग्रेस ने
लीग के साथ सत्ता में साझेदारी न करके मुसलमान जनता को पाकिस्तान की दिशा में मोड़
दिया था। प्यारेलाल, गांधीजी के सचिव और जीवनी लेखक यह मानते
हैं कि यह एक पहले दर्जे की राजनैतिक भूल थी। उन्होंने कहा, “लीग से रिश्ता न रखने का फैसला कांग्रेस हाई
कमान ने गांधीजी के सर्वश्रेष्ठ फैसले के विपरीत लिया।” कई विदेशी लेखक जैसे फ्रैंक मोरेस, पैंडरेल मून आदि मानते हैं कि लीग
के साथ सूझबूझ से नहीं निबटना ही पाकिस्तान बनने का मुख्य कारण बना। लेकिन उस
समय की परिस्थितियों पर अगर नज़र डालें तो हम पाते हैं कि नेहरू, पटेल और आजाद का मानना था कि जिन्ना के साथ निभाना मुश्किल होगा। हर
फैसले पर उसकी सहमति लेनी होती, जो उन्हें मान्य नहीं था।
गांधीजी भी जिन्ना को उतना महत्व नहीं देना चाहते थे। जिन्ना को महत्त्व देना
नेहरू, पटेल और आजाद के प्रभाव को कम करता। उन्हें यह भी
भरोसा नहीं था कि जिन्ना के साथ कांग्रेसी मुख्यमंत्री आसानी से कम कर पाएंगे।
जिन्ना के साथ कांग्रेस और गांधीजी के वैचारिक मतभेद थे। जिन्ना का नज़रिया यह था
कि लीग मुसलमानों के हितों के लिए है और कांग्रेस हिन्दुओं के हितों के लिए। फिर
भी अगर ठीक से सूझबूझ दिखाई गई होती तो हो सकता है कि समझौता हो गया होता। पंजाब
में भी प्रधानमंत्री सिकंदर हयात ने स्पष्ट बहुमत होने के बावजूद हिन्दू महासभा को
एक मंत्री पद देने का प्रस्ताव दिया था। अगर इसी तरह की कोई पेशकश कांग्रेस की तरफ
से जिन्ना को मिलता तो जिन्ना के द्वारा मुस्लिम जनता को यह बताना मुश्किल हो जाता
कि कांग्रेस मुसलमानों की दुश्मन है।
सिकंदर-जिन्ना पैक्ट
जिन्ना ने कांग्रेस की इन चालबाजियों से फायदा
उठाया। अब वह अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए सक्रिय हो गया। उसने पंजाब के मुख्यमंत्री
सिकन्दर हयात ख़ान के साथ समझौता किया और लीग सरकार में शामिल हो गई। बंगाल में भी
लीग ने प्रजापार्टी के साथ गठबंधन किया और सरकार में शामिल हो गई। चुनावों में लीग
को बुरी तरह पराजित करने वाले हयात और हक़ ने जिन्ना से मेल कर लिया और इस बात पर
एकमत हो गए कि अखिल भारतीय मामलों में वे लीग के फैसलों का समर्थन करेंगे।
जिन्ना का कांग्रेस विरुद्ध प्रचार
जिन्ना ने कांग्रेस के विरुद्ध प्रचार अभियान
तेज़ कर दिया। कांग्रेस को उसने हिन्दुओं की संस्था कहना शुरू कर दिया। उसने कहा, “देहाती इलाकों में दस हज़ार कांग्रेसी कमेटियों
में से अनेक तथा कुछ हिन्दू अधिकारियों ने इस तरह व्यवहार करना शुरू कर दिया है, मानो हिन्दू राज आ गया हो।
मुस्लिम कौम को एक होना होगा। जो मुसलमान कान्ग्रेस सरकार में शामिल हो गए हैं, वे कांग्रेसी पिट्ठू हैं।” उसने यहाँ तक कहा कि कांग्रेस कुछ
महत्वाकांक्षी और सिद्धान्तविहीन मुसलमानों को भ्रष्ट कर रही है। उसने कांग्रेस
सरकारों के अत्याचारों के मनगढ़न्त किस्से लोगों के बीच फैलाना शुरू कर दिया।
क्रोधावेश में एक बाद एक वह ऐसा काम करता गया कि हिन्दू-मुस्लिम संकट अपने चरम
बिन्दु को पहुंच गया। लीग के लिए अब कांग्रेस सिर्फ सांप्रदायिक ही नहीं एक दुश्मन
के रूप में सामने थी। 1916 में लखनऊ के समारोह में लीग-कांग्रेस संधि का आधार
तैयार करने वाला और हिन्दू-मुस्लिम एकता की वकालत करने वाला जिन्ना अब मुसलिम
अलगाववाद की वकालत कर रहा था। जो जिन्ना अब तक हिन्दू-मुस्लिम समुदायों के बीच पुल
बनाने का प्रयास करता आया था, अब इस खाई
को और चौड़ा करने में जुट गया। यह मिस्टर जिन्ना से जनाब जिन्ना में परिवर्तन की
निशानी थी। लखनऊ में लीग का समारोह आयोजित किया जाने वाला था। विलायती सूट-बूट
पहनने वाले जिन्ना ने इस समारोह में भाग लेने के लिए शेरवानी और पायजामे सिलवाए।
उसकी नज़रों में कायदे आज़म की कुर्सी दिख रही थी। लखनऊ में जिन्ना ने कहा था, कांग्रेस पूर्णतः हिन्दू नीति से चल रही है,
बहुसंख्यक समुदाय ने बहुत साफ तौर पर ज़ाहिर कर दिया है कि वे हिन्दुओं के लिए
हिंदुस्तान के पक्ष में हैं। जिन्ना अब कांग्रेस के साथ सहमति बनाने के लिए अपना सिर
झुकाने वाला नहीं था। उसने निश्चय कर लिया था कि अब वह गांधीजी या कांग्रेस के
किसी आदमी से बातचीत नहीं करेगा। कांग्रेसी ही उसके पास आएंगे। अब वह शर्त मानेगा
नहीं, शर्तें थोपेगा। कौम को उसके तरीक़े पसंद आ रहे थे। साल
भर के अन्दर ही लीग की सदस्य संख्या हज़ारों से बढकर लाखों में पहुँच गई थी। जिन्ना
ने अपने भाषणों में कहना शुरू कर दिया था, “अगर हिंदुस्तान के मुसलमानों के सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक स्तर को
उठाने के लिए मुझे फिरकापरस्त कहा जाता है तो साहबान, मैं
आपको विश्वास दिलाता हूँ कि ऐसा फिरकापरस्त होने पर मुझे फ़क्र है।” उसके बयानों में अकसर शामिल होता कि कांग्रेसी
सरकारें मुसलमानों को रोज़गार नहीं देतीं, मुसलमानों पर संस्कृतनिष्ठ हिंदी थोप रहीं हैं, मुसलमान स्कूली बच्चों को गाँधी की तस्वीर की पूजा करने को बाध्य करती
हैं, स्कूलों में ऐसे गीत गए जा रहे हैं जो इस्लामी
मान्यताओं के विरुद्ध हैं।
सरकार
के कामकाज का मूल्यांकन
हालांकि 1939 तक कांग्रेसियों में आंतरिक कलह, अवसरवादिता और सत्ता की भूख
उभरने लगी थी, फिर भी वे काफी हद तक परिषद
के काम का देश के लाभ के लिए उपयोग करने में सफल रहे। द्वितीय विश्व युद्ध के छिड़ने
के बाद अक्तूबर 1939 में कांग्रेस मंत्रिमंडलों ने इस्तीफा दे दिया। चुनावों में
कांग्रेस की प्रचंड जीत ने औद्योगिक मजदूर वर्ग की आशाओं को जगा दिया था। कांग्रेस की भारतीय
पूंजीपतियों के साथ घनिष्ठ मित्रता से औद्योगिक अशांति बढ़ गई। कांग्रेस में एक
श्रमिक विरोधी बदलाव दिखाई देने लगा और 1938 में कांग्रेस द्वारा बॉम्बे ट्रेडर्स
डिस्प्यूट्स एक्ट लाया गया। कांग्रेस का सिर दर्द बढाने के लिए अखिल भारतीय
मुस्लिम लीग ने सत्ता साझा नहीं करने से नाराज होकर 1938 में पीरपुर समिति की
स्थापना की, जो कथित तौर पर कांग्रेस
मंत्रालयों द्वारा किए गए अत्याचारों पर एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार करने के लिए थी।
समिति ने अपनी रिपोर्ट में कांग्रेस पर धार्मिक संस्कारों में हस्तक्षेप, हिंदी के पक्ष में उर्दू का
दमन, उचित प्रतिनिधित्व से इनकार
और आर्थिक क्षेत्र में मुसलमानों के उत्पीड़न का आरोप लगाया।
उपसंहार
:
1937 के चुनावों का सबसे
दुर्भाग्यपूर्ण नतीज़ा यह था कि कांग्रेस और लीग के रास्ते अलग हो गए थे। चुनावों में
हुई करारी हार के बावजूद जिन्ना ने अगले चार वर्षों में कट्टरतावादी नीति से अपनी
स्थिति को काफी मज़बूत कर लिया। भारत की संवैधानिक प्रगति की कोई बात उसकी रज़ामंदी
के बग़ैर की ही नहीं जा सकती थी। 1937 के चुनावों से यह बात
तो स्पष्ट हो गई थी कि उपनिवेशवाद के सभी प्रमुख सामाजिक और राजनीतिक आधार ध्वस्त
हो चुके थे। इसलिए औपनिवेशिक ताक़तों ने अपने हाथ का बचा हुआ एक मात्र पत्ता –
सांप्रदायिकता का भरपूर इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। उस समय मुसलिम लीग का नेतृत्व
जिन्ना के हाथ में था। जिन्ना को अंग्रेज़ नापसंद करते थे, उसकी उग्रता और
उपनिवेशवाद विरोध के कारण उससे डरते भी थे, फिरभी ब्रिटिशों ने जिन्ना की मुसलिम
सांप्रदायिकता का साथ देना आरंभ कर दिया। लीग अधिक से अधिक ब्रिटिशपरस्त,
पृथकतावादी और कांग्रेस विरोधी नीति अपनाने लगी। उसने जल्दी ही पाकिस्तान की मांग
की।
यह तो मानना ही पड़ेगा कि सत्ता में रहना और
वास्तव में प्रशासन चलाना आसान नहीं होता। आबादी के सभी वर्गों की बड़ी-बड़ी उम्मीदें होती
हैं, जो एक बार में पूरी नहीं की जा
सकती। कांग्रेस का पदभार ग्रहण करने के नकारात्मक पक्षों के प्रकट होने में देर भी
नहीं लगी। कांग्रेस के विरोधाभास स्पष्ट थे। 1935 के संविधान
की कभी उसने कड़ी आलोचना की थी, लेकिन आज उसी के अंतर्गत कार्य कर रही थी। सरकार की
शक्तियां सीमित थीं, और उसे ऐसी प्रशासनिक अधिकारियों और पुलिस के माध्यम से अपने
निर्णय लागू करने पड़ते थे जिनके साथ लंबे समय तक उसके संबंध अत्यंत वैमनस्यपूर्ण
रहे थे। कांग्रेस मंत्रिमंडलों ने प्रशासन के मूल चरित्र में परिवर्तन लाने का काम
नहीं किया। इसके अलावा अचानक सत्ता हाथ में आ जाने से जुड़ी आम बुराइयां जैसे
अवसरवादिता एवं गुटबंदीजन्य झगड़े, उत्पन्न होने लगे थे। सबसे कठिन चुनौती थी अलग-अलग
हितों वाले समुदायों और वर्गों के हितों के बीच संतुलन स्थापित करने की। कांग्रेस
के लिए यह असंभव था कि वह हिंदुओं और मुसलमानों, ज़मींदारों और काश्तकारों और
उद्योगपतियों और मज़दूरों को एक साथ ख़ुश रख सके। इन सब सीमाओं के बावजूद कांग्रेस
मंत्रिमंडल ने शासन प्रबंध के एक नए दृष्टिकोण का सूत्रपात किया। इसने सेवा तथा
ईमानदारी के प्रशंसनीय मानक स्थापित किए। सबसे महत्त्वपूर्ण लाभ मनोवैज्ञानिक था।
जनता को एहसास होने लगा कि हम अपना शासन खुद चला सकते हैं। आशावादिता और
आत्मविश्वास की वृद्धि हुई। लोगों को लगने लगा कि आज़ादी अब बहुत आस-पास ही है।
*** *** ***
मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- राष्ट्रीय
आन्दोलन
संदर्भ : यहाँ
पर
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