गांधी और गांधीवाद
“उस आस्था का कोई मूल्य नहीं जिसे आचरण में न लाया जा सके।”
महात्मा गांधी
1. जन्म और
पारिवारिक पृष्ठभूमि
मनोज कुमार
अनेक युगों के संचित पुण्य का मधुर फल
दुनिया में अनेक नैतिक दार्शनिक हुए हैं, जिनमें से यह कहना कि महात्मा गांधी का नाम सबसे ऊपर है, अतिशयोक्ति नहीं होगी। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कल्पलता में कहा था, “गांधी भारतवर्ष के अनेक युगों के संचित पुण्य का मधुर फल था।” आइए हम गांधीजी के जीवन, दर्शन और विचारों की बात करें और उनके जीवन प्रसंगों से कुछ सीखने का प्रयत्न करें। उनका पूरा नाम मोहनदास करमचन्द गांधी था। उनका प्यार से पुकारा जाने वाला नाम था मनु, मोनिया, मोहन, मोहनदास, दक्षिण अफ़्रीका में सहयोगियों द्वारा भाई, सत्याग्रहियों द्वारा बापू। दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटने पर लोग उन्हें आदर से महात्मा कहते थे। उनके पिता का नाम करमचन्द गांधी और माता का नाम पुतली बाई था। पिता श्री करमचन्द गांधी (काबा गांधी) राजकोट, पोरबंदर के दीवान थे। माता पुतली बाई अत्यंत धार्मिक और श्रद्धालु महिला थीं। गांधी जी के दादा का नाम उत्तमचंद गांधी था। बचपन में गांधी जी के माता-पिता एवं मित्र उन्हें मोनिया कह कर पुकारते थे।
गांधी परिवार
गांधी परिवार जाति से बनिया, व्यवसाय से पंसारी था। मूल
निवासी वे जूनागढ़ के कुतियाणा गांव के थे। गांधी वंश के एक उद्योगी सदस्य हरजीवन
गांधी ने 1777 में पोरबंदर में एक मकान ख़रीदा
था। अपने बाल-बच्चों के साथ वह वहीं बस गए। छोटा-मोटा व्यापार करने लगे। हरजीवन के
बेटे उत्तमचंद गांधी थे। उत्तमचंद (ओता) गांधी के कार्यों से प्रभावित होकर वहां
के राणा खीमाजी ने उन्हें अपनी रियासत पोरबंदर का दीवान बनाया। भारत के पश्चिमी तट
पर स्थित पोरबंदर गुजरात-काठियावाड़ की तीन सौ रियासतों में से एक रियासत थी। इसके
शासक को राणा या ठाकुर या नवाब कहा जाता था। वे तानाशाह होते थे। ये एक दूसरे से
जलते थे और आपस में भिड़ते रहते थे। चूंकि वे ब्रिटिश की मदद से राज करते थे, इसलिए
ब्रिटिश रेजिडेंट का भय उनको क़ाबू में रखता था। वातावरण सामंती होता था। लोग यहां
के हट्टे-कट्ठे होते थे। लोगों की समुद्र यात्रा और व्यापारिक उद्यमशीलता की एक
परंपरा थी। यहां के लोग वैष्णव परंपरा में विश्वास रखते थे, जिस पर आगे चलकर जैन
धर्म और सूफ़ीवाद ने अपना प्रभाव डाला। इसका परिणाम यहां के लोगों के रूढ़िवाद और
सहिष्णुता, उदासीनता और करुणा, भोग और त्याग के एक विशेष प्रकार के मिश्रण के रूप
में देखा जा सकता है। काठियावाड़ एक पिछड़ा और सामंती इलाक़ा था। उत्तमचंद गांधी एक
सच्चरित्र, ईमानदार और निर्भीक व्यक्ति होने के साथ-साथ कुशल प्रशासक थे। राजा,
ब्रिटिश सत्ता के पोलिटिकल एजेंट और प्रजा के बीच वह काफी कूटनीतिक होशियारी,
समझदारी और व्यवहारकुशलता से समन्वय बनाकर काम करते थे। जब वह दीवान बने तो
पोरबंदर क़र्ज़ में डूबा हुआ था। दीवान बनने के बाद उन्होंने पोरबंदर को क़र्ज़ मुक्त
किया। बदक़िस्मती से राणा खीमाजी का जवानी में ही देहावसान हो गया। महारानी ने
हुकूमत की बागडोर संभाली। महारानी को दीवान उत्तमचंद की सच्चाई, स्वाभिमान और
स्वतंत्र रूप से काम करने की आदत बिल्कुल पसंद नहीं थी। एकबार एक ईमानदार कर्मचारी
कोठारी ने महारानी की बंदियों का ग़लत हुक्म मानने से इंकार कर दिया। उसे बंदी
बनाने का हुक्म दिया गया। उत्तमचंद ने उस कर्मचारी को अपने यहाँ शरण दी। महारानी
गुस्से आगबबूला होकर फौज का एक दस्ता उत्तमचंद के घर पर भेज दिया। तोपें चलवा दीं।
बहुत दिनों तक उत्तमचंद का घर गोली बारी का निशाना बना रहा। पोलिटिकल एजेंट को जब
इस बात का पता चला तो उसने रानी की कार्रवाई को रुकवा दिया। इस घटना के बाद उत्तमचंद
ने पोरबंदर छोड़ दिया और जूनागढ रियासत के अपने पैतृक गांव में आकर रहने लगे। वहां
के मुसलमान नवाब ने उत्तमचंद को बुलवाया। उनका स्वागत-सत्कार किया। दरबार में
उत्तमचंद ने नवाब को बाएं हाथ से सलाम किया। किसी ने उनसे इस गुस्ताख़ी का कारण
पूछा तो उन्होंने जवाब दिया, “मेरा दाहिना हाथ तो सब कुछ हो जाने पर भी पोरबंदर को ही
अपना मालिक तसलीम करता है।” इस बेअदबी के लिए उन्हें धूप में दस मिनट तक नंगे पैर
खड़े रहने की सज़ा दी गई। लेकिन साथ ही नवाब उनकी स्वामीभक्ति से ख़ुश भी हुआ और इनाम
में यह ऐलान किया कि यदि वह अपने पुश्तैनी गांव में व्यापार करना चाहें तो उनसे
चुंगी नहीं ली जाएगी। इस बीच रानी की मृत्यु हो गई। उसके
बाद राणा विक्रमजीत सिंह पोरबंदर की गद्दी पर बैठे। उन्होंने उत्तमचंद को दीवान
बनने के लिए न्यौता दिया। लेकिन उत्तमचंद इसके लिए राज़ी नहीं हुए। तो 1847 में उत्तमचंद के बेटे करमचंद को पच्चीस वर्ष की उम्र
में पोरबंदर का दीवान बनाया गया। उत्तमचंद गांधी के दो विवाह हुए थे। पहले विवाह
से उनके चार बच्चे थे और दूसरे से दो। इसमें से पांचवे करमचंद गांधी (काबा गांधी)
और सातवें तुलसीदास गांधी थे।
अपने पिता की तरह करमचंद गांधी ने
भी मामूली शिक्षा पाई थी। लेकिन वे साहसी और दृढ़ चरित्र के स्वामी थे। व्यावहारिक
सहजबुद्धि उनमें कूट-कूट कर भरी हुई थी। आट्ठाइस सालों तक वह पोरबंदर के दीवान
रहे। करमचंद भी अपने पिता की तरह ही सच्चे और निडर थे और साथ ही राज्य के प्रति
वफादार थे। उनका भी राजा से किसी बात को लेकर अनबन हो गई। तब वे अपने भाई तुलसीदास
को दीवानगीरी सौंपकर राजकोट चले आए और वहां के दीवान बन गए। एक बार राजकोट के
पोलिटिकल एजेंट ने महाराज के लिए अपमानजनक शब्द का प्रयोग किया। इससे नाराज़ करमचंद
ने उसे बुरी तरह फटकारा। करमचंद को इस गुस्ताख़ी के लिए गिरफ़्तार कर लिया गया। उनसे
माफ़ी मांगने के लिए कहा गया। उन्होंने माफ़ी नहीं मांगी। उनकी इस निडरता से वह
अंग्रेज़ अफसर काफी प्रभावित हुआ और उन्हें छोड़ दिया।
गांधीजी का जन्म
पोरबंदर के दीवान होते हुए भी करमचंद अपने पांचो भाईयों
के साथ उसी तिमंजिले पैतृक मकान में रहते थे। एक के बाद एक करमचंद की तीन पत्नियों
की मृत्यु हो गई। चालीस से ऊपर की उम्र में उन्होंने पुतलीबाई से चौथा विवाह किया।
वह उनसे उम्र में बीस वर्ष छोटी थीं। उनसे तीन पुत्र हुए – लक्ष्मीदास (काला),
कृष्णदास (करसनिया) और मोहनदास (मोनिया)। रलियात (गोकी) नामक एक पुत्री भी हुई।
पहली पत्नियों से करमचंद के दो पुत्रियां और भी थीं। मोहनदास करमचन्द गांधी का
जन्म 2 अक्तूबर 1869 (संवत् 1925 की भादो वदी बारस के दिन) काठियावाड़ के पोरबंदर
के सुदामापुरी नामक स्थान (गुजरात) में हुआ था। पोरबंदर उस समय बंबई प्रेसीडेंसी, ब्रिटिश भारत के तहत एक छोटी सी रियासत काठियावाड़ में
कई छोटे राज्यों में से एक था।
भारत की स्थिति
गांधीजी के जन्म के समय तक (1869) ब्रिटिश राज्य भारत में अपनी जड़ें जमा चुका था। 1857 का सिपाही विद्रोह ने एक व्यापारी कम्पनी को एक
साम्राज्य के रूप में रूपांतरित कर दिया था। भारत अब अंग्रेज़ों के अधीन था। यह
अधीनता न सिर्फ़ राजनीतिक, बल्कि सामाजिक, बौद्धिक और सांस्कृतिक भी थी। और जब
गांधीजी की मृत्यु हुई तो भारत एक स्वतंत्र राष्ट्र था। वंचित लोगों को उनकी
विरासत मिल चुकी थी। यह एक चमत्कार से कम नहीं था कि गांधीजी द्वारा चलाए जाने
वाले एक अहिंसक आंदोलन ने शक्तिशाली ब्रिटिश साम्राज्य को भारत छोड़कर चले जाने पर
विवश किया। वह देश के राष्ट्रपिता कहलाए।
गांधीजी एक समाज-सुधारक संत
मूलतः गांधीजी एक समाज-सुधारक संत थे। उनका मुख्य कार्य
जनता को प्रबुद्ध बनाना था। उन्होंने समाज को नया मार्ग बताया, एक नई दिशा दी। उन्होंने किसी दर्शन और धर्म को जन्म
नहीं दिया, किसी सम्प्रदाय की स्थापना नहीं
की। फिर भी एक विचारक के रूप में हमारे सामने आए। उनके मत को हम गांधीवाद कहते
हैं। गांधीवाद ने सारे विश्व को एक नई दिशा दी। गांधीजी ने जो कुछ कहा और किया वह
इतिहास बन गया। सत्य के मार्ग पर चलकर किए गए कार्यों ने उन्हें जीते जी संत बना
दिया। इसका सबसे प्रमुख कारण यह था कि वे दुनिया की मोहमाया से अपने आपको अलग रख
पाए। वह सच के रास्ते पर जीवन भर चलते रहे। अपने व्यवहार, आदर्श और विचारों से उन्होंने पूरे देश का आचरण ही बदल
डाला। उनका व्यक्तित्व हमें हमेशा प्रेरणा देता रहता है। अपने जीवन में वे जब-जब
अत्यंत विनीत लगे तब-तब वे अत्यंत शक्तिशाली थे, साथ ही अत्यंत व्यावहारिक भी। पं.
सोहन लाल द्विवेदी की "युगावतार गांधी" शीर्षक कविता की ये पंक्तियां उस महापुरुष को
समर्पित हैं
चल पड़े जिधर दो पग डगमग,
चल पड़े कोटि पग उसी ओर,
पड़ गयी जिधर भी एक दृष्टि,
गड़ गये कोटि दृग उसी ओर।
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