मंगलवार, 30 जुलाई 2013

बच्चों की शिक्षा और हरिलाल गांधी

गांधी और गांधीवाद-152

1909

बच्चों की शिक्षा और हरिलाल गांधी

 

जब गांधी जी 1897 में दक्षिण अफ़्रीका आए थे, तो उनके साथ 9 साल के हरिलाल और 5 साल के मणिलाल थे। उन्हें कहां पढ़ाना है, उनके सामने यह एक विकट समस्या थी। गोरों के लिए चलने वाले विद्यालयों में लड़कों के नाते बतौर मेहरबानी या अपवाद के उन्हें भरती किया जा सकता था, लेकिन दूसरे सब भारतीय बच्चे जहां न पढ़ सकें, वहां अपने बच्चों को भेजना गांधी जी को पसंद नहीं था। इसाई मिशन के स्कूल में बच्चों को भेजने के लिए वे तैयार नहीं थे। इसपर से, गुजराती माध्यम से शिक्षा दिलाने का आग्रह था, और इसका कोई इंतजाम स्कूलों में नहीं था। गांधी जी का मानना था कि बच्चों को मां बाप से अलग नहीं रहना चाहिए। वे सोचते थे कि जो शिक्षा अच्छे, व्यवस्थित घर में बालक सहज पा जाते हैं, वह छात्रालयों में नहीं मिल सकती। लेकिन घर पर पढ़ाने वाला कोई अच्छा गुजराती शिक्षक मिल नहीं सका। गांधी जी खुद पढ़ाने की कोशिश करते। लेकिन काम की अधिकता से अनियमितता हो जाती।

फिनिक्स आश्रम की पाठशाला में गांधी जी का प्रयास होता की बच्चों को सच्ची शिक्षा मिले। परीक्षा में गुणांक देने की गाधी जी की अनोखी पद्धति थी। एक ही श्रेणी के सभी विद्यार्थियों से एक ही प्रश्न सबको पूछा जाता। जिनके उत्तर अच्छे हों उनको कम और जिनके सामान्य या कम दर्ज़े के उत्तर हों उनको अधिक अंक मिलता। इसके कारण बच्चों में रोष उत्पन्न होता। गांधी जी उनको समझाते, “एक विद्यार्थी दूसरे विद्यार्थी से अधिक बुद्धिमान है, ऐसा अंक मैं रखना नहीं चाहता। मुझे तो यह देखना है कि जो व्यक्ति जैसा आज है, इससे कितना आगे बढ़ा? होनहार विद्यार्थी बुद्धू विद्यार्थी के साथ अपनी तुलना करता रहे तो उसकी बुद्धि कुंठित हो जायेगी। वह कम मेहनत करेगा और आख़िर पीछे ही रह जाएगा।”

गांधी जी का मानना था कि अन्य की तुलना में खुद आगे या पीछे देखने में नहीं, लेकिन खुद जहां हैं, वहां से सचमुच कितने आगे बढ़ते हैं, वह देखने में सच्ची शिक्षा है।

हरिलाल गांधीआश्रम के बच्चों को कोई पूछता कि तुम किस श्रेणी में पढ़ते हो, तो मणिलाल का जवाब होता, ‘बापू की श्रेणी’। हरिलाल तो बी.ए., एम.ए. करना चाहते थे, और बापू के तर्कों से उनकी सहमति नहीं होती। इस बीच 10 अप्रील, 1908 को गुलाब बहन ने पुत्री को जन्म दिया। वह रामनवमी का दिन था। रामभक्त गांधी जी ने उनका नाम रामी रखा। 1908 की ट्रांसवाल की लड़ाई में बीस साल से भी कम की उम्र में हरिलाल सत्याग्रही बनकर जेल गए। गांधी जी इस विषय को भी उनकी शिक्षा का अंग समझते थे। दक्षिण अफ़्रीका के शुरू के दिनों की लड़ाई में हरिलाल गांधी जी के श्रेष्ठ साथी जैसे थे। हंसते-हंसते सारी यातनाएं सह लेते। दक्षिण अफ़्रीका में जेल की दो सप्ताह के सख्त क़ैद की सज़ा, भारत की तीन माह की सज़ा के बराबर थी। हरिलाल अपनी प्रतिभा, निष्ठा और कर्मठता के कारण लोगों के बीच काफ़ी प्रसिद्ध हो गए। लोग उन्हें ‘नाना गांधी’ – ‘छोटे गांधी’ कहकर बुलाते। गांधी जी प्यार से अपने पुत्र को ‘हरिहर’ कहकर पुकारते। अपनी सुरक्षा और सुख-सुविधाओं का ख्याल किए बिना वे बार-बार सत्याग्रह करते और जेल जाते। हरिलाल के स्वाभाव में अन्याय सहन करने का नहीं था।

हरिलाल की पत्नीउन दिनों हरिलाल जेल से छूटकर टॉल्सटॉय फार्म पर परिवार के पास आ गए थे। वे भीतर ही भीतर बेचैन रहते थे। अक्सर वे पिता से झगड़ने लगते। एक कारण तो यह भी हो सकता है कि गांधी जी ने उनकी पत्नी चंचल (गुलाब बहन) और पुत्री को उनके माता-पिता के पास भारत भेज दिया था। हरिलाल और गुलाब बहन (चंचल) की शादी 2.5.1906 को हुई थी। 18 वर्ष में हो रही उनकी शादी के के प्रति गांधी जी ने उदासीनता दिखाई थी। जून 1910 के महीने में जोहन्सबर्ग से बाइस मील दूर टॉल्सटॉय फार्म में सत्याग्रहियों का बसना शुरू हुआ था। हरिलाल पूरा मई और जून महीने की बीस तारीख तक फिनिक्स आश्रम में ही थे। गुलाब बहन की दूसरी प्रसूति होने वाली थी। यह तय हुआ कि उनको और रामी को भारत भेज दिया जाए। हरिलाल भी अपने परिवार के साथ भारत जाना चाहते थे। लेकिन गांधी जी ने अनुमति देने से इंकार कर दिया। उन्होंने हरिलाल को समझाया कि हरिलाल का पहला कर्त्तव्य सत्याग्रह के प्रति था। इसके अलावा वे उतने अमीर नहीं थे कि कई बार हरिलाल के भारत आने-जाने खर्च वहन कर सकें। हरिलाल को इस बात की शिकायत रहती थी कि दूसरों के लिए पिता के पास पैसे की कोई कमी नहीं थी, खासकर चचेरे भाइयों का हर ख़र्च वहन किया जाता था। बस अपने बच्चों और पत्नी के लिए उनके पास पैसे नहीं थे।

1909 के मध्य में गांधी जी लंदन में थे। उनके मित्र प्राण जीवन मेहता ने गांधी जी के सामने एक बेटे को वजीफ़ा देने का प्रस्ताव किया। वजीफ़ा पाने वाले को ‘ग़रीबी का व्रत लेना था’ और शिक्षा पूरी कर लेने के बाद ‘फीनिक्स में सेवा करनी थी।’ बात हरिलाल या मणिलाल की हो रही थी। गांधी जी ने इस सम्मान के लिए अपने भतीजे छगनलाल गांधी को चुना। छगनलाल यह सूचना पाकर पहले भारत गए और फिर 1.6.1910 के दिन इंग्लैण्ड के लिए रवाना हुए। लेकिन वे बीमार पड़ गए और शिक्षा पूरी किए बिना ही 1911 में लौट आए। इस वजीफे के लिए दूसरी बार सोराबजी शापुरजी अडाजानिया का नाम दिया गया। हरिलाल की शिक्षा की लालसा थी। उनका नाम नहीं दिया गया। पिता से कटुता का यह एक कारण बना। छगनलाल की जगह इंगलैण्ड में जाकर क़ानून की पढ़ाई के लिए एक खुली प्रतियोगिता आयोजित की गई। गांधी जी को परीक्षक बनाया गया था। उत्तर कापियों की उचित जांच के बाद उन्होंने सोराबजी शापुरजी आडजानिया का नाम प्रस्तावित किया था। वे एक पढ़े-लिखे पारसी थे।

दरअसल हरिलाल शादीशुदा थे। पिता भी बन चुके थे। उन्हें अपने परिवार के भविष्य की भी चिंता रहती थी। बिना किसी अच्छी शिक्षा या व्यावसायिक प्रशिक्षण के उन्हें अपना भविष्य अंधकारमय लगता था। उन्हें चिंता रहती थी कि वे अपनी व बच्चों की परवरिश किस प्रकार करेंगे। क्या जीवन भर उन्हें खुद को और अपने परिवार को पिता के आदर्शों पर क़ुर्बान करना पड़ेगा? छोटी उम्र से ही हरिलाल गांधी को इस बात का बड़ा दुख था कि उनकी पढ़ाई का कोई पक्का इंतजाम नहीं हो सका। बड़े होने पर भी उनके मन में इसके लिए बापू के प्रति रोष बना रहा। उनका कहना था, “बापू ने अच्छी शिक्षा पाई है, तो वे अच्छी शिक्षा हमको क्यों नहीं दिलाते? बापू सेवाभाव की, सादगी और चारित्र्य के निर्माण की बातें करते हैं, लेकिन जो शिक्षा उन्हें मिली है, वह न मिली होती, तो देश-सेवा के जो काम वे आज कर सकते हैं, उन्हें कर सकते क्या?”

पोलाक और कालेनबेक भी कुछ हद तक इसी तरह का ख्याल रखते थे। पोलाक कहते, “गांधी जी, आप अपने बच्चों की शिक्षा के बारे में लापरवाह रहते हैं। आप अपने बच्चों को अच्छी अंग्रेज़ी तालीम न देकर उनका भविष्य बिगाड़ रहे हैं।”

कालेनबेक ने कहा था, “टॉल्सटॉय आश्रम और फिनिक्स आश्रम में दूसरे शरारती, गन्दे और आवारा लड़कों के साथ आप जो अपने लड़कों को शामिल होने देते हैं, उसका एक ही नतीजा होगा कि उन्हें आवारा लड़कों की छूत लग जाएगी और वे बिगड़े बिना न रहेंगे।”

कस्तूरबा को भी इस बात का मलाल रहता कि गांधी जी लड़कों की शिक्षा की कोई चिंता नहीं करते। इन सब के जवाब में गांधी जी शिक्षा के सिद्धान्तों के और जीवन के ध्येय के अपने दर्शन पेश करते। पोलाक और कालेनबेक सिर हिलाते और कस्तूरबा मन मार कर शांत हो जातीं।

हरिलाल को अपने पिता की कमाई पर गुजर-बसर नहीं करना था। वे तो पढ़-लिखकर अपनी मेहनत से बड़ा बनना चाहते थे। जब उन्होंने देखा कि गांधी जी के ही ऑफिस में मुंशी का काम करने वाले रिच और पोलाक गांधी जी की मदद और बढ़ावे से इंगलैण्ड जाकर बैरिस्टर बन आए हैं, और दूसरे दो भारतीय जोसेफ रॉयपन और गॉडफ़्रे भी उनकी प्रेरणा से विलायत गए और बैरिस्टर बनकर अपने धंधे से लग गए हैं, इसके अलावे एक पारसी नौजवान सोराबजी अडाजाणिया को खुद गांधी जी ने बैरिस्टर बनने के लिए विलायत भेजा है, तब हरिलाल के धैर्य की सीमा टूट गई। वे उस समय 20-21 बरस के रहे होंगे। सत्याग्रह की लड़ाई में बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रहे थे। तीन दफ़ा जेल भी गए थे। कुल मिलाकर उन्होंने 14 मास के क़रीब जेल में बिताए थे। उनके मन में यह भावना घर कर गई कि दूसरे नौजवानों को बापू बैरिस्टर बनने देते हैं, लेकिन मुझे नहीं। ... और भी कई झगड़े थे। गांधी जी को साफ दिख रहा था कि उनका पुत्र उनसे बहुत दूर हो चुका है। पर उन्हें यह भी पता था कि हरिलाल सत्याग्रह के प्रति पूर्ण समर्पित थे। वे पिता के द्वारा चलाए जा रहे आंदोलन में ज़ोर-शोर से हिस्सा ले रहे थे। सत्याग्रह के आंदोलन में उन्होंने गिरफ़्तारी दी। छह महीने तक जेल में रहे। हरिलाल ने जेल में आदर्श व्यवहार किया था। वहां के जुल्मों के ख़िलाफ़ वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने उपवास किया। जेल की यातनाओं को भी उन्होंने एक महात्मा की तरह झेला। गांधी जी को भरोसा था कि हरिलाल का गुस्सा धीरे-धीरे शांत हो जाएगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। पिता और पुत्र में कटुता बनी रही। दिन-ब-दिन हालात ख़राब ही होते चले गए। पिता और पुत्र के बीच अक्सर तू-तू, मैं-मैं होने लगती। गांधी जी मानते थे कि पुत्र के जीवन में पिता की मानसिक स्थिति का प्रतिबिंब पड़ता है। हरिलाल के जन्म के समय गांधी जी का मन विषयों के पीछे दौड़ता था। इसलिए वे हरिलाल को अपना विकार पुत्र मानते थे और मणिलाल को अपने विचार का पुत्र मानते थे। हरिलाल ने बगावत करके पिता का साथ छोड़ने और देश में आकर रहने का निश्चय किया। गांधी जी अपने पुत्र को समझा न सके। ... और अंत में गांधी जी को बिना बताए हरिलाल ने भारत जाने का मन बना लिया।

10.2.1911 को गुलाब बहन ने कान्तिलाल को भारत में जन्म दिया। यह समाचार मिलते ही हरिलाल भारत जाने को उत्सुक हो उठे। लेकिन मुख्यतः तो उनको पढ़ाई की उत्कंठा थी। वे पिता की कमाई पर जीना नहीं चाहते थे। पढ़-लिख कर खुद मेहनत करके आगे बढ़ने की उनकी इच्छा थी। गांधी जी का खुद का जीवन देश सेवा के लिए समर्पित था। अतः पुत्रों से भी देश सेवा के लिए त्याग के लिए उनकी आशा रखना स्वाभाविक था। उन्होंने पुत्रों की पढ़ाई की इच्छा को मोह माना और उनको केवल नैतिक और धार्मिक उन्नति के लिए प्रयत्नशील रहने का उपदेश देते रहते। बापू के प्रभाव में आकर अपनी पढ़ाई खो दूंगा ऐसा लगने से हरिलाल ने किसी को कहे बिना घर छोड़ देने का सोचा। जोसेफ़ रॉयपन को जोहान्सबर्ग में हरिलाल ने अपने भारत जाने के बारे में बताया। 8 मई, 1911 को अपनी कुछ चीज़ें बटोरकर, जिसमें गांधी जी की एक तस्वीर भी थी, बिना किसी से कहे वे चुपके से निकल गए। हरिलाल जोहान्सबर्ग से रेलगाड़ी में बैठकर अफ़्रीका के पूर्वी किनारे के पुर्तगाल के अधीन एक बंदरगाह डेलागोआ-बे पहुंचे। उन्होंने अपना नाम बदल लिया था, जिससे उनको गांधी जी के बेटे के रूप में कोई पहचान न पाए। लेकिन वहां के ब्रिटिश काउंसिल के पास एक ग़रीब भारतीय की हैसियत से भारत भेजने की जब उन्होंने मांग की तो वे पहचान लिए गए। उन्हें वापस लौट जाने के लिए कहा गया। 15 मई को वे वापस जोहान्सबर्ग आ गए। पिता-पुत्र ने विभिन्न विषयों पर विस्तार से चर्चा की। 16 मई को नाश्ते के बाद गांधी जी ने घोषणा की कि दूसरे दिन हरिलाल भारत वापस जाएंगे। 17 मई को जोहान्सबर्ग रेलवे स्टेशन पर उनको विदा करने गांधी जी भी गए। जब गाड़ी छूटने लगी तो भरे हुए गले से गांधी जी ने कहा, “बाप ने तुम्हारा कुछ बिगाड़ा हो, ऐसा लगे तो उसे माफ़ करना।”

गाड़ी चल पड़ी। बोझिल मन से पिता और पुत्र अलग हुए।

‘देश सेवा की तपश्चर्या के अंश के रूप में गांधी जी ने पुत्र की आहुति दी।’

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मंगलवार, 16 जुलाई 2013

जोहांसबर्ग में टॉल्सटाय फार्म की स्थापना

गांधी और गांधीवाद-151
1909

जोहांसबर्ग में टॉल्सटाय फार्म की स्थापना

लंदन से गंधी जी 1909 के अंत तक वापस आ गए। वहां का उनका राजनीतिक उद्देश्य पूरा नहीं हुआ था। ब्रिटिश सरकार ने दक्षिण अफ़्रीका उपनिवेश की नीति को रोकने में अपनी असमर्थता व्यक्त कर दी थी। दक्षिण अफ़्रिका वापस आने पर एक परीक्षा की घड़ी उनके सामने थी। उन्हें अब लगने लगा था कि धीमे पड़ चुके सत्याग्रह को तेज़ करना होगा। इसके लिए स्वैच्छिक त्याग करने वाले सत्याग्रहियों को उन्हें एकजुट रखना था। सत्याग्रही को बलिदान देने योग्य होने के लिए सादगी, शुद्धि, संयम और अनुशासन अपनाने के लिए संघर्ष करना पड़ता था। इसके साथ ही सत्याग्रही के जेल जाने पर उसके परिवार व आश्रितों की देखभाल का प्रश्न भी महत्वपूर्ण था। हालांकि एक तरफ़ सत्याग्रह आंदोलन पूरे उत्साह और जोश से चल रहा था, वहीं दूसरी तरफ़ जेल, देश-निकाला और भारी-भारी ज़ुर्मानों से सत्याग्रह आंदोलन को सरकार द्वारा कुचलने का भरपूर प्रयास किया जा रहा था। लेकिन जोश हमेशा तो बना नहीं रह सकता था। धीरे-धीरे आंदोलन संकट के दौर में पहुंचा। प्रतिबद्ध सत्याग्रही तो जेल आते-जाते रहे, लेकिन बहुसंख्यक आंदोलनकारी थक गये थे। सरकार का अड़ियल रवैया बरकरार था, अतः आंदोलन लंबा खिंचनेवाला था।

आंदोलन जब लंबा खिंचने लगा तो लोगों का उत्साह धीरे-धीरे कम होने लगा। एक बार तो यह हालत हो गई कि केवल प्रमुख सत्याग्रही ही बचे। तब तक भारतीय समुदाय ने आंदोलन पर लगभग 10,000 पाउंड खर्च कर दिए थे। लेकिन खर्च की भी एक सीमा थी। गांधी जी को हर माह 165 पाउंड की ज़रूरत थी, जिससे वे लंदन और जोहान्सबर्ग में ऑफिस चला पाते, ज़रूरतमंद परिवारों की मदद कर पाते, और ‘इंडियन ओपिनियन’ को चला पाते। लड़ाई लंबे अरसे तक चलानी थी, इसके लिए पैसे की चिंता गांधी जी को तो थी ही। गांधी जी जनसेवा पर ही लगभग पूरा समय और शक्ति लगा रहे थे। इसलिए वकालत के पेशे के लिए उनके पास कम समय ही बचा था और रुचि भी काफ़ी कम ही थी। इसलिए पहले की तरह इस पेशे से हो रही आय को जनसेवा के काम लगा पाने का साधन उनके पास नहीं था। संयोग से केपटाउन में उतरते ही गांधी जी को तार मिला कि सर रतनजी जमशेदजी टाटा ने सत्याग्रह कोष में 25 हज़ार रुपया दिया है। उस समय इतना रुपया काफ़ी था। इस सहायता से गांधी जी का काम चल निकला।

यह तो सही था कि किसी भी धनराशि से सत्याग्रह की आत्मशुद्धि की, आत्मबल की लड़ाई नहीं चल सकती थी। इस आंदोलन के लिए चारित्र्य की पूंजी ही सबसे बड़ी पूंजी थी। एक तरफ़ तो यह हाथी और चींटी की लड़ाई थी, वहीं दूसरी तरफ़ कितनी देर चलेगी कोई कह नहीं सकता था। एक तरफ़ जनरल बोथा और जनरल स्मट्स ने एक इंच भी न हटने की प्रतिज्ञा ले रखी थी तो दूसरी तरफ़ सत्याग्रहियों ने भी मरते दम तक जूझने की क़सम उठा रखी थी। सत्याग्रहियों के लिए समय सीमा कोई मानी नहीं रख रहा था, एक वर्ष लगे या अनेक वर्ष! उनके लिये लड़ाई ज़ारी रखना ही प्रमुख बात थी। लड़ाई का मतलब था जेल जाना, देशनिकाला होना, सरकारी दमन का बढ़ना। प्रवासी भारतीयों पर सरकारी दमन का असर होने लगा। कई व्यापारियों को भारी नुकसान उठाना पड़ा। कई लोग आजीविकाविहीन हो गये। आजीविका के बिना सत्याग्रही उद्विग्न होते जा रहे थे। भूखों रहकर और अपनों को भूखों मारकर भी लड़ाई में जुटे रहने वालों की संख्या कम होती गई। कई आंदोलन से अलग हो गए। जेल जाने वाले सत्याग्रहियों की संख्या कम होती गई। थोड़े से चुने हुए पक्के लोग ही गिरफ़्तार हो रहे थे। जेल गए सत्याग्रहियों के परिवार के सदस्य काफ़ी मुसीबत में थे। गांधी जी को अच्छा नहीं लगता था कि जेल जाने वाले सत्याग्रहियों को अपने परिवार की सुरक्षा के बारे में इस प्रकार से चिंतित होना पड़े। कौम की ख़ातिर वे नौकरी, धंधा, आमदनी, सबकुछ छोड़कर जेल गए थे। उनके बाल-बच्चे, बूढ़े, मां-बाप आदि बड़ी कठिनाई में थे। गांधी जी को लगता था कि कौम का फ़र्ज़ है कि वे इन बेसहारा परिवारों की परवरिश करें।

सत्याग्रह-मंडल ऐसे सत्याग्रहियों के परिवार के भरण-पोषण के लिए हर महीने पैसे देता था। लेकिन अब सत्याग्रहियों के परिवारों के भरण-पोषण के लिए इकट्ठा किया गया कोष धीरे-धीरे खाली होता जा रहा था। गांधी जी की वकालत तो लगभग बंद-सी ही थी। जो कुछ भी उनकी जमा-पूंजी थी, वह भी सत्याग्रह की भेंट चढ़ चुकी थी। इंडियन ओपिनियन’ को चलाने के लिए भी पैसों की ज़रूरत थी। खर्च को काफ़ी हद तक कम किए बिना सत्याग्रह की लड़ाई को लंबे समय तक चला पाना लगभग असंभव था। गांधी जी को लगा कि यह मुश्किल एक ही तरह से हल हो सकती है कि सारे कुटुंबों को एक जगह रखा जाए और सब साथ रहकर काम करें। इसलिए गांधी जी ने सत्याग्रही क़ैदियों के परिवारों को किसी सहकारी खेत पर बसाने का निश्चय किया। लेकिन गांधी जी के सामने सबसे बड़ा प्रश्न था कि सत्याग्रहियों के परिवार के सौ दो सौ लोगों को कहां रखा जाए। ऐसी जगह कहां मिलेगी? शहर में इतना लंबा-चौड़ा स्थान मिल भी नहीं सकता था जहां बहुत से परिवार घर बैठे कोई उपयोगी धंधा कर सकें। यह तो स्पष्ट था कि उन्हें ऐसा स्थान पसंद करना था जो शहर से न बहुत दूर हो और न बहुत नजदीक। गांधी जी से जुड़े अधिकांश सत्याग्रही ट्रांसवाल में बसे हुए थे। आश्रम की स्थापना फिनिक्स में हुई थी। ‘इंडियन ओपीनियन’ वहां छपता था। थोड़ी खेती भी वहां होती थी। और भी कई सुविधाएं वहां थीं। पर यह स्थान ट्रांसवाल से चार सौ मील दूर था। आन्दोलन का केन्द्र जोहान्सबर्ग था और फीनिक्स वहां से इतनी दूर था कि रेल द्वारा वहां जाने में पूरे तीस घंटे लगते थे। इतनी दूर कुटुंबों को लाना बहुत ही टेढ़ा और महंगा काम था। ट्रांसवाल के लोगों की व्यवस्था स्थानीय तौर पर ही करना उन्हें श्रेयस्कर लगा। गांधी जी ने निश्चय किया कि एक आश्रम ट्रांसवाल में भी स्थापित किया जाए जहां सत्याग्रहियों को उनके परिवार के साथ बसाया जाए। कई सत्याग्रही जेल में थे। उनके बच्चे अनाथ हो गए थे। यदि आश्रम बन जाता तो इन बेसहारा परिवारों को एक सहारा मिल जाता।

हरमन कालेनबे
लेकिन नया आश्रम बनाना आसान काम नहीं था। गांधी जी के पास इतना धन नहीं था। इस विषय पर उन्होंने अपने मित्र हरमन कालेनबाख से चर्चा की। उन्होंने मदद का आश्वासन दिया। गांधी जी के जर्मन शिल्पकार मित्र हरमन कालेनबाख ने उनकी इस परियोजना को मूर्त रूप देने के लिए जोहान्सबर्ग से 21 मील दूर लॉले स्टेशन के पास जंगल में 1100 एकड़ सस्ती जमीन खरीदी और 30 मई 1910 को सत्याग्रहियों को बिना किसी भाड़े लगान के काम में लाने का अधिकार दे दिया। यहां की ज़मीन उबड़-खाबड़ थी। संतरों, खुबानी और आलू-बुखारों के पेड़ों वाले इस एक हज़ार एकड़ ज़मीन में लगभग एक हज़ार फलवाले पेड़ थे। सिंचाई की भी यहां अच्छी व्यवस्था थी। पानी के लिए एक झरना और दो कुंए थे। जहां रहना था उस जगह से वह झरना कोई 500 गज दूर था। इसलिए पानी कांवर पर भरकर लाने की मेहनत तो थी ही। पहाड़ी की तलहटी में पांच-सात आदमियों के रहने लायक़ एक छोटा-सा मकान भी बना हुआ था। रेलवे स्टेशन लॉले क़रीब एक मील पर था और जोहान्सबर्ग 21 मील पर।
टॉल्सटॉय फार्म की ज़मीन

गांधी जी ने इस जगह पर रूस के संत के नाम पर “टालस्टाय फार्म” के नाम से एक छोटी-सी बस्ती बसाई। गांधी जी की टॉलस्टॉय के प्रति परम श्रद्धा थी। उनके साथ गांधी जी की जीवन के मूल्य और आदर्शों के बारे में पत्र-व्यवहार होता रहता था। टॉल्सटॉय भी श्रमजीवन में विश्वास रखते थे। रूस के एक गांव में रहकर वे आजीवन शरीर-श्रम करते रहे। इन विचारों से प्रभावित होकर 4 जून, 1910 को अपने परिवार के साथ गांधी जी वहां रहने चले गए। कालेनबेक भी साथ में थे। जब सत्याग्रही जेल में नहीं होता, तो यहां रह सकता था, जब वह जेल में होता तो उसका परिवार यहां रह सकता था। वहां सारा काम स्वावलंबन से होता था।

आश्रम का जीवन
चालीस वर्ष के भरे यौवन में गांधी जी ने टॉल्सटॉय फार्म की स्थापना की थी। अब गांधी जी के पास दो सामुदायिक बस्तियां थीं। फीनिक्स बस्ती से ‘इंडियन ओपिनियन’ प्रकाशित होता था और वहां उनकी पत्नी और बच्चे रहते थे। फीनिक्स बस्ती की तरह ही टॉल्सटॉय फार्म भी एक सहकारी बस्ती थी। यहां का जीवन गांधी जी के लिए सबसे फलदायक और सुखकर दिन थे। यहीं गांधी जी के कई विचार पल्लवित और पुष्पित हुए।  उन्होंने सफल-समृद्ध बैरिस्टरी को हमेशा के लिए छोड़ दिया था और परिवार सहित यहां चले आए थे। इस जंगल जैसी जगह में संन्यासी ब्रह्मचारी का जीवन जीने लगे थे। इस जंगल में न कोई मकान था, न ही कोई व्यवस्था। उन्हें कठिनाइयों में ही सुख मिलता था। जिसे लोग आत्मनिषेध कहते हैं, उसे वे आत्मपरिपूर्णता मानते थे। अपने हृदय की प्रसन्नता के लिए वे एक किसान और मज़दूर की तरह अपने हाथों से काम करते थे। इस स्थान में उनका यह आग्रह था कि घर का कोई काम नौकर से न लिया जाए और खेती-बारी का काम भी जितना अपने हाथों से हो सकता है किया जाए।

सांपों के बीच
यहां वे सांपों के बीच रहे और उनको इस बात की तसल्ली थी कि एक सांप भी उन्होंने नहीं मारा। रहने वालों के लिए सांपों का खतरा हमेशा बना रहता था। कालेनबेक ने सांपों पर जितना संभव हो सका उतनी पुस्तकें इकट्ठी की। इन पुस्तकों के अध्ययन के आधार पर उसने रहने वालों को विषैले और विषहीन सापों में अन्तर को समझाया। विषैले सांपों के उपद्रव और जान के नुकसान का भय तो बना रहता ही था। कालेनबेक ने इस विषय पर गांधी जी से बात भी की। गांधी जी की अहिंसा में अटूट श्रद्धा थी। लेकिन किसी आश्रम निवासी की जान की क़ीमत पर नहीं। एक दिन कालेनबेक के कमरे में एक सांप घुस आया। वह विषैला था। वह ऐसी स्थिति में थे कि न तो उसे भगा सकते थे, न ही खुद भाग सकते थे। एक लड़के ने गांधी जी को इस स्थिति की सूचना दी और उसे मारने की अनुमति मांगी। गांधी जी ने उसे ऐसा करने की इज़ाजत दे दी।

एक छोटी-सी बस्ती खड़ी की
टॉल्सटॉय फार्म
आर्किटेक्ट के रूप में कालेनबैक थे ही, एक यूरोपीयन राज मिस्त्री को भी वे अपने साथ ले आए। एक गुजराती बढ़ई नारायणदास दमानिया ने निःशुल्क सेवा प्रदान की। दूसरे बढ़ई भी थोड़े पैसे में बुला लिए गए थे। बढ़ई का आधा काम तो बिहारी नाम के एक सत्याग्रही ने किया। दो महीने से कम के समय में गांधी जी और कालेनबाख ने कुछ मज़दूरों की मदद से टीन-चद्दरों की एक छोटी-सी बस्ती खड़ी की। अपने चचेरे भाई को उन्होंने लिखा था, “जिन मज़दूरों के साथ आजकल मैं काम कर रहा हूं, उन्हें मैं अपने से बेहतर इंसान मानता हूं।” सफ़ाई का काम, शहर जाना, और वहां से सामान लाने का काम थंबी नायडू के जिम्मे था। मकान लगभग दो महीनों में बने। जब तक मकान बन रहे थे, लोगों को तंबुओं में सोना पड़ा। मकान लोहे की सफ़ेद चादरों के थे। इस तरह उन्होंने सत्याग्रहियों के परिवार के पुनर्वास की समस्या सुलझाई और उनकी रोजी रोटी का इंतजाम किया। बाद में यही फार्म गांधी आश्रम बना। यहां स्त्री और पुरुष अलग-अलग रखे गए थे। 10 स्त्रियां और 60 पुरुषों के रहने लायक मकान तुरंत बना लिए गए। एक मकान कालेनबैक के रहने के लिए बनाया गया।

इस आश्रम में लोग सादा सामुदायिक जीवन व्यतीत करते थे। बस्ती पूरी तरह आत्म-निर्भर थी। इस भूमि पर एक झरना था। वहां से कांवड़ों में भरकर पानी लाया जाता था। एक लोटा भी पानी लाना हो तो भी आने-जाने में आधा घंटा लग जाता था। लेकिन उन आश्रमवासियों और गांधी जी का उत्साह गजब का था। वहां एक सहकारी फार्म चला कर सत्याग्रह संग्राम में उनके सहयोगी तथा परिवार के लोग बहुत थोड़े में और बड़ी कठिनाई से अपनी गुजर-बसर करते थे। सच पूछा जाए तो वहां उनका जीवन जेल से भी कठोर था। गांधी जी का आग्रह था कि घर का कोई काम नौकर से न लिया जाए। खेती-बारी और घर बनाने का काम अपने हाथों से किया जाता था। पाखाना साफ़ करने से लेकर खाना पकाने तक का सारा काम सभी अपने हाथों से ही करते थे। उस समय का वर्णन करते हुए गांधीजी ने बाद में कहा थाः हम सभी मजदूर बन गए थे। हमारा पहनावा भी मजदूरों का था, पर यूरोपीय ढंग का यानी मजदूरों के पहनने के पतलून और कमीज, जो कैदियों द्वारा पहने जाने वाले कपड़े की तरह के थे।गांधी जी लिखते हैं – ‘टॉल्स्टॉय फार्म में निर्बल सबल हो गए और मेहनत सबके लिए शक्ति-वर्धक साबित हुई।’39

जिन्हें अपने निजी काम से जोहान्सबर्ग जाना होता था, वे पैदल इक्कीस मील आते-जाते। रात के दो बजे चलना आरंभ होता, तो सुबह सात बजे के पहले पैदल चलने वाले जोहान्सबर्ग पहुंच जाते। यद्यपि गांधीजी चालीस साल से अधिक उम्र के थे और सिर्फ फल खाते थे लेकिन एक दिन में चालीस मील चलना उनके लिए बड़ी बात न थी। एक बार तो उन्होंने दिन भर में 55 मील की यात्रा की थी फिर भी पस्त नहीं हुए। टालस्टाय फार्म के सभी निवासियों तथा उनके बच्चों के लिए शारीरिक श्रम अनिवार्य था। इतने कठोर अनुशासन में रहने वालों को जेल का भय ही क्या हो सकता था?

इस आश्रम में गुजरात, मद्रास, आंध्र और उत्तर भारतीय लोग रहते थे। इसमें हिंदू, मुसलमान, पारसी और ईसाई धर्म के मानने वाले लोग रहते थे। 40 युवक, तीन बूढ़े, पांच स्त्रियां, और 30 बच्चे थे, जिनमें पांच लड़कियां थीं। निरामिष आहार होता था। रसोई का काम महिलाएं किया करती थीं। उनकी मदद के लिए एक-दो पुरुष भी होते थे। उनमें से एक गांधी जी ख़ुद थे। रसोई जितनी हो सके सादी होती थी। भोजन में चावल, दाल, तरकारी, रोटी और कभी-कभी खीर होना सामान्य नियम था। ये सारी चीज़ें एक ही बरतन में परोसी जातीं। बरतन  में थाली की जगह तसली जैसी बरतन का प्रयोग होता और लकड़ी के चमचे अपने हाथ से बना लिए गए थे। खाना तीन वक़्त दिया जाता। सबेरे छह बजे रोटी और गेंहूं का कहवा, ग्यारह बजे दाल-भात और तरकारी और शाम के साढ़े पांच बजे गेहूं की लपसी और दूध या रोटी और गेहूं का कहवा। सबको एक ही पांत में भोजन करना होता था। सबको अपने-अपने बरतन मांज कर साफ़ करना होता था। रात के 9 बजे सबको सो जाना होता। शाम के भोजन के बाद सात-साढ़े सात बजे प्रार्थना होती। प्रार्थना में भजन गाए जाते और कभी रामायण से तो कभी इसलाम के धर्मग्रंथों से कुछ पढ़ा जाता। भजन अंग्रेज़ी, हिंदी और गुजराती में होते।

गांधी जी इस फार्म पर दो वर्ष ही रहे, लेकिन इतने कम समय में ही उन्होंने इसका भव्य विकास कर दिया। सख्त भूमि को खोदकर उसमें फलों के वृक्ष लगाए गए। साग, सब्जी, फूल आदि बोए गए। एक ही रसोई थी, जिसमें सभी लोगों के लिए भोजन बनता था। पाखाना अदि की साफ़-सफ़ाई वे अपने हाथ से ही करते थे। कई महीने बाद वहां पवन चक्की लगाई गई। अब उन्हें कांवड़ में पानी लाने की ज़रूरत नहीं पड़ती थी।
टॉल्सटॉय फार्म जाने का रास्ता

इस आश्रम में इतने आदमी इकट्ठे रहते थे, फिर भी किसी को कहीं कूड़ा, मैला या जूठन पड़ी दिखाई नहीं देती थी। एक गड्ढ़ा खोद रखा गया था, उसी में सारा कूड़ा डालकर ऊपर से मिट्टी डाल दी जाती। पानी कोई रास्ते में न गिराता। सब बरतनों में इकट्ठा किया जाता और उसे पेड़ों को सींचने के काम में खर्च किया जाता। जूठन और साग-तरकारी के छिलकों की खाद बनती। पाखाने के लिए रहने के मकान के पास एक चौरस डेढ़ फुट गहरा गड्ढ़ा खोदा गया था। उसी में सारा पाखाना डाल दिया जाता और ऊपर से खोदी हुई मिट्टी को भी डालकर पाट दिया जाता। इससे ज़रा भी दुर्गन्ध नहीं आती। मक्खियां भी वहां नहीं भिनभिनातीं। इसके साथ ही फार्म को खाद भी मिलता। गांधी जी का कहना है, “हम मैले का सदुपयोग करें तो लाखों रुपये की खाद बचाएं और अनेक रोगों से भी बचें। पाखाने के बारे में अपनी बुरी आदत के कारण हम पवित्र नदी के किनारे को भ्रष्ट करते हैं, मक्खियों की उत्पत्ति करते हैं और नहा-धोकर साफ-सुथरे होने के बाद, जो मक्खियां हमारी बेहूदी लापरवाही से खुले हुए विष्टा पर बैठ चुकी हैं, उन्हें अपने शरीर का स्पर्श करने देते हैं। एक छोटी सी कुदाली हमें बहुत सी गंदगी से बचा सकती है। चलने के रास्ते पर मैला फेंकना, थूकना, नाक साफ करना ईश्वर और मनुष्य दोनों के प्रति पाप है। इसमें दया का अभाव है। जंगल में रहनेवाला भी अगर अपने मैले को मिट्टी में दबा नहीं देता तो वह दंड के योग्य है।”39

एक कारखाना
गांधी जी चाहते थे कि सत्याग्रही के परिवर के सदस्य स्वालंबी बने। इस हेतु बढ़ई के काम, मोची के काम इत्यादि के लिए एक कारखाना भी तैयार किया गया। कालेनबाख की देखरेख में वह कारखाना चलता था। इस कारखाने में ज़रूरत कई चीज़ें बनती थीं। कालेनबाख ने दक्षिण अफ़्रीका के पाइनटाउन के पास मेरियन हिल में चल रहे रोमन कैथेलिक पादरियों के ट्रेपिस्ट नामक मठ में चप्पल बनाने का काम सीखा था। यह काम उन्होंने गांधी जी और फार्म के अन्य निवासियों को सिखाया। वे सब चप्पल बनाना सीख गये और मित्र मंडलियों में बेचने भी लगे। जिन्होंने बढ़ई का धंधा सीखा था, वे बक्से और संदूक आदि बनाते।

पहनावा
हरेक व्यक्ति को दो कंबल और एक तकिया दिया गया था। सभी बाहर के बरामदे मे जमीन पर सोते थे। दक्षिण अफ़्रीका के शहरों में आम तौर पर पुरुषवर्ग का पहनावा यूरोपियन ढंग का ही होता था। सत्याग्रहियों का भी था। फार्म पर उन्हें ऐसे कपड़ों की ज़रूरत नहीं थी। सभी मज़दूर बन गए थे। वे मज़दूरों का पहनावा रखते थे, पर यूरोपियन ढंग के मज़दूरों का। यानी मज़दूरों के पहनने का पतलून और उसी तरह की कमीज। मोटे आसमानी रंग के कपड़े का सस्ता पतलून और कमीज सभी पहनते।

बुनियादी शिक्षा
फार्म के बच्चे को पढ़ाने के लिए एक स्कूल भी खोला गया। यहां मस्तिष्क नहीं बल्कि हृदय द्वारा, अक्षरों नहीं बल्कि शारीरिक श्रम के द्वारा शिक्षा देने का पहला प्रयोग किया गया। बुनियादी शिक्षा की प्रणाली को गांधी जी ने यहां बड़े मेहनत से विकसित किया। गांधी जी के तीन लड़के यहां के छात्र थे। योग्य हिन्दुस्तानी शिक्षक की कमी थी। अगर मिल भी जाए तो तनख़्वाह के बिना डरबन से इक्कीस मील दूर कौन आता? इसलिए गांधी जी ख़ुद ही वहां के बच्चों को पढ़ाते थे। वे हफ़्ते में पांच दिन, (सोमवार और गुरुवार को छोड़ कर, उन दिनों वे कालेनबेक के साथ शहर जाते) दिन में तीन घंटे, हिंदी, गुजराती, इंगलिश और तमिल भाषाएं सिखाते थे। इस काम में उन्होंने केलनबैक और प्रागजी देसाई की सहायता ली। वे मस्तिष्क की अपेक्षा हृदय और चरित्र की शिक्षा पर अधिक ज़ोर देते थे। छात्रों के पाठ्यक्रम में शारीरिक श्रम को भी डाल दिया गया था। बच्चे गड्ढ़े खोदते, पेड काटते, बोझा ढोते और बढ़ईगिरी तथा मोची का काम सीखते। टॉलस्टॉय फार्म के उत्तरदायित्वों ने गांधी जी में आत्म-निग्रह और संयम में काफ़ी वृद्धि की। स्कूल में सह-शिक्षा दी जाती और गांधी जी एक मां की तरह बच्चों पर नज़र रखते थे।

आश्रम में नौकर तो थे नहीं। पाखाना-सफ़ाई से लेकर रसोई बनाने तक के सारे काम आश्रमवासियों को ही करने होते थे। केलनबैक को खेती का बहुत शौक था। जो रसोई के काम में न लगे थे, वे कलेनबैक के साथ बगीचे का काम करते। आश्रम में यह रिवाज़ था कि जो काम शिक्षक न कर सकें वह बालकों से न कराया जाए। और बालक जिस काम में हों, उसमें उनके साथ उसी काम को करने वाला एक शिक्षक हमेशा रहे। इसलिए बालकों ने जो भी सीखा, उमंग के साथ सीखा।

वहां सभी धर्म की शिक्षा दी जाती थी। इससे बालकों में कभी असहिष्णुता नहीं आई। एक-दूसरे के धर्म और रीति-रिवाज के प्रति उन्होंने उदार-भाव रखना सीखा। सगे भाइओं की तरह हिल-मिलकर रहना सीखा। एक-दूसरे की सेवा करना सीखा। सभ्यता सीखी।

इस फर्म में सहशिक्षा का प्रयोग किया गया था। लड़के-लड़कियों को मर्यादा धर्म के विषय में खूब समझया जाता था। गांधी जी बच्चों को मां की तरह प्यार करते थे। सभी एक खुले बरामदे में सोते। लड़के-लड़कियां गांधी जी के आस-पास सोते। दो बिस्तरों के बीच तीन फुट का अंतर होता। सभी बच्चे पास के झरने में एक साथ नहाने जाते। एक दिन किसी लड़के ने गांधी जी को खबर दी कि एक युवक ने दो लड़कियों के साथ छेड़खानी की है। गांधी जी ने जांच की। बात सच निकली। उन्होंने युवकों को समझाया। पर यह उन्हें नाकाफ़ी लगा। वे दोनों लड़कियों के शरीर पर कुछ ऐसा चिह्न चाहते थे जिससे हरएक युवक यह समझ सके और जान ले कि इन बालाओं पर कुदृष्टि डाली ही नहीं जा सकती। दूसरे दिन सुबह-सुबह उन्होंने दोनों लड़कियों को बुलाया और उन्हें बाल उतार देने की विनती की। उनके बाल उतार दिए गए। इससे “सामने वाले की आंखों को न तो सुंदरता देखने को मिलेगी न उनके मन में पाप आएगा।” परिणाम अच्छा रहा। फिर से उन्हें यह छेड़खानी वाली बात नहीं सुनाई दी। गांधी जी का कहना था कि ऐसे प्रयोग अनुकरण के लिए नहीं किए गए बल्कि सत्याग्रह की लड़ाई की विशुद्धता बताने के लिए किए गए। इस विशुद्धता में ही उसकी विजय की जड़ थी। ऐसे प्रयोग के पीछे कठिन तपश्चर्या का बल होना चाहिए।

आश्रमवासियों ने रोज़ा रखा
टॉल्सटॉय फार्म में गांधी जी अपने सहयोगियों के साथ
इसी प्रयोग में उन्होंने अपने तीनों बेटे मणिलाल, रामदास और देवदास को भी फिनिक्स के बसे-बसाए घर से निकालकर अपने पास टॉल्सटॉय फार्म पर बुलवा लिया। टॉल्सटॉय फार्म जेल जाने वाले सत्याग्रहियों के परिवारों का आश्रय-स्थल बना। इस फार्म में 7 से लेकर 20 साल तक के बच्चे और युवक थे। जेल में बंद सत्याग्रहियों के इन बच्चों को गांधी जी अनौपचारिक रूप से शिक्षित करना चाहते थे। यहां एक तरण ताल भी था। उसमें बच्चे स्नान करते थे। इस फार्म में हिंदू, मुसलमान, पारसी, ईसाई सभी धर्मों के बच्चे थे। गांधी जी विशेष ध्यान देते कि प्रत्येक बच्चा अपने धर्म का पालन करे और उसका अपने-अपने धर्मग्रंथ से परिचय हो। मुसलमान के बच्चे को क़ुरआन की शिक्षा दी जाती तो ईसाई के बच्चे को बाइबिल की। रमजान के महीने में मुसलमान बच्चों ने रोज़ा रखा। उन लोगों को इतना कठिन उपवास सहन हो और अकेलापन महसूस न हो, इसलिए कालेनबाख और गांधी जी भी उन लोगों के समान दिन-भर का निर्जला व्रत रखते। इस प्रकार वहां सद्भाव और प्रीति का विकास हुआ। वहां के सभी लोगों ने स्वेच्छा से शाकाहारी आहार अपना लिया था।

इस आश्रम में हिन्दू, मुसलमान, पारसी और इसाई धर्म के लोग मिलजुलकर एक परिवार की तरह रहते थे। इस फार्म में सथाग्रहियों का आना-जाना लगा रहता था। सत्याग्रह के अंतिम युद्ध के लिए यह फार्म आध्यात्मिक शुद्धि का और तपश्चर्या का स्थान सिद्ध हुआ। यहां की दिनचर्या शरीर, मन एवं चेतना को प्रशिक्षित करती थी। आहार, पोषाक, स्वच्छता, बच्चों की शिक्षा जैसे सभी विषयों पर गांधी जी विशेष ध्यान देते थे।

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बुधवार, 10 जुलाई 2013

“लुटेरा” - अच्छी और अलग फ़िल्म

“लुटेरा” - अच्छी और अलग फ़िल्म


शोभा कपूर और एकता कपूर द्वारा बालाजी मोशन पिक्चर्स बैनर तले निर्मित ‘उड़ान’ फेम निर्देशक विक्रमादित्य मोटवाणे द्वारा निर्देशित फ़िल्म ‘लुटेरा’ का हर फ्रेम एक पेंटिंग की तरह सजा हुआ है। यह एक गंभीर निर्देशक की ऐसी फ़िल्म है जो अहिस्ता-आहिस्ता दिल में समाती चली जाती है और वहीं बस जाती है। मोटवाणे ने इस फ़िल्म में कहानी कहने की एक ऐसी कला ईजाद की है जिसमें दृश्य कहानी कहता है, कलाकारों की आंखें बोलती हैं, उनकी भाव-भंगिमाएं कहानी को बहा ले जाती हैं और दर्शक भाव-विभोर होकर इसके हरेक दृश्य में डूब जाता है। साहित्यिक भाषा में कहें तो फिल्म में चाक्षुष बिम्ब से चित्र भरे पड़े हैं। इस बात का अंदाजा आप इसी से लगा सकते हैं कि 140 मिनट की इस फ़िल्म के सभी संवादों को अगर एक साथ कर दिया जाए तो संवादों की अदायगी में लगा समय 20 मिनट से अधिक के नहीं होगा।

यह फ़िल्म सिर्फ़ दो व्यक्तियों, वरुण (रणवीर) और पाखी (सोनाक्षी), की कहानी है। जगह बंगाल का माणिकपुर गांव। फ़िल्म के पूर्वार्ध में ऐसा लगता है कि बांगाल के कैनवास पर चित्रकारी की गई है। फ़िल्म के छायाकार महेन्द्र शेट्टी ने कलाकारों की, कहानी की, और जिस पृष्ठभूमि पर कहानी का ताना-बाना बुना गया उन पृष्ठभूमियों की, मासूमियत, कोमलता और सहजता को एक-एक फ्रेम में इस ख़ूबसूरती को यूं क़ैद किया है कि दर्शक हर दृश्य से प्यार करने लगे। कथानक उस काल का है जब ज़मींदारी प्रथा का उन्मूलन हो रहा था। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में, जब भारतीय सरकार द्वारा ज़मींदारी प्रथा की समाप्ति की घोषणा की जाने वाली थी, वरुण पुरातात्ववेत्ता के रूप में दर्शकों के सामने आता है। पाखी उस क्षेत्र के ज़मींदार रायचौधरी (बरुण चंदा) की पुत्री है। पहली नज़र के दीवाने प्यार की तरह पाखी वरुण के प्यार में डूब जाती है। वरुण के दिल में भी उसके लिए कुछ-कुछ होता है। लेकिन परिस्थियां कुछ ऐसी करवट लेती हैं कि वरुण पाखी से तय विवाह नहीं कर पाता बल्कि आपराधिक पृष्ठभूमि में चल रहे इस प्यार को छोड़ वह बहुमूल्य मूर्ति लेकर भाग जाता है।

नसीब उन्हें फिर मिलाता है। इस बार हिमाचल प्रदेश के डलहौजी में। पुलिस से भागता फिरता वरुण क्षय रोग से पीड़ित पाखी के घर में शरण लेता है। अपने अंतिम दिन गिन रही पाखी नफ़रत-प्यार और भूली-बिसरी बातों के मायाजाल में फंसी रह जाती है। उसके घर के सामने एक पेड़ है। उस पेड़ की अंतिम पत्ती में वह अपनी ज़िन्दगी की डोर बांधे उस पत्ती के गिरने का इंतज़ार करती है। यह दृश्य संभवतः अमेरिकी लेखक ओ. हेनरी की कहानी ‘द लास्ट लीफ’ से प्रेरित लगती है।

अभिनेताओं के चयन में काफ़ी सूझ-बूझ दर्शाई गई है। इसके पहले ‘बैंड बाजा बारात’ और ‘लेडिज़ वर्सेस रिक्की बहल’ से अपना सिक्का जमा चुके रणवीर न सिर्फ़ लुक में अच्छे लगे हैं, बल्कि उनकी बॉडी-लैंगुएज से भी उन्होंने अभिनय की छाप छोड़ी है। वरुण प्रेमी भी है, लुटेरा भी। प्यार के लिए मर-मिटने वाला भी और धोखेबाज़ भी। वरुण के चरित्र की जटिलता को उन्होंने अपने अभिनय के द्वारा बखूबी प्रस्तुत किया है।

अब तक अन्य मसाला फ़िल्मों में ग्लैमरस रोल कर चुकीं सोनाक्षी ने इस चुनौतीपूर्ण फ़िल्म के ज़रिए अपनी अभिनय क्षमता का अद्भुत प्रदर्शन किया है। एक बंगाली बाला को साड़ी पहन कर उन्होंने जीवन्त कर दिया है तथा अपने नेचुरल एक्टिंग से जीवन के दोनों पक्षों, जब वह प्रेम रस में डूबी होती हैं तब, और जब प्रेम में छली जाने के बाद में दर्द में डूबी होती हैं तब, उन्होंने अपने चेहरे की भाव-भंगिमाओं के द्वारा बेमिसाल अभिनय का प्रदर्शन करते हुए अपने चरित्र को जीवंत कर दिया है। प्रेम और पीड़ा की सघनता को जीती, अवसाद में डूबी नायिका के रूप में यह उनका अभिनय ही था कि प्रेमिका को नायक द्वारा दिया गया धोखा एक बार तो दर्शक को खराब लगता है, पर नायक से नफ़रत नहीं होती। नायिका प्यार में धोखा देने वाले को कोई सज़ा नहीं दिलाना चाहती, ख़ुद को मिटाने की राह पर चल देती है। उनकी संवाद अदायगी की सरलता, मासूमियत और भोलापन इस फ़िल्म की प्रेम कहानी को अलग स्तर पर ले जाता है। उनकी यह प्रभावशाली भूमिका उन्हें एक से अधिक पुरस्कार दिला दे तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। बंगाली ज़मींदार और पाखी के पिता की भूमिका में बरुण चंदा ने अपने सधे अभिनय का प्रदर्शन किया है। पुलिस अधिकारी की भूमिका में आदिल हुसैन भी लाजवाब हैं। वरुण के मित्र के रूप में विक्रांत मैसी ने भी अपनी जबर्दस्त उपस्थिति दर्ज़ कराई है। दिव्या दत्ता ने भी अपनी छोटी सी भूमिका में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है।

तकनीकी पक्ष को देखें तो फ़िल्म एक पीरियड फ़िल्म है और परिवेश को जीवन्त प्रस्तुत करने के लिए इसके प्रोडक्शन डिजायनर और कॉट्यूम डिजायनर निश्चित रूप से बधाई के पात्र हैं। लगता है उन्होंने काफ़ी शोध के बाद 1950 के दशक के चरित्र और परिवेश को संवारा और निखारा है। संवाद लेखक अनुराग कश्यप के सहज-सरल शब्दों में संप्रेषित संवादों की बात न की जाए तो उनके प्रति नाइंसाफ़ी होगी। फ़िल्म के उतार-चढ़ाव और जटिलतम परिस्थितियों को उन्होंने सहज-सरल संवादों से सजाया-संवारा है। अमित त्रिवेदी और अमिताभ भट्टाचार्य ने भावपूर्ण और परिवेश के अनुकूल संगीत दिया है। मोनाली ठाकुर का गीत ‘संवार लूं ..’ बेहद लोकप्रिय हो चुका है। मोहन शेट्टी की सिनेमैटोग्राफी का एंगल और विजन ने फ़िल्म की ख़ूबसूरती को बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। उनके कैमरावर्क के कारण यह फ़िल्म एक कविता की तरह पर्दे पर दिखती है। एडिटिंग से थोड़ी शिकायत तो रह ही जाती है। चुस्त और कुशल एडिटिंग इस फ़िल्म की गति को बढ़ा सकती जहां चूक तो हो ही गई है।  


हालांकि अपनी धीमी गति से कभी-कभी, खास कर मध्यांतर के बाद फ़िल्म ऊब पैदा करती है, और यह प्रेम कहानी आपके धैर्य की परीक्षा लेती प्रतीत होती है, लेकिन इसके बावजूद फ़िल्म की कई विशेषताएं एक बार तो इसे देखने लायक बनाती ही हैं। ज़िन्दगी सरल रेखा नहीं है। आदमी जो सोचता है वह होता नहीं है। अगर ऐसा होता तो ज़िन्दगी ज़िन्दगी नहीं होती। अनहोनी के धागे से बुनी गई यह कहानी दर्शक, कहानी सबको प्रश्नवाचक के घेरे में रखती है और इस सिनेमा की यही खूबसूरती है। इस फ़िल्म में एक कहानी है, जो कहानी प्रेम कहानी है। इसीलिए आजकल की बिना कहानी की फ़िल्मों से अच्छी और अलग है यह फ़िल्म। इसी तरह के प्रयोग और दर्शकों का इन प्रयोगों में विश्वास, माड़-धाड़ और तड़क-भड़क से अलग अच्छी, साफ-सुथरी फ़िल्म के निर्माण में निर्माता-निर्देशकों को प्रेरित करेंगी। निर्देशक की यह दूसरी ही फ़िल्म है और इस फ़िल्म को देखकर उनसे और भी कई साफ-सुथरी, अच्छी फ़िल्मों की उम्मीद बंधती है।

शुक्रवार, 5 जुलाई 2013

टॉल्सटॉय और गांधी

गांधी और गांधीवाद-150

1909

टॉल्सटॉय और गांधी


गांधी जी के जीवनीकार लुई फ़िशर लिखते हैं, “मध्य रूस में एक स्लाव रईस उन्हीं आध्यात्मिक समस्याओं से जूझ रहा था, जिस पर दक्षिण अफ़्रीका में इस हिंदू वकील का ध्यान लगा था।” सबसे पहले पढ़ी, टॉल्सटॉय की पुस्तक ‘द किंगडम ऑफ़ गॉड विदिन यू’ के अध्ययन से गांधी जी काफ़ी प्रभावित थे। इसका अर्थ यह है कि ईश्वर का राज्य तुम्हारे हृदय में है। उसे बाहर खोजने जाओगे तो वह कहीं न मिलेगा। काउंट लियो टॉल्सटॉय (सितंबर 9, 1828 – नवंबर 20, 1910) के लेख गांधी जी का मार्गदर्शन करते थे और उनके संघर्ष में शांति प्राप्त करते थे। “मेरे जेल के अनुभव” में गांधी जी कहते हैं, “टॉल्सटॉय के लेख तो इतने सरस और इतने सरल होते हैं कि चाहे जो धर्म-प्रेमी उन्हें पढ़कर उनसे लाभ उठा सकता है। उनकी पुस्तक पढ़कर यह विश्वास अधिक होता है कि यह मनुष्य जैसा कहता था, वैसा ही करता भी रहा होगा।” आधुनिक सभ्यता, औद्योगिककरण, यौन संबंध और शिक्षा आदि अनेक विषयों पर टॉल्सटॉय की समीक्षा से गांधी जी पूरी तरह सहमत थे।

1828 में जन्मे लियो काउंट टॉल्सटॉय एक रईस व्यक्ति थे। किंतु 57वें वर्ष की उम्र में उन्होंने अमीरी के जीवन का त्याग कर दिया और सादा जीवन जीने लगे। नंगे पांव चलना शुरू कर दिया। सिगरेट पीना, मांस-मदिरा सेवन छोड़ दिया, सादे पोशाक में किसानों की तरह रहते और खुद ही खेती कर उपजाए अन्न से जीवन यापन करते। लंबी-लंबी दूरियां या तो पैदल या साइकिल से तय करते। 1891 में अपने जीवन के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए उन्होंने अपनी सारी दौलत अपनी पत्नी और बच्चों को दे दिया और लोगों की सेवा में अपना जीवन बिताने के उद्देश्य से ग्रामीण इलाके में चले गये। गांव के प्राइमरी स्कूल के बच्चों को पढ़ाने वाले इस व्यक्ति ने नोबेल पुरस्कार लेने से मना कर दिया, क्योंकि वे किसी का दिया धन तो स्वीकार कर ही नहीं सकते थे।

गांधी जी वर्षों से लियो टॉल्सटॉय को पत्र लिखने का साहस संजो रहे थे। 81वां जन्मदिन मना चुके टॉल्सटॉय से गांधी जी का सबसे पहला व्यक्तिगत संपर्क एक लंबे पत्र के द्वारा हुआ। यह पत्र अंग्रेज़ी में वेस्टमिन्स्टर पैलेस होटल, 4 विक्टोरिया स्ट्रीट, एस. डब्ल्यू, लंदन से 1 अक्तूबर 1909 को लिखा गया था। वहां से यह पत्र मध्य रूस में टॉल्सटॉय के पास यासनाया पोलियाना भेजा गया था। नवयुवक गांधी द्वारा टॉल्सटॉय को लिखे इस पत्र में अपार श्रद्धा और कृतज्ञता निवेदित किया गया था। साथ ही उन्होंने इस रूसी उपन्यासकार को ट्रांसवाल के सविनय अवज्ञा आंदोलन से अवगत कराया था। टॉल्सटॉय ने अपनी डायरी के 24 सितंबर 1909 (रूसी तारीख़ें उन दिनों पश्चिमी तारीख़ों से तेरह दिन पीछे चलती थीं) के विवरण में लिखा था, “ट्रांसवाल के एक भारतीय से मनोहारी पत्र प्राप्त हुआ। इस पत्र ने मेरे हृदय को छुआ।”

गार्हस्थिक कष्टों से त्रस्त, आसन्न मृत्यु की छाया में खड़े वयोवृद्ध टॉल्सटॉय ने यास्नाया पोल्याना से अक्तूबर (20 अक्तूबर) 1909 के रूसी भाषा में लिखे अपने जवाबी पत्र में अत्यधिक हर्ष और प्रसन्न विस्मय व्यक्त किया था।  टॉल्सटॉय की पुत्री ताशियाना ने इसे अंग्रेज़ी में अनुवाद करके गांधी जी को भेजा। वार एंड पीस, अन्ना केरोनिना और ए कन्फ़ेशन के रचयिता टॉल्सटॉय ने लिखा था, “मुझे आपका बड़ा दिलचस्प पत्र मिला, जिसे पढ़कर मुझे बहुत आनंद हुआ। ट्रांसवाल के हमारे भाइयों तथा सहकर्मियों की ईश्वर सहायता करे। कठोरता के विरुद्ध कोमलता का और अहंकार तथा हिंसा के विरुद्ध विनय और प्रेम का यह संघर्ष हमारे यहां हर साल अपनी अधिकाधिक छाप डाल रहा है। … मैं बंधुत्व की भावना से आपका अभिवादन करता हूं और आपसे संपर्क होने में मुझे हर्ष है।”

नवम्बर 101909 को जब समझौते की सारी उम्मीदें ध्वस्त हो गईं, गांधी जी ने टॉल्सटॉय को दूसरा पत्र लिखा। इसमें उन्होंने बताया कि किस प्रकार प्रवासी भारतीय महान संघर्ष से जुड़े हैं। अगर यह आन्दोलन सफल रहा तो यह न सिर्फ़ भारत बल्कि विश्व के अन्य देशों को भी उदाहरण पेश करेगा। उन्हें विश्वास था कि इस अहिंसक सत्याग्रह से जीत उन्हीं की होगी। इस पत्र के साथ उन्होंने पादरी जोसेफ़ डोक की लिखी पुस्तक, “M.K. Gandhi : An Indian Patriot in South Africa” भी संलग्न कर दिया था। उन्हें आशा थी कि टॉल्सटॉय इसे पढ़ेंगे, लेकिन उन दिनों वे गंभीर रूप से अस्वस्थ थे। जब वे इसे पढ़ सके, अप्रील 1910 में, तो पढ़कर मंत्रमुग्ध हो गए।

टॉल्सटॉय को गांधी जी ने 4 अप्रैल 1910 को फिर एक पत्र लिखा और उस पत्र के साथ उन्होंने हाल ही में लिखी अपनी पुस्तिका ‘इंडियन होम रूल’ (हिन्द स्वराज्य) की एक प्रति भेजी। उन्होंने लिखा था, “आपका एक नम्र अनुयायी होने के नाते मैं आपको अपनी लिखी हुई एक पुस्तिका भेज रहा हूं। यह मेरी गुजराती रचना का मेरा ही किया हुआ अंग्रेज़ी अनुवाद है। ... यदि आपका स्वास्थ्य इज़ाजत दे, और यदि आपको यह पुस्तिका पढ़ने का समय मिल सके, तो कहने की आवश्यकता नहीं कि पुस्तिका पर आपकी आलोचना की मैं बहुत ही कद्र करूंगा।”

पत्र मिलने के बाद अपनी डायरी में टॉल्सटॉय ने लिखा था, “गांधी का पत्र और पुस्तक यूरोपीय सभ्यता की तमाम कमियों का और उसकी संपूर्ण अपूर्णता का भी, बोध प्रकट करते हैं।” 8 मई 1910 को लिखे अपने जवाबी पत्र में उन्होंने लिखा था, “प्रिय मित्र! आपका पत्र और आपकी पुस्तक मिली। जिन बातों और प्रश्नों की आपने अपनी पुस्तक में विवेचना की है, उनके कारण मैंने उन्हें दिलचस्पी से पढ़ा है। निष्क्रिय प्रतिरोध केवल भारत के लिए ही नहीं, बल्कि सारी मानवता के लिए सर्वाधिक महत्व का प्रश्न है।”

इस प्रकार दोनों में पत्र-व्यवहार चलता रहा। टॉल्सटॉय उन दिनों काफ़ी बीमार चल रहे थे। गंभीर आध्यात्मिक निराशा की हालात में थे। अपनी मृत्यु की निकटता को स्पष्ट महसूस कर रहे थे। उन्हें लग रहा था कि ईसा के उपदेशों में उपलब्ध आनंद की कुंजी का उपयोग करने से मानवता ने इंकार कर दिया है। इसलिए उन्हें गहरा आंतरिक विषाद था। लेकिन गांधी जी का विश्वास था कि वह अपना और दूसरों का सुधार कर सकते हैं। वे ऐसा कर भी रहे थे। यह चीज़ उन्हें आनंद प्रदान करती थी।

20 नवंबर, 1910 को, अपनी मृत्यु से कुछ ही दिनों पहले टॉल्सटॉय ने गांधी जी को पत्र लिखा, “मैं तो अब अधिक दिन न रहूंगा, लेकिन ट्रांसवाल के सत्याग्रह संग्राम का महत्व विश्व मानवता के इतिहास में सदा बना रहेगा।”

आधुनिक पश्चिमी सभ्यता के बारें में टॉल्सटॉय की समझौताविहीन निंदा ने गांधी जी पर स्थायी प्रभाव डाला। जब टॉल्सटॉय की मृत्यु हुई, तो गांधी जी ने लिखा था, “स्वर्गीय काउंट टॉल्सटॉय के बारे में हम श्रद्धा के साथ ही कुछ लिख सकते हैं। हमारे लिए वे इस युग के महानतम व्यक्तियों में मात्र  एक नहीं, कुछ और भी थे। जहां तक संभव हुआ है, हमने उनकी शिक्षाओं पर चलने का प्रयास किया है।”

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