गांधी और गांधीवाद-155
1909
गांधी जी का त्याग
निरामिषभोजी होने की हैसियत से उन्हें दूध लेने का अधिकार है या नहीं, इस विषय पर गांधी जी ने खूब विचार किया। खूब पढ़ा भी। काफ़ी सोच-विचार कर उन्होंने दूध त्याग कर दिया। वे केवल सूखे और ताजे फलों पर रहने लगे। आग पर पकाई गई हर तरह की खुराक उन्होंने त्याग दी। केवल फल खाकर वे पांच साल तक रहे। इससे न उन्होंने कोई कमज़ोरी महसूस की और न उन्हें किसी प्रकार की कोई व्याधि ही हुई। शारीरिक काम करने की उनमें पूरी शक्ति वर्तमान थी। यहां तक कि वे एक दिन में पैदल 55 मील की यात्रा कर सकते थे। दिन में 40 मील की मंजिल तय कर लेना तो उनके लिए मामूली बात थी। गांधी जी का मानना है कि, “ऐसे कठिन प्रयोग आत्मशुद्धि के संग्राम के अंदर ही किए जा सकते हैं। आख़िर लड़ाई के लिए टॉल्स्टॉय फार्म आध्यात्मिक शुद्धि और तपश्चर्या का स्थान सिद्ध हुआ।”
दूध का त्याग
ब्रह्मचर्य की दृष्टि से गांधी जी के आहार में पहला परिवर्तन दूध के त्याग का हुआ। उन्हें रायचन्द भाई से मालूम हुआ था कि दूध इन्द्रिय-विकार पैदा करने वाली वस्तु है। अन्नाहार विषयक अंग्रेज़ी पुस्तक के पढ़ने से इस विचार में उनकी वृद्धि हुई। उन्हें लगने लगा कि शरीर के निर्वाह के लिए दूध आवश्यक नहीं है और इन्द्रिय-दमन के लिए दूध छोड़ देना चाहिए। उन्हीं दिनों कलकत्ते से कुछ साहित्य आया। जिसमें गाय-भैंस पर ग्वालों द्वारा किए जाने वाले क्रूर अत्याचारों की कथा थी। इस साहित्य में उन्होंने पढ़ा था कि भैंसों का दूध बढ़ाने के लिए उनके साथ निर्मम व्यवहार किया जाता है। इसका उन पर चमत्कारी प्रभाव हुआ। इसकी चर्चा उन्होंने कालेनबैक से की। कालेनबैक ने सलाह दी, “दूध के दोषों की चर्चा तो हम प्रायः करते ही हैं। तो फिर हम दूध छोड़ क्यों न दें? उसकी आवश्यकता तो है ही नहीं।” गांधी जी ने इस सलाह का स्वागत किया और उन दोनों ने उसी क्षण टॉल्स्टॉय फार्म में दूध का त्याग किया।
गांधी जी ने ब्रह्मचर्य व्रत ले लिया था। समस्या यह थी कि जननेन्द्रीय पर नियंत्रण किस प्रकार से किया जाए। उहोंने पढ़ रखा था कि यौन-प्रक्रियाओं को व्यक्ति का आहार प्रभावित करता है। उनका मानना था कि विकार से भरा मन ही विकारयुक्त आहार की तलाश करता है। इसलिए ब्रह्मचर्य व्रत की रक्षा के लिए यह ज़रूरी है कि आहार की मर्यादा बनाए रखी जाए। दूध उन्हें सबसे ज़्यादा विकारी लगता था। गांधी जी के अंग्रेज़ मित्र कालेनबाख ने राय दी कि दूध का त्याग किया जाए। दूध छोड़ने में नुकसान नहीं है। फ़ायदे ही हैं। और टाल्सटाय फार्म पर 1912 में गांधी जी ने दूध के त्याग का व्रत ले लिया।
फलाहार का निश्चय
दूध छोड़ने के कुछ ही दिनों के बाद गांधी जी ने फलाहार के प्रयोग का भी निश्चय किया। फलाहार में भी जो सस्ते फल मिले, उनसे ही अपना निर्वाह करने का उनका और कालेनबाक का निश्चय था। अमीर, मोटे तौर पर समृद्ध व्यक्ति, कालेनबाख, मेहनत के हर काम और आहार संबंधी प्रयोगों में उनका साथ देते थे। ग़रीब से ग़रीब आदमी जैसा जीवन बिताता है, वैसा ही जीवन बिताने की उमंग उन दोनों की थी। फलाहार में चूल्हा जलाने की आवश्यकता तो होती ही नहीं थी। बिना सिकी मूंगफली, केले, खजूर, नीबू और जैतून का तेल – यह उनका साधारण आहार बन गया।
हालांकि गांधी जी का मानना था कि ब्रह्मचर्य के साथ आहार और उपवास का निकट संबंध है और उसका मुख्य आधार मन पर है। फिर भी वे मानते थे कि मैला मन उपवास से शुद्ध नहीं होता। आहार का उस पर प्रभाव नहीं पड़ता। मन का मैल तो विचार से, ईश्वर के ध्यान से और आखिर ईश्वरी प्रसाद से ही छूटता है। किन्तु मन का शरीर के साथ निकट संबंध है। विकारयुक्त मन विकारयुक्त आहार की खोज में रहता है। विकारी मन अनेक प्रकार के स्वादों और भोगों की तलाश में रहता है। बाद में उन आहारों और भोगों का प्रभाव मन पर पड़ता है। इसलिए उस हद तक आहार पर अंकुश रखने की और निराहार रहने की आवश्यकता उत्पन्न होती है। विकारग्रस्त मन शरीर और इन्द्रियों को अंकुश में रखने के बदले शरीर के इन्द्रियों के अधीन होकर चलता है। इसलिए उपवास की आवश्यकता पड़ती है। जिसका मन संयम की ओर बढ़ रहा होता है, उसके लिए आहार की मर्यादा और उपवास बहुत मदद करने वाले हैं।
उपवास
जिन दिनों गांधी जी ने फलाहार का प्रयोग शुरू किया था, उन्हीं दिनों उन्होंने संयम हेतु उपवास भी शुरू कर दिया था। इसमें भी कालेनबैक उनका साथ देने लगे थे। किसी मित्र ने उनसे कहा था कि देह-दमन के लिए उपवास की आवश्यकता है। बचपन से ही उन्होंने व्रत आदि किया था। बाद में आरोग्य की दृष्टि से उपवास रखा करते थे। किन्तु अब अपने ब्रह्मचर्य-व्रत को सहारा देने के लिए उपवास रखने का उन्होंने निश्चय किया था। फलहारी उपवास तो अब वे रोज़ ही रखने लग गए थे। इसलिए अब पानी पीकर उपवास रखने लगे थे। फार्म में बहुत से लोगों ने एकादशी व्रत का उपवास रखने लगे थे। बहुत से लोगों ने चतुर्मास किया।
फार्म पर हिंदू, मुसलमान, पारसी और ईसाई सब धर्मों के बच्चे थे। गांधी जी यह खास ध्यान देते कि हर बच्चा अपने धर्म का पालन करे। श्रावण का महीना था। यह रमज़ान का भी महीना था। इस महीने उन्होंने उपवास का व्रत रखना चाहा। इस प्रयोग का प्रारम्भ टॉल्स्टॉय आश्रम में हुआ। कालेनबैक के साथ उन दिनों वे सत्याग्रही क़ैदियों के परिवार के सदस्यों की वे देख-रेख किया करते थे। इनमें बालक और नौजवान भी थे। उनके लिए स्कूल चलता था। इन नौजवानों में चार-पांच मुसलमान भी थे। उनके लिए नमाज़ वगैरह की सारी सुविधाएं मौज़ूद थीं। गांधी जी ने मुसलमान नौजवानों को रोज़ा रखने के लिए प्रोत्साहित किया। उन लोगों को कठिन उपवास सहन हो और उन्हें अकेलापन महसूस न हो, इसलिए गांधी जी और कालेनबाक भी उन लोगों के समान दिन-भर का निर्जला व्रत रखते थे। गांधी जी के द्वारा प्रोत्साहित किए जाने के बाद न सिर्फ़ मुसलमानों ने बल्कि पारसियों और हिन्दुओं ने भी रोज़ा रखने में उनका साथ दिया। मुसलमान तो शाम तक सूरज डूबने की राह देखते थे, जबकि हिन्दू या पारसी उससे पहले खा लिया करते थे, जिससे वे मुसलमानों को परोस सकें और उनके लिए विशेष वस्तु तैयार कर सकें। इसके अलावे मुसलमान सहरी खाते थे। इस प्रयोग का परिणाम यह हुआ कि लोग उपवास और एकाशन का महत्व समझने लगे। इससे एक-दूसरे के प्रति उदारता और प्रेमभाव में वृद्धि हुई।
आश्रम में अन्नाहार का नियम था। रोज़े के दिनों में मुसलमानों को मांस का त्याग कठिन तो प्रतीत हुआ लेकिन उन्होंने गांधी जी को उसका पता भी नहीं चलने दिया। वे आनंद और रस-पूर्वक अन्नाहार करते थे। इस प्रकार आश्रम में संयम का वातावरण बना रहा। उपवास आदि से गांधी जी पर आरोग्य और विषय-नियमन की दृष्टि से बहुत अच्छा प्रभाव पड़ा। गांधी जी का मनना था कि इन्द्रिय-दमन हेतु किए गए उपवास से ही विषयों को संयत करने का परिणाम निकल सकता है। संयमी के मार्ग में उपवास आदि एक साधन के रूप में हैं, किन्तु ये ही सबकुछ नहीं हैं। यदि शरीर के उपवास के साथ मन का उपवास न हो, तो वह हानिकारक सिद्ध होता है।
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