सोमवार, 31 जनवरी 2011

प्रणयगंधी याद में

आज मैं अपने गुरु तुल्य स्व. श्री श्यामनारायण मिश्र जी का एक नव गीत पेश कर रहा हूं। यह उनके काव्य संग्रह ‘प्रणयगंधी याद में’ से लिया गया है।

प्रणयगंधी याद मेंSn Mishra

श्यामनारायण मिश्र

चू रहा मकरंद फूलों से,

उठ रही है गंध कूलों से।

घाटियों में

दूर तक फैली हुई है चांदनी

बस तुम नहीं हो।

 

गांव के पीछे

पलाशों के घने वन में

गूंजते हैं बोल वंशी के रसीले।

आग के

आदिम-अरुण आलोक में

नाचते हैं मुक्त कोलों के कबीले।

कंठ में

ठहरी हुई है चिर प्रणय

की रागिणी

बस तुम नहीं हो।

 

किस जनम की

प्रणयगंधी याद में रोते

झर रहे हैं गंधशाली फूल महुओं के।

सेज से

भुजबंध के ढीले नियंत्रण तोड़कर

जंगलों में आ गए हैं वृन्द वधुओं के।

समय के गतिशील नद में

नाव सी रुक गई है यामिनी

बस तुम नहीं हो।

रविवार, 30 जनवरी 2011

भारतीय काव्यशास्त्र :: हास्य और करुण रस

भारतीय काव्यशास्त्र :: हास्य और करुण रस

आचार्य परशुराम राय

पिछले अंक में विप्रलम्भ शृंगार पर चर्चा की गयी थी। इस अंक में हास्य और करुण रसों पर चर्चा की जायगी। शृंगार रस के बाद हास्य रस आता है।

विभावों, अनुभावों एवं संचारिभावों के संयोग से हास स्थायिभाव सक्रिय होकर जिस रस का आस्वादन होता है, उसे हास्य रस कहा जाता है। विकृत आकार, वाणी, वेश, चेष्टा आदि के अभिनय से हास्य रस आविर्भूत होता है। हँसानेवाली विकृत आकृति, वाणी, वेश-भूषा आदि इसके आलम्बन विभाव, विभिन्न विकृत चेष्टाएँ उद्दीपन विभाव, नेत्रों का मुकुलित होना, चेहरे का विकसित होना आदि अनुभाव और निद्रा, आलस्य, अवहित्था (आंतरिक भावों को छिपाने का अभिनय) आदि संचारिभाव हैं।

आचार्य मम्मट हास्य, करुण आदि रसों के लक्षण नहीं दिए हैं। काव्यप्रकाश में हास्य रस के उदाहरण के रूप में निम्नलिखित श्लोक उद्धृत किया गया है -

आकुञ्च्य पाणिमशुचिं मूर्ध्नि वेश्या मंत्राम्भसां प्रतिपदं पृषतैः पवित्रे।

तारस्वनं प्रथितथूत्कमदात् प्रहारं हा हा हतोSस्मि रोदिति विष्णुशर्मा।।

अर्थात कदम-कदम पर अभिमंत्रित जल से पवित्र किए हुए मेरे सिर पर वेश्या ने थूत्कार करते हुए अपने अपवित्र हाथों से मुट्ठी बाँधकर मारा, हाय-हाय मार डाला, यह कहकर विष्णुशर्मा रो रहा है।

यहाँ विष्णुशर्मा आलम्बन विभाव, उसका रोना उद्दीपन विभाव, स्मित आदि अनुभाव एवं हास स्थायिभाव हैं।

पद्माकर जी निम्नलिखित कवित्त हास्य रस का एक अच्छा उदाहरण है –

हँसि हँसि भाजैं देखि दूलह दिगम्बर को,

पाहुनो जे आवै हिमाचल के उछाह मैं।

कहैं पद्माकर सू काहूको कहै को कहा,

जोई जहाँ देखै सो हँसोई तहाँ राह मैं।

मगन भएई हँसै नगन महेस ठाढ़े,

और हँसे वेऊ हँसि हँसि के उमाह मैं।

सीस पर गंगा हँसे, भुजनि भुजंगा हँसैं,

हास ही को दंगा भयो नंगा के विवाह में।

यह भगवान शिव के विवाह का प्रसंग है। बारात में साँप लपेटे भगवान शिव के नग्न रूप को देखकर पर्वताधिराज हिमाचल की नगरी में लोग जहाँ जगह मिली वहीं से भाग निकले। इसी दृश्य का यहाँ वर्णन है। इसमें महादेव आलम्बन विभाव, उनका नंगा रूप उद्दीपन विभाव, गंगा और नागों का हँसना अनुभाव, वर को देखने को उत्सुक भीड़ का दृश्य देखकर भयभीत होना और भागना आदि संचारिभाव हैं और हास स्थायिभाव।

आचार्य विश्वनाथ कविराज ने अपने ग्रंथ साहित्यदर्पण में हास्य रस के छः भेद बताए हैं-

ज्येष्ठानां स्मितहसिते मध्यानां विहसितावहसिते च।

नीचानामपहसितं तथातिहसितं तदेष षड्भेदः।। (साहित्यदर्पण)

अर्थात् ज्येष्ठ व्यक्तियों में स्मित और हसित, मध्यम श्रेणी के विहसित और अवहसिततथा नीच (अधम) लोगों में अपहसित और अतिहसित होते हैं। इस प्रकार स्मित, हसित, विहसित, अवहसित, अपहसित और अतिहसित ये छः भेद हैं। ये भेद हँसने के छः रूपों के आधार पर किया गया है। इन सभी का स्थायिभाव हास ही है।

नेत्रों का थोड़ा विकसित होना और ओष्ठों का थोड़ा-थोड़ा फड़कना स्मित है, इस क्रिया में कुछ-कुछ दाँत दिखने लगें तो उसे हसित नाम दिया गया है, इन सबके साथ मधुर ध्वनि का योग विहसित, साथ में कंधे, सिर आदि हिलें तो अवहसित, ऐसी हँसी जिससे आँखों में पानी आ जाय तो अपहसित तथा हँसते-हँसते व्यक्ति लोट-पोट होने लगे तो उसे अतिहसितकहते हैं-

ईषद्विकासिनयनं स्मितं स्यात्स्पन्दिताधरम्।

किञ्चिल्लक्ष्यद्विजं तत्र हसितं कथितं बुधैः।।

मधुरस्वरं विहसितं सांसशिरःकम्पमवहसितम्।

अपहसितं सास्राक्षं विक्षिप्ताङ्गं भवत्यतिहसितम्।। (साहित्यदर्पण)

अब विचार के लिए करुण रस को लेते हैं। इष्ट के नाश और अनिष्ट के प्राप्त होने के कारण करुण रस का उद्भव बताया गया है। इसका अस्थायिभाव शोक है, मृत बंधु-बान्धव आदि शोचनीय व्यक्ति आलम्बन विभाव, दाहकर्म आदि उद्दीपन विभाव, प्रारब्ध को कोसना, भूमि पर गिरना, रोना, उच्छ्वास, निःश्वास, स्तम्भ, प्रलाप आदि अनुभाव एवं मोह, अपस्मार, व्याधि, ग्लानि, स्मृति, श्रम, विषाद, जड़ता, उन्माद, चिन्ता आदि व्यभिचारिभाव हैं।

इसके लिए काव्यप्रकाश में निम्नलिखित श्लोक उद्धृत किया गया है-

हा मातस्त्वरिताSसि कुत्र किमिदं हा देवताः क्वाSशिषः

धिक् प्राणान् पतितोSशनिहुतवहस्तेSङ्गेषु दग्धे दृशौ।

इत्थं घर्घरमध्यरुद्धकरुणाः पौराङ्गनानां गिर-

श्चित्रस्थानपि रोदयन्ति शतधा कुर्वन्ति भित्तिरपि।।

जयन्तभट्ट के अनुसार इस श्लोक में कश्मीर की राजमाता की मृत्यु के उपरान्त भट्टनारायण के विलाप का वर्णन किया गया है, जबकि महेश्वर के अनुसार मदालसा (चन्द्रवंशी राजा प्रतर्दन की विदुषी एवं ब्रह्मवादिनी पत्नी जिनकी कथा मार्कण्डेय पुराण में मिलती है) के जलकर मरने के बाद पुरवासी स्त्रियों के विलाप का वर्णन किया गया है। इसका अर्थ है- हे माँ, इतनी जल्दी हमें छोड़कर कहाँ चली गयी? यह क्या हो गया? हा देवगण, हे ब्राह्मणों, आपके वे आशीर्वाद (चिरंजीवी होने के) कहाँ चले गये? प्राणों को धिक्कार है, अग्नि वज्र बनकर तुम्हारे शरीर पर गिरा और तुम्हारे स्नेह और दया से पूर्ण नेत्र भी भस्म हो गये। उच्च स्वर में रोने के कारण भर्राती हुई पुरवासी स्त्रियों की करुण ध्वनि चित्र में अंकित लोगों को भी रुला रही है तथा दीवारों को टुकड़े-टुकड़े किये जा रही है।

श्रीपति कवि का यह सवैया करुण रस का अच्छा उदाहरण है। इसमें भाई लक्ष्मण को शक्ति लगने पर भगवान राम के विलाप का वर्णन है-

मातु को मोह, न द्रोह विमातु को, सोच न तात के गात दहे को।

प्रान को छोभ न, बन्धु विछोह न, राज को लोभ न, मोद रहे को।

एते तै नेक न मानत ‘श्रीपति’, एते मैं सीय वियोग सहेको।

ता रनभूमि मैं राम कह्यो, मोहि सोच विभीषण भूप कहेको।।

अगले अंक में रौद्र और वीर रस का वर्णन किया जाएगा।

***

शनिवार, 29 जनवरी 2011

फ़ुरसत में … आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री जी के साथ (चौथा भाग)

फ़ुरसत में …

आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री जी के साथ

193मनोज कुमार, करण समस्तीपुरी

तीसरा भाग :: निराला निकेतन और निराला ही जीवन

दूसरा भाग : कुत्तों के साथ रहते हैं जानकीवल्लभ शास्त्री!

पहला भाग-अच्छे लोग बीमार ही रहते हैं!

चौथा भाग ::

निराला निकेतन : निराला जीवन : निराला परिचय

हमने कहा, “अगर आपको अपना परिचय देना हो तो क्या कहेंगे?”

069शास्त्री जी बोले, “क्या कहूं, क्या परिचय दूं? एक पागल आदमी है, अकेले रहता है। ... यही मेरा परिचय है। विचित्र जीवन है मेरा। Different! Different होने में समय लगता है। आज के आदमी को मेरे बारे में, मेरी जीवन शैली के बारे में कहिएगा तो क्या कहेगा? .... कहेगा पागल है! मैं भाग्यशाली हूं ... इस अर्थ में कि मुझे कोई जानता ही नहीं। .... मैं आनंद से रहता हूं। जिन्हें दुनिया जानती है, उसे दुनिया नचाती रहती है, और वह नाचता रहता है।”

आगे बोले, “मेरी लिखी हुई किताबें अकेले उठा नहीं सकते आप। आप हमारे बारे में जानने की कोशिश ही मत कीजिए! जो यहां के आदमी हैं वो अपने को सबसे बड़ा कवि, लेखक, सब मानते हैं। उनको मानने दीजिए। और हमारे बारे में कहते हैं, … हां एक आदमी है, … कोई पागल लेखक, … अकेले रहते हैं। उनका कोई नहीं है। यही मेरा परिचय है। उसमें आप पड़िएगा तो बहुत मुश्किल है।’’

उत्तर छायावादी कवि हैं। उन्हें छायावाद का पांचवा स्‍तम्‍भ भी कहा जाता है। उनकी कविताएं अनुभूति प्रधान हैं। अद्भुत छंदबद्ध रचनाएं करते हैं वो। काव्‍य में पीड़ा मूलधारा है। मां पांच साल में गुजर गई उसमें जो वेदना स्‍वरूपित हुई वह गीतों में व्‍यक्त हुई। कालीदास पर उपन्‍यास लिखा उन्होंने। दार्शनिक कवि हैं। कविता सांस्‍कृतिक उन्‍नयन की है। जीवन मूल्‍य, अनेकांतवादी, मानवदर्शन पर लिखी रचनाओं में गहराई भी है, ऊंचाई भी।

imageप्रगतिशील दृष्टि- से लिखी गई है “राधा” ! राधा सात खण्डों में विभक्त उनका महाकाव्य है। राधा में राधा के संदर्भ में भाव और कृष्‍ण के संदर्भ में युग बोध प्रबल है। राधा की एक प्रति लेने की हमने इच्छा ज़ाहिर की तो सेवक से मंगवाकर सौंपते हैं। उस पर उनके हस्ताक्षर लेने की इच्छा ज़ाहिर की। बिना चश्‍में के सब चीज़ें देख लेते हैं। राधा महाकाव्य की पुस्तक हाथ में लेकर उसके पन्‍ने पलटते रहे। “राधा ” में उनकी “छाया” नहीं मिल रही थी। बोले, “सब सौंप दिया है उन्‍हें। यह पुस्‍तक भी। इनके मूल्‍य उन्‍हें ही दे दो। मैं क्‍या करूंगा, सब उनका है।” जब “छाया” की छाया नहीं मिली तो बोले, ‘‘लगता है प्रकाशक ने उनका फोटो हटा दिया इसमें से।’’ मैंने पुस्‍तक से उसे खोज निकाला और उनके सामने कर दिया ... “ये है तो।”

बहुत देर तक निहारते रहे। बोले, “अब सब इन्‍हीं का है।” पुस्तक पर उनके हस्‍ताक्षर लिए। एक छोटा हस्ताक्षर करके बोले ‘‘छोटा हो गया। बड़ा एक और ले लो!’’

सम्मान-पुरस्कार

ये 'साहित्य वाचस्पति, 'विद्यासागर, 'काव्य-धुरीण तथा 'साहित्य मनीषी आदि अनेक उपाधियों से सम्मानित हुए तथा पद्मश्री जैसे राजकीय पुरस्कार को ठुकरा चुके हैं। पुरस्‍कार कई मिले – राजेन्‍द्र शिखर सम्‍मान (बिहार का )। उत्तर प्रदेश सरकार ने भारत भारती पुरस्कार से सम्मानित किया। एक पुरस्कार इंदिरा जी के हाथों नहीं लिया। और हाल ही में २०१० में जब पद्म श्री के पुरस्कार की घोषणा की गई तो उन्होंने इसे लेने से मना कर दिया। इसे 'मजाक' कहकर शास्त्रीजी ने अस्वीकार कर दिया। उनके शब्दों में दर्द साफ झलक रहा है। महाकवि जानकी वल्लभ शास्त्री हिंदी और संस्कृत के प्रकांड विद्वान हैं। साहित्यकारों की कई पीढ़ियां उनके आंगन की छांव में बड़ी हुई हैं....महाकवि से कनिष्ठ कई लोगों को पद्मश्री से बड़ा पुरस्कार मिल चुका है। ऐसे में शास्त्रीजी का दर्द जायज है। दुखी शास्त्री जी बोल पड़ते हैं, “सालों से मेरी सुध लेने कोई नहीं आया।” सच्चे साहित्यकार को सम्मान की भूख भले ही न हो लेकिन उपेक्षा का दंश जरूर उसे सालता है...महाकवि जानकी वल्लभ शास्त्री का जो हिंदी साहित्य में योगदान है उसको सिर्फ पद्मश्री से नहीं तौला जा सकता है!

वर्षों पहले उन्होंने लिखा था

कुपथ कुपथ रथ दौड़ाता जो
पथ निर्देशक वह है,
लाज लजाती जिसकी कृति से
धृति उपदेश वह है,

परिवार

071परिवार के बारे में बताते हुए कहते हैं, “पहली पत्नी का नाम चन्द्रकला था। मैगरा में ही १९४७ में उनकी मृत्यु हो गई। पुत्री शैलबाला को छोड़कर चली गई वो। उनसे एक लड़की है। उसकी दो लड़किया हैं। सब प्रोफ़ेसर हैं। गोरखपुर में।” परिसर में प्रवेश करने के ठीक पहले शास्‍त्री जी की एकमात्र संतान पुत्री शैलबाला जी का अपेक्षाकृत छोटा मकान है। उसमें वह और उनके पति प्रतापचंद्र मिश्र रहते हैं। वे भी अस्‍सी वर्षीय हैं। शैलबाला हिंदी की अवकाशप्राप्‍त प्राघ्‍यापिका हैं। उनकी भी उम्र सत्तर से ऊपर की ही होगी। शास्‍त्री जी के परिसर में आना जाना कम ही होगा। मिश्र जी राजस्‍व विभाग में काम करते थे। सेवा निवृत्त हैं । आकाशवाणी पटना से 70 के दशक में रामेश्‍वर सिंह कश्‍यप के बहुप्रसारित नाटक “लोहा सिंह” में फाटक बाबू की भूमिका निभाते रहे हैं ।

प्रसिद्ध कविता ‘किसने बासुरी बजाई’ गा कर सुनाया … !

करण का उनसे निवेदन होता है कि आपके गीत किसने बांसुरी बजाई हमारे कोर्स में था। हमें बहुत अच्छा लगता है। उसे सुनाइए न।

वो कहते हैं, ‘‘हां, उसे मुज़फ़्फ़र आने के बाद ही लिखा था। इसे बहुत गाया। मंचों पर। अब इस उम्र में गा सकता हूं क्या?” फिर कुछ देर ठहर कर बोलते हैं, “राग केदार में इसे गाता था।” फिर राग केदार की सरगम सुनाते हैं064

यह राग कल्याण थाट से निकलता है। समय रात का पहला प्रहर है।

आरोह - स म म प ध प नी ध स।

अवरोह--स नी ध प स प ध प म ग म रे स।

पकड़--स म म प ध प म रे स।

ये है राग केदार ... फिर गाने लगते हैं,

किसने बांसुरी

बांसुरी बजाई

बांसुरी बजाई!

बांसुरी...

किसने बांसुरी बजाई ?

जनम-जनम की पहचानी-

वह तान कहां से आई?

अंग-अंग फूले कदम्ब-सम,

सांस-झकोरे झूले;

सूखी आंखों में यमुना की –

लोल लहर लहराई!

किसने बांसुरी बजाई?

जटिल कर्म-पथ पर थर-थर-थर

कांप लगे रुकने पग,

कूक सुना सोए-सोए-से

हिय में हूक जगाई!

किसने बांसुरी बजाई?

मसक-मसक रहता मर्म-स्थल,

मर्मर करते प्राण,

कैसे इतनी कठिन रागिनी

कोमल सुर में गाई!

किसने बांसुरी बजाई?

उतर गगन से एक बार-

फिर पीकर विष का प्याला,

निर्मोही मोहन से रूठी

मीरा मृदु मुसकाई!

किसने बांसुरी बजाई?

ओह! क्या अद्भुत नज़ारा था हमारे लिए! एक ९५ साल का शख्स हमारे लिए, हमारे अनुरोध पर फिर से अपना यौवन जी रहा था। न सिर्फ़ उनकी बल्कि हमारी आंखों से भी अविरल अश्रु की धार बह चली!!!

उनके मुंह से निकला ‘‘आजकल लोग न जाने क्‍या लिखते हैं?’’

शुक्रवार, 28 जनवरी 2011

शिवस्वरोदय-28

शिवस्वरोदय-28

आचार्य परशुराम राय

देव देव महादेव सर्वसंसारतारक।

स्थितं त्वदीयहृदये रहस्यं वद मे प्रभो।।139।।

अन्वय – यह श्लोक अन्वित क्रम में है।

भावार्थ – माँ पार्वती भगवान शिव से पूछती हैं – हे देवाधिदेव, हे महादेव, हे जगत के उद्धारक, अपने हृदय में स्थित इस गुह्य ज्ञान के बारे में और अधिक बताने की कृपा करें।

English Translation – Goddess Parvati again asks Lord Shiva, O God of gods and Leading Authority for the universe beyond life and death, please tell me something more about the most secret knowledge lying in your heart.

स्वरज्ञानरहस्यात्तु न काचिच्चेष्टदेवता।

स्वरज्ञानरतो योगी स योगी परमो मतः।।140।।

अन्वय – यह श्लोक भी अन्वित क्रम में है।

भावार्थ - माँ पार्वती के ऐसा पूछने पर भगवान शिव बोले- हे सुन्दरि, स्वरज्ञान सर्वश्रेष्ठ और अत्यन्त गुप्त विद्या है एवं सबसे बड़ा इष्ट देवता है। इस स्वर-ज्ञान में जो योगी सदा रत रहता है, वह योगी सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।

English Translation – In reply to the question put by the Goddess, Lord Shiva said, “O Beautiful Goddess, knowledge of Swara is the most secret knowledge in the creation and this is The Greatest Ishta Devata for every one. Therefore, the Yogi who is always practicing it without break is considered as the greatest Yogi.

पञ्चतत्त्वाद्भवेत्सृष्टिस्तत्त्वे तत्त्वं प्रलीयते।

पञ्चतत्त्वं परं तत्त्वं तत्त्वातीतं निरञ्जनः।।141।।

अन्वय – यह श्लोक भी अन्वित क्रम में है, अतएव अन्वय की आवश्यकता नहीं है।

भावार्थ – पूरी सृष्टि पाँच तत्त्वों (आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथिवी) से ही रची गयी है और वह इन्हीं तत्त्वों में विलीन होती है। परम तत्त्व इन तत्त्वों से बिलकुल परे है और वह निरंजन है, अर्थात् अजन्मा है।

English Translation - The whole creation is created out of five Tattvas (ether, air, fire, water and earth) and it is absorbed in them. But The Supreme Being is beyond these Tattvas and therefore He is beyond the birth and the death.

तत्त्वानां नामविज्ञेयं सिद्धयोगेन योगिभिः।

भूतानां दुष्टचिह्नानि जानातीह स्वरोत्तमः।।142।।

अन्वय – योगिभिः सिद्धयोगेन तत्त्वानां नामविज्ञेयम्। (सः) स्वरोत्तमः (योगी) भूतानां दुष्टचिह्नानि इह जानाति।

भावार्थ – योगी लोग सिद्ध योग से तत्त्वों को जान लेते हैं। वे स्वरज्ञानी इन पंच महाभूतों के दुष्प्रभावों को भली-भाँति समझते हैं और इसलिए वे भी इनसे परे हो जाते हैं।

English Translation – Yogis know these Tattvas by the practice of advanced yogic techniques. These Swara-yogis therefore understand bad effects of these Tattvas and thereby they become able to go beyond them (Tattvas), i.e. they become God themselves.

पृथिव्यापस्तथा तेजो वायुराकाशमेव च।

पञ्चभूतात्मकं विश्वं यो जानाति स पूजितः।।143।।

अन्वय – यह श्लोक अन्वित क्रम में है।

भावार्थ पंच भूतों से निर्मित सृष्टि को तत्त्व के रूपों में, अर्थात पृथिवी, जल, तेज (अग्नि), वायु और आकाश को उनके सूक्ष्म रूपों में उन्हें जान लेता है, उनका साक्षात्कार कर लेता है, वह पूज्य बन जाता है।

English Translation - A person, who realizes this creation created out of five Tattvas (earth, water, fire, air and ether) at the different levels of their real existence, he is the real honourable authority in the world.

सर्वलोकस्थजीवानां न देहो भिन्नतत्त्वकः।

भूलोकसत्यपर्यन्तं नाडीभेदः पृथक् पृथक्।।144।।

अन्वय भूलोकात्सत्यपर्यन्तं सर्वलोकस्थजीवानां देहो न भिन्नतत्त्वकः, (परन्तु) नाडीभेदः पृथक् पृथक्।

भावार्थ भूलोक से सत्यलोक तक सभी लोकों में अस्तित्व-गत देह में तत्त्व भिन्न नहीं होते, अर्थात् पाँच तत्त्वों से ही निर्मित होता है। लेकिन अस्तित्व प्रत्येक स्तर पर नाड़ियों का भेद अलग हो जाता है।

English Translation – At all the seven levels of consciousness, i.e. from earth to Satyalok, this creation is created out five Tattvas, but nadis are different.

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गुरुवार, 27 जनवरी 2011

आँच-53 :: आंच ने पूरा किया एक साल :: समीक्षा की पद्धतियाँ।

आँच-53

नमस्कार मित्रों!

एक साल तक किसी एक स्तंभ को चलाए रखना आसान नहीं होता। खास कर पाठकों की रुचि बनी रहे। पर हमने तय किया यह सफ़र। सोचा कि इस बीते साल के सफ़र को कैसे याद किया जाए! निःसंदेह इसके लिए हमारे प्रेरणा के स्रोत आचार्य परशुराम राय से उपयुक्त कोई हो नहीं सकता था। यह स्तंभ उनका ही ब्रेनचाइल्ड था। तो सुनिए आंच की कहानी आचार्य की जुबानी।

मनोज कुमार 

आचार्य परशुराम राय

आँच शृंखला आज अपना एक वर्ष पूरा कर ली है। मनोज ब्लाग पर प्रकाशित रचनाओं पर आनेवाली टिप्पणियों से प्रेरित होकर समीक्षा के लिए इस शृंखला के श्रीगणेश का विचार मन में उद्भूत हुआ था। धीरे-धीरे यह शृंखला इतनी लोकप्रिय हुई कि कई रचनाकार अपनी रचनाओं को आँच की कसौटी पर कसने के लिए आगे आए और इसके परिणाम स्वरूप यह शृंखला आज अपना एक वर्ष पूरा कर रही है। इस स्तम्भ के नामकरण को लेकर ब्लाग के सहयोगियों ने कई नाम सुझाए थे, पर आँच पर सबकी सहमति बनी और फिर इसके उद्देश्य के अनुरूप समीक्षा के अर्थ में इस शृंखला के नाम को परिभाषित किया गया, जिसे प्रायः हर अंक के ऊपर अलग से आज भी दिया जाता है। वैसे इस शृंखला के प्रारम्भ होने के पूर्व ही इस ब्लाग पर समीक्षा के बीज का वपन डॉ.रमेश मोहन झा की लेखनी से हो चुका था। पहले छिटपुट समीक्षाएँ चौपाल पर प्रकाशित की जाती थीं। पर एक शृंखला के रूप में इसका पहला अंक 28-01-2010 को प्रकाशित हुआ था।

आँच का उद्देश्य कवि की भावभूमि की गरमाहट को पाठकों तक पहुँचाना और पाठक (समीक्षक) की अनुभूति की गरमाहट को कवि तक पहुँचाना है।

इस शृंखला का पहला अंक श्री मनोज कुमार जी की कविता अमरलता पर लिखा गया था। इसका श्रीगणेश करने का सौभाग्य अवश्य मुझे मिला था, लेकिन इसमें कड़ियों को लगातार जोड़ने में सबसे बड़ा योगदान मेरे प्रिय मित्र एवं ब्लाग के सहयोगी श्री हरीश प्रकाश गुप्त का रहा, जो एक बड़े ही सहृदय व्यक्ति और साहित्यकार हैं, भले ही उनकी कोई पुस्तक न छपी हो। इसके अतिरिक्त आदरणीय श्री मनोज कुमार और प्रिय श्री करण समस्तीपुरी का योगदान भी स्मरणीय है। इस शृंखला के अतिथि लेखकों में सर्वप्रथम नाम आता है डॉ.रमेश मोहन झा का और फिर श्री होमनिधि शर्मा का और अंत में श्रीमती मल्लिका द्विवेदी का। इसमें कुल 33 कविताएओं और 8 कहानियों की समीक्षा की गयी। इसके अतिरिक्त 9 अंक पाठकों की टिप्पणियों में उठाए गए प्रश्नों के समाधान के रूप में लिखे गए और 2 अंक हिन्दी मुहावरों पर अर्थवैज्ञानिक-दृष्टि को आधार बनाकर लिखे गए। इन सबका विवरण नीचे की सारिणी में देखा जा सकता है-

कुल समीक्षा

समीक्षक

कविता

कहानी

उपांक

52

श्री मनोज कुमार

श्री हरीश प्रकाश गुप्त

श्री परशुराम राय

श्री केशव कर्ण

(करण समस्तीपुरी)

डॉ.रमेश मोहन झा

श्री होमनिधि शर्मा

श्रीमती मल्लिका द्विवेदी

04

16

08

04

01

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04

04

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01

07

01

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01

01

यह तो रहा आँच के एक वर्ष का लेखा-जोखा। पर आँच के इस अंक का विवेच्य विषय है समीक्षा की पद्धतियाँ। आँच के एक अंक पर हमारे एक सहृदय पाठक ने प्रश्न किया था कि वह समीक्षा व्यवहारिक समीक्षा थी अथवा सैद्धांतिक। उस समय मन में विचार आया था कि क्यों न वार्षिक अंक के लिए इसे विवेच्य विषय बनाया जाय। अतएव आज इसी को विचार के लिए लेते हैं।

भारत में सामान्यतया पाश्चात्य और भारतीय समीक्षा-पद्धतियों का संगम आधुनिक समीक्षा में देखा जाता है, लेकिन पाश्चात्य समीक्षा पद्धति का अनुकरण अधिक हुआ है। हिन्दी समीक्षा में तो प्रायः यही आजकल देखने को मिलता है। अतएव यहाँ दोनों पद्धतियों की एक झाँकी प्रस्तुत है।

भारतीय काव्यशास्त्र परम्परा काव्य को अभिव्यक्ति की उत्कृष्टता और सौष्ठव के रूपवादी परिप्रेक्ष्य में देखने का आदी रहा है। इसके अन्तर्गत काव्य के शुद्ध चैतन्य से लेकर उसके सभी अंगों का सैद्धांतिक विवेचन किया गया है। काव्य के भारतीय मानदण्ड इसकी संस्कृति के अनुरूप व्यक्तिनिष्ठ न होकर वस्तुनिष्ठ हैं, विषय-प्रधान हैं, दर्शन पर आधारित हैं। भारतीय आलोचना में सामाजिक, श्रोता या रसभोक्ता को अधिक महत्व दिया गया है।

भारतीय समीक्षा के मानदण्ड हैं- रस, अलंकार, रीति, ध्वनि, वक्रोक्ति, औचित्य आदि हैं। कोई आवश्यक नहीं कि सभी पाठक इन सभी काव्यांगों से परिचित ही हों। पर, यहाँ इस छोटे से विवेचन में इन सबका परिचय देना संभव नहीं है। इस अंक का उद्देश्य मात्र समीक्षा की एक रूपरेखा प्रस्तुत करना है। वैसे इन काव्यांगों पर विस्तृत चर्चा इसी ब्लाग पर नियमित रूप से हर रविवार को भारतीय काव्यशास्त्र के शीर्षक से आ रही है। पाठक इन्हें वहाँ देख सकते हैं।

भारतीय आलोचना के कई रूप देखने को मिलते हैं, जैसे- वृत्ति, भाष्य, वार्त्तिक, टीका, वचनिका, वार्ता, चर्चा आदि।

वृत्ति किसी सूत्र, कारिका आदि की संक्षिप्त व्याख्या है। यह मूल रचनाकार अथवा किसी अन्य विद्वान द्वारा की जाती है। आचार्य आनन्दवर्धन, मम्मट, विश्वनाथ कविराज आदि ने अपने ग्रंथों में कारिकाओं पर स्वयं वृत्ति लिखी है। कई ग्रंथों पर अन्य आचार्यों ने भी वृत्ति लिखी है, यथा- न्यायसूत्रों पर आचार्य विश्वनाथ की, काव्यकल्पलतावृत्ति आचार्य अमरचन्द्र यति आदि की।

भाष्य में ग्रंथों में प्रयुक्त सूत्रों, कारिकाओं, श्लोकों आदि की सांगोपांग व्याख्या की जाती है। इसमें भाष्यकार द्वारा प्रयुक्त पदों का भी संगत स्पष्टीकरण रहता है। महर्षि पतंजलि का अष्टाध्यायी (महर्षि पाणिनिकृत व्याकरण ग्रंथ) पर महाभाष्य, आदि शंकराचार्य द्वारा अनेक ग्रंथों पर किए गए भाष्य, ऋग्वेद संहिता पर आचार्य सायण का भाष्य, न्यायसूत्र पर महर्षि वात्स्यायन आदि का भाष्य उल्लेखनीय हैं।

सूत्रों, सिद्धांतों आदि की व्याख्यात्मक आलोचनाओं में वार्त्तिक पद्धति सर्वाधिक पूर्ण है। इसे परिभाषित करते हुए कहा गया है - जो कहा गया, जो नहीं कहा गया और यदि कहने में दोष हो, उन सबको जिसमें स्पष्ट किया जाय, उसे वार्त्तिक कहते हैं- उक्तानुक्तदुरुक्तार्थव्यक्तिकारितुं वार्त्तिकम्। इस प्रकार वार्त्तिक व्याख्यात्मक आलोचना की सबसे अच्छी पद्धति है। इसके उदाहरण के लिए आचार्य कात्यायन का अष्टाध्यायी पर वार्त्तिक, कुमारिलभट्ट का मीमांसा पर वार्त्तिक आदि।

टीका भी आलोचना की एक व्याख्यात्मक पद्धति है। टीका प्रायः सभी प्रकार के ग्रंथों पर की गयी है, विशेषकर काव्यशास्त्रों, काव्यों आदि पर, जैसे- महाकवि कालिदास, भारवि आदि के विभिन्न काव्य-ग्रंथों पर आचार्य मल्लिनाथ की टीकाएँ विश्वप्रसिद्ध हैं। इसी प्रकार ध्वन्यालोक, काव्यप्रकाश आदि पर अभिनवगुप्त आदि आचार्यों की टीकाएँ। वैसे, इसके लिए अंग्रेजी में Commentary शब्द का प्रयोग किया गया है।

वचनिका, चर्चा और वार्ता शब्द हिन्दी में प्रणीत काव्यशास्त्रों पर लिखे वार्त्तिक के लिए प्रयुक्त हुए हैं।

पाश्चात्य समीक्षा में रचनाकार की व्यक्तिगत और परिस्थितिगत भावनाओं का अधिक ध्यान रखा जाता है। इसमें ऐतिहासिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक आधारों को अधिक महत्व दिया जाता है, जबकि भारतीय आलोचना में काव्य में व्याप्त तथ्यों और सिद्धांतों के परिप्रेक्ष्य की व्याख्या को। ऐसा नहीं है कि भारतीय आलोचना पद्धति में मनोविज्ञान को स्थान नहीं दिया गया है। पूरा रस-सिद्धांत मानसिक संवेगों पर ही आधारित है। पाश्चात्य आलोचना में कलापक्ष के अन्तर्गत बिम्ब, प्रतीक, अभिव्यंजना और व्यावहारिक सिद्धांत आते हैं। इसके अतिरिक्त वस्तुवादी और भाववादी सिद्धांत भी सम्मिलित हैं। संक्षेप में कहा जाय तो निम्नलिखित पद्धतियाँ पाश्चात्य आलोचना के अन्तर्गत व्यवहृत हैं-

आत्मप्रधान या प्रभावात्मक आलोचना

सैद्धांतिक आलोचना

शास्त्रीय या निर्णयात्मक आलोचना

व्याख्यात्मक आलोचना

तुलनात्मक आलोचना

मनोवैज्ञानिक आलोचना

ऐतिहासिक आलोचना

व्यावहारिक आलोचना

किसी रचनाकार की कृति का अध्ययन करने के बाद आलोचक के ऊपर उसका जो प्रभाव पड़ता है, कृति के प्रति उस दृष्टि से अवधारणा के आधार पर लिखी गयी आलोचना आत्मप्रधान आलोचना होती है। इसमें आलोचना के विभिन्न मानदण्डों का अनुपालन प्राय: नहीं होता है। इस पद्धति में शब्दाडम्बर अधिक देखने को मिलता है। इसमें आलोचक की स्वच्छन्द प्रवृत्ति देखने को मिलती है। बिहारी की रचनाओं पर पद्मसिंह शर्मा द्वारा की गयी आलोचना इस श्रेणी में रखी जा सकती है।

सैद्धांतिक आलोचना के अन्तर्गत आलोच्य रचना में दृष्टिगत काव्यशास्त्रीय सैद्धांतिक पक्षों को प्रकाशित करना आलोचक का अभीष्ट होता है। इस प्रकार की आलोचना में व्यापक सैद्धांतिक विकास की सम्भावना परिलक्षित होती है। हिन्दी में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल द्वारा लिखे गए आलोचनात्मक निबन्ध इसी कोटि के हैं।

शास्त्रीय या निर्णयात्मक आलोचना में आलोच्य कृति का भावपक्ष, कलापक्ष एवं अन्य शास्त्रीय सिद्धांतों को आधार बनाकर लिखी गयी समीक्षाएँ आती हैं। इनमें आलोचक सैद्धांतिक आलोचक की भाँति सिद्धांन्तों के प्रति अधिक हठी नहीं होता है।

व्याख्यात्मक आलोचना में व्यापक सिद्धांतों और युगीन चेतना को अधिक महत्व न देकर रचनाकार के दृष्टिकोण की व्याख्या देखने को मिलती है। इस प्रकार का आलोचक यह मानकर चलता है कि सभी रचनाकारों की प्रकृति एक जैसी नहीं पायी जाती, अतएव आलोच्य रचना को सिद्धांतों की कसौटी पर कसना उचित नहीं है। वह रचना को साहित्य का विकास मानकर देखता है, लेकिन इसमें आत्मप्रधान आलोचना जैसी प्रवृत्ति नहीं पायी जाती, बल्कि एक तटस्थ भाव देखने को मिलता है। आँच पर की गई अधिकाँश आलोचनाएँ इसी प्रकृति की हैं।

तुलनात्मक आलोचना दो या अधिक रचनाकारों की समान विषयों पर लिखी रचनाओं के विभिन्न अंगों का तुलनात्मक प्रतिपादन है। इसके अन्तर्गत मूल्य-निर्धारण पर अधिक जोर रहता है। इस तरह की आलोचना करते समय इस बात पर ध्यान देना अधिक आवश्यक होता है कि तुलनात्मक अध्ययन के लिए चुने गए रचनाकारों को बड़ा-छोटा करके न देखा जाये। अन्यथा की गई समीक्षा समस्याओं और विवादों की जननी बन जाएगी। अतएव इस प्रकार की समीक्षा के लिए आवश्यक है कि तुलनात्मक अध्ययन के लिए निर्धारित मानदण्डों के परिप्रेक्ष्य में तटस्थ होकर रचनाओं पर विचार किया जाए।

मनौवैज्ञानिक आलोचना भी व्याख्यापरक होती है। किन्तु इसके अन्तर्गत रचना में वर्णित मूल भावों और प्रेरक तत्वों का विवेचन अभीष्ट होता है। इस प्रकार की आलोचना के उद्देश्य हैं:- रचनाओं को रचनाकारों के निजी स्वभाव, उनके आर्थिक, पारिवारिक, सामाजिक परिवेश से उत्पन्न मानसिक स्थिति के परिप्रेक्ष्य में देखना, निष्कर्ष निकालना, बाह्य परिस्थितियों का अन्तस् में होने वाली प्रतिक्रिया का अध्ययन आदि प्रकाशित करना। व्याख्यात्मक आलोचना में जहाँ कृतित्व का विश्लेषण अभीष्ट होता है, वहीं मनोवैज्ञानिक आलोचना में कवि की रुचि, परिस्थिति और आन्तरिक वृत्तियों का।

ऐतिहासिक आलोचना का उद्देश्य रचनाकार और रचना की सामयिक परिस्थितयों के आधार पर उसका मूल्यांकन करना है। अर्थात् तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक परिवेश का सामूहिक रूप से रचना और रचनाकार पर पड़े प्रभावों का विश्लेषण ऐतिहासिक आलोचना के अन्तर्गत किया जाता है। किसी रचनाकार या रचना के मूल्यांकन में ऐतिहासिक आलोचना की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।

अलोचना का उद्देश्य किसी रचना में निहित समस्त सौन्दर्य और विशेषताओं का विश्लेषण कर उनका आस्वादन कराना है। पर आलोचना की जितनी पद्धतियां विकसित हुईं, इस उद्देश्य की पूर्णरूपेण पूर्ति न कर पायीं। इसी कारण से व्यावहारिक आलोचना का सूत्रपात अंग्रेजी के प्रसिद्ध आलोचक आई.ए.रिचर्ड्स ने किया। उन्होंने अपनी पुस्तक प्रैक्टिकल क्रटिसिज्म में इस पद्धति का विश्लेषण किया है। इसके लिए उन्होंने एक प्रयोग किया, उन्होंने कई अंग्रेजी कविताओं को उनके शीर्षक और कवियों के नाम हटाकर उन्हें अनेक शिक्षित व्यक्तियों के पास स्वतंत्र आलोचना के लिए भेजा। प्राप्त आलोचनाओं में से तेरह आलोचनाओं का विश्लेषण कर उन्होंने समीक्षा के कुछ विशिष्ट सिद्धांतों का प्रतिपादन अपने उक्त ग्रंथ में किया है। जो व्यावहारिक आलोचना के आधार हैं। लेकिन इस आलोचना सिद्धांत को कई कठिनाइयों के कारण आदर नहीं मिल पाया।

आँच के इस अंक का उद्देश्य भारतीय और पाश्चात्य आलोचना पद्धतियों का संक्षिप्त परिचय मात्र देना था । इस छोटे से निबन्ध में इनका विशद विवेचन सम्भव नहीं और यदि किया भी जाए तो पाठको में अरुचि पैदा करेगा। अतएव इतना ही।

अंत में 'आँच' शृंखला के लिए अपनी रचनाएं समीक्षा हेतु देने के लिए रचनाकारों का मैं इस शृंखला के वार्षिक अंक के अवसर पर हृदय से धन्यवाद देता हूँ, जिन्होंने अपनी रचनाओं पर की गई समीक्षा को एक सकारात्मक दृष्टि प्रदान की। 'आँच' के सभी पाठकों को, जिन्होंने इस शृंखला को लोकप्रियता प्रदान की, समीक्षक दल की ओर से हार्दिक धन्यवाद देता हूँ। साथ ही सभी समीक्षक बन्धुओं को भी अपना हार्दिक आभार व्यक्त करता हूँ,  जो 'आँच' को लगातार प्रज्वलित रखने के लिए नियमित रूप से ईँधन देते रहे।

बुधवार, 26 जनवरी 2011

देसिल बयना - 65 : लड़े सिपाही नाम हवलदार के...

!!सभी ब्लोगर मित्रों को भारत के गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभ-कामनाएं !!
-- करण समस्तीपुरी
देश आज़ाद हो गया था। साल-दू-साल से बिन्नू बाबाजी सगरे घूम-घूम कर कह रहे थे सुराज आ गया है। गंधी महतमा और जमाहिर लाल का सपना सच हो गया। गाँव-गाँव और जिला-जिला में इस्कूल अस्पताल सब खुलेगा। अब कौनो गोर्रा खप्तान का चाबुक नहीं खाना पड़ेगा। लोग-वाग सुन के जो हँसे.... हें...हें...हें... ई कौन आजादी मिला है जो बिन्नू बाबाजी तो सोलहन्नी नरभसा गए हैं। हें...हें...हें.... खादी भण्डार तो बंद होने वाला है और गाँव-गाँव में इस्कूल और इस्पिताल खुलेगा..... ही....ही...ही....ही...... नन्हकू गुरूजी और लूटन बैद जिंदाबाद !
'मृषा न होहि देव ऋषि वाणी.... ' सच्चे उ माघ महीना के ठिठुरती ठंडक में भरी सांझ माधोराम डिगडिगिया पीट रहा था, "डा.....डिग्गा..... डा..... डिग्गा...... डा..... डिग्गा....... अपना देश... अपना राज.... 26 जनवरी को लालकिला पर राजिंदर बाबू झंडा फहराएंगे.... अब अपना देश में अपना क़ानून चलेगा.... !"
मरद जात तो सड़क पर उतर आया था, जर-जनानी सब भी खिड़की फाड़ के देख-सुन रही थी। मास दिन गए जिरात पर एगो इस्कूल और स्थल पर सरकारी दवाखाना भी खुल गया था। जौन लोग बिन्नू बाबाजी के बात पर हँसता था उ सब भी मारे खुशी के बल्ली उछाल रहा था। तभी ई कौन जानता था कि इ गणतंत्र एकदिन गन(बन्दूक)तंत्र हो जाएगा।
जिरात पर इस्कूल खुले से तनिक कम्पटीशन तो हो गया था मगर नन्हकू गुरूजी के पाठशाला पर अभियो सबसे ज्यादा रौनक रहता था। पंद्रह अगस्त, छब्बीस जनवरी, सरोसती पूजा और दूसरा परव-त्यौहार में तो पूरा रेवाखंड उमर जाता था नन्हकू गुरूजी के पाठशाला पर।
उ बार जिरात पर वाला इस्कूल का हेडमास्टर 26 जनवरी के परोगराम के लिए शहर दरिभंगा से मलेटरी टरेनिंग बुलाया था। पदूमलाल कह रहे थे, "गुरूजी ई जुग-जुग का रेकट (रिकार्ड) नहीं टूटना चाहिए। पाठशाला पर भी एकदम चकाचक परोगराम हो।" नन्हकू गुरूजी भी ई को इज्जत का बात समझ बैठे।
बजरंगिया नन्हकू गुरूजी के पाठशाला का शान था। कुश्तियो में वैसने जबदगर और गीत-नाच में तो कौनो जोरे नहीं। पाठशाला का कौनो काज-करम बिना बजरंगिया के सुर से शुद्ध नहीं होता था।
गुरूजी अधरतिया तक रियाज कराते थे। "केहू लूटे न विदेशी टोपी ताज रखिह..... भारत माता के चुनरिया के लाज रखिह..... हो....... बन्दे-मातरम नारा के लिहाज रखिह...... केहू लूटे न विदेशी टोपी ताज रखिह................... !" आह क्या गला था बजरंगिया का। सच्छात सुरसतिये बिराजती थी। आँख दुन्नु बंद। एगो हाथ से कान ढक कर दूसरा हाथ उठा-उठा.... गीत में ऐसे रम कर गाता था कि लगे भारत माता खुदे बुला रही हैं।
रियाज में मौजूद गाँव जवार के लोग वाह-वाह करते नहीं थकते थे। ई बार तो पाठशाला का परोगराम जिलाजीत होगा। जरूर कलस्टर (कलक्टर) का इनाम मिलेगा। कोठी पर वाले सूरत चौधरी तो लाउडिसपीकर लगवाने का भी जिम्मा ले लिए
26 जनवरी को भोरे भोर पाठशाला पर सरपंच बाबू झंडा फहराए। जन-गण-मन, बन्दे-मातरम हुआ फिर बजरंगिया वही झंडे के नीचे गाया, "कौमी तिरंगे झंडे ऊचे रहो जहां में..... !" फिर गली-गली में रस वाला घूमघुमौआ गरम जिलेबी का परसाद बंटाया। और फिर एका पर एक रंगारंग कारज-करम।
छोट-मोट नाटक का भी जुगाड़ था। किला हिला दो दुश्मन का। नन्हकू गुरूजी अपने से सोच-सोच कर लिखे थे और चटिया (विद्यार्थी) सब को खूब रियाज कराये थे। गुरूजी अपनों कमाल के नटकिया थे। जनानी से लेकर जोकर तक का रोल मजे में कर लेते थे।
इहो नाटक में चीन जुद्ध का दिरिस दिखाए थे। बजरंगिया और घुघनी लाल मेन सिपाही बना था और सूरत चौधरी का बेटा कलिया हवालदार का रोल किया था। दर्जन भर छोटका विद्यार्थी सब दुन्नु तरफ का सिपाही बना था।
नाटक तो पहिले सीन से ऐसा चढ़ा कि लोग ताली पीटते-पीटते बेहाल। बजरंगिया तो जैसन डायलोग देने में माहिर था वैसने एक्शन में बिजली। एक्टिंग में तो उ हवलदारों को दाब देता था।
लड़ाई का सीन तो और बेजोड़ बना था। केतना लोग तो लघुशंका तक रोके टकटकी लगाए देखता रहा। कलिया तो खाली मुँह में चोंगा लगा के औडर दे रहा था। असल रोल तो बजरंगिया और घुघनिये लाल का था। अंत में बजरंगिया बन्दूक फेककर सीधा पिल जाता है दुश्मन पर। 'किरलक.... किरलक..... ढनाक.....' कनहू ठाकुर नगारा गनगनाये हुए है। बजरंगिया दुश्मन के दू-चार गो सिपाही को अकेले धकियाते हुए किला पर तिरंगा फहरा देता है। पाछे से हुल्लड़ मचता है, भारत माता की जय.... हिप-हिप-हुर्रेह्ह्हह्ह........ !"
अंतिम दिरिस में गुरमिन्ट विजेता पलटन को इनाम देती है, "कलिया का सेना जौन बहादुरी का कारज किया है उ बारहों जुगों तक याद किया जाएगा। कलिया के पलटन का एक निहत्था सिपाही आधा दर्ज़न दुश्मन को चित कर के किला पर झंडा फहरा दिया। इतनी बड़ी जीत काली हवालदार के सूझ-बूझ और परिश्रम का ही नतीजा है। गुरमिन्ट उनकी इस जीत के लिए काली हवालदार को 'वीर-बहादुर-चक्र' से सम्मानित करती है।"
कलिया इस्टेज पर चढ़ कर मंत्री बने जामुन सिंघ से इनाम लेता है। हाथो मिलाता है। मगर दर्शक सब के हाथों में तो जैसे मेहंदी गयी थी। एक्कहू गो ताली नहीं बजाया। बेचारे नन्हकू गुरूजी ललकारे भी मगर तैय्यो जनता का हाथ नहीं खुला। सब के मन में एगो अलगे क्षोभ था, "ई इनाम का असली हकदार तो बजरंगिये था.... ससुर का करतब दिखलाया.... !" सब को यही बात का मलाल था कि एतना शानदार एक्टिंग किया बजरंगिया और नाम हुआ चोंगा टांग कर घूमे वाला कलिया हवालदार का।
एगो सूरत चौधरी ही थे जौन फूले नहीं समां रहे थे, "आह ! हमार बिटवा तो आज पूरा जवार में नाम रोशन कर दिया.... नाटक में किला पर कब्ज़ा का हुआ पूरा जिला में कलिया का नाम हो गया.... !" सिरनाथ झा से रहा नहीं गया तो चिहुंक कर कहिये दीये, "हाँ हो चौधरी बाबू ! काहे नहीं.... किसका करतब था उ तो आप भी देखे.... कहते हैं नहीं वही वाली बात, "लड़े सिपाही नाम हवलदार के। इत्ता मेहनत किहिस बेचारा बजरंगिया और नाम ओ इनाम मिला आपके सपुत्तर को.... !"
चौधरी जी बोले, "लड़े सिपाही नाम हवलदार के.... ई कौन कहावत है ?" झाजी समझा के बोले, "नहीं समझे चौधरी बाबू ! अरे जब मेहनत और करतब हो किसी और का और करेडिट (क्रेडिट) ले जाए कोई तो का कहियेगा.... यही न कि 'लड़े सिपाही और नाम हवलदार के !' जय
हो भारत माता।

"भारत प्यारा सबसे न्यारा !

अमर रहे गणतंत्र हमारा !!"

मंगलवार, 25 जनवरी 2011

लघुकथा :: स्वागत‌!!

लघुकथा

स्वागत!!

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उस दिन प्याज पहलवान और टमाटर ठाकुर आमने-सामने भिड़ गए। रास्ता तंग था। कोई किसी को आगे बढने की जगह नहीं दे रहा था।

प्याज पहलवान दहाड़ा, “हट जा मेरे रास्ते से! जानता नहीं तू मैं कौन हूँ?”

टमाटर ठाकुर ने व्यंग्य कसा, “कौन हो तुम?”

प्याज पहलवान की दहाड़ और भी तेज़ हो गई, “आज मैं देश की सबसे चर्चित और महत्त्वपूर्ण शख़्सियत हूँ। अब वो दिन लद गए जब मुझे हिकारत की नज़र से देखा जाता था और लोग मुझसे दूरियाँ बनाते थे। मेरी देह की दुर्गंध उन्हें परेशान करती थी। मेरी उपस्थिति से उनकी आँख में किरकिरी होती थी। आज तो मुझे पाकर, मेरे समीप आकर लोगों की आँखों में ख़ुशी के आँसू होते हैं!”

टमाटर ठाकुर के चेहरे पर कुटिल मुस्कान तैर गई, “हुँह! आज मैं भी वो नहीं रहा, जब लोग मुझे सड़े-गले और भौंडे प्रदर्शनों वाले कार्यक्रमों में प्रयोग किया करते थे। आज मैं भी तुमसे किसी मायने में कम नहीं हूं। लोग अब मुझे भी पाकर खुशी के आँसू बहाते हैं …!”

यह सुन प्याज पहलवान ने टमाटर ठाकुर को गले लगाया। ‘अरे! हम दोनों इतने बेशकीमती हो गए हैं … आओ गले मिलें!’

अगले दिन दोनों ने खुदरा-बाज़ार संघ के कार्यक्रम के मंच पर मुस्कुराते हुए मुख्य अतिथि का आसन ग्रहण किया। सामने जमीन पर बैठी आम जनता आँखें फाड़े उन्हें देखे जा रही थी, जबकि कुछ खास लोग मंचासीन अतिथियों का खुले दिल से स्वागत कर रहे थे।

सोमवार, 24 जनवरी 2011

हाउस वाइफ

हाउस वाइफ

मनोज कुमार

images (19)फोन.. शांत,

कोने में .. एकांत,

तुम्हारा स्वर आए

तरसती हूं

दिनभर।

 

images (18)करती हूं इंतज़ार

शाम का,

घर आओगे

जी भर तुझसे बतियाऊंगी

हां, उस एक क्षण की

सुख-शांति के लिए

करती हूं

दिन-भर

तुम्हारा इंतज़ार!

 

इस घर की चहारदीवारी

मनहूस-सी लगती मुझे

इसके बाहर भी तो है संसार

ले जाओगे मुझे

मोतीझील,

धर्मशाला,

चौक कल्याणी,

कहीं भी ...

कहीं भी ....

करती हूं इंतज़ार।

 

 

आते हो थके से ,

पर शांत फोन

अचानक ही

घनघना जाता है

और तुम

हो जाते हो व्यस्त!

दिन भर का

मेरा इंतज़ार …

रह जाता है इंतज़ार

और मन

हो जाता है त्रस्त!!

रविवार, 23 जनवरी 2011

भारतीय काव्यशास्त्र :: विप्रलम्भ शृंगार

भारतीय काव्यशास्त्र :: विप्रलम्भ शृंगार

आचार्य परशुराम राय

पिछले अंक में रसों के क्रम से सम्बन्धित आचार्य अभिनवगुप्त के विचारों और संयोग शृंगार पर चर्चा की गई। इस अंक में विप्रलम्भ शृंगार या वियोग शृंगार के पाँच भेदों के विषय में चर्चा की जायेगी।

विप्रलम्भ शृंगार के पाँच भेद माने गये हैं:- अभिलाष, ईर्ष्या, विरह, प्रवास और शाप।

अभिलाष का दूसरा नाम पूर्वराग भी है। इसके अन्तर्गत उन नायक-नायिकाओं की अनुरक्ति का वर्णन पाया जाता है जिन्हें समागम का अवसर प्राप्त नहीं हुआ है:-

प्रेमाद्र्रा: प्रणयस्दृश: परिचयादुद्ढरागोदया-

स्तास्ता मुग्धदृशो निसर्गमधुराश्चेष्टा भवेयुर्मयि।

यास्वन्त:करणस्य बालकरणव्यापाररोधी क्षणा-

दाशंसापरिकल्पितास्वपि भवतानन्दसान्द्रो लय:।

यह श्लोक आचार्य मम्मट ने महाकवि भवभूति के नाटक मालतीमाधव से उद्धृत किया है। इसमें नायिका मालती की प्राप्ति के लिए नायक माधव श्मशान साधना करता है। इस श्लोक में मालती के प्रति उसके पूर्वराग का वर्णन किया है। इसका अर्थ है - मोहक नेत्रों वाली मालती के प्रेम से आर्द्र, प्रणय का स्पर्श करने वाली एवं परिचय के कारण उद्गाढ़ राग से भरी हुई भावपूर्ण चेष्टाएँ मेरे प्रति हों, जिनकी कल्पना मात्र से इस समय बाह्य इन्द्रियाँ व्यापार शून्य हो गयी हैं और अन्त:करण आनन्द सागर में लय हो गया है।

डाँ भगीरथ मिश्र ने अपनी पुस्तक काव्यशास्त्र में हिन्दी कविता का निम्नलिखित उदाहरण दिया है -

दीठ परयो जौतें तौतें नाहिन टरहिं छवि,

आँखिन छायो री छिन-छिन छालि-छालि उठै।

बाजि-बाजि उठत मिटौहैं सुर बंसी मोर,

ठौर-ठौर टीली गरबीली चालि चालि उठै।

कहरि-कहरि उठै पीरे पटुका को छोर,

साँवरे की तिरछी चितौनि सालि-सालि उठै।

डोलि-डोलि कुण्डल उठत वेई बार-बार,

एरी! वह मुकुट हिए में हालि-हालि उठै॥

विप्रलम्भ का अगला भेद ईर्ष्या है। इसका दूसरा नाम मान भी है। आशा के विपरीत अपराधजनित प्रणय-कोष की स्थिति ईर्ष्याजनित या मानजनित विप्रलम्भ कहा जाता है -

सा पत्यु: प्रथमापराधसमये सख्योपदेशं बिना

नो जानाति सविभ्रमाङ्गवलनावक्रोक्ति-संसूचनम्।

स्वच्छैरच्छकपोलमूलगलितै: पर्यस्तनेत्रोत्पला

बाला केवलमेव रोदिति लुठल्लोलकैरश्रुभि:॥

उपर्युक्त श्लोक में ईर्ष्या जनित विप्रलम्भ दिखाया गया है। यह अमरुशतक का श्लोक है। यह एक नवोढ़ा नायिका की दशा बताने वाली उसकी एक सखी की उक्ति है जो एक दूसरी सखी को सुनाकर कहती है:-

पति के अन्य स्त्री-प्रसंग जनित अपराध के समय सखियों को बिना बताए अंग-संचालन के हाव-भाव द्वारा वक्रोक्ति से उलाहना देना उसे नहीं आता। इसलिए खुले हुए बालों को बिखराये और आँखों को नचाती हुई वह बेचारी आँसू टपकाती हुई केवल रोती ही रहती है।

हिन्दी में पद्माकर जी का निम्नलिखित कवित्त ईर्ष्याजनित विप्रलम्भ का उदाहरण है:-

बैस ही की थोरी पै न भोरी है किसोरी यह,

याकी चित चाह राह और की मझैया जनि।

कहैं, 'पदमाकार' सुजान रूप खान आगे,

आनबान आन की सु आनि की चलैयो जनि।

जैसे तैसे करि सत सौंहनि मनाय लाई

पै इक हमारी बात एती बिसरैयो जनि।

आजु की घरीते लै सु भूतिहूँ भले हो सयाम!

ललिता को लै कै नाम बाँसुरी बजैयो जनि॥

समागम के बाद भी बड़े लोगों से लज्जा आदि के कारण समागम का अभाव 'विरह' कहलाता है। किन्तु आचार्य विश्वनाथ आदि विप्रलम्भ के चार भेद ही मानते हैं। वे 'विरह' को विप्रलम्भ का भेद नहीं मानते।

आचार्य मम्मट ने विरहोत्कण्ठिता नायिका की विकल दशा से सम्बन्धित निम्नलिखित श्लोक उद्धृत किया है।

अन्यत्र व्रजतीति का खलु कथा नाप्यस्य तादृक् सुहृद्

यो मां नेच्छति नागतश्च हह हा कोऽयं विधे: प्रक्रमः।

इत्यल्पेतर कल्पनाकवलितस्वान्ता निशान्तान्तरे

बाला वृत्तविवर्तनव्यतिकरा नाप्नोति निद्रां निशि॥

इस श्लोक में रात्रि में चारपाई पर लेटी पत्नी अपने पति की प्रतीक्षा कर रही हैं। पति के आने में विलम्ब के कारण उसकी मानसिक विकलता का यहाँ वर्णन किया गया है - वे कहीं और चले गए? नहीं यह कुविचार है, उनका कोई ऐसा मित्र भी नहीं, जिसे मेरे हित का ध्यान न हो, फिर भी वे अभी तक आए नहीं, कैसा भाग्य का खेल है, ऐसी कल्पनाओं से परेशान वह बेचारी करवटें बदलती हुई रात में सो नहीं पा रही है।

यहाँ पति गुरुजनों (माता-पिता आदि) की उपस्थिति में संकोच के कारण समय से पत्नी के पास नहीं जा पाया। वह उनके सोने की प्रतीक्षा कर रहा है। ऐसे थोड़े समय के वियोग को विरह जनित विप्रलम्भ माना गया है।

भाव साम्य रखती हिन्दी की निम्नलिखित पंक्तियाँ मुक्तक के रूप में देखी जा सकती हैं -

कहाँ गये कुछ पता नहीं

समझे न ऐसा मित्र नहीं

नजर न आता कारण कोई

सोच रही वह करवट लेती,

कैसी है यह विधि की लेखी।

इसके बाद प्रवासजनित विप्रलम्भ शृंगार है। अर्थात् नौकरी-चाकरी या किसी अन्य कारण से प्रियतम विदेश चला गया हो, ऐसी परिस्थिति में नायक-नायिका के वियोग का वर्णन प्रवासजनित विप्रलम्भ शृंगार कहलाता है।

प्रस्थानं वलयै: कृतं प्रियसखैरस्रैरजस्रं गतं

धृत्या न क्षणमासितं व्यवसितं चित्तेन गन्तुं पुर:।

यातुं निश्चितचेतसि प्रियतमे सर्वे समं प्रस्थिता

गन्तव्ये सति जीवित ! प्रियसुहृत्सार्थः किमु त्यज्यते॥

यह श्लोक भी अमरुशतक से लिया गया है। यहाँ एक स्त्री का पति गुरुजनों के आदेशानुसार विदेश जा रहा है। यह समाचार सुनकर पत्नी अपने जीवन को सम्बोधित करती हुई कहती है:-

हे जीवन (प्राण) प्रियतम के प्रवास पर जाने का निश्चय होते ही कंगन पहले ही स्थान छोड़कर चल दिए, अर्थात् दुर्बलता के कारण कंगन अपने स्थान से हट गए हैं, ढीले पड़ गए हैं (गिर पड़ते हैं)। प्रिय को चाहने वाले आँसू लगातार बहे जा रहे हैं। धैर्य रुक नहीं रहा। चित्त भी उनके आगे-आगे ही जा रहा है। हे प्राणों, तुम्हें भी जाना ही है, तो प्रिय मित्र (पति) का साथ क्यों छोड़ रहे हो, अर्थात् तुम भी शरीर छोड़कर निकल चलो।

प्रवासजनित विप्रलम्भ के उदाहरण के रूप में दूलह कवि की एक कविता यहाँ उद्धृत की जा रही है -

चैत चारु चाँदनी चिता सी चमकति चन्द्र,

अनिल की डोलनि अनल हूँ ते ताती है।

कहैं कवि 'दूलह' ये बौरे हैं रसाल, ताप

कूकि उठै कोयलिया मधुर मधुमाती है।

औधि अधिकानी हरि हू की बात जानी,

अब काहे न छटूक ह्वै दरकि जाति छाती है।

गुनो आनि भावनो, बसन्त री बितावनो यों,

सुनो आनि भावनो, बहुरि आई पाती है॥

शाप या दण्ड आदि के कारण नायक-नायिका का लम्बे समय तक वियोग हो, तो उसे शापहेतुक या शापजनित विप्रलम्भ शृंगार कहा जाता है। इसका दूसरा नाम करुणहेतुक भी कुछ आचार्यों ने दिया है। इसके लिए काव्यप्रकाश में महाकवि कालिदास के मेघदूत से निम्नलिखित श्लोक उद्धृत किया गया है।

त्वामालिख्य प्रणयकुपितां धातुरागै: शिलाया-

मात्मानं ते चरणपतितं यावदिच्छामि कर्तुम्।

अस्रैस्तावन्मुहुरुपचितैर्दृष्टिरालुप्यते मे

क्रूरस्तस्मिन्नपि न सहते सङ्गमं नौ कृतान्त:॥

मेघदूत के अनुसार कोई यक्ष शाप के कारण अपनी पत्नी को यक्षनगरी में छोड़कर रामगिरि में रहता है। अकेले में वह पत्थर पर गेरू से अपनी पत्नी का चित्र बनाकर जैसे ही उसके उसके चरणों पर गिरना चाहता है, आँसू दृष्टि को आच्छादित कर देते हैं। विधाता कितना कठोर है कि चित्र में भी संगम उसे सह्य नहीं है, यही इस श्लोक का भाव है।

यहाँ यह बताना आवश्यक है कि विप्रलम्भ शृंगार के अन्तर्गत काम की दस दशाएँ कही गयी हैं -

अभिलाषा, चिन्ता, स्मरण, गुणकथन, उद्वेग, उन्माद, प्रलाप, व्याधि, जड़ता और मरण।

कुछ आचार्य दस के स्थान पर ग्यारह दशाएं मानते हैं। वे उक्त दस दशाओं के अतिरिक्त 'मूर्च्छा' को 'मरण' से पूर्व की एक और अवस्था मानते हैं।

अगले अंक में अन्य रसों के विवरण दिए जाएँगे।

शनिवार, 22 जनवरी 2011

फ़ुरसत में … आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री जी के साथ (तीसरा भाग)

फ़ुरसत में …

आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री जी के साथ

193मनोज कुमार, करण समस्तीपुरी

दूसरा भाग : कुत्तों के साथ रहते हैं जानकीवल्लभ शास्त्री!

पहला भाग-अच्छे लोग बीमार ही रहते हैं!

तीसरा भाग :: निराला निकेतन और निराला ही जीवन 

055आचार्य शास्त्री कहते हैं, "विचित्र जीवन मैंने जिया। कोई समझ नहीं सकता। भाग गया था, गया से। मां नहीं थी। कुछ पढ़ा लिखा नहीं। बी.एच.यू गया पढ़ने! .. बिहार में रहने का सौभाग्य नहीं मिला। भागा तो बनारस चला गया। फिर वहां से रायगढ। किसी ने ललकार दिया। पहुंच गया रायगढ। १९-२० साल की उम्र में। सारे हमसे बड़ी उम्र के थे। वहां मैं ही चुन लिया गया। रायगढ़ के राजा प्रभावित थे। उन्होंने राजकवि का सम्मान दिया। राजकवि बन गया। पर वहां के लोगों में सबसे बड़ा अवगुण था कि वे सब मांसाहारी थे। मैं गंध भी नहीं सह सकता। वहां के वातावरण में मांस की गंध। गंध भी नहीं सह सकता। खाने की बात कहां से! कमरा जो मुझे मिला था उसमें चारो ओर से गंध ही गंध। मैंने बहुत हिम्मत करके वहां की, राजकवि की, नौकरी छोड़ दी। नहीं तो उस तरह की नौकरी कोई छोड़ नहीं न सकता था। राजकवि के पद पर था। छोड़कर बनारस आ गया। ईश्वर की कृपा हुई। दो मिनट के अंदर हमको दूसरी नौकरी मिल गई। Never stood second, even in the first class! ये है न बात! फ़र्स्ट क्लास में भी फ़र्स्ट। कभी सेकेंड हुआ ही नहीं। ये कोई साधारण कैरियर नहीं है। इसीलिए नौकरी मिलने में मुझे एक मिनट का समय लगा ही नहीं। मैंने चाहा और हो गया। ये ही ईश्वरीय कृपा थी। कोई अपना नहीं था। मां नहीं थी। कोई नहीं था। तो भगवान खड़े हो गए।’’

महामना : महामानव के निर्माता

061कुछ देर बाद बोले, “मेरी सारी पढाई काशी में हुई। लोग नौकरी के लिए कोशिश करते हैं। मालवीय महाराज ने हमारे लिए रिकोमेंड किया। कहा कि ऐसा लड़का तुमको मिलेगा कहां। ले जाओ। ये बहुत बड़ी बात है। इसको आज के आदमी को कहिएगा तो हंसेगा। कहेगा सब पागल है। आपने मालवीय जी का नाम भी नहीं सुना होगा। मालवीय जी के कृपापात्र बनकर वहां, ८ साल उनके साथ रहा हूं। बहुत मानते थे मुझे। जब तक वो जीवित रहे, उनके साथ ही रहा। मालवीय जी के साथ गुज़ारे समय, मेरा सौभाग्‍य, 8 वर्ष रहा उनके साथ। जब उनकी मृत्‍यु हुई उनके पास बैठा था। उनकी बगल में बैठकर पाठ कर रहा था, जब वो दिवंगत हुए! उसके बाद छोड़ दिया मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश सब।। वहां से छूटा तो मुज़फ़्फ़रपुर आ गया। उसके बाद यहीं का होकर रह गया! बनारस में मुझे प्रसाद, निराला, प्रेमचंद, नंददुलारे वाजपेयी का स्‍नेह मिला। बनारस में काकली की रचना की। “बंदी मंदिरम” की भी।’’

कुछ याद करते हुए कुछ देर चुप रहे, फिर बोले ... “I never stod second in my life, even in the first class! इस कारण से नौकरी मिलने में कोई कठिनाई, कभी नहीं हुई। जो चाहा वही मिल गया। सब ईश्वरीय कृपा है। जहां भी परीक्षा दी हमेशा फर्स्‍ट आया। नौकरी के लिए हाथ पांव नहीं मारना पड़ा। ईश्‍वर की कृपा रही मुझ पर।”

ऐसे आये मुज़फ़्फ़रपुर

“सन 1939 में मुजफ्फरपुर पहली बार आया। गंगा कभी देखा नहीं था! गलती से नदी पार कर गया फिर यहीं का होकर रह गया। तब यहां रमना में उमाशंकर प्रसाद सिंह हुआ करते थे। 1939 से 48 तक उन्‍हीं के यहां रहा। “राधा” की पांडुलिपि उनकी बेटी और मेरी शिष्‍या चंदा ने तैयार की। घूमता हुआ आ गया मुज़फ़्फ़रपुर। इंटर्व्यू चल रही थी यहां। ठहरने की व्यवस्था नहीं थी। मुझे ठहराने की जगह नहीं मिली, तो संस्कृत कॉलेज में ठहराया गया मैं। वह, अनुग्रह नारायण सिंह का जमाना था। परीक्षा होने लगी। लोगों ने कहा आप भी जाइए ना। दूर-दूर से लोग आए थे। उन सब के बीच .. जहां ठहरने की जगह नहीं थी, वहां प्रोफ़ेसर हो गया। बच्चा बाबू ने अपने यहां रखा। छह वर्ष तक रहा उनके साथ। फिर जब पटना में सर्विस हो गई तो वहां गया। वहां कई वर्षों तक प्रोफ़ेसर रहा।”

गउएं भी निराली हैं067 

093उनके यहां इतनी गउएं हैं। और घर में प्राणी मात्र दो। इसका भी अलग किस्सा है। बताने लगे, “गाए पहले एक खरीदी थी। पिताजी के लिए। जब मुज़फ़्फ़रपुर आया तो पिता को अपने साथ ले आया। पिताजी को रात में दूध दिया गया खाने को। पूछा कैसा दूध है? खरीदकर मंगाया गया है, यह बताने पर उन्होंने कहा कि मैं तो खरीदकर दूध खाने का पक्षधर नहीं हूं। अगले रोज मैंने दरवाजे पर गाय बांध दी। उससे ही इतनी हुईं। पहली गाय का नाम कृष्णा रखा। वो काली थी, इसलिए। ये देख रहे हैं न सामने ... कृष्‍णायतन है, उसके नाम पर। यह घर कृष्‍णा के रहने के लिए बनवाया था। कृष्णा तो रही नहीं पर उसकी संतानें पीढियों से यहां रह रही हैं।

068जो गाय पहली बार पिताजी के लिए मैंने ली उसी की संतानें चल रही हैं। कितनी पीढियां आ गईं। कितने बच्चे पैदा हुए।” सामने नाद के दोनों और कड़ी से बंधे -बछड़ों की ओर इशारा करते हुए उन्होंने कहा, '' ये सब तीसरी-चौथी पीढ़ी वाले हैं!”

“सबने कहा कि किसी को बेच दें। किसी को दे दें। दे देना भी तो बचाव है। न हमको गाय बेचना है, न दूध बेचना है। न तो एक बूंद दूध बाहर गया और न कृष्‍णा की कोई संतान कभी बिकी। यहां के कुत्ते बिल्लियों से लेकर इंसानों तक, सब दूध खाते हैं, दूध पीते हैं, और सब यहीं आनंद से रहते हैं। खाते हैं-पीते हैं। सारे पशु-पक्षी, कुत्ते-बिल्ली।”

करण ने पूछा, ‘गाएं जो दूध देती है उसका क्या करते है?’

तो हंसते हुए बोले, “आइए, बैठिए, खिलाएंगे। बेचना छोड़कर और जो काम हो सकता है वो सब होता है। बेच नहीं सकते हैं।” अहहहा.... कितना प्रगाढ़ दर्शन है... ? कवि कभी व्यापारी नहीं हो सकता । वह (भावनाएं) बांटना जानता है, बेचना नहीं।

092सूर्या-क्षश्थी व्रत के प्रथम नैवेद्य की संध्या दस्तक दे रही है किन्तु हमें आचार्यजी की वात्सल्यमयी वाणी से तृप्ति नहीं मिली है। नाद की दोनों तरफ बंधी गायों को स्नेहपूर्वक निहारते हैं। फिर हाथ से इशारा कर बोलते हैं, “... और कृष्‍णा और उसके मरी हुई संतानों की समाधियां भी इसी हाते के अंदर है। सबकी पक्‍की समाधियां बनी हुई हैं। निराला निकेतन में जो गायें मरतीं हैं, उन्हें यहीं समाधिस्थ कर दिया जाता है। चाहते हैं तो घूम आइए। देख आइए आंखों से! सामने ही तो है। जाकर देखो उनकी समाधि बनी हुईं हैं। हम उनको मां मानते हैं .... तो .... मानते हैं। गायों की कितनी पीढियां यहां आ गई हैं। लोग कहते हैं ... अब ... कि किसी को बेच दें ... या दे-दें .... नहीं! न इनका दूध बेचना है ... न किसी को देना है। दूध भी नहीं बेचता। बेचना छोड़कर सब करता हूं। इतनी कुत्ते-बिल्लियां हैं यहां ... सब पीते हैं। और मैं गाता हूं किसने बांसूरी बजाई। सब अकेले कर रहा हूं। ईश्वर की मर्जी।”082

 

लेखनी-लेखन

अपनी लेखनी के बारे में भी कुछ बताइए। जब हमने यह पूछा, तो बोले, “जितनी पुस्तकें मैंने लिखी है, .. आप उठा भी नहीं सकते।” फिर हाथ फैला कर बताते हैं, “इतनी किताबें लिखी है! बहुत किताबें लिखी। इतना काम किया। पढता था। ... लिखता था। मैंने जीवन भर सरस्वती की साधना की है। इसके अलावा दूसरा कोई काम ही नहीं किया।...

089“अभी एक पुस्तक आई है – राधा। सात खंडों के इस एकाकार महाकाव्य का मूल्य एक हजार रुपये है। मेरी इस किताब का दाम है एक हज़ार! लोग सुन कर घबरा जाते हैं। क्या नहीं लिखा, कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक ... सब। इतनी छोटी उम्र में इतनी किताबें लिख गए ... आज सोचता हूं तो विश्वास ही नहीं होता। मैंने अपना प्रचार नहीं किया कभी। दिनकर जी ने अपना प्रचार किया। राजनीति के लोग थे वो। मैं तो कविता करने वाला आदमी था। रजनीतिज्ञ नहीं। कविता और इन चीज़ों में अंतर हो जाता है। किसी को प्यार करना अलग चीज़ है, उस पर भाषण करना अलग हो जाता है। मैं कविता से प्यार करता हूं। विचित्र जीवन है मेरा। समझा नहीं सकता।”087

शुक्रवार, 21 जनवरी 2011

शिव-स्वरोदय-27

शिव-स्वरोदय-27

आचार्य परशुराम राय

विषमस्योदयो यत्र मनसाऽपि चिन्तयेत्।

यात्रा हानिकरो तस्य मृत्युः क्लेशो न संशयः।।133।।

अन्वय - श्लोक अन्वित क्रम में है, अतएव अन्वय नहीं दिया जा रहा है।

भावार्थ - विषम स्वर के प्रवाह काल में यात्रा प्रारम्भ करने का विचार मन में उठने नहीं देना चाहिए, क्योंकि इससे यात्रा में कठिनाई तो आती ही है, हानि भी होती है। यहाँ तक कि मृत्यु भी हो सकती है।

English Translation- Here Visham Swar is nothing but Sushumna Nadi and therefore during the flow of breath through both the nostrils at a time, we should not think of starting any journey. Because it causes appearance great difficulties or losses or even death.

पुरो वामोर्ध्वतश्चन्द्रो दक्षाधः पृष्ठतो रविः।

पूर्णा रिक्ताविवेकोSयं ज्ञातव्यो देशिकैः सदा।।134।।

अन्वय- यह श्लोक भी लगभग अन्वित क्रम में है।

भावार्थ- यदि चन्द्र स्वर प्रवाहित हो रहा हो और कोई सामने से आए, बायें से आए अथवा ऊपर से या सामने, बायें या ऊपर की ओर विराजमान हो, तो समझना चाहिए कि उससे आपका काम पूरा होगा। इसी प्रकार जब सूर्य नाड़ी प्रवाहित हो रहा हो, तो नीचे, पीछे अथवा दाहिने से आनेवाला या उक्त दिशाओं में विराजमान व्यक्ति आपको शुभ संदेश देगा या आपका काम पूरा करेगा। किन्तु यदि स्थितियाँ इनके विपरीत हों, तो देशिकों (आध्यात्मिक गुरुजनों) को समझना चाहिए कि वह काल बिलकुल रिक्त और अविवेकपूर्ण है, अर्थात कार्य में सफलता के लिए उचित समय नहीं है।

English Translation- During the flow of breath through left nostril if a person is coming from the left side, front or upside or he is sitting on the left, in the front or upside of you, communication with him will be always beneficial. In case of flow of breath through right nostril, the above directions should be considered as right, back and below side in place of left, front and upside. But in opposite conditions wises are suggested to consider the time not suitable for success.

ऊर्ध्ववामाग्रतो दूतो ज्ञेयो वामपथि स्थितः।

पृष्ठे दक्षे तथाSधस्तात्सूर्यवाहागतः शुभः।।135।।

अन्वय- (चन्द्रस्वरप्रवाहे) वामपथि ऊर्ध्ववामाग्रतः तथा (एव) सूर्यवाहे दक्षे पृष्ठे अधस्तात् स्थितः आगतः (वा) दूतः शुभः ज्ञेयः।

भावार्थ- पिछले श्लोक की ही भाँति इस श्लोक में भी वे ही बातें दूत के बारे में कही गयी हैं, अर्थात चन्द्र स्वर के प्रवाह काल में यदि कोई दूत बायें, ऊपर या सामने से आए अथवा सूर्य-स्वर के प्रवाह-काल में यदि वह दाहिने, नीचे या पीछे से आए तो समझना चाहिए कि वह कोई शुभ समाचार लाया है। ऐसा न हो तो विपरीत परिणाम समझना चाहिए।

English Translation- Like previous verse, a messenger coming from left side, front or upside during the flow of breath throw left nostril gives good news. Similarly, during the flow of right nostril breath messenger coming from right side, back or below gives good message. If it is opposite, the result will be bad.

अनादिर्विषमः सन्धिर्निराहारो निराकुलः।

परे सूक्ष्मे विलीयते सा संध्या सद्भिरुच्यते।।136।।

अन्वय- श्लोक अन्वित क्रम में है।

भावार्थ- जब इडा और पिंगला स्वर एक-दूसरे में लय हो जाते हैं, तो वह समय बड़ा ही भीषण होता है। अर्थात् सुषुम्ना स्वर का प्रवाह-काल बड़ा ही विषम होता है। क्योंकि सुषुम्ना को निराहार और स्थिर माना गया है। वह सूक्ष्म तत्त्व में लय हो जाती है जिसे सज्जन लोग संध्या कहते हैं।

English Translation- When breath alternates from left to right and vice-versa that period is most inauspicious for any work (other than spiritual practices) because it is Sushumna and it is unmovable and it accepts nothing. It is absorbed by subtle Tattva and wises call it Sandhya, the transition period.

न वेदं वेद इत्याहुर्वेदो वेदो न विद्यते।

परमात्मा वेद्यते येन स वेदो वेद उच्यते।।137।।

अन्वय- वेदं न वेद इति आहुः वेदो न वेदः विद्यते, (अपितु) परमात्मा येन विद्यते स वेदो वेद उच्यते।

भावार्थ- ज्ञानी लोग कहते हैं कि वेद स्वयं वेद नहीं होते, बल्कि ईश्वर का ज्ञान जिससे होता है उसे वेद कहते हैं, अर्थात जब साधक समाधि में प्रवेश कर परम चेतना से युक्त होता है उस अवस्था को वेद कहते हैं।

English Translation- Wise men tell that Veda itself is not Veda (Knowledge), but it is that by which enlightenment is achieved, i.e. union of individual consciousness and Cosmic consciousness.

न संध्या संधिरित्याहुः संध्या संधिर्निगद्यते।

विषमः संधिगः प्राण स संधिजः संधिरुच्यते।।138।।

अन्वय- (रात्रिदिवसयोः) संधिः इति न संध्या आहुः, (इयं) संन्धिः (सामान्यरूपेण)

सन्ध्या निगद्यते, (अपितु) सः विषमः सन्धिगः सन्धिजः प्राणः सन्धिः

उच्यते।

भावार्थ – दिन और रात का मिलन संध्या नहीं है, यह तो मात्र एक बाह्य प्रक्रिया है। वास्तविक संध्या तो सुषुम्ना नाड़ी में स्वर के प्रवाह को कहते हैं।

English Translation- Union of day and night is not the real evening, it is a mere phenomenon of nature. The real evening is flow of Sushumna, i.e. flow of breath through both the nostrils simultaneously.

गुरुवार, 20 जनवरी 2011

आँच-53- धागे जीवन संघर्ष के

आँच-53

धागे जीवन संघर्ष के

हरीश प्रकाश गुप्त

My Photoकहते हैं जो दूसरों से संघर्ष करता है वह रेहाटरिक लिखता है अर्थात उसकी भाषा अलंकारिक और कृत्रिम हो जाती है तथा जो स्वयं से संघर्ष करता है वह कविता लिखता है। आत्म संघर्ष को अभिव्यक्त करने वाली कविता में सहज आकर्षण होता है। बिना किसी आडम्बर के सरल से सरल शब्दों से युक्त भाषा और खाँटी देशज प्रतीक पाठक की संवेदना को स्पर्श करते हैं और पाठक रचना के भाव सागर में डूबता उतराता स्वयं को कविता से इतना निकट अनुभव करता है कि कविता की भाषा और शिल्प गौण होकर रह जाते हैं। रचना दीक्षित ऐसी ही कवयित्री हैं जिनकी कविताएं सामाजिक सरोकारों से सम्पन्न आत्मसंघर्ष की अभिव्यक्ति हैं। रचना की कविताएं पाठक को भावों से आच्छादित कर लेती है और आत्मानुभूति की प्रतीति कराती हैं। उनकी कविताएं ‘रचना रवीन्द्र ब्लाग पर प्रकाशित होती रहती हैं। उनकी कविता ‘धागे’ इसी माह के दूसरे सप्ताह में रचना रवीन्द्र ब्लाग पर प्रकाशित हुई थी। उनकी यह कविता आँच के आज के अंक की विषय वस्तु है।

बाखबर से बेखबर होती रही, समय की गठरी पलटती रही. रातों को उठकर जाने क्यों, मैं अपनी ही चादर सीती रही. संस्कारों की कतरनें जोड़ी बहुत थीं, फिर भी सीवन दिखती रही. अपनों की झालर बनाई सही थी, जाने किसमें तुरपती रही. बातें चुन्नटों में बांधी बहुत थीं, न जाने कैसे निकलती रहीं. ख़ुशी औ ग़म के सलमे सितारों में, मैं ही जब तब टंकती रही. मिलाना चाहा रिश्तों को जब भी, अपनी ही बखिया उधडती रही, बेखबर से बाखबर होना जो चाहा, रातों में समय को पिरोती रही. हाथों को मैंने बचाया बहुत, पर अंगुश्तानो से सिसकी निकलती रही. सुराखों से छलनी हुई इस तरह, आँखों में सुई सी चुभती रही. जितना भी चाहा बाहर निकलना, धागों में उतना उलझती रही.

वास्तव में स्त्री का जीवन संघर्षों की व्यथा कथा है जिसमें सुख कम, खुशियों को समेटने सहेजने के उपक्रम अधिक रहते हैं। उसके सरोकारों में उत्तरदायित्व अधिक हैं। वह संस्कारों का निर्वाह करती है, मर्यादा का पालन करती है और इज्जत का पर्याय बनती है तो साथ ही वह सामाजिक रिश्तों नातों के बीच योजक कड़ी की भूमिका भी निभाती है। दिनानुदिन की जीवन चर्या में जब व्यावहारिक जीवन की तपिश रिश्तों और संबंधों की टूटन का कारण बनती है तो वह स्त्री ही है जिसके हिस्से में ‘पैचअप’ की जिम्मेदारी भी आती है। इस जीवन संघर्ष के दौरान अनेक नाजुक पल भी आते हैं जिन्हें वह अपनी स्मृति में सहेज कर रखती है। अपने भीतर हंसी, खुशी, दुख, दर्द का समन्दर छुपाए जब भी उसने वर्तमान से स्मृतियों में प्रवेश किया तब उसे कहीं न कहीं अपने प्रयासों में ही कारण और सम्भावनाएं दिखाई पड़ीं। जोड़ने के तमाम प्रयासों के बावजूद उसे टूटन भी ऐसे दिखाई पड़ी जैसे सिलाई करके जोड़ने के बाद भी सीवन स्पष्ट दिखती है। कभी कभी उलझनें मनोदशा को इस कदर उलझाती हैं कि उपयुक्तानुपयुक्त का अन्तर कर पाना दुरूह हो जाता है और परिणामों का दर्द घुटन बनकर भीतर ही भीतर पलता रहता है। वर्तमान में हमेशा उत्तरदायित्वबोध को जिम्मेदारियों से जोड़ने पर प्रत्युत्तर में निराशा, प्रतिकार और दर्द ही मिलते हैं जो हमेशा टीस बनकर चुभते रहते हैं। एक बार जीवन-सागर में उतर आने के बाद सुख दुख की स्मृतियों और दायित्वों को छोड़ कर निकल पाना आसान नहीं होता। प्रस्तुत कविता ‘धागे’ कुछ इसी तरह के भावों को अभिव्यक्त करती है।

रचना जी की यह कविता अत्यंत भावना प्रधान है, मर्मस्पर्शी है। इसीलिए यह पाठक के हृदय में सीधी उतरती है। यह व्यक्तिनिष्ठता से ऊपर उठकर पाठक को स्वानुभूति की प्रतीति कराती है, तथापि कविता में अत्यधिक प्रतीकों का प्रयोग हुआ है। प्रतीक विधान एकदम देशी है एवं एकवर्गीय है। इसीलिए कविता पढ़ते समय ऐसा लगता है कि समस्त प्रतीक एक ही पिटारी से खोल कर रख दिये गए हैं। कविता में स्पष्टीकरण प्रस्तुत करने की प्रवृत्ति है जो इसे व्याख्यात्मक बना देती है। यह गुण कविता में काव्यत्व को तनिक न्यून करता है।

यद्यपि प्रस्तुत कविता को गीत में पिरोने का प्रयास किया गया है, तथापि शब्दाधिक्य, मात्राओं की असमानता, आरोह-अवरोह के प्रति असजगता तथा अनेक पदों (शब्दों) का अनावश्यक प्रयोग शिल्प के प्रति कवयित्री की उपेक्षा को प्रतिबिम्बित करता है। उदाहरण स्वरूप कविता की पंक्तियों में 15 से लेकर 24 मात्राएं तक हैं । यदि दो-दो पंक्तियों को चरण के रूप में लें तो 36 मात्राओं में इसे सीमित किया जा सकता है। कुछ पंक्तियों में प्रवाह बाधित है अथवा शब्दों का अनावश्यक प्रयोग हुआ है जैसे –

रातों को उठकर ( ) जाने क्यों

रिक्त स्थान की पूर्ति आवश्यक लगती है।

मैं अपनी ही चादर सीती रही

मैं का प्रयोग अनावश्यक है और मात्रा भी बढ़ाता है।

संस्कारों की कतरनें जोड़ी बहुत थीं

मात्राएं अधिक हैं और थीं की आवश्यकता नहीं थी।

फिर भी सीवन ( ) दिखती रही

रिक्त स्थान पर सी जोड़ने पर पंक्ति उपयुक्त लगती है क्योंकि सीवन तो स्वयमेव दिखती है अतएव सीवन-सी होना चाहिए।

जाने किसमें तुरपती रही

यहां प्रवाह रुकता है।

बातें चुन्नटों में बांधी बहुत थी

थी का प्रयोग अनावश्यक है और मात्रा भी बढ़ाता है।

खुशी गम के सलमें सितारों में

और में बाधक हैं

मैं ही जब तब ( ) टंकती रही

रिक्त स्थान पर थी जोड़ने पर पंक्ति उपयुक्त लगती है और मात्राएं भी समान हो जाती हैं।

पर अंगुश्तानों में सिसकी निकलती रही

पर का प्रयोग अनावश्यक है और मात्राएं भी बढ़ाता है।

शिल्प में उपर्युक्त दोषों के बावजूद यद्यपि कविता में प्रतीक पारम्परिक अर्थों से ही भरे हैं तथापि कुछ प्रयोग आकर्षक लगते हैं। जैसे - संस्कारों की कतरनें जोड़ी बहुत थीं में कमजोर होते संस्कारों का चित्र उभरता है। बेखबर से बाखबर और बाखबर से बेखबर दोनों प्रयोग बड़े ही आकर्षक लगते हैं जो वर्तमान से अतीत में जाने और अतीत से वर्तमान में वापस आने का अर्थ देते हैं। यह कविता कवयित्री की शिल्प के प्रति भले ही शिथिलता दर्शाती हो, लेकिन भावों में कृत्रिमता नहीं दर्शाती। कवयित्री का संघर्ष स्वयं का संघर्ष है और कविता उसकी परिणति इसीलिए उनकी कविता रेहाटरिक न बनकर पाठकों की संवेदना से सहज जुड़ जाती है।

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